The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
४ जून, १९६९
पिछली बार तुम्हारे चले जानेके बाद मै इस विषयमें काफी कुछ देखती रही, सारे दिन. इस अद्भुत समाधानकी बातमें ( ज्योतिर्मय शरीरकी बातमें) कुछ अर्थ है । जब तुमने यह बात कही तो अचानक किसी चीज- ने मूर्त्त रूप ले लिया । ' लेकिन उसमें कोई वैयक्तिक भाव न था.. । शरीरके अंदर वह ( ज्योतिर्मय शरीर) बननेकी कोई, कोई महत्वाकांक्षा, कामना या अभीप्सा नहीं है । केवल ' 'इसके' ' हों सकनेकी संभावनाके कारण एक आनंद था । अगर यह किया जाय, तो कौन, कहां और कैसेका कोई मूल्य नहीं : अगर यह किया जाय तो । मैंने उसे बड़े ध्यानसे देखा; निमिष मात्रके लिये भी उसमें यह विचार न आया. ' वास्तवमें माताजी बहुत देरतक ''टकटकी लगाये देखती रहीं' ' । उस समयका भाव ऐसा था जिसे देखनेपर हीं माना जा सकता है । शिष्यको ऐसा लगा मानों ज्योतिर्मय शक्तिका प्रपात धरतीपर झर रहा हों ।
वह यही शरीर होना चाहिये । ( माताजी अपनी त्वचाको उंगलियोंसे पकड़ती है) समझे? बस, इतना ही था. बस यह हो जाय, यह अवतार, यह अभिव्यक्ति - वह इस व्यक्तिको ले या उसको, एक जगहको लें या दूसरीको, नहीं, इस प्रकारकी कोई बात ही न थी. चीज अपने-आपमें एक अद्भुत समाधान थी । बस, इतना ही ।
तो चेतनाने अवलोकन करना शुरू किया : अगर इस शरीरमें कोई भी ऐसी चीज नहीं है जो वह बननेकी ' 'अभीप्सा'' करती हो. इससे प्रमाणित होगा कि यह उसका काम नहीं है । तब वह अद्भुत 'मुस्कान' आयी (पता नहीं कैसे अभिव्यक्त किया जाय), वह वहां थी, वह गुजरी और उसने कहा.. ( उसका बिलकुल बचकाने रूपमें अनुवाद किया जा सकता है) : ''यह तुम्हारा धंधा नहीं है! '' बस । यहीं अंत हो गया । उसके बाद मै उसमें व्यस्त न रही । ''तुम्हारा धंधा नहीं है'' का मतलब यह कि इससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं कि वह यह है या वह, या फिर वह, इससे तुम्हें सरोकार नहीं । बस इतना ही ।
लेकिन अब जो उसका अपना धंधा बन गया है -- इतने, इतने अधिक तीव्र रूपमें कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता -- वह है ''तू, तू, तू, तू ।.. .'' कोई शब्द उसका अनुवाद नहीं कर सकता : एक शब्दमें कहे तो भगवान् । वही सब कुछ है, वही सबके लिये है -- खानेके लिये : भगवान्; सोनेके लिये : भगवान्; कष्ट खेलनेके लिये. भगवान्.. और इसी तरह (माताजी दोनों हाथ ऊपरकी ओर उठाती हैं) । एक प्रकारकी स्थिरता और निश्चलताके साथ ।
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