Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
मानवजाति का उपकार
जो व्यक्ति पूर्ण योग की साधना करना चाहता है उसके लिये मानवजाति की भलाई अपने-आप मे लक्ष्य नहीं हो सकती, यह तो केवल एक परिणाम और फल है । मानव-अवस्थाओं को सुधारने के समस्त प्रयत्न, उन्हीं अवस्थाओं के द्वारा प्रेरित तीव्र उत्साह और लगन के होते हुए मी, अंत में बुरी तरह असफल हीं हुए हैं । इसका कारण यह है कि मानव जीवन की अवस्थाओं का रूपांतर केवल तभी हो सकता हैं जब उससे पहले एक प्रारंभिक रूपांतर, अर्थात् मनुष्यों की चेतना का रूपांतर साधित हों जाये, या कम-से-कम उन थोड़े-से विशिष्ट व्यक्तियों की चेतना का रूपांतर तो हो हीं जाये जो एक अधिक व्यापक रूपांतर का आधार तैयार कर सकते हों ।
किंतु इस विषय पर हम थोडी देर बाद आयेंगे; यह हमारे विषय का उपसंहार होगा । पहले तो मैं इसके दो प्रभावशाली दृष्टांत के विषय मे कुछ कहूंगी जो सच्चे परोपकारी व्यक्तियों के दृष्टांत से लिये गये हैं ।
ये दो दृष्टांत दो प्रसिद्ध व्यक्तियों के हैं जो विचार और कर्म के दो छोरों का प्रतिनिधित्व करते हैं । उन दो उत्कृष्ट मानव आत्माएं ने, जिनकी अभिव्यक्ति एक संवेदनशील एवं दयालु हृदय के रूप में हुई थीं, मानवजाति का कष्ट अनुभव किया और उनकी अंतरात्माओं में एक-सा संवेदन उत्पन्न हुआ । दोनों ने अपना समस्त जीवन अपने मनुष्य-सथियों के कष्ट निवारण के उपाय की खोज मे अर्पण कर दिया । और दोनों का यह विश्वास था कि उन्होंने यह उपाय ढूंढ लिया हैं । किंतु दोनों के समाधान, जो परस्पर विरोधी कहे जा सकते हैं, अपने-अपने ढंग से अपूर्ण और आशिक होने के कारण असफल रहे और मनुष्य के कष्ट भी वैसे-के-वैसे ही बने रहे।
एक उदाहरण पूर्व का है-राजकुमार सिद्धार्थ का जो पीछे बुद्ध कहलाये और दूसरा पश्चिम का- श्री वैसा (Monsieur Vincent) जिन्हें उनकी मृत्यु के बाद लोगों ने संत वैसा द पोल की उपाधि दी । कहा जा सकता है कि ये दोनों मानवीय चेतना के दो छोरों पर स्थित थे । इनके उपकार के ढंग पूर्णतया एक-दूसरे के विरोधी थे, फिर भी दोनों का यह विश्वास था कि मुक्ति आत्मा के द्वारा, उस परम सत्ता के दुरा ही हो सकतीं है जो विचार से परे हैं; एक उसे भगवान् कहते थे और दूसरे निर्वाण ।
संत वैंसां द पोल का विश्वास अत्यंत उत्कट था और उन्होंने अपने साथियों को भी यही उपदेश दिया कि मनुष्य को अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिये । किंतु जब वह मानवीय दुःखों के संपर्क मे आये तो उन्हें शीघ्र हीं ज्ञात हो गया कि आत्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य के पास उसे खोजने के लिये समय होना चाहिये । जिन लोगों को प्रातः से सायं तक और कभी-कभी सायं से प्रातः तक भी, जरा-सी कमाई के लिये, जो उन्हें जीवित रखने के लिये मी शायद ही पर्याप्त होती हो, कठोर परिश्रम करना पड़ता है, उन्हें अपनी आत्मा के विषय में सोचने का अवकाश हीं कहां मिलता है?
तब बे अपने दयालु हृदय की सरलता के साध इस निर्णय पर पहुंचे कि जिन लोगों के पास आवश्यकता सै अधिक धन हैं, वे यदि, कम-से-कम, गरीब लोगों की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर दें तो दुःखी लोगों को अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिये समय मिल सकता है । वे सामाजिक कार्यों के गुण तथा प्रभाव मे, एक सक्रिय एवं भौतिक उपकार मे विश्वास रखते थे । उनकी यह धारणा थीं कि दुःख का अंत तभी हो सकता हैं जब अधिकतर व्यक्ति कष्ट से मुक्त हों जायें, अधिक-से- अधिक व्यक्तियों का, अधिकतम व्यक्तियों का दुःख-मोचन हो जाये । किंतु यह केवल शामक औषध हैं, दुःख का इलाज नहीं । तथापि जिस पूर्ण लगन और आत्म- त्याग के साथ संत वैसा ने अपना कार्य किया था, उसने इन्हें मानव इतिहास में एक अत्यधिक उज्ज्वल और प्रभावशाली व्यक्ति बना दिया । किंतु फिर भी ऐसा प्रतीत होता हैं कि उनके प्रयत्नों ने दीन और असहाय मनुष्यों की संख्या बढ़ायी हीं, घटाती नहीं । यह सत्य है कि उनके उपदेशों का एक बड़ा ठोस परिणाम यह हुआ कि धनिकों के एक विशेष वर्ग के मन में उपकार को एक दृढ़ भावना उत्पन्न हो गयी और इसी कारण जिन लोगों का उपकार किया गया उनकी अपेक्षा उपकार करनेवालों को अधिक लाभ पहुंचा ।
चेतना के ठीक दूसरे छोर पर थे उच्च और पावन करुणावाले बुद्ध । उनके अनुसार कष्ट जीवन का ही परिणाम हैं और वह जीवन को नष्ट करने से ही नष्ट हो सकता है । क्योंकि जगत् और जीवन मनुष्य की जीवित रहने की इच्छा का परिणाम एवं अज्ञान का फल हैं; इच्छा का नाश करो, अज्ञान को करो और तब जगत् और उसके साथ-ही-साथ दुःख और कष्ट भी विलुप्त हो जायेंगे । एकाग्रता के महान प्रयत्न के दुरा उन्होंने एक साधना का, एक ऐसी उच्चतम और अत्यंत प्रभावशाली साधना का विकास किया जो मुक्ति के पिपासुओं को इससे पहले कभी उपलब्ध नहीं हुई थीं । लाखों मनुष्यों ने उनकी शिक्षा को स्वीकार किया, यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम थीं जो उसे व्यवहार में भी ला सकते हों । किंतु संसार की अवस्था अब भी वैसी हीं है , मानवीय कष्टों में कहीं मी कोई विशेष कमी दृष्टिगोचर नहीं होती ।
तब भी लोगों ने उनके प्रति कृतज्ञता और सम्मान का भाव प्रकट करने के लिये एक को संत की उपाधि प्रदान की है और दूसरे को देवता का पद । किंतु बहुत हीं कम ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हेंने सच्चे दिल से उस शिक्षा या आदर्श को, जो उनके सामने रखा गया था, व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न किया हो, यद्यपि ऐसा करना हीं कृतज्ञता-प्रदर्शन का एकमात्र वास्तविक ढंग है । पर, यदि ऐसा हुआ भी होता, तो भी मनुष्य-जीवन की स्थिति मे कोई प्रत्यक्ष सुधार न होता । कारण, सहायता करना कोई इलाज नहीं हैं, न हीं पलायन का अर्थ है विजय । शारीरिक कष्टों का निवारण-यह समाधान संत वैसा द पोल का था-किसी भी प्रकार मनुष्यों को उनके दुःखों ३ग़ैर कष्टों से मुक्त नहीं कर सकता; कारण, समस्त मानव कष्ट भौतिक अभावों से हीं नहीं
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उत्पत्र होते और न हीं केवल बाह्य साधनों दुरा किये जा सकते हैं । बात इससे बिलकुल दूसरी हैं । शारीरिक कुशल-क्षेम से हीं आवश्यक रूप मे सुख और शांति नहीं मिलती, दरिद्रता मी आवश्यक रूप मे कोई दुःख का कारण नहीं हैं, जैसा कि उन सुप्रस्वियों के उदाहरण से स्पष्ट है जो दरिद्रता को अपनाते थे, जो अपनी अकिंचनता को हीं पूर्ण शांति और आनंद का स्रोत एवं कारण समझते थे । ऐसे उदाहरण सभी देशों मे मिलते हैं । इसके विपरीत, संसार के सुखों का उपभोग भी-उन सब सुखों का जिन्हें स्थूल धन सुख, आराम और बाह्य संतोषों के रूप में अपने साथ लाता है-उस मनुष्य को दुःख और कष्ट के आक्रमण सें नहीं बचा सकता जिसके पास ये सब वस्तुएं हों ।
दूसरा समाधान, जो बुद्ध का हैं, अर्थात् जीवन से पलायन भी समस्या का हल नहीं कर सकता । यह मान भी लिया जाये कि बहुत-से व्यक्ति इस साधना का अभ्यास करके अंतिम मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, तब मी इसके द्वारा पृथ्वी से दुःख का लोप नहीं हो सकता, न हीं दूसरों के, अर्थात् उन सबके कष्ट हीं किये जा सकते हैं जो अभी इस निर्वाण-पथ का अनुगमन करने मे समर्थ नहीं ।
वस्तुत: सच्ची प्रसन्नता वह है जिसे मनुष्य प्रत्येक स्थिति मे, चाहे वह कैसी भी हो, अनुभव कर सके, क्योंकि वह जिस लोक से आती हैं उस पर बाह्य अवस्थाओं का कोई प्रभाव नहीं पंडू सकता । किंतु वह प्रसन्नता बहुत कम लोगों के हिस्से मे आती है, अधिकतर लोग तो अभीतक पार्थिव अवस्थाओं के वश मे हैं । अतएव हम कह सकते हैं कि एक ओर तो मानव चेतना मे परिवर्तन होना अत्यंत आवश्यक है, और दूसरी ओर, पार्थिव वायुमंडल के पूर्ण रूपांतर के बिना मनुष्य-जीवन की अवस्थाओं मे कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं हो सकता । हर हालत में उपाय एक ही है : पृथ्वी पर तथा मनुष्य में, एक साथ हीं, एक नयी चेतना की अभिव्यक्ति होनी चाहिये । इस संसार में अतिमानसिक चेतना का अवतरण और उसके साथ-ही-साथ एक नयी शक्ति, नये प्रकाश और बल का प्रादुर्भाव ही मनुष्य को उस दुःख, पीड़ा और कष्ट से मुक्त्ति कर सकता हैं जिसमें वह आपादमस्तक डूबा पड़ा हैं । कारण, केवल अतिमानसिक चेतना ही पृथ्वी पर एक उच्चतर संतुलन, एक अधिक पवित्र और सच्चा प्रकाश उतार कर रूपांतर के महान चमत्कार को साधित कर सकतीं हैं ।
इस नयी अभिव्यक्ति के लिये हीं प्रकृति यत्नशील हैं । किंतु इसके मार्ग यातनापूर्ण हैं और प्रगति अनिश्चित उसे स्थान-स्थान पर रुकना और पीछे हटना पड़ता है, यहांतक कि उसका सच्चा प्रयोजन समझना भी कठिन ही जाता हैं । फिर मी, यह अधिकाधिक स्पष्ट हो रहा हैं कि वह मनुष्यजाति मे से एक नयी जाति, अतिमानसिक जाति का प्रादुर्भाव करना चाहती हैं; हंस जाति का मनुष्य के साथ वही आनुपातिक संबंध होगा जो मनुष्य का पशु के साथ है । किंतु इस रूपांतर के लिये, एक नयी जाति के सृजन के लिये अंधे परीक्षण और अन्वेषण करने में सदियां लग सकतीं हैं; जब कि मनुष्य की विवेकपूर्ण इच्छा-शक्ति से यह कार्य न केवल थोड़े समय में ही,
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किंतु बिना अपव्यय और हानि के भी साधित हो सकता हैं ।
ठीक इसी प्रसंग में पूर्णयोग के उपयुक्त्त स्थान और उसकी उपयोगिता का पता चलता है । कारण, योग का उद्देश्य एकाग्रताऔर प्रयत्न की तीव्रता के दुरा उस विलंब पर विजय प्राप्त करना जिसे काल किसी भी आमूल रूपांतर और नये सृजन के कार्य पर थोप देता है ।
पूर्णयोग का अर्थ यह नहीं हैं कि व्यक्ति इस भौतिक जगत् को स्थिर रूप सें इसके भाग्य पर छोड्कर इससे मांग खड़ा हों । न ही यह योग भौतिक जीवन को, जिस रूप मे यह है, बिना किसी निक्षयात्मक परिवर्तन की आशा के स्वीकार हीं करता है । यह जगत् को भागवत इच्छा की अंतिम अभिव्यक्ति के रूप मे अंगीकार नहीं करता ।
पूर्णयोग का ध्येय हैं चेतना की सब पीढ़ियों पर, साधारण मानसिक चेतना से लेकर अतिमानसिक और भागवत चेतना तक, आरोहण करना और जब यह आरोहण पूरा हो जाये तो वापिस इस जड़ जगत् की ओर लौटना और इस प्रकार से प्राप्त अतिमानसिक शक्ति और चेतना को इसमें संचारित करना, ताकि यह पृथ्वी क्रमश: अतिमानसिक और दिव्य जगत् में रूपांतरित हो जाये ।
पूर्णयोग विशेषकर उन लोगों के प्रति अभिमुख होता है जिन्हेंने वह सब कुछ पा लिया है जिसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है, लेकिन फिर भी संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि वे जीवन से उस चीज की मांग करते हैं जो वह नहीं दे सकता । जो अज्ञात को जानने के लिये आतुर हैं, जो पूर्णता के लिये अभीप्सा करते हैं, जो अपने से वेदनाप्रद प्रश्र पूछते हैं और जिन्हें उनका कोई शिक्षित उत्तर नहीं मिलता, ठीक वही लोग पूर्णयोग के लिये तैयार कहे जा सकते हैं ।
कुछ ऐसे आधारभूत प्रश्र भी हैं जिन्हें वे लोग, जो मानवजाति के भाग्य में रुचि रखते हैं और प्रचलित सद्धांतों से संतुष्ट नहीं हैं, अनिवार्य रूप में, अपने से पूछते हैं । उन्हें इन शब्दों में रखा जा सकता है
यदि मरना हीं हैं तो जन्म क्यों लिया जाये?
यदि दुःख ही भोगना है तो जीवन क्यों धारण करें?
यदि वियोग हीं होना है तो प्रेम क्यों किया जाये?
यदि स्व ही करनी है तो विचार क्यों करें?
यदि गलतियां हीं करनी हैं तो कार्य क्यों करें?
इनका समुचित उत्तर केवल एक ही हो सकता हैं कि अवस्थाएं वैसी नहीं हैं जैसी होनी चाहिये । और ये विरोध केवल अनिवार्य ही नहीं हैं, बल्कि इनका उपाय भी हो सकता हैं और एक दिन ये कभी हो जायेंगे । कारण जगत् का वर्तमान स्वरूप ऐसा नहीं हैं कि उसका समाधान न हो सके । पृथ्वी संक्रमण-काल में सें मुजर रही हैं । यह काल मानवीय चेतना को लंबा अवश्य प्रतीत होता हैं, क्याकि उसकी अपनी अवधि बहुत अल्प हैं। पर सनातन चेतना के लिये यह बहुत छोटा हैं । यह काल
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अतिमानसिक चेतना के प्रकट होने के साथ ही समाप्त हो जायेगा । तब असंगति का स्थान सुसंगति ले लेगी और विरोध का स्थान समन्वय ले लेगा ।
यह नयी सृष्टि, अनिमानवजाति का यह प्रादुर्भाव, अत्यधिक अनुमान और विवाद का विषय रहा है । अतिमानव कैसा होगा इस विषय में थोड़े-बहुत रोचक रूपकों की कल्पना करने मैं मनुष्य को आनंद आता हैं । किंतु ''समान' ' हीं ''समान' ' को जानता हैं। दिव्य प्रकृति की चेतना को फल रूप मे प्राप्त करके ही व्यक्ति यह सोच सकता है कि उस दिव्य प्रकृति की अभिव्यक्ति का क्या रूप होगा । तथापि, जिन लोगों ने इस चेतना को अपने अंदर उपलब्ध कर लिया है बे सामान्यत: अतिमानव का वर्णन करने की अपेक्षा इस बात के लिये अधिक उत्सुक हैं कि स्वयं अतिमानव बन जायें ।
फिर भी, यह बताना होगा कि अतिमानव निश्चित रूप में क्या नहीं होगा, ताकि मार्ग में आनेवाली कुछ भ्रांतियों से बचा जा सके । उदाहरणार्थ, मैंने कहीं पढ़ा है कि अतिमानवजाति अपने फल रूप मे कूर तथा संवेदनको होगी । चूंकि अतिमानव दुःख- कष्टों से अपर होंगे, वे दूसरों के दुःख-कष्टों को कोई महत्त्व नहीं देंगे, हैं उन्हें उनकी अपूर्णता और हीनता का लक्षण समझें । निःसंदेह, जो ऐसा सोचते हैं वे अतिमानव और मानव के संबंध को उसी भाव से देखते हैं जिस भाव सें एक मनुष्य अपने हीन साथी-प्राणियों, अर्थात् पशुओं को देखता हैं । किंतु यह व्यवहार उच्चता का प्रमाण होना तो छू रहा, अचेतनता और मूर्खता का एक निशित लक्षण है । यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ज्यों ही मनुष्य ऊंचे स्तर पर पहुंचता हैं, वह पशुओं के प्रति दया अनुभव करने लगता हैं तथा उनकी दशा सुधारने का प्रयत्न करता हैं । किंतु इस बात में अतिमानव संवेदनशील हों जाता हैं , सत्य का कुछ अंश अवश्य है; वह यह कि उस उच्चतर जाति में अहंभावयुक्त्त, दुर्बल और भावुक प्रकार की दया नहीं होगी जिसे मनुष्य उदारता कहते हैं । यह दया उतनी फलप्रद नहीं, जितर्नो हानिकारक हैं । इसका स्थान एक ऐसी प्रबुद्ध और सशक्त करुणा ले लेगी जिसका प्रयोजन केवल कष्टों का सच्चा इलाज करना होगा, न कि उन्हें स्थायी बनाना ।
इसके अतिरिक्त, यह विचार इस बात पर प्रकाश डालता है कि पृथ्वी पर प्राणिक सत्ताओं के आधिपत्य का क्या रूप होगा । हैं सत्ताएं अपनी प्रकृति में अमर हैं और अपनी क्षमताओं में मनुष्य से कहीं अधिक शक्तिशाली, किंतु वे अपनी संकल्पशक्ति में भगवान् की अटल विरोधिनी मी हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व मे उनका कार्य भगवान् की प्राप्ति को तबतक टालते रहना वे जबतक कि इस प्राप्ति के यंत्र, अर्थात् मनुष्य सब बाधाओं को पार करने के लिये पर्याप्त रूप मे पवित्र, सशक्त और पूर्ण नहीं हो जाते । बेचारी पीड़ित पृथ्वी को ऐसे अशुभ आधिपत्य की संभावना से सचेत कर देना शायद सर्वथा अनुपयोगी न हो ।
जबतक अतिमानव स्वयं आकर मनुष्य को अपने सच्चे स्वभाव का प्रमाण न दे दे,
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प्रत्येक सद्भावनापूर्ण व्यक्ति के लिये बुद्धिमत्ता का काम यह होगा कि वह उन सबके बारे मे सचेतन हो जाये जिसे वह सर्वाधिक सुन्दर, श्रेष्ठ, सत्य, पवित्र, उज्ज्वल तथा उत्कृष्ट समझता है; वह इस बात की अभीप्सा करे कि यह विचार संसार तथा अन्य व्यक्तियों के परम हित के लिये उसके अंदर चरितार्थ हो जाये ।
('बुलेटिन', नवम्बर १९५४)
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