CWM (Hin) Set of 17 volumes
शिक्षा 401 pages 2000 Edition
Hindi Translation

ABOUT

Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.

शिक्षा

The Mother symbol
The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Collected Works of The Mother (CWM) On Education Vol. 12 517 pages 2002 Edition
English Translation
 PDF     On Education
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The Mother

This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' शिक्षा 401 pages 2000 Edition
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अध्यापक

 

 किसी बच्चे को देने लायक सबसे अनमोल उपहार है उसमें सीखने के लिये ललक पैदा करना, हमेशा और हर जगह सीखते रहना ।

 

*

 

  हर जीवित सत्ता के लिये अपने-आपको जानना और अपने ऊपर काबू रखना सीख लेना एक अमूल्य संपदा हैं । अपने-आपको जानने का अर्थ है अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का हेतु जानना, अपने अंदर जो कुछ होता है उसका 'क्यों' और 'कैसे ' जानना । अपने-आप पर काबू पाने का अर्थ हैं जो निक्षय कर लिया है वही करना, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं, आवेगों, कामनाओं या सनको की न तो सुनना और न उनका अनुसरण करना ।

 

  स्पष्ट हैं कि किसी बालक को नैतिक नियम बतलाना कोई आदर्श चीज नहीं है; लेकिन उसके बिना काम चलाना बहुत कठिन हैं । जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता जाये, उसे सभी नैतिक और सामाजिक नियमों की सापेक्षता बतलायी जा सकती हैं ताकि वह अपने अंदर उच्चतर और सत्यतर नियम को पा सके । लेकिन इस मामले मै सावधानी से आगे बढ़ना चाहिये और सच्चे नियम को खोज पाने की कठिनाई पर जोर देना चाहिये । जो मानव विधि-विधान को अस्वीकार करके अपनी स्वाधीनता की घोषणा करते हैं और कहते हैं कि हैं '' अपना हीं जीवन जीते हैं' ' उनमें अधिकतर अति सामान्य प्राणिक गतिविधि की आज्ञा के अनुसार चलते हैं और उसे अपनी आंखों मे न सही, कम-से-कम दूसरों की आंखों मे मजरूह देकर न्यायसंगत ठहराने की कोशिश करते हैं । वे नैतिकता को सिर्फ इसलिये ठोकर मारते हैं क्योंकि वह उनकी सहजवृत्तियां की तुष्टि मे बाधक होती हैं ।

 

  किसी को नैतिक और सामाजिक विधानों के बारे में कोई निर्णय करने का अधिकार तबतक नहीं हैं जबतक कि वह उनसे अपर का आसन न पा ले; आदमी उन्हें तबतक नहीं छोड़ सकता जबतक कि उनके स्थान पर कोई ज्यादा ऊंची चीज प्रतिछित न कर ले, जो इतना आसान नहीं है ।

 

  बहरहाल, बच्चे को हम जो अच्छे-से-अच्छा उपहार दे सकते हैं वह हैं उसे अपने- आपको जानना और अपने अपर शासन करना सिखलाना ।

 

(जुलाई १९३०)

 

*

 


सफल अध्यापक के व्यक्तित्व की विशेषताएं'

 

  १. पूरा-पूरा आत्म-संयम, केवल इतना ही नहीं कि अपना क्रोध न दिखलाओ, बल्कि सभी परिस्थितियों में पूरी तरह शांत, स्थिर और अविचल बने रहना ।

 

  २. आत्मविश्वास के मामले में, अपने महत्त्व की सापेक्षता का भी भान होना चाहिये ।

 

  सबसे बढ़कर, यह जान होना चाहिये कि अगर अध्यापक चाहता है कि उसके विद्यार्थी प्रगति करें तो स्वयं उसे भी हमेशा प्रगति करनी चाहिये । उसे कभी, वह जो हैं या वह जितना जानता है उससे संतुष्ट न होना चाहिये ।

 

  है. अध्यापक में अपने विद्यार्थियों के प्रति मूलभूत श्रेष्ठता का भाव न होना चाहिये और न हीं उनमें से किसी के लिये वरीयता या आसक्ति ।

 

  ४. उसे यह मालुम होना चाहिये कि आध्यात्मिक दिष्टि से सब समान हैं और उसके अंदर केवल सहिष्णुता की जगह व्यापक बोध और समझ होनी चाहिये ।

 

  ५. '' अध्यापक और मां-बाप दोनों का यह काम हैं कि बच्चे को अपने-आपको शिक्षित करने के योग्य बनाये और इसमें उसको मदद करें, उसे अपनी बौद्धिक, नैतिक, सौंदर्य-बोधात्मक और व्यावहारिक क्षमताओं को विकसित करने और एक मूलभूत सत्ता के रूप मे खुले तौर पर विकसित होने मे मदद दें जिसे जड़ लोचदार पदार्थ की तरह कोई आकार देने के लिये गूंथना या दाबने की जरूरत नहीं । '' (श्रीअरविन्द ''मानव क्रम-विकास' ')

 

(जून १५५४ में प्रकाशित)

 

*

 

  यह कभी न भूलो कि एक अच्छा अध्यापक होने के लिये तुम्हें अपने अंदर सें समस्त अहंकार का उन्मूलन करना होगा । '

 

(१० दिसम्बर १९६०)

 

*

 

  और श्रीअरविन्द के बतलाये अतिमानसिक सत्य के अनुसार पढ़ने के योग्य होने के लिये तुम्हारे अंदर अहंकार बिलकुल न रहना चाहिये । '

 

(दिसंबर १९६०)

 

*

 

१.किसी शिक्षक-प्रशिक्षण-महाविद्यालय की प्रश्नावली पर माताजी की टिप्पणियां। २.अध्यापकों की वार्षिक बैठक के लिए संदेश ।

३.अध्यापकों की वार्षिक बैठक के लिए संदेश ।

 

समस्त अध्ययन, कम-से-कम अध्ययन का अधिकांश, भूतकाल के बारे में सीखना ही होता हैं, उससे आशा की जाती है कि उसके सहारे तुम वर्तमान को ज्यादा अच्छी तरह समझ सकोगे । लेकिन अगर तुम इस खतरे से बचना चाहते हो कि विद्यार्थी कहीं भूत से ही न चिपटे रह जायें और भविष्य मे देखने से इंकार कर दें तो तुम्हें हैं बड़ा ? सावधानी के साथ उन्हें यह समझाना चाहिये कि भूतकाल में जो कुछ हुआ  उसका उद्देश्य था, आज जो हो रहा हैं उसकी तैयारी करना, और यह कि आज जो कुछ हों रहा हैं वह भविष्य की ओर ले जानेवाले मार्ग की तैयारी से बढ़कर कुछ नहीं है । वह भविष्य ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज है जिसके लिये हमें तैयारी करनी चाहिये ।

 

 अंतर्भाव को पोषण देकर ही तुम भविष्य में ज़ीने की तैयारी कर सकते हो ।

 

(१८-९-१९६७)

 

*

 

  भूतकाल की जगह भविष्य के बारे में सोचों ।

 

(१५-१२-१९७२)

 

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