Compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education and 3 dramas in French: 'Towards the Future', 'The Great Secret' and 'The Ascent to Truth'.
This volume is a compilation of The Mother’s articles, messages, letters and conversations on education. Three dramas, written for the annual dramatic performance of the Sri Aurobindo International Centre of Education, are also included. The Mother wrote three dramas in French: 'Towards the Future' produced in 1949, 'The Great Secret' in 1954 and 'The Ascent to Truth' in 1957.
यथार्थ निर्णय
खेलों की प्रतियोगिताओं सें संबंध रखनेवाली जो कई बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं, उनमें से एक हैं ठीक-ठीक निर्णय देने की समस्या ।
इस विषय मे जिन-जिन संघर्षों और विवादों का उत्पन्न होना अन्य अवस्थाओं मे अवश्यंभावी होता, उनसे बचने के उद्देश्य से सदा के लिये एक बरगी यह शिक्षित कर दिया गया हैं कि प्रतियोगिताओं में भाग लेनेवालों को जीजों या पंचों के निर्णय को निर्विवाद स्वीकार कर लेना होगा । इस बात से जहांतक विचाराधीन व्यक्तियों का संबंध हैं वहांतक तो इस समस्या का समाधान हों जाता है, पर निर्णय करनेवाले व्यक्तियों का जहांतक संबंध है, इसका कोई समाधान नहीं होता; क्योंकि अगर वे सच्चे हों तो उनपर जितना अधिक विश्वास किया जायेगा उतनी हीं अधिक उन्हें अपने निर्णय मे पूर्ण रूप सें निर्भ्रान्त होने के लिये सावधानी रखनी होगी । यहीं कारण है कि एकदम आरंभ में ही मैं उन सब मामलों को रद्द कर देती हूं जिनमें कि नीति के कारण या ऐसे हीं कारणों से पहले हीं निर्णय कर दिया गया होता है । क्योंकि, यद्यपि दुर्भाग्यवश प्रायः हीं पर्याप्त अवसरों पर ऐसा ही किया जाता है, तो भी प्रायः सब लोग इस बात पर सहमत होंगे कि ऐसा करना नीचता हैं और मनुष्य की मर्यादा यह नहीं चाहती कि इस तरह की बात की जाये ।
साधारणतया, लोग यह समझते हैं कि अगर निर्णय खेलों के नियमाधीन के गभीर ज्ञान और पर्याप्त निष्पक्षता पर आश्रित हों तो फिर कोई हर्ज नहीं । ऐसा निर्णय इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान पर निर्भर होता है और प्रायः ही लोग उसे ऐसी चीज समझते हैं जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । पर, जो हो, यदि वास्तव मे देखा जाये तो इस तरह प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्वयं निर्भरता नहीं होता । ये इंद्रियां उस व्यक्ति की आंतरिक अवस्था के सीधे प्रभाव मे होती हैं जो उनका उपयोग करता हैं, और इसलिये दृश्य वस्तु के विषय मे द्रष्टा का जो भी मनोभाव होता है उसके द्वारा एक-न-एक प्रकार से इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान परिवर्तित, मिथ्या और विकृत हो जाता है ।
उदाहरणार्थ, जो लोग किसी एक दल या संस्था के होते हैं, वे या तो उस दल के सदस्यों के प्रति बहुत अधिक नरम होते हैं या अनुचित रूप सें सख्त होते हैं । सत्य की दृष्टि से देखा जाये तो, चाहे नर्मी हो या सख्ती, कोई भी एक-दूसरे से अधिक मूल्य नहीं रखती, क्योंकि दोनों हीं अवस्थाओं में निर्णय आंतरिक भावना के अपर आश्रित होता हैं, न कि तथ्यों के वास्तविक और अनासक्त ज्ञान पर । यह बात बहुत स्पष्ट है, पर इस हदतक यदि न भी जाया जाये, तो भी यह कहा जा सकता हैं कि कोई मी मनुष्य, यदि वह योगी. न हो तो, इन सब आकर्षणों और विकर्षणों से मुक्त नहीं होता और इन सब चीजों को बहुत कम ही लोग अपनी ऊपरी सक्रिय चेतना में देख पाते हैं, जब कि ये इंद्रियों की क्रियाओं पर बहुत अधिक प्रभाव डालती हैं ।
जो मनुष्य पसंदगी और नापसंदगी से, कामनाओं-वासनाओं सें, और अपनी अभिरुचियों से एकदम ऊपर उठ गया है, वही प्रत्येक चीज की ओर पूर्ण निष्पक्षता के साथ देख सकता है; उसकी इंद्रियों की विशुद्ध रूप से वस्तुनिष्ठ दृष्टि पूर्णता-प्राप्त मशीन की तरह बन जाती है जिसके ज्ञान के साथ सजीव चेतना की उज्ज्वलता जड़ी हीं ।
यहां भी यौगिक साधना हमारी सहायता कर सकतीं हैं और उसके दुरा हम इतने ऊंचे चरित्रों का निर्माण कर सकते हैं कि वे सत्य के यंत्र बन सकें ।
('बुलेटिन', नवम्बर १९४९)
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