The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
६ मई, १९७२
(माताजी ''अंदर'' देखती हैं)
क्या आप कुछ देख रहो हैं?
(मौन)
मेरा ख्याल है कि मै तुम्हें पहले हीं बता चुकी हू कि एक सुनहरी 'शक्ति' नीचे दबाव डाल रही हैं (दबानेकी मुद्रा), उसमें कोई भौतिक घनता तो नहीं है, फिर भी वह बहुत अधिक भारी मालूम होती है..
जी हां ।
.... और वह 'भौतिक द्रव्य'पर दबाव डाल रही है ताकि वह अंदरसे भगवान्की ओर मुंडे -- बाहरकी ओर मोक्ष नहीं (ऊपरकी ओर इशारा), आंतरिक रूपसे भगवान्की ओर मुड़ना । इसलिये परिणाम यही दिखायी देता है कि मानों विमीषिकाएं अनिवार्य हैं । और अनिवार्य विभीषिकाओंके इस बोधके साथ स्थितिके कुछ समाधान भी हैं । ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जो अपने-आपमें बिलकुल चमत्कारिक हैं । ऐसा लगता है कि दोनों छोर ज्यादा-से-ज्यादा पराकाष्ठापर पहुंच रहे है, मानों जो अच्छा है ज्यादा अच्छा, और जो बुरा है वह ज्यादा बुरा होता जा रहा है । बात ऐसी ही है । उस जबरदस्त 'शक्ति'के होनेसे जो जगत्पर दबाव डाल रही है - मुझे ऐसा ही लगा ।
जी हां, यह बोधगम्य है ।
हां, यह इस तरह अनुभव होती है (माताजी हवामें उंगलियां चलाती हैं), और तब, बहुत-सी चीजें, जो सामान्यत: उदासीनताके साथ होती रहती है, वे तीव्र हो जाती हैं; परिस्थितियां, भेद तीव्र हो जाते हैं; दुर्मावनाएं वती हों जाती है; और साथ ही असाधारण चमत्कार -- असाधारण! आदमी बचा लिये जाते है, मरते-मरते आदमी बचा लिये जाते है, जटिल चीजें अचानक सुलझ जाती है ।
और व्यक्तियोंके बारेमें भी यही बात है ।
जो जानते हैं कि कैसे मुड़ा जाय... (कैसे कहा जाय ?) जो सचाईके साथ भगवानको बुलाते हैं, जो यह अनुभव करते हैं कि यही एकमात्र निस्तार है, उसमेंसे निकालनेका एक ही रास्ता है, जो सचाईके साथ अपने- आपको देते है, तो.. ( सहसा फटनेका संकेत) कुछ ही मिनटोंमें चीज अद्भुत हो जाती है । छोटी-से-छोटी चीजोंके लिये -- कोई भी चीज छोटी या बड़ी, महत्त्वपूर्ण या महत्वहीन नहीं है - सबके लिये यही बात है ।
मूल्य बदलते है ।
ऐसा लगता है मानों संसारका दृश्य बदलता है ।
( मौन)
ऐसा लगता है मानों अतिमनके अवतरणसे संसारमें जो परिवर्तन आयेगा, यह उसका कुछ अनुमान देनेके लिये है । सचमुच जो चीजें उदासीन थी वे निरपेक्ष हो जाती हैं : जरा-सी भूल अपने परिणामोंमें सुस्पष्ट हो जाती
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है और जरा-सी सचाई, जरा-सी सच्ची अभीप्सा अपने परिणामोंमें चमत्कारिक हो जाती है । लोगोंमें मूल्य बढ़ गये है और भौतिक दृष्टिसे भी बहुत छोटा दोष, छोटे-सें-छोटा दोष भी बड़े परिणाम लाता है ओर अभीप्सामें जरा-सी सचाई भी आश्चर्यजनक परिणाम लाती है । मूल्य बहुत तीव्र हों गये हैं, यथार्थ बन गये है ।
माताजी, आपने दोष और भूलकी बात की है -- पता नहीं यह बुद्धि-भ्रंश है या नहीं, लेकिन मुझे अधिकाधिक यह लग रहा है कि दोष, भ्रांति आदि सब असत्य है । चीजें ऐसी नहीं है । यह एक उपाय है... कैसे कहूं? अभीप्साके क्षेत्रको विस्तृत करनेका उपाय है ।
हां, हां, बिलकुल ठीक ।
समग्रका बोध त यही है कि हर चयन हर चीजके लिये जगत् की चेतनाके आरोहणको दृष्टिमें रखकर संकल्प किया गया है । चेतना दिव्य होनेकी तैयारी कर रही है और यह बिलकुल सत्य है कि हम जिन चीजों- को दोष मानते है वे सब मिलकर सामान्य मानव अवधारणाके भाग है पूरी तरहसे, पूरी तरहसे ।
एकमात्र दोष -- अगर कोई दोष है -- वह है दूसरी चीजके लिये इच्छा न करना । लेकिन जैसे ही कोई उस दूसरी चीज- की चाह....
लेकिन यह दोष नहीं, मूढ़ता है!
लो, यह बहुत सरल है । सारी सृष्टिको भगवानके सिवा और किसी- की चाह न होनी चाहिये, भगवानको अभिव्यक्त करनेके सिवा कोई चाह न होनी चाहिये, वह जो कुछ भी करता है, यहांतक कि उसकी तथा- कथित भूलेंतक सारी सृष्टिके लिये भगवानको अभिव्यक्त करना अनिवार्य बनानेके साधन है -- लेकिन यह ''भगवान्' ' नहीं जिसकी मनुष्य कल्पना करता है, जिसे ''ऐसा होना चाहिये और वैसा नहीं'', जिसके लिये बहुत-से प्रतिबंध है. वह आश्चर्यजनक शक्ति और ज्योतिकी समग्रता हैं । वह सचमुच जगत् में 'शक्ति' है, एक नयी और आश्चर्यजनक 'शक्ति' जो जगत् में आयी है और जिसे अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहिये और ( अगर यह कहा जा सकें तो) इस दिव्य 'सर्वशक्ति' को ''अभिव्यक्ति योग्य'' बनाना चाहिये ।
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मै इस निष्कर्षपर आयी हू । मैंने देखा है, मैंने अवलोकन किया है ओर मैंने यह जाना है कि जिसे हम किसी अधिक अच्छे शब्दके अभावमें ' 'अतिमन'' कहते हैं, वह अतिमन सृष्टिको उच्चतर 'शक्ति' के प्रति अधिक संवेदनशील बना देता है । हम उसे ''भगवान्'' कहते हैं क्योंकि हम... (हम जो है उसकी तुलनामें वह दिव्य है, लेकिन...) । वह कुछ ऐसी चीज- है (अवतरण और दबावकी मुद्रा), जिसे जड-तत्वको शक्तिके प्रति अधिक संवेदनशील और अधिक... ''प्रभावनीय' ' बना देना चाहिये । फंसे कहा जाय?. अन्दर तो हमारे लिये जो कुछ अदृश्य या अगोचर हैं- वह अवास्तविक है (मैं साधारण रूपसे मनुष्योंकी बात कह रही हू), हम कहते है हिं कुछ चीजें ' 'ठोस' ' हु और कुछ नहीं हैं; फिर भी यह 'बल', यह 'शक्ति', जो भौतिक नहीं है, धरतीपर पार्थिव भौतिक वस्तुओंकी अपेक्षा अधिक ठोस रूपमें शक्तिशाली है; हां, बात ऐसी ही है ।
अतिमानव सत्ताओंके लिये यही सुरक्षा और बचावका साधन है, यह एक ऐसी चीज हलगी जो देखनेमें भौतिक नहीं है, लेकिन जिसमें भौतिक द्रव्यपर, भौतिक चीजोंकी आक्षा अधिक सामर्थ्य है । यह, यह बात दिन- पर-दिन, बल्कि घंटे-घंटे अधिकाधिक सत्य होती जा रही है । ऐसा लगता है कि यह 'शक्ति', जब उसे उससे निर्देशन मिलता है जिसे हम ''भगवान्'' कहते है, तो यह सचमुच -- समश रहे हो, भौतिक द्रव्यको परिचालित करनेमें समर्थ होती है । वह भौतिक संयोग पैदा कर सकती है, वह एक- दम भौतिक दुर्घटनासे बचा सकती है, वह एकदम भौतिक चीजके परिणामोको मिटा सकती है --- यह 'भौतिक द्रव्य'से अधिक... शक्तिशाली है । यह एकदम नयी और अबोधगम्य है, उमौर इसलिये यह मनुष्योंकी साधारण चेतनामें एक आतंक पैदा कर देती है । हां, यह वही है । ऐसा न्दगता है । यह अब वह नहीं है जौ पहले था । और सचमुच कुछ नयी चीज है -- अब य-है वह नहीं रहा जो पहले था ।
हमारी सारी सामान्य बुद्धि, हमारी सारी तर्कणा, हमारी सारी व्यावहारिक बुद्धि, सब जमीनपर पटक दी गयी है! बस खतम! -- अब उस- मे कोई वला नहीं है । कोई वास्तविकता नहीं है । जो है उसके अनुरूप नहीं रहीं । सचमुच यह एक नया जगत् है ।
( मान)
यही चीज अपने-आपको शरीरके अंदर 'नयी शक्ति' के अनुरूप बनानेमें कठिनाई अनुभव करती है और कठिनाई, अव्यवस्था और रोग पैदा करती
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है । लेकिन अचानक ऐसा लगता है कि अगर हम पूरी तरह ग्रहणशील हों तो अत्यधिक बलशाली हों जायंगे । मुझे यही लग रहा है । मुझे अधिकाधिक यह लग रहा है कि अगर समस्त चेतना (पूर्णत: भौतिक चेतना -- अधिकतम भौतिक चेतना) इस नयी 'शक्ति' के प्रति ग्रहणशील हो तो हम दु - र्जे - य बन जायंगे ।
(माताजी आंखें बंद कर लेती हैं)
लेकिन एक आवश्यक शर्त है : अहंका राज्य समाप्त होना चाहिये । अभी अहं हीं रुकावट है, अहंके स्थानपर वह दिव्य चेतना आनी चाहिये जिसे स्वयं श्रीअरविंदने ''अतिमन'' कहा है; हम उसे अतिमानस कह सकते हैं ताकि कोई गलतफहमी न हों, क्योंकि जब हम ''भगवान्'' की बात करते हैं तो लोग झट ''देव'' समझ लेते हैं और सब कुछ बिगड़ जाता है । यह ऐसा नहीं है । नहीं, यह वह नहीं है (माताजी धीरे-धीरे बंद मुट्ठियां नीचे लाती हैं) । यह अतिमानसिक लोकका अवतरण है जो शुद्ध कल्पना नहीं है (ऊपरकी ओर इशारा), यह पूरी तरह भौतिक 'शक्ति' है, लेकिन इसे भौतिक साधनोंकी (मुस्कराते हुए) जरूरत नहीं ।
एक ऐसा लोक जो जगत् में शरीर धारण करना चाहता है ।
बहुत बार ऐसे क्षण आये है जब मेरे शरीरने एक नये प्रकारकी नयी बेचैनी और चिंताका अनुभव किया; यह मानों कोई ऐसी चीज थी जो आवाज तो न थी, पर जो मेरी चेतनामें इन शब्दोंमें अनूदित हुई : ''तुम डरती क्यों हों? यह नयी चेतना है ।'' यह कई बार आयी और तब मै समझ गयी ।
समझ रहे हो, जो चीज मनुष्यकी सामान्य बुद्धिमें कहती है : ''यह असंभव है, यह कमी नहीं हुआ,'' इस चीजका अंत हों गया । वह समाप्त हों गयी, वह मूर्खतापूर्ण है । वह मूढ़ता बन गयी है । कहा जा सकता है : यह संभव है, क्योंकि यह कमी नहीं हुआ । नया जगत् है, नयी चेतना है और नयी 'शक्ति' है, यह संभव है और यह अधिकाधिक
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अभिव्यक्त हो रही है और होती रहेगी, क्योंकि यह नया जगत् है, क्योंकि यह कभी नहीं हुआ ।
यह होगा क्योंकि यह पहले कभी नहीं हुआ ।
यह सुन्दर है. यह होगा, क्योंकि यह कमी नहीं हुआ -- क्योंकि पहले कभी नहीं हुआ ।
(माताजी लंबे मौनमें चली जाती हैं)
यह भौतिक द्रव्य नहीं है, पर 'द्रव्य' से अधिक ठोस है!
जी हो, यह लगभग कुचलता हुआ है ।
कुचलता हुआ ? हां, ऐसा ही है... हां, ऐसा ही!...
जो कुछ ग्रहणशील नहीं है वह सब कुचलनेका अनुभव करता है, लेकिन जो ग्रहणशील है वह इसके विपरीत एक... एक प्रबल विस्तारका अनुभव करता है ।
जी हां, यह बहुत अजीब है, यह दोनों है !
एक ही समयमें दोनों ।
जी हां, कुछ फूलता हुआ-सा लगता है, मानों सारी चीजमें विस्फोट होनेवाला है, साथ ही कुछ चीज है जो कुचल दी जाती
हां, जो चीज कुचली जाती है वह, वह चीज है जो प्रतिरोध करती है, जो ग्रहणशील नहीं है । वह केवल अपने-आपको खोल दे तो वह चीज मानों... दुर्जेय वस्तु बन जाती है.. । यह असाधारण है । हमारी शताब्दियोंकी आदत है , है न, जो प्रतिरोध करती है और ऐसा संस्कार देती है; लेकिन जो कुछ बाहर खुल जाता है... ऐसा लगता है मानों आदमी बड़ा, वडा, बड़ा होता रहा है.. । यह बहुत भव्य है । हां, यह... ।
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