The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
७ अक्तूबर, १९६४
साधारण दृष्टिसे नहीं, उच्चतर दृष्टिसे, वस्तुओंने स्पष्ट रूपसे ज्यादा अच्छा मोड ले लिया है । लेकिन भौतिक परिणाम फिर भी मौजूद है - सभी कठिनाइयां मानों बहू. गयी हैं । केवल चेतनाकी शक्ति बढ़ गयी है - अधिक स्पष्ट, अधिक यथार्थ हो गयी है; सद्भावनावालोंपर उसकी क्रिया भी बढ़ गयी है; वे काफी बड़ी प्रगति करते हैं । लेकिन भौतिक कठिनाइयां मानों बढ़ गयी हैं, यानी यह... यह देखनेके लिये कि हम कसौटीपर खरे उतरते है कि नहीं ।
बात ऐसी है ।
अभी बहुत समय नहीं हुआ ( कल ही से तो), कोई चीज वातावरणमें स्पष्ट हो गयी है । लेकिन रास्ता अभी लंबा है - लंबा, लंबा । मुझे लगता है कि बहुत लंबा है । हमें टिकना चाहिये - टिकना, सबसे बढ़कर यही लगता है कि हमारे अंदर सहनशक्ति होनी चाहिये । ये दो चीज़ें एकदम अनिवार्य है : सहन-शक्ति और एक ऐसी श्रद्धा जिसे कोई चीज न डिगा सके, संपूर्ण प्रतीत होनेवाला निषेध भी नहीं, चाहे तुम्हें बहुत सहना पड़े, चाहे तुम ( मेरा मतलब है शारीरिक दृष्टिसे दयनीय दशामें क्यों न हो), चाहे तुम थक जाओ, फिर भी टीके रहो, चिपके रहो और टीके रहो -- सहनशक्ति होनी चाहिये । बस, यही बात' है । डटे रहो । बस, यही बात है ।
लेकिन मैंने जो कुछ सुना है, जो लोग रेडियो, सुनते हैं, अखबार पढ़ते हैं ( वे सब चीज जो मैं नहीं किया करती), उससे लगता है कि सारा संसार एक ऐसी क्रियामेंसे गुजर रहा है... जो इस समय बहुत विक्षुब्ध करती है । ऐसा लगता है कि ''पागल लगनेवालों'' की संख्या बहुत बढ़ती जा रही है । उदाहरणके लिये, ऐसा लगता है कि अमरीकामें, सभी जवान लोगोंके मस्तिष्कमें एक चकरानेवाली अजीब-सी लहर आयी है जो समझ- दार लोगोंको परेशान करनेवाली है, लेकिन निश्चय ही वह इस बातकी सूचक है कि कोई असाधारण शक्ति काममें लगी है । इससे सब आदतें और सभी नियम टूट रहे हैं - यह अच्छा है । अभीके लिये यह कुछ ''अजीब'' जरूर है, लेकिन है जरूरी ।
क्या इस समय सच्ची वृत्ति यह नहीं है कि व्यक्ति जितना हो सके उतना पारदर्शक बननेकी कोशिश करे?
पारदर्शक और नयी शक्तिके प्रति ग्रहणशील ।
मैं यह प्रश्न इसलिये करता हूं क्योंकि ऐसा लगता है कि यह पारदर्शकता है तो पारदर्शक पर कुछ-कुछ ''कुछ नहीं'' जैसी है, एक ऐसे कुछ नहीं'' की तरह जो भरा हुआ है, लेकिन फिर भी है कुछ नहीं -- पता नहीं । पता नहीं, यह एक प्रकारका उत्कृष्ट ''तमस'' न हो या...
सबसे बढ़कर विश्वस्त होना । 'जड-द्रव्य'में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि भौतिक चेतना ( यानी, 'जड-द्रव्य'में स्थित मन) कठिनाइयोंके-कठिनाइयों, रुकावटों, पीड़ाओं, संघर्षके दबावसे बनी है । कहा जा सकता है कि उन्हीं चीजोंने उसे ''रूप दिया है'' और उसपर लगभग निराशाकी, पराजयवादकी छाप लगा दी है और निश्चय ही यह सबसे बड़ी रुकावट है।
मैं अपने काममें इसीके बारेमें सचेतन हूं । सबसे अधिक भौतिक चेतना, सबसे अधिक भौतिक मन हमेशा मार खाकर काम करनेका, प्रयास करनेका, आगे बढ़नेका अभ्यस्त है; अन्यथा वह तमस् में बना रहता है । और फिर, यह जहांतक कल्पना कर सकता है, यह हमेशा कठिनाइयोंकी ही कल्पना करता है -- हमेशा रुकावट या हमेशा विरोधकी कल्पना करता है, -- और इससे गति भयंकर रूपसे धीमी पंडू जाती है । उसे यह विश्वास दिलानेके लिये कि इन सब कठिनाइयोंकी पीछे भागवत बुरा है, इन सब असफलताओंके पीछे भागवत विजय है, धुन सभी दुखों, कष्टों और परस्पर विरोधोंके पीछे भागवत आनन्द है, उसे बहुत ठोस, गोचर और बार-बार दोहरायी जानेवाली अनुभूतियोंके जरूरत होती है । सभी प्रयासोमें यह एक ऐसा प्रयास है जिसे बार-बार दोहरानेकी जरूरत होती है, जिसे हमेशा रोकनेकी, अलग करनेकी जरूरत होती है, निराशा- वादको, संदेहको, पूर्ण रूपसे पराजयवादीकी कल्पनाको रोकने, अलग करने या बदलनेकी जरूरत. होती है ।
मैं केवल भौतिक चेतनाकी बात कर रही हूं ।
स्वभावत., जब कोई चीज ऊपरसे आती है जो एक... धमाकेके साथ यूं आती है ( चपटा करनेका इंगित करते हुए), तब सब कुछ चुप हो जाता है, सब कुछ बन्द हो जाता है और प्रतीक्षा करता है । लेकिन... में भली-भांति समझ सकती हूं कि 'सत्य', 'सत्य-चेतना' अपने-आपको अधिक निरंतर रूपमें क्यों प्रकट नहीं करती, क्योंकि उसकी 'शक्ति'में और 'भौतिक
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द्रव्य' की शक्ति'में इतना अधिक अंतर है कि 'भौतिक द्रव्य' की शक्ति लग- मग रद्दसी हो जाती है -- लेकिन इसका अर्थ 'रूपांतर' नहीं, कुचल देना होगा । प्राचीन कालमें यही किया जाता था - एक ऐसी 'शक्ति' के भार तले, जिसका कोई विरोध नहीं कर सकता, जिसके साथ कोई संघर्ष नहीं कर सकता, सारी भौतिक चेतनाको कुचल दिया जाता था । तब लोगोंको लगता था : ''लो, हो गया, काम बन गया ।'' लेकिन इससे काम न बनता था, बिलकुल नहीं ! क्योंकि, बाकीकी भौतिक चेतना बिना बदले, जैसी- की-वैसी, नीचे बनी रहती थी ।
अब उसे बदलनेका पूरा-पूरा अवसर दिया जा रहा है; और हां, तो इसके लिये उसे खुलकर खेलने देना होगा, उसपर ऐसी 'शक्ति' का हस्तक्षेप न लादना होगा जो उसे कुचल डाले । में इस बातको भली-भांति समझती हूं । लेकिन इस चेतनामें मूढ़ताकी जिद होती है । उदाहरणके लिये, पीडाके समय कितनी बार, जब तीव्र पीड़ा असह्य-सी होती हुई प्रतीत होती है तो (कोषाणुओंमें) 'पुकार' की एक छोटी-सी आंतरिक गति होती है - कोषाणु मानों संकट-संदेश भेजते हैं -- सब कुछ बन्द हो जाता है, पीड़ा गायब हों जाती है और अकसर उसका स्थान आनन्दमय कल्याणकी भावना (अब अधिकाधिक रूपमें) लेती जाती है । लेकिन यह मूढ़ भौतिक चेतना अपनी पहली प्रतिक्रिया करती है : ''देखे, यह चीज कितनी देरतक टिकती है ! और स्वभावत अपनी इस गतिसे सब कुछ नष्ट कर देती है - सब कुछ फिरसे शुरू करना पड़ता है।
मेल ख्याल है कि परिणामके स्थायी होनेके लिये -- ऐसे चमत्कारिक परिणामके लिये नहीं जो आता है, आंखें चौंधिया देता है और चला जाता है -- यह जरूरी है कि वह सचमुच रूपांतरकार परिणाम हो । इसके लिये व्यक्तिमें बहुत, बहुत धीरज होना चाहिये - यहां हमें पक ऐसी चेतनासे पाला पड़ता है जो बहुत धीमी, बहुत भारी, बहुत आग्रही है, जो तेजीसे आगे नहीं बढ़ सकती, जो अपने पासकी हर चीजके साथ चिपकी जाती है; उसे जो कुछ सत्य लगता है, चाहे वह एक बहुत ही छोटा सत्य क्यों न हों, वह उसके साथ चिपक जाती है और आगे नहीं बढ़ना चाहती । इसे ठीक करनेके लिये ब्यक्तिमें बहुत, बहुत धीरज होना चाहिये - बहुत धीरज चाहिये ।
सबसे बड़ी बात है टिके रहना -- डटना, डटे रहना ।
श्रीअरविन्दने यह बात स्तुत बार कही है, अलग-अलग तरीकोंसे कही है : ''सहन करते चलो और विजय तुम्हारी होगी ।... सहते चलो -- सहते चलो, तुम पराजित कर सकोगे ।''
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सबसे अधिक सहनशीलकी ही विजय होती है ।
और इस समूहके लिये मुझे यही सीख मालूम होती है (माताजी अपने शरीरकी ओर संकेत करती हैं) -- मुझे लगता है कि ये शरीर कुछ समूह ही हैं और जबतक उनके पीछे किसी-न-किसी कारण उन्हें इकट्ठा रखनेका संकल्प-बल रहता है तबतक साथ रहते है । इन दिनों, कल या परसों, इस प्रकारकी एक अनुभूति हुई : एक प्रकारकी पूरी तरहसे विकेंद्रित चेतना (मैं हमेशा भौतिक चेतनाकी बात करती हूं, उच्चतर चेतनाकी बिलकुल नहीं), एक ऐसी विकेंद्रित चेतना जो यहां, वहां, उधर, इस शरीरमें, उस शरीरमें (उसमें जिसे लोग ''यह व्यक्ति'' या ''वह व्यक्ति'' कहते हैं, लेकिन इस धारणाका बहुत अस्तित्व नहीं है), तब कोषाणुओंकी ओर वैश्व चेतनाका मानों हस्तक्षेप-सा-हुआ । मानों उसने इन कोषाणुओंसे पूछा कि वे इस मेलको क्यों बनाये रखना चाहते हैं या यूं' कहें, इस समूह या राशिको क्यों बनाये रखना चाहते हैं ! उन्हें समझाया या अनुभव कराया गया कि वर्षोंकी संख्या बढ़नेके साथ तकलीफें कैसे बढ़ेगी, टूट-फूट, बाहरी कठिनाइयां, और अंतमें रगड़के कारण, उपयोगके कारण सारी घिसाई और विकृति - यह उन्हें एकदम उपेक्षणीय लगता था । उत्तर इस अर्थमें काफी मजेदार था कि ऐसा लगता था कि है उच्चतर 'शक्ति' के साथ संपर्ककी क्षमताको बनाये रखनेके सिवा और किसी चीजको महत्व नहीं देते । यह एक अभीप्साके जैसी चीज थी (स्वभावत:, शब्दोंके रूपमें न आयी थी), जिसे अंग्रेजीमें ''यर्निग'' या ''लौगिग'' कहते हैं, यानी भागवत शक्ति, 'सामजस्यकी शक्ति', 'सत्यकी शक्ति", 'प्रेमकी शक्ति' के साथ संपर्कके लिये ललक या लालसा थी । और इसी कारण वे वर्तमान मेलको पसंद करते है ।
यह एक बिलकुल अलग दृष्टिकोण है ।
मैं इसे मनके शब्दोंके द्वारा समझा रही हूं, क्योंकि और कोई उपाय ही नहीं है, लेकिन यह कोई और चीज न होकर संवेदनके क्षेत्रकी चीज थी । और यह बिलकुल स्पष्ट थीं -- यह बहुत स्पष्ट और बहुत अविच्छिन्न थी, इसमें कोई उतारचढ़ाव न थे । हां, तो ऐसे समय इस वैश्व चेतनाका हस्तक्षेप हुआ और उसने कहा : ''यह रही रुकावटें ।'' ये रुकावटें स्पष्ट रूपसे दिखाती दी (मनकी निराशाका यह प्रकार -- एक ऐसे मनकी जिसने अभी रूप ग्रहण नहीं किया है, जो पैदा होनेको है और अपने-आपको कोषाणुओंमें व्यवस्थित करनेको है), लेकिन स्वयं कोषाणुओंने इसकी जरा भी परवाह न की; यह चीज उन्हें एक बीमारीके रूपमें दिखायी दी (यह शब्द विकार है, लेकिन उन्हें ऐसा लगा कि मानों कोई दुर्घटना या अनिवार्य रोग था या कोई ऐसी चीज थी जो उनके सहज विकासका अंश न थी और
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उनपर लाद दी गयी थी) । और फिर, उस क्षणसे, एक प्रकारकी घटिया शक्तिने जन्म लिया जो इन चीजोंपर (भौतिक मनपर) क्रिया कर सके; उसने वह द्रव्यात्मक शक्ति दी जो अपने-आपको इससे मुक्त कर सके और देंसे त्याग सके ! और इसके बाद वह मोड आया जिसकी मैंने अभी बात की है, समग्र परिस्थितियोंमें' मोड, मानों सचमुच कोई निर्णायक चीज हुई है । एक विश्वासपूर्ण आनंद था. ''आहा ! हम इस दुःस्वप्नसे मुक्त हैं ।''
और साथ-ही-साथ, एक छुटकारा -- एक भौतिक छुटकारा, मानों हवामें सांस लेना ज्यादा आसान हों गया है... हां, कुछ-कुछ ऐसा मानों हम सीपमें -- दम घोटनेवाली सीपमें बंद हों -- और... बहरहाल, उसमें एक छिद्र बन गया हो । और तुम सांस लेने लोग । मुझे नहीं मालूम कि यह इससे कुछ अधिक था या नहीं । यह ऐसा है मानो कहीं दरार पंड गयी, एक छेद बन गया और अब सांस ली जा सकती है ।
और यह सर्वथा भौतिक, कोषाणुगत कार्य था ।
लेकिन जैसे ही तुम इस क्षेत्रमें, कोषाणुओंके क्षेत्रमें, उनके संघटनमें उतरते हो तो ऐसा लगता है कि वे कम भारी हो गये है । 'भौतिक द्रव्य'- का इस प्रकारका भारीपन गायब होने लगता है - वह फिरसे द्रव, स्पंदन-शील होने लगता है । इससे यह प्रमाणित होता है कि भारीपन, मोटापन, तमस, निश्चलता पीछेसे जोड़ी हुई चीजों हैं, तात्विक और अनिवार्य गुण नहि हैं... । हम जिसे अनुभव करते, जिसके बारेमें सोचते है वह मिथ्या 'भौतिक द्रव्य' है, स्वयं 'भौतिक द्रव्य' नहीं । यह स्पष्ट हो गया ।
( मौन)
आदमी अच्छे-सें-अच्छा यही कर सकता है कि कोई पक्ष न ले, पहलेसे सोचे हुए विचार या सिद्धांत न अपनाये -- ओह ! ये नैतिक सिद्धांत, आचारणके बंधे नियम, आदमीको क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये और नैतिक दृष्टिसे पूर्व-कल्पित विचार, प्रगति और नैतिक और मानसिक रूढ़ियोंके अनुसार पूर्वकल्पित विचार... इनसे बुरी कोई और बाधा नहीं हो सकती । ऐसे लोग हैं, मैं ऐसे लोगोंको जानती हूं जिन्हेंने इन मानसिक रचनाओंमेंसे एकपर विजय पानेके लिये दशाब्दिया नष्ट की हैं । ... अगर कोई इस तरह रह सके, खुला -- सरलतामें सचमुच खुला रह सके, है न, एक ऐसी सरलतामें जो जानती है कि वह अज्ञानी है -- इस तरह ( ऊपरकी ओर, आत्म-समर्पणका संकेत करते हुए), जो कुछ आये उसे लेनेके लिये तैयार रहे, तो कुछ हों सकता है ।
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और स्वभावतः, प्रगतिकी प्यास, ज्ञानकी प्यास, अपने-आपको रूपांतरित करनेकी प्यास और इन सबसे बढ़कर दिव्य 'प्रेम' और 'सत्य' की प्यास - अगर तुम इस प्यासको रख सको तो गति तेज होगी । सचमुच प्यास हो, एक आवश्यकता हो, आवश्यकता ।
बाकी सबका कोई महत्व नहीं है । सचमुच आवश्यकता बस इसीकी है । किसी ऐसी चीजके साथ चिपके रहना जिसे तुम समझते हों कि तुम जानते हों, किसी ऐसी चीजके साथ चिपके रहना जिसे तुम अनुभव करते हो, किसी ऐसी चीजके साथ चिपके रहना जिसे तुम प्यार करते हो, अपनी आदतोके साथ चिपके रहना, तथाकथित आवश्यकताओंके साथ चिपके रहना, इस संसारके साथ, जैसा कि वह है, चिपके रहना यही चीजों हैं जो तुम्हें बांधती है । तुम्हें एकके बाद एक इन सब चीजोंको खोलना होगा । सब गांठोंको खोलना होगा । यह बात हजारों बार कही जा चुकी है, फिर भी लोग वही चीज किये जाते है.. - । ऐसे लोग भी जो बोलनेमें बहुत होशियार हैं और दूसरोंको इस बातका उपदेश देते है, वे भी रहते हैं - वे अपने देखनेके ढंगसे, अपने अनुभव करनेके ढंगसे, अपनी प्रगतिके अभ्याससे चिपके रहते हैं । उन्हें लगता है कि उनके लिये वही एकमात्र रास्ता है ।
बस, और बंधन नहीं - स्वाधीन, स्वाधीन । हर समय केवल एक चीजको छोड़कर सब कुछ बदलनेके लिये तैयार : वह चीज है अभीप्सा, यह प्यास ।
मैं भली-भांति समझती हू, ऐसे लोग हैं जो ''भगवान्'' के विचारकों पसंद नहीं करते, क्योंकि यह तुरंत यूरोपीय या पाश्चात्य धारणाओंके साथ घुलामिला जाता है (जो अपने-आपमें भयंकर हैं), और इससे उनके जीवनमें कुछ उलझनें आती हैं - लेकिन तुम्हें उसकी जरूरत नहीं है । तुम्हें उस ''कुछ चीज'' की जरूरत है, तुम्हें 'प्रकाश' की जरूरत है, तुम्हें 'प्रेम' की जरूरत है, तुम्हें 'सत्य' की जरूरत है, तुम्हें चरम 'पूर्णता' की जरूरत है - और बस इतना ही । और सूत्र -- सूत्र जितने कम हों उतना अच्छा । लेकिन वह चीज, वह आवश्यकता, जिसे वह 'वस्तु-विशेष' ही पूरा कर सकतीं है - उसके सिवा और कुछ नहीं, कोई अधकचरा उपाय नहीं, केवल वही । और फिर, तुम चल पड़ा!... तुम्हारा मार्ग तुम्हारा मार्ग होगा, उसका कोई महत्व नहीं है -- वह कोई भी क्यों न हो, कोई भी, आधुनिक अमरीकी युवाओंकी उच्छृंखलताका मार्ग भी हो सकता है, इसका कोई महत्व नहीं ।
जैसा श्रीअरविन्दने कहा है : ''अगर तुम भगवानका प्रेम नहीं पा सकते तो ठीक है उनसे युद्ध करनेके लिये तैयार हो जाओ । अगर वे तुम्हें प्रेमिका आलिंगन न दें तो कुश्तीमें पहलवानका आलिंगन ही सही''' (.. क्यों- कि निश्चित रूपसे वे ही जीतेंगे) ।
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