Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
पाठ्यक्रम
माताजी ओर श्रीअरविन्द के ग्रंथों का अध्ययन
मधुर मां आपकी और श्रीअरविन्द की पुस्तकों को किस तरह पढ़? जाये ताकि बे केवल मन के दुरा सनम में आने की जगह हमारी चेतना मे घुस जायें?
मेरी किताबें पढ़ना मुश्किल नहीं है क्योंकि बे बहुत सरल, लगभग बोलचाल की भाषा में लिखी गयी हैं । उनसे लाभ उठाने के लिये इतना काफी हैं कि उन्हें ध्यान और एकाग्रता के साथ, आंतरिक सद्भावना की वृत्ति से, उनमें जो शिक्षा दी गयी हैं उसे ग्रहण करने और जीवन में उतारने की इच्छा से पड़ा जाये ।
श्रीअरविन्द ने जो लिखा हैं उसे समझना कुछ ज्यादा कठिन है क्योंकि अभिव्यंजना बहुत ज्यादा बौद्धिक है और भाषा बहुत अधिक साहित्यिक और दार्शनिक । मस्तिष्क को उनकी चीज ठीक तरह समझने के लिये तैयारी की जरूरत होती हैं और साधारणत: तैयारी में समय लगता हैं । अगर कोई विशेष प्रतिभावाला हैं जिसमें सहजात अंतर्भाव की क्षमता हो तो और बात हैं ।
बहरहाल, मै हमेशा यह सलाह देती हूं कि एक बार में थोड़ा-सा पढो, मन को जितना शांत रख सकते हो रखो, समझने की कोशिश न करो, दिमाग को जहांतक हो सके मौन रखो, और जो दम पढ़ता रहे हो उसमें जो शक्ति हैं उसे अपने अंदर गहराई में प्रवेश करने दो । शांत-स्थिरता और नीरवता में ग्रहण की गयी यह शक्ति अपनी ज्योति का काम करेगी और, अगर जरूरत हुई तो, मस्तिष्क मे इसे समझने के लिये आवश्यक कोषाणु पैदा करेगी । इस तरह, जब तुम उसी चीज को कुछ महीनों के बाद दोबारा पढ़ते हो तो तुम्हें लगता हैं कि उसमें व्यक्त किया गया विचार बहुत ज्यादा स्पष्ट और निकट, और कभी-कभी बहुत परिचित हो गया हैं ।
ज्यादा अच्छा यह हैं कि नियमित रूप से पढ़ो, रोज थोड़ा-सा पढ़ो और हों सके तो एक शिक्षित समय पर; इससे मस्तिष्क के लिये ग्रहण करना आसान हो जाता हैं ।
(२-११-१९५९)
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मधुर मर श्रीअरविन्द की जो पुस्तक कठिन हैं और मेरि समझ में नहीं आती उदाहरण के लिये 'सावित्री: 'दिव्य जीवन: उन्हें मैं किस वृत्ति के सबा पूढा?
एक बार में थोड़ा-सा अंश पढ़ो, बार-बार पढ़ो जबतक कि समय में न आ जाये ।
(२३ -६ -१९६०)
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श्रीअरविन्द के ग्रंथ पढ़ने का सच्चा तरीका क्या हैं?
सच्चा तरीका हैं एक बार मे थोड़ा-सा एकाग्रता के साथ पढ़ना, मन जहांतक हो सके नीरव रहे, समझने के लिये सक्रिय रूप से प्रयास किये बिना, अपर की ओर को नल्लईवता मे मूषा रहे और ज्योति के लिये अभीप्सा करे । धीरे-धीरे समह्म आती जायेगी ।
और फिर, दो-एक वर्ष मे, तुम फिर से उसी चीज को पड़ोगे और तुम जान जाओगे कि पहला संपर्क अस्पष्ट और अपूर्ण था, और यह कि सच्ची समझ बाद मे, उसे क्रियात्मक रूप देने का प्रयास करने के बाद आती हैं ।
(१४ -९० -१९६७)
तुम धरती पर आये हो अपने-आपको जानना सीखने के लिये ।
श्रीअरविन्द के ग्रंथ पढो और सावधानी से अपने अंदर जितनी गहराई मे रुक सकते हो जाओ ।
(४-७-१९६९)
श्रीअरविन्द की शताब्दी के इस वर्ष मे हम विधालय के अध्यापक और विद्यार्थी श्रीअरविन्द की सेवा के लिये क्या कर सकते हैं?
सबसे पहले यह पढो कि श्रीअरविन्द ने शिक्षा के विषय मे क्या लिखा है । फिर तुम्हें उसे अपने व्यवहार मे लाने के लिये कोई रास्ता खोजना होगा ।
(१९७२)
श्रीअरविन्द धरती पर अतिमानसिक जगत् की अभिव्यक्ति की घोषणा करने आये थे और उन्होंने इस अभिव्यक्ति की घोषणा हीं नहीं की बल्कि अंशत: अतिमानसिक शक्ति को मूर्त रूप भी दिया और अपने उदाहरण के दुरा यह बतलाया कि उसे अभिव्यक्त करने के लिये क्या करना चाहिये । सबसे अच्छी बात जो हम कर सकते हैं वह यह हैं : उन्होंने हमसे जो कुछ कहा हैं उसका अध्ययन करें और उनके उदाहरण का अनुसरण करने की कोशिश करें और अपने-आपको नयी अभिव्यक्ति के लिये तैयार करें ।
यह चीज जीवन को उसका असली अर्थ देती हैं और हमें सभी बाधाओं पर विजय पाने में सहायता देगी ।
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हम नयी सृष्टि के लिये जियें तो हम युवा और प्रगतिशील रहकर बलवान् और अधिक बलवान् होते जायेंगे ।
(३०-१-१९७२)
श्रीअरविन्द की शताब्दी के लिये मैं व्यक्तिगत रूप ले श्रीअरविन्द के प्रति कौन-सी सर्वोत्तम मेट दे सकता हूं?
पूरी सचाई के साथ उन्हें अपना मन अर्पण कर दो ।
(१३-११-१९७०)
श्रीअरविन्द की सेवा में सचाई के साथ अपना मन अर्पण करने के लिये क्या यह जरूरी नहीं है कि एकाग्रता की शक्ति को बहुत विकसित किया जाये? क्या आप बतलायेंगी इस बहुमूल्य क्षमता की पैदा करने के लिये क्या करना चाहिये?
एक समय शिक्षित कर लो जब तुम हर रोज शांत-स्थिर हो सको ।
श्रीअरविन्द की कोई एक पुस्तक ले लो । दो-एक वाक्य पढो । तब गहरे अर्थ समझने के लिये नीरव और एकाग्र रहो । काफी गहराई मे एकाग्र होने की कोशिश करो ताकि तुम मानसिक नीरवता पा सको, और फिर, जबतक कोई परिणाम न मिल जाये तबतक इसी तरह रोज करते रहो ।
स्वभावत: तुम्हें सो न जाना चाहिये ।
(३ -२ -१९७२)
अगर तुम ध्यान से श्रीअरविन्द की चीजें, पढो तो तुम जो कुछ जानना चाहते हों सबका उत्तर पा लोग ।
(२५-१०-१९७२)
श्रीअरविन्द ने सभी विषयों पर जौ कुछ कहा हैं उसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से तुम आसानी से इस संसार की सभी चीजों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हो ।
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माताजी बुद्धिमान कैसे बना जाता हैं?
श्रीअरविन्द की चीजें पढो ।
श्रीअरविन्द की चीजों का अध्ययन पुस्तकों सें नहीं, विषयवार करना चाहिये- उन्होंने भगवान् एकता, धर्म, विकास-क्रम, शिक्षा, आत्म-सिद्धि अतिमानस आदि, आदि के बारे में क्या कहा है ।
क्या (अंग्रेजी) शिक्षा-समिति यह मान लेने मे ठीक है कि विद्यालय के अंग्रेजी पामक्रम मे माताजी और श्रीअरविन्द की कृतियों होनी चहीयों?
हां
क्या संपूर्ण पूस्तकें चुनना अच्छा है श अलग-अलम पुस्तकीं सै चुने हुए
विद्यालय के लिये संकलन ज्यादा अच्छे हैं ।
क्या योग क्वे बारे मे जो पुस्तकें हैं उनमें से मी उद्धरण चुनने चाहिये?
बहुत हीं सरल चीजें, जैसे ''योग के तत्त्व' ' मे से ।
अंग्रेजी अध्ययन के लिये इन ' का उपयोग किस तरह किया जाये ? उन्हें समझाया जाये या बस यूं ही पड़ लिया जाये? विशेषकर यदि माताजी योगसंबंधी ' के लिये स्वीकृति देती हैं ती उन्हें किस तरह पढ़ाया जाये?
योग के दृष्टिकोण से नहीं ।
क्या इन संकलनों को अध्यापक निजी रूप में? कक्षा की आवश्यकताओं को
१माताजी ने 'अध्यापक निजी रूप में' के नीचे लकीर लगाकर हाशिये में लिख दिया ''हां' '।
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द्रष्टि मे रखते हुए तैयार करें (जिस पर शिक्षा-समिति की स्वीकृति हो) और बिस विद्यालय-समिति की सहमति ले लें?
या शिक्षा-समिति विश्वविद्यालय-समिति की सहमति से एक क्रमिक संकलन तैयार करे जो अध्यापकों की सिफारिश पर आधारित हो?
नहीं, क्योंकि वह काफी लचीला न होगा ।
हर कक्षा मै अंग्रेजी को पांच अंतर मिलते हैं ? क्या इनमें से एक या अनेक अंतर पूरी तरह माताजी और श्रीअरविन्द की चीजें पढ़ने क्वे लिये रखे जायें?
क्या इस ए के लिये हसके सिवा एक या अधिक अंतर और रखे जायें?
नहीं
क्या भाषा-स्तर की कोई सीमा है जिसके नीचे ये कृतियों कक्षा की न दी जायें? अगर ऐसा हो तो अंग्रेजी के कौन-से दलों को इसमें न लिया जाये?
यह पूरी तरह से विद्यार्थियों की क्षमता पर निर्भर हैं ।
(उच्चतर कक्षाओं के अध्यापकों के नाम)
माताजी ने सुझाव दिया है कि 'उच्चतर कक्षाओं' मे श्रीअरविन्द के ग्रंथों के अध्ययन के लिये यह पद्धति अपनायी जाये :
(१) पहले अध्यापक विषय के आवश्यक तत्वों का परिचय दे
(२) फिर वह अपनी टिप्पणियां के बिना विद्यार्थियों को श्रीअरविन्द का सबसे अधिक एक [या अधिक) उद्धरण और मनन करने के लिये दे जो उस विषय के साथ संबंध रखता हो !
(३) तब बिधार्थी से कहा जाये कि वे अमली कक्षा मे मौखिक रूप से एक छोटे-से निबंध मे यह बतलाये कि वे क्या समझ पाये और उन्होने क्या निष्कर्ष निकाला !
(२५-१०-१९५९)
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अपर (१) के बारे मे : क्या माताजी की इच्छा यह है कि विषय प्रस्तुत करते समय अध्यापक अपने-आप श्रीअरविन्द की पुस्तक मे ले कुछ न पड़े ?
निश्चय हीं जब कमी अध्यापक को उपयोगी लगे वह श्रीअरविन्द के उद्धरण पढ़कर सुना सकता है ।
(२ के बारे मैं : क्या विषय प्रस्तुत करने के बाद अध्यापक श्रीअरविन्द के ग्रंथों ले संबद्ध प्रसंग बतला दिया करे परंतु अपने-आप उन्हें कक्षा क्वे सामने न पड़े? क्या वह विद्यार्थियों से कह सकता है कि अगर समय हो तो ईन उद्धरणों को कक्षा मैं बैठकर ही पढो? या उन्हें केवल घर पर ही पढ़ना चाहिये प्र?
वह अपने-आप पढ़ सकता है , विद्यार्थियों से मन-ही-मन या जोर से पढ़ने के लिये कह सकता है, वे घर पर या कक्षा मे कहीं भी पढ़ सकते हैं; यह समय और परिस्थितियों पर निर्भर है। जरूरी बात यह है कि श्रीअरविन्द की चीजें विद्यार्थियों के सामने चबायी हुई और आधी जीर्ण अवस्था मे न आयें । अध्यापक मूल्यांकन के सभी तत्त्व बता सकता हैं लेकिन बच्चों का सीधा संपर्क होना चाहिये । उन्हें बोध का आनंद मिलना चाहिये । अध्यापक को इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि वह श्रीअरविन्द की महान चेतना और विद्यार्थी के मन के बीच पर्दा बन बाधक न हो ।
(३) के बारे मैं : क्या माताजी यह चाहती हैं कि बच्चे कक्षा मे क्या समझे हैं इसकी मौखिक श लिखित परख अगत्ही बैठक मे ही तकाई जाये? अगर कोई विषय या पाठ एक अंतर से ज्यादा समय तो क्या उनसे पाठ श विषय समाप्त होने के बाद अपनी बात कहने क्वे लिये कहा जा सकता है?
स्वभावत: यह अध्यापक के हाथ मे है ।
कुछ विषय इसलिये निर्धारित किये किये हैं ताकि थे श्रीअरविन्द की चीजें पढ़ने से पत्ते का काम दें श्रीअरविन्द की ' पढ़ने से पत्ते इन विषयों को अलग तहना की जगह क्या अध्यापक दोनों विषयों को साथ-साध कत्ल सकता है श्रीअरविन्द की ' मे छै विषय देते हुए उसके साथ संबद्ध विचार समझाये जा सकते हैं?
तुम जैसा चाहो कर सकते हो, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, इस बात की सावधानी बरतनी चाहिये कि श्रीअरविन्द की चीज बच्चों के पास तब आये जब उन्हें आवश्यक
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जानकारी मिल चुकी हो और तैयारी करवा दी गयी हो, परंतु श्रीअरविन्द की चीज उनकी पूरी ताजगी और शक्ति के साथ आनी चाहिये ।
श्रीअरविन्द की कोई पुस्तक-विशेष पड़ते समय क्या अध्यापक उनके अन्य ग्रंथों सें किसी विषय पर अन्य उद्धरण दे सकता है? हंसी तन क्या वह माताजी के उद्धरण भी ले सकता है?
संकोच करके अपने-आपको सीमित क्यों करते हो? तुम निश्चय ही माताजी और श्रीअरविन्द के अन्य ग्रंथों को उद्धत कर सकते हो !
(१०-११-१९५९)
(''मारता का आध्यात्मिक इतिहास'' की रूपरेखा माताजी को पढ़कर सुनायी गयी उन्होने कहा:)
नहीं! इससे काम न चलेगा । इस तरह से नहीं करना चाहिये । तुम्हें एक जोर के धमाके के साथ शुरू करना चाहिये ।
तुम इतिहास का सातत्य दिखाने की कोशिश कर रहे थे जिसका श्रीअरविन्द परिणाम या चरम बीड़ हैं । यह बिलकुल मिथ्या है ।
श्रीअरविन्द इतिहास के बिलकुल नहीं हैं; वे उसके बाहर, उसके परे हैं ।
श्रीअरविन्द के जन्म तक, धर्म और अध्यात्म के पंथ हमेशा भूतकालीन व्यक्तियों पर आधारित थे और है ''जीवन का लक्ष्य' ' बताते थे धरती से जीवन के विलय को । तो, तुम्हारे सामने दो विकल्प होते थे : या तो
-इस जगत् में ऐसा जीवन जो तुच्छ विलास और पीड़ा, सुख-दुःख का चक्कर होगा और ठीक तरह व्यवहार न करने से नरक का भय रहेगा, या
- यहां से किसी और लोक मे बच निकलना स्वर्ग, निर्वाण, मोक्ष...
इन दोनों मे से चुनने लायक कुछ भी नहीं है , दोनों समान रूप सें खराब हैं । श्रीअरविन्द ने हमें बतलाया है कि यहीं वह आधारभूत फल थीं जो भारत की दुर्बलता और उसके पतन के लिये जिम्मेदार हैं । बौद्ध धर्म, जैन धर्म, मायावाद देश की समस्त जीवन-शक्ति को सुखा देने के लिये काफी थे ।
यह सच है कि आज धरती पर भारत हीं एकमात्र देश है जिसे इस बात का भान बे कि 'जडू-द्रव्य' के सिवा और भी किसी चीज की सत्ता है। अन्य देश- यूरोप, अमरीका आदि- इसे बिलकुल स्व चुके हैं । इसलिये संदेश अभीतक उसी के पास है , उसे सुरक्षित रखना और दुनिया तक पहुंचाना है । लेकिन अभी तो वह अव्यवस्था मे बिखेर और छटपट खा है ।
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श्रीअरविन्द ने बतलाया है कि सत्य सांसारिक जीवन सें भागते मे नहीं, उसके अंदर रहकर, उसे रूपांतरित करने ओर उसे दिव्य बनाने मे है ताकि भगवान् यहां, भौतिक जगत् मे अभिव्यक्त हो सकें ।
तुम्हें ये सब बातें पहली बैठक में कहनी चाहिये । तुम्हें बिलकुल सीधा और स्पष्ट होना चाहिये... इस तरह! (माताजी मेज़ पर अपने हाथों से चतुष्कोण आकार बनाती हैं ।)
तब, जब यह बात स्पष्ट, जोरदार शब्दों मे कह दी जाये, और उसके बारे मे कोई शंका न रहे- और केवल तभी-तुम आगे बढ़कर धर्म या धार्मिक तथा आध्यात्मिक नेताओं का इतिहास सुनकार उनका मनोरंजन कर सकते हो ।
तब- और केवल तभी- तुम उनके द्वारा पोषित और घोषित दुर्बलता और मिथ्यात्व के बीजों को दिखला सकोगे ।
तब- और केवल तभी-तुम समय-समय पर, स्थान-स्थान पर एक ' अंतर्भाव' पा सकोगे कि कुछ और भी संभव , उदाहरण के लिये वेद मे (पणियों की गुहा मे उतरनें की बात हैं); तंत्रोंमे भी... एक छोटी-सी जलती हुई ज्वाला ।
(३१ -३ -१९६७)
श्रीअरविन्द न भूतकाल के हैं न इतिहास के ।
श्रीअरविन्द वह 'भविष्य' हैं जो चरितार्थ होने के लिये आगे बढ़ रहा हैं ।
अतः हमें उस शाश्वत यौवन को बनाये रखना चाहिये जो तेज प्रगति के लिये, मार्ग पर फिसड्डी बनकर न पेड़ रहने के लिये जरूरी है ।
(२ -४ -१९६७)
''विद्यार्थी पूरी स्वतंत्रता के साथ विषयों का चुनाव करे और यह चुनाव विद्यार्थी की वास्तविक खोज और उसके उत्साह को प्रतिबिंबित करे । ''
प्रस्ताव १ : देखिये पृ० १६२
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उन्होने कहा कि जब 'उच्चतर कक्षाएं' शुरू की नयी थीं तो माताजी का मुख्य इरादा यह था कि सभी विद्यार्थियों को श्रीअरविन्द की शिला की काकी समझ हरे उन्होने हीं हंस उद्देश्य से 'सामान्य पामक्रम' की व्यवस्था की श्री ! हमारा 'शिक्षा-केंद्र' मत्त' श्रीअरविन्द की शिक्षाएं देने और गण करने के लिये हैं तो फिर उनका अध्ययन ऐच्छिक कैसे रखा जा सकता है? वास्तव ऐ यह मानना बड़ा ही अजीब होगा कि हमारे 'शिक्षा-केंद्र' के किसी विद्यार्थी को श्रीअरविन्द के ग्रंथों के अध्ययन मे रस न होगा? और अगर न हो तो हम उसे अपने 'केंद्र' का विद्यार्थी कैसे मान सकते हैं?
हां, जो विद्यालय मे पढ़ना चाहते हैं लेकिन उनके लिये नहीं जो अकेले हीं पढ़ना चाहते हों ।
(नवंबर १९६७)
यह सुझाव दिया क्या है कि 'बुलेटिन' मे माताजी की जो बातचीत छपा करती है और जो अन्य महत्त्वपूर्ण त्9एख छपते हैं जो मुख्यत: 'शिक्षा-केंद्र' के विद्याथियों के लिये होते हैं उन्हें पढ़ने के लिये महीने मैं दो-एक घटे रखे जायें और माताजी ले यह प्रभा जाये कि ये लेख कौन- सी माफ मे पड़े जायें?
अगर तुम मेरे लेखों या वार्तालापों का उपयोग करना चाहते हो तो फ्रेंच में करो ।
(२७ -७-१९५९)
श्रीअरविन्द की चीजें अंग्रेजी मे, और मेरी फ्रेंच मे पढ़नी चाहिये ।
(४-३-१९६६)
आपने कहा है कि श्रीअरविन्द के ग्रंथ समझने मै दो-एक वर्ष लगने तो क्या यह उचित है कि अध्यापक हमसे (कक्षा मे पढ़ीं हुर्र श्रीअरविन्द की चीजों के बारे मे) मत पूँछें?
मैंने कहा था कि भली-भांति समह्मने मे कई वर्ष लग जायेंगे । लेकिन अगर तुम समह्मदार हो तो कुछ थोड़ा-बहुत तो तुरंत समझ जाओगे; अध्यापक तुम्हारी समझ की मात्रा के बारे मे अंदाज लगाना चाहते हैं ।
(७-१०-१९६७)
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मेरा काम इस प्रकार का हैं कि मुझे हमेशा पढ़ना लिखना और सोचना पड़ता है- परिणामत: थे अधिकतर मन मे ही रहता हू मानसिक कार्य मे निरंतर व्यस्तता मेरे चैत्य केंद्र के रहने मे बाधक होती है इसने मेरे जीवन को बहुत शुक और डावैडोल बना दिया है आपने 'बुत्हेटिन' मे कहा है कि इस प्रफुल्ल का सतत मानसिक क्रिया-कत्था अभिव्यक्त होती हुई 'नयी चेतना' को ग्रहण करने के लिये अच्छा नहीं है त्नेकिन जब मुझे जो काम करना पड़ता है उसके त्हिये यह जरूरी है तो मैं क्या कर सकता हू?
ऐसा लगता हैं कि तुम यह क्या गये हों कि बरसों तक श्रीअरविन्द पूरा-का-पूरा ' आर्य' ' पूर्ण मानसिक नीरवता मे लिखा करते थे । वे अपर से आनेवाली प्रेरणा को सीधा हाथों के द्वारा टंक-यंत्र पर अभिव्यक्त होने देते थे ।
(७ -३ -१९६९)
'आर्य' के अध्ययन का विचार बहुत अच्छा है । तुम अपने-आप जो थोड़ा-बहुत समझ लो वह दूसरे की व्याख्या के सागर से ज्यादा अच्छा और उपयोगी है ।
तुम उपयोगी रूप मे जैविकी पोहा सकते हो और साथ हीं श्रीअरविन्द के ग्रंथों का अध्ययन जारी रख सकते हो ।
यह ज्यादा अच्छा है कि तुम जो भी करो बहुत गंभीरता के साथ और अच्छी तरह करो, बजाय इसके कि अपने कामों को बढ़ाते जाओ ।
अच्छा अध्यापक होना आसान नहीं है; परंतु यह हैं बहुत मजेदार और अपने- आपको विकसित करने का बहुत अच्छा अवसर ।
रहीं बात श्रीअरविन्द की चीजें पढ़ने की, तो इन्हें पढ़ना हमारे लिये भविष्य के द्वार खोल देता हैं ।
(१६ -११ -११७२)
हम जो कुछ पढ़ते अध्ययन करते और सीखते हैं वह सब श्रीअरविन्द की कृतियों के आये मिथ्यात्व का ढेर मालूम होता है तब फिर उन पर समय नष्ट क्यों किया जाये?
१श्रीअरविन्द की मासिक अंग्रेजी पत्रिका (१९१४ -११२१ ) उनकी प्रायः सभी मुख्य गद्य कृतियों पहले उसी मे छपी थीं ।
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मेरा ख्याल है कि यह मन के लिये जिम्नास्टिक्स मात्र हैं!
प्रिय माताजी मै तत्वज्ञान और निशिवासर का सर अध्ययन करना चाहता हूं मैं 'दिव्य जीवन' भी पढ़ने की सोच रहा हू
अगर तुम तत्त्वज्ञान और नीतिशास्त्र पढो तो केवल मानसिक जिम्नास्टिक्स के रूप मे पढो जो तुम्हारे मस्तिष्क को कुछ कसरत दे, लेकिन इस तथ्य को कभी आंख से ओझल न होने दो कि यह ज्ञान का स्रोत नहीं है और यह कि उस तरीके से तुम ज्ञान नहीं पा सकते । स्वभावत: यह बात 'दिव्य जीवन' के बारे मे नहीं है...
मुझे लगता है कि अपने 'गृह-निर्माण विभाग' के काम के अतिरिक्त अगर तुम्हारी पढ़ने की इच्छा हो तो ज्यादा उपयोगी होगा कि तुम हड़बड़ी किये बिना, गंभीरता और सावधानी के साथ श्रीअरविन्द की पुस्तकों का अध्ययन करो । यह तुम्हारी साधना मे अरि सब चीजों की अपेक्षा अधिक सहायक होगा ।
(९ -३ -१९४१)
मैं श्रीअरविन्द की किस पुस्तक ले आरंभ करूं?
'दिव्य जीवन' से ।
मेरे आशीर्वाद ।
(११-३-१९४१)
(माताजी ने एक अध्ययन दल के लिये निम्नलिखित प्रस्तावित कार्यक्रम
१. प्रार्थना (श्रीअरविन्द और माताजी, अपनी शिक्षा को समझने के हमारे इस प्रयास मे हमें सहायता प्रदान लीजिये ।)
२. श्रीअरविन्द की पुस्तक पढ़ना ।
है. क्षणभर मौन ।
४. जो भी चाहे पढ़ें हुए पाठ के विषय में एक प्रश्र करे ।
५. प्रश्र का उत्तर ।
६. सामान्य वाद-विवाद बिलकुल नहीं ।
यह एक दल की बैठक नहीं है, श्रीअरविन्द की पुस्तकें पढ़ने के लिये एक कक्षा मात्र हैं।
(३१-१०-१९४२)
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