CWM (Hin) Set of 17 volumes

ABOUT

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' spoken or written in French.

THEME

aphorisms

'विचार और सूत्र' के प्रसंग में

The Mother symbol
The Mother

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.

Collected Works of The Mother (CWM) On Thoughts and Aphorisms Vol. 10 363 pages 2001 Edition
English Translation
 PDF    aphorisms
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The Mother

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' 'विचार और सूत्र' के प्रसंग में 439 pages 1976 Edition
Hindi Translation
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भफित

 

 भक्ति बह कुंजी है जो मुक्तिका दुरा खोल देती है ।

 

 --माताजी


भफित

 

४०८ --- मैं भक्त नहीं हूं, क्योंकि मैंने भगवानके लिये संसारका त्याग नहीं किया है । मैं उस वस्तुका त्याग कैसे कर सकता हूं जो उन्होंने जबर्दस्ती मुझसे ले ली और मेरी इच्छाके विरुद्ध मुझे वापिस दे दी । ये सब बातें मेरे लिये बहुत कठिन हैं ।

 

४०१ -- मैं भक्त नहीं हूं, ज्ञानी भी नहीं हूं, न ही मैं भगवानका कर्मी हूं । तो मैं क्या हूं ? अपने स्वामीके हाथमें एक उपकरण, दिव्य गोपबाल (श्रीकृष्ण) दुरा बजायी जानेवाली बंसी, प्रभुके श्वाससे परिचालित एक पत्ता ।

 

४१० -- भक्तिमें तबतक परिपूर्णता नहीं आती जबतक बह कर्म और ज्ञान नहीं बन जाती । यदि तुम भगवानका पीछा कर रहे हा और उनतक पहुंच सके हो तो उन्हें तबतक न जाने दो जबतक कि तुम उनकी वास्तविकताको न पा लो । यदि तुमने उनकी वास्तविकताको पा लिया है तो उनकी समग्रताको भी पानेका प्रयत्न करो । पहली वस्तु तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करेगी और दूसरी दिव्य कर्म और जगत्- मे मुक्त और पूर्ण आनंद देगी ।

 

४११ -- और लोग भगवानके प्रति अपने प्रेमकी डींग मारते हैं । मुझे गर्व है इस बातपर कि मैंने भगवान्से प्रेम नहीं किया, बल्कि उन्होंने मुझसे प्रेम किया, मुझे खोजा ओर जबर्दस्ती अपनाया ।

 

४१२ -- जब मैंने यह जाना कि भगवान् एक स्त्री हैं तो मैंने बड़ी देरसे प्रेमके बारेमें कुछ सीखा । किंतु जब मैं स्त्री बन गया और अपने स्वामी तथा प्रेमीकी चाकरीमें लग गया तभी मैंने पूरी तरहसे प्रेमको जाना ।

 

श्रीअरविन्दमें परिहासके लिये विशेष प्रतिभा थी; हम केवल इतना कर सकते हैं कि सराहना करें और चुप रहै ।

 

२०-३-७०

 


श्रीअरविंदका इससे क्या तात्पर्य है : ''म उस वस्तुका त्याग कैसे कर सकता हूं जो उन्होंने मुझसे जबर्दस्तो ले ली और मेरी इच्छाके विरुद्ध मुझे लौटा दी? ''

 

   और जब वे कहते हैं ''जब मैंने यह जाना कि भगवान् एक स्त्री हैं.. .'' तो इससे उनका क्या तात्पर्य है ?

 

मै इसका उत्तर नहीं दे सकती, क्योंकि जबतक वे सशरीर यहां थे उन्होंने कमी मुझसे इस बातकी चर्चा नहीं की थी ।

 

   यदि किसीको वह ठीक तारीख मालूम हों जब उन्होंने यह लिखा था तो उससे कुछ संकेत मिल सकता है ।

 

   शायद 'न' तुम्है बता सकें कि यह कब लिखा गया था, या फिर श्रीअरविन्दने उससे इस बारेमें कुछ कहा हो ।

 

   ४१३ - भगवानके साथ जारकर्म बह पूर्ण अनुभव है, जिसके लिये इस सृष्टिकी रचना हुई थी ।

 

   मैं इस सूत्रको समझा नहीं ।

 

यह श्रीअरविन्दका, अपने अद्भुत हास्यरसके साथ, मानव नैतिकताका मजाक उड़ानेका अच्छे-से-अच्छा तरीका है । यह वाक्य अपने-आपमें एक अच्छा व्यंग्य है ।

 

२१-३-७०

 

   माताजीको इस विषयमें जो सूचना मिली उसके अनुसार ये 'विचार और सूत्र' श्रीअरविन्दके पांडिचेरीमें आनेके शुरूके दिनोंमें ही लिखे गये थे । उस समय श्रीअरविन्द अपने पत्रोंमें ''काली'' नामसे हस्ताक्षर करते थे । वे कृष्ण और कालीको एक ही मानते थे (जिस प्रकार श्रीरामकृष्ण श्रीकृष्णकी पूजा करते समय किसी-किसी समय अपने-आपको स्त्री समझने लगते थे), शायद इसी अनुभूतिकी श्रीअरविन्द हंसी-हंसीमें यहां चर्चा कर रहे हैं ।

 

३४८


    ४१४ -- भगवान्से डरनेका अर्थ है अपने-आपको उनसे दूर ले जाना, किंतु खेल-खेलमें उनसे डरना आनंदको अधिक तीव्र बना देता है ।

 

     ४१५ --- यहूदिन ईश्वरसे डरनेवाले व्यक्तिका आविष्कार किया; ओर भारतवर्षने भगवानके ज्ञाता और भगवानके प्रेमी- का ।

 

     ४१६ -- जूडियामें भगवानका सेवक उत्पत्र हुआ, किंतु वह वयस्कताको प्राप्त हुआ अरबोंके बीच । भारतका आनंद सेवक-प्रेमीमें है ।

 

     ४१७ -- पूर्ण प्रेम भयको भगा देता है; किंतु फिर भी उस निर्वासनकी कुछ कोमल परछाई और स्मृति बनाये रखो, बह पूर्णताको पूर्णतर बना देगी।

 

     ४१८ -- यदि तेरी आत्माको कभी भगवानका शत्रु बननेका अथवा उनकी चालोंका विरोध करने या उनसे घातक मुठभेड़ करनेका सुरव नहीं मिला तो समझो कि उसे भगवानके संपूर्ण आनंदका स्वाद अभी प्राप्त नहीं हुआ है ।

 

      ४१९ -- यदि तुम भगवान्से प्रेम नहीं करवा सकते तो उन्हें लड़नेके लिये ही उकसाओ । यदि वे तुम्हें प्रेमिका आलिंगन नहीं दे सकते तो उन्हें कुश्तीकी गलबाहीं देनेके लिये विवश करो ।

 

       ४२० -- मेरी आत्मा भगवानकी बंदी है, उन्होंने युद्धमें उसे जीता था; वह अभीतक उस युद्धको आनंद, भय और आश्चर्य- पूर्वक याद करती है, चाहे वह है उससे बहुत दूर ।

 

       ''उनके शत्रु बननेके सुख' से श्रीअरविन्दका क्या तात्पर्य है?

 

यहां भी मुझे कहना पड़ेगा कि मुझे इस बातका ठीक-ठीक पता नहीं क्योंकि इस विषयमें उन्होंने मुझे कमी कुछ नहीं कहा ।

 

३४९


   किंतु मैं तुम्हें अपने अनुभवसे बता सकती हूं । लगभग २५ वर्षकी आयुतक मै केवल धर्मके ईश्वरको, उस ईश्वरको, जैसा कि मनुष्योंने उसे बनाया है, जानती थी, मैं उनसे किसी प्रकारका कोई संबंध नहीं चाहती थी । मैं उनके अस्तित्वको ही अस्वीकार करती थी, मैं विश्वासपूर्वक कहती थी कि यदि कोई ऐसा भगवान् है तो मैं उससे घृणा करती हूं ।

 

   जब मैं २५ वर्षकी हो गयी तो मैंने एक आंतरिक भगवानकी खोज कर ली और तभी मुझे यह मी मालूम हुआ कि पश्चिमी धर्मदुरा वर्णित भगवान् 'महान् विरोधी' के सिवाय और कुछ नहीं है ।

 

   जब मैं सन् १११४ मे भारत आयी और श्रीअरविन्दकी शिक्षाको जाना तो मेरे आगे पूरी बात स्पष्ट हो गयी ।

 

 २ ४- ३ - ७०

 

४२१ -- मैं पृथ्वीपर सबसे बढ़कर पीडासे ही घृणा करता रहा, जबतक कि भगवानने ही मुझे कष्ट एवं पीड़ा नहीं पहुंचायी; तव यह तथ्य मेरे सामने स्पष्ट हुआ कि पीड़ा अत्यधिक आनन्दका ही टेढ़ा और दुराग्रहपूर्ण कप है ।

 

४२२ -- जो पीड़ा भगवान् हमें देते हैं उसकी चार अवस्थाएं होती हैं : जब कि बह केवल पीड़ा होती है; जब बह ऐसी पीड़ा होती है जो सुख देती है; जब पीड़ा स्वयं ही सुख होती है और जब वह शुद्ध रूपसे आनन्दका एक भयानक रूप होती है ।

 

४२३ -- जव व्यक्ति हर्षके उन स्तरोंतक पहुंच जाता है जहां पीडाका नाम-निशान नहीं होता, वहां भी यह एक असहनीय उल्लासके वेषमें उपस्थित रहती है ।

 

४२४ - जब मैं उनके आनन्दके ऊंचे-से-ऊंचे शिखरोंपर चढ़ रहा था तो मैंने अपनेसे पूछा, क्या आनन्दकी तीव्रताकी कोई सीमा नहीं है और तब मुझे भगवानके आलिंगनोंसे डर-सा लगने लगा ।

 

 मैं आपसे ''पीडाकी चार अवस्थाओं'' के विषयमें जानना चाहता हूं, जिनकी चर्चा श्रीअरविन्दने की है ।

 

३५०


यदि श्रीअरविन्द नैतिक पीडाकी बात कर रहे हैं, चाहे वह कुछ मी हो, तो मैं अपने अनुभवसे तुम्हें बता सकती हूं कि दे जिन चार अवस्थाओंकी बात कर रहे है वे चेतनाकी उन चार अवस्थाओंसे मेल खाती हैं जो किसी वैयक्तिक चेतनाद्वारा प्राप्त आंतरिक विकास और भागवत चेतनाके साथ मिलनेसे उत्पन्न होती हैं । जब यह मिलन पूर्ण होता है तो ''आनंदके भयंकर रूप" के सिवाय और किसी वस्तुका अस्तित्व नहीं होता ।

 

   यदि उस पीडाका सवाल है जो शरीर सहता है, तो उस अनुभवमें इतनी स्पष्ट, सुयोजित व्यवस्था नहीं रहती । यह बात और मी अधिक ठीक है क्योंकि भगवान्से मिलनेके बाद पीड़ा भी सामान्यतया तिरोहित हो जाती है ।

 

 २५-३ -७०

 

४२५ - भगवानके प्रेमके बाद सबसे बता आनन्द है मनुष्यके अन्दर स्थित भगवानके प्रेमका; वहां भी व्यक्तिको बहुविधताको आनन्द प्राप्त होता है ।

 

४२६ - एक पत्निव्रत शरीरके लिये अच्छा हो सकता है, पर आत्मा, जो मनुष्योंमें स्थित भगवान्से प्रेम करती है, असीम और भावविभोर वहुपलीवादी है, (उसका प्रेम असीम और आनन्दसे परिपूर्ण होता है) । तो भी सब समय -- और यह एक रहस्य है - वह केवल एक ही सत्तासे प्रेम करती है ।

 

४२७ -- सारा संसार ही मेरा अन्तःपुर है और उसके अन्दरकी प्रत्येक सजीव और निर्जीव सत्ता मेरे उल्लासका उपकरण है ।

 

जिसे भगवानके साथ प्रेमका स्वाद मिल चुका है वह भगवानके सिवाय अन्य किसीसे प्रेम कर ही नहीं सकता और जिन लोगोंके लिये उसके हदयमें स्नेह है उनके अंदर स्थित भगवानके साथ ही वह प्रेम करता है; और यही प्रेम करनेका सबसे अच्छा तरीका भी है, क्योंकि इसी प्रकार बह दूसरों-

 

३५१


को उन भगवानके प्रति सचेतन होनेमें अधिक-से-अधिक सहायता पहुंचा सकता है, जो उनमें अभिव्यक्त होते हैं ।'

 

२७-३-७०

 

४२८ -- कुछ समयतक तो मुझे पता ही नहीं लगा कि मै कृष्णसे अधिक प्रेम करता हूं या कालीसे । जब मैं कालीसे प्रेम करता था तो यह मेरा अपने साथ प्रेम करना था, किन्तु,. जब मैंने कृष्णके. साथ प्रेम किया ' तो यह अन्यके साथ प्रेम था, पर फिर भी मैं प्रेम अपनेसे ही कर रहा था । अतएव, मैं कालीसे भी अधिक कृष्णसे प्रेम करने लगा ।

 

श्रीअरविन्दका कहनेका हमेशा अपना निराला ढंग था जो सदा मौलिक एवं सदा अप्रत्याशित होता था ।

 

२९-३-७०

 

४२९ -- प्रकृतिकी प्रशंसा करने या उसकी एक शक्ति, उपस्थिति अथवा देवीके रूपमें पूजा करनेसे क्या लाभ ? सौन्दर्यकी दृष्टिसे या कालकी दृष्टिसे भी उसका गुण गानेका क्या अर्थ ? असली बात है उसका आत्माद्वारा उपभोग करना, जिस तरह शरीर स्त्रीका उपभोग करता है ।

 

४३० - जब थ्यक्तिके हदयमें अन्तर्दृष्टि होती है तो सब कुछ - प्रकृति, भाव और कर्म, बिचार और कार्य, रुचियां और पदार्थ -- सब प्रेमपात्र बन जाते हैं और परमानन्दकी अनुभूति प्रदान करते हैं ।

 

कुछ कहनेको नहीं है ।

 

 ३०-३-७०

 

३५२


४३१ -- जो दर्शनशास्त्री संसारको माया समझकर उसका त्याग कर देते हैं वे बड़े बुद्धिमान्, संयमी एवं पुण्यात्मा हैं किन्तु मैं कभी-कभी अपने-आपको यह सोचनेसे नहीं रोक सकता कि वे जरा मूर्ख भी हैं, वे भगवान्द्रारा बड़ी सरलतासे ठगे जाते हैं ।

 

४३२ - मेरा अपना यह विचार है कि मैं इस बातपर निश्चय ही आग्रह कर सकता हूं कि भगवान् संसारके अन्दर और बाहर दोनों जगह अपने-आपको अभिव्यक्त करें । यदि बे इस कार्यसे बचना चाहते थे तो फिर उन्होंने इस संसारको बनाया ही क्यों ?

 

४३३ -- मायावादी मेरे वैयक्तिक भगवान्को स्वप्न मानते हैं ओर अवैयक्तिक भगवानका स्वप्न देखते हैं; बौद्ध धर्मके अनुयायी भी इसे एक कोरी कल्पना समझते है, वे निर्वाण और शून्यताके आनन्दके स्वप्न लेना पसन्द करते हैं । इस प्रकार सभी स्वप्नद्रष्टा एक-दूसरेकी अनुभूतियोंको बुरा-भला कहते हैं ओर अपनी अनुभूतियोंको सर्वोच्च मानकर उसका प्रदर्शन करते फिरते हैं । जिस वस्तुमें आत्मा पूर्ण आनन्द मानती है, विचारके लिये वही अन्तिम सत्य वस्तु है ।

 

४३४ -- वैयक्तिक सत्तासे आगे जाकर मायावादी अवर्णनीय सत्ताको देखता है; मैं उसके पीछे-पीछे वहां जा पहुंचा और उसके परे अवर्णनीय सत्तामें मैंने अपने कृष्णको पाया ।

 

सदाकी भांति इस बार भी श्रीअरविन्द बड़े विलक्षण ढंगसे उन मानवी शक्तियोंकी निस्सारताको हमारे सामने स्पष्ट करते हैं जिनमें प्रत्येक गर्वपूर्वक, उस सबका खंडन करता है जो उसकी चीज नहीं है या उसके ठयक्तिगत अनुभवमें नहीं आयी है ।

 

     बुद्धिमत्ता उस क्षमतासे शुरू होती है जो सब सिद्धांतोंको, अत्यधिक विरोधी सिद्धांतोंको भी, स्वीकार करती है ।

 

१-४-७०

 

३५३


४३५ - जब मैं पहली बार कृष्णसे मिला तो मै उनसे मित्र और खेलके साथीके रूपमें तबतक प्रेम करता रहा जबतक उन्होंने मुझे ठग नहीं लिया । इसके बाद मुझे क्रोध आ गया और मैं उन्हें क्षमा नहीं कर सका । फिर मैंने उनसे प्रेमिके रूपमें प्यार किया, और उन्होंने मुझे तब भी धोखा दिया; मैं और भी अधिक क्रुद्ध हो उठा किन्तु इस बार मुझे उन्हें क्षमा करना ही पड़ा ।

 

४३६ -- मुझे नाराज करके उन्होंने मुझे इस बातके लिये विवश कर दिया कि मैं उन्हें क्षमा कर दूं । यह उन्होंने हानिपूर्ति करके नहीं, बल्कि और नयी नाराजगिया पैदा करके किया ।

 

४३७ -- जबतक भगवान् मेरे प्रति किये गये अपने दोषोंको सुधारनेकी कोशिशमें लगे रहे, तबतक हम बीच-बीचमें झगड़ते रहे; किन्तु जब उन्होंने अपनी भूल जान ली तो हमारा झगड़ा भी समाप्त हो गया, क्योंकि तब मैं उनके प्रति पूर्ण समर्पण करनेके लिये विवश हो गया ।

 

४३८ -- जब मैंने संसारमें कृष्ण और अपने सिवाय औरोंको भी देखा तो मैंने अपने साथ भगवानके व्यवहारको गुप्त ही रखा । किन्तु जबसे मैंने उन्हें और अपनेको सर्वत्र देखना शुरू कर दिया है, मैं निर्लज्ज और वाचाल हा गया हूं ।

 

श्रीअरविन्दमें यह प्रतिभा थी कि वे अपने लेखोंमें अत्यधिक असाधारण अनुभूतियोंको मी अत्यधिक साधारण शब्दोंमें अभिव्यक्त करते थे । इस प्रकार वे आभास देते हैं कि उनकी अनुभूतियां बड़ी सरल एवं स्पष्ट है ।

 

२-४-७०

 

४३९ -- जो कुछ मेरे प्रेमिका है, बह सब मेरा है ! यदि मैं उन सुन्दर आभूषणोंका, जो उन्होंने मुझे दिये हैं, प्रदर्शन करता हूं तो तुम मुझे बुरा-भला क्यों कहते हो ?

 

४४० -- मेरे प्रेमीने अपना ताज और राजसी हार अपने सिर

 

३५४


और गलेसे उतारकर मुझे पहना दिये; किन्तु सन्तों और धर्मोपदेशकोंके शिष्योंने मुझे दुर्वचन कहे और बोले : ''यह सिद्धियोंके पीछे पड़ा है।',

 

४४१ -- मैंने संसारमें अपने प्रेमिके आदेशको माना और अपने विजेताकी इच्छाके अनुसार कार्य किया, किन्तु बे सब चिल्ला उठे : ''युवकोंको बिगाड़नेवाला, नीति-धर्मको भ्रष्ट करनेवाला यह कौन है ? ''

 

४४२ -- ओ सन्तो, यदि मैंने तुम्हारी प्रशंसा पानेकी चिन्ता की होती, ओ धर्मोपदेशको, यदि मुझे यशप्राप्तिकी इच्छा होती तो मेरा 'प्रेमी' कभी मुझे अपने हदयसे न लगाता, न ही मुझे कभी अपने निजी कक्षोंमें आनेकी स्वतंत्रता देता ।

 

४४३ -- मै तो अपने 'प्रेमी' के उल्लासपूर्ण सौन्दर्यमें मतवाला हो गया था और मैंने संसार-मार्गके बीचमें ही संसारकी पोशाकको उतार फेंका । अब यदि संसारके प्राणी मेरा उपहास करते हैं और धर्मात्मा लोग अपना मुंह फेर लेते हैं तो मैं इसकी चिन्ता क्यों करूं ?

 

४४४ -- हे प्रभु, तेरे प्रेमीके लिये संसारकी निन्दा वनका मधु है और भीड़दुरा बरसाए पत्थर शरीरपर पड़नेवाली ग्रीष्म ऋतुकी वर्षाकी फुहार हैं । यह सब क्या आप ही नहीं कर रहे हैं, मुझपर बरसनेवाले और मुझे चोट पहुंचनेवाले पत्थरोंमें भी क्या आप ही विधमान नहीं हैं ?

 

इसमें कहनेको कुछ नहीं है । हम केवल इस अनुभूतिकी पूर्णताके आगे सिर ही नवा सकते हैं ।

 

३-४-७०

 

४४५ -- भगवान में ऐसी दो वस्तुएं हैं जिन्हें मनुष्य बुरा कहते हैं, एक बह, जिसे वे एकदम नहीं समझ सकते और दूसरी बह, जिसे वे गलत समझते हैं, और जिसे पाकर

 

३५५


दुरुपयोग करते हैं : जिस वस्तुकी वे मिथ्या गर्वसे तलाश करते हैं तथा जिसे वे समझते भी अस्पष्ट रूपसे हैं उसे ही वे भला और पवित्र कहते हैं । किन्तु मेरे लिये भगवानकी सभी वस्तुएं प्रेमके योग्य हैं ।

 

४४६ -- हे मेरे प्रभु, वे कहते हैं कि मैं पागल हूं क्योंकि मैं तुझमें कोई दोष नहीं देखता; किन्तु यदि मैं सचमुचमें तेरे प्रेममें पागल हूं तो मैं अपने होश-हवासमें वापिस नहीं आना  ।

 

४४७ - बे चिल्लाते हैं : ''म्गन्तियां, मिथ्यात्व, लड़खड़ाहटें'' ! कितनी सुन्दर हैं तेरी म्गन्तियां, प्रभु ! तेरे मिथ्यात्व ही 'सत्य'को जीवित रखते हैं; तेरी लड़खड़ाहटें ही जगत्में पूर्णता लाती हैं ।

 

४४८ -- मैं भावोद्वेगोंको चिल्लाते सुनता हू, ''जीवन, जीवन, जीवन! '' आत्माका उत्तर होता है : ''भगवान्, भगवान्, भगवान् ! '' जबतक तुम जीवनको भगवानके रूपमें नहो देखोगे और उसी रूपमें उससे प्रेम नहीं करोगे, तबतक जीवन तुम्हारे लिये मुहरबन्द आनन्द रहेगा ।

 

४४९ -- इन्द्रियां कहती हैं : ''बह उससे प्रेम करता हैं", किन्तु आत्मा कहती है : ''भगवान्, भगवान्, भगवान् ।', जीवनका सर्वग्राही सूत्र यही है ।

 

इसी प्रकार श्रीअरविन्द जीवनके रहस्यको हमारे सामने प्रकट एवं सूत्रबद्ध करते हैं । अब इसे समझना और जीवनमें उतारना ही बाकी

 

४-४-७०

 

४५० -- यदि तुम क्षुद्रतम कीड़े और अधमतम अपराधीसे प्रेम नहीं कर सकते तो तुम यह कैसे सोच सकते हो कि तुमने अपनी आत्मामें भगवानको स्वीकार कर लिया है ?

 

३५६


४५१ -- संसारको । अलग रखकर भगवानके साथ प्रेम करना उनकी तीव्र किन्तु अपूर्ण आराधना है ।

 

४५२ -- क्या प्रेम सिर्फ ईर्ष्याकी पुत्री या दासी है ? यदि कृष्ण चंद्रावली'से प्रेम करते हैं तो मैं भी उससे प्रेम क्यों न करूं ?

 

४५३ -- चूंकि तुम भगवान्से ही प्रेम करते हो इसलिये तुम्हारी मांग होती है कि बे दूसरोंसे प्रेम न करके तुमसे ही प्रेम करें, किन्तु तुम्हारी यह मांग झूठी है, सत्यकी तथा अन्य वस्तुओंकी प्रकृतिसे उलटी है । कारण, ३ तो एकमेव हैं किन्तु तुम बहुतोंमेंसे एक हो । वस्तुतः तुम अपने हृदय और 'अपनी आत्मामें सब प्राणियोंके साथ एक हो जाओ, तब संसारमें उनके पास प्रेम करनेके लिये तुम्हारे सिवाय अन्य कोई नहीं होगा ।

 

४५४ -- मेरा झगड़ा उन लोगोंके साथ है जो इतने मूर्ख हैं कि मेरे प्रेमीसे प्रेम नहीं करते, उनके साथ मेरा झगड़ा नहीं जो मेरे साथ उनके प्रेममें हिस्सा बंटाते हैं ।

 

४५५ -- जिनसे भगवान् प्रेम करते हैं उनमें आनन्द मानो; जिनसे वे प्रेम न करनेका बहाना करते हैं, उनपर दया करो ।

 

ईर्ष्याकी यह अधिक-से-अधिक सुन्दर आलोचना है, साथ ही इससे मुक्त होनेका सर्वोत्तम उपाय मी यह है । अहंभावकी सीमाओंको पार करके तथा भागवत प्रेमके साथ युक्त होकर ही ऐसा किया जा सकता है, उस भागवत प्रेमके साथ जो शाश्वत और विश्वव्यापी है ।

 

६-४-७०

 

४५६ -- क्या तुम नास्तिकसे इसलिये घृणा करते हो क्योंकि बह भगवान्से प्रेम नहीं करता ? तो क्या तुमसे भी घृणा की जाय, क्योंकि तुम भी भगवानके साथ पूरा-पूरा प्रेम नहीं करते ?

 

   कृष्ण सब गोपियोंमें सबसे अधिक प्रेम राधासे करते थे पर वे चंद्रावली तथा अन्य गोपियोंसे मी तो प्रेम करते थे ।

 

३५७


४५७ -- विशेषतया एक वस्तुमें धर्म और गिरजाघर असुरके सम्मुख अपनी हार मान लेते हैं और यह है उनके अभिशाप । जब पादरी अभिशापका प्रसंग छेड़ता है तो मैं शैतानको प्रार्थना करते देखता हूं ।

 

४५८ -- इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब पुरोहित या पादरी शाप दे रहा होता है तो वह देवतासे ही कुछ कह रहा होता है । किन्तु तब बह अपने शत्रुके साथ-साथ क्रोधके देवताकी, अन्धकारके देवताकी अराधनामें लगा होता है । कारण उसकी जो वृत्ति भगवानकी ओर होगी उसी वृत्तिके साथ भगवान् उसे ग्रहण करेंगे ।

 

४५९ -- शैतान मुझे तबतक बहुत कष्ट देता रहा जबतक मुझे यह पता न लगा कि भगवान् ही मुझे प्रलोभन दे रहे थे; तय उसकी वेदना मेरी आत्मासे सदाके लिये चली गयी ।

 

४६० -- मैं शैतानसे घृणा करता था और उसके प्रलोभनों और उसकी यंत्रणाओंसे तंग आ गया था । पर मुझे पता नहीं उसके विदाईके शब्दोंकी आवाज इतनी मधुर क्यों थो कि जब वह लौटकर मेरे पास आता -- जैसा कि प्रायः ही होता था - तो मैं दुःखके साथ ही उसे अस्वीकार करता था । तब मैंने जाना कि यह तो कृष्णकी ही लीला थी और मेरी घृणा हंसीमें बदल गयी ।

 

४६१ -- उन लोगोंके अनुसार संसारमें बुराई इसलिये है कि शैतानने भगवान्पर विजय पा ली है, किन्तु मैं अपने प्रेमपात्रके बिषयमें अधिक गर्वपूर्वक सोचता हूं। मेरा विश्वास है कि उनकी इच्छाके बिना स्वर्गमें या नरकमें, जलमें या थलमें, कहीं भी कुछ नहीं होता ।

 

सर्वोच्च भगवान्में विरोधी वस्तुएं परस्पर समझौता कर लेती है और एक-दूसरेको पूर्ण बनाती हैं । अभिव्यक्त सृष्टिमें, वस्तुत: विभाजन ही विरोधी वस्तुओंको जन्म देता है; किंतु जब व्यक्ति अपनी चेतनाको मागबत चेतनाके साथ युक्त कर लेता है तो विरोध मी समाप्त हों जाता है।

 

७-४-७०

 

३५८


४६२ -- अपने अज्ञानमें हम बच्चों जैसे हैं हम सीधे और बिना सहारेके चलनेमें अपनी सफलतापर गर्व करते हैं तथा चलनेके लिये इतना उत्सुक रहते हैं कि अपने कन्धोंपर मौक़े सभालनेवाले स्पर्शको अनुभव ही नहीं करते । जब हम जागते और पीछे देखते हैं तो पाते हैं कि सर्वदा भगवान् ही हमें पकड़े हुए चला रहे थे ।

 

४६३ -- पहले-पहल जब मैं पापमें जा गिरता तो रोया करता था और अपने ऊपर क्रुद्ध हो उठता था और भगवान्से भी नाराज हो जाता कि उन्होंने यह कैसे होने दिया । उसके बाद मैं बस इतना ही पूछ पाता था : ''ऐ मेरे बाल सखा, तूने मुझे फिरसे कीचड़में क्यों लुढ़का दिया ? '' फिर मुझे यह भी बहुत दुस्साहस और धृष्टताकी बात लगी । मैं बस चुपचाप उठ खड़ा होता, उसे कनखियोंसे देखता और अपने-आपको धो डालता था ।

 

जबतक व्यक्ति अपने पुण्यपर अभिमान करता रहेगा, परम प्रभु उसे विनयकी आवश्यकता सिखानेके लिये पाप-गर्तमें गिराते रहेंगे ।

 

८-४-७०

 

४६४ -- भगवान् ने जीवनको ऐसे व्यवस्थित किया है कि संसार आत्माका पति बन गया है और कृष्ण हैं उसके दिव्य यार । हमारे ऊपर संसारकी सेवा करनेका एक ऋण है और हम उससे एक विधानके दुरा, एक बाध्य करनेवाले मतके दुरा तथा दुःख-सुखके सार्वजनीन अनुभवदुरा बन्ने हुए हैं, परन्तु हमारे हदयकी पूजा, हमारी शक्ति और गुप्त आनन्द तो हमारे दिव्य प्रेमिके लिये ही है ।

 

४६५ - भगवानका आनन्द गूढ़ और अद्भुत है; यह एक रहस्यकी वस्तु है और एक ऐसा परमोल्लास है जिसपर समझदारी उपहास करनेके लिये मुंह बनाया करती है, परन्तु जिस आत्माने उसे एक बार चख लिया है वह कभी उसका त्याग नहीं कर सकती, भले ही उसके कारण संसारमें चाहे जितनी बदनामी, पीड़ा और परेशानी उठानी पड़े ।

 

३५९


अभीतक तो संसार इस विशुद्ध, आलोकपूर्ण, दिव्य आनंदका विरोधी ही प्रतीत होता है; किन्तु एक दिन आयेगा जब संसार भी इस दिव्य आनन्दको अभिव्यक्त करेगा । इस कार्यके लिये उसे तैयार करना होगा ।

 

 ९-४-७०

 

४६६ -- भगवान् जगद्गुरु तेरे मनसे कहीं अधिक ज्ञानी हैं; बस, उन्हीं पर विश्वास रख, न कि उस चिर-स्वार्थापरायण, उद्धत संदेहवादीपर ।

 

४६७ -- अविश्वासी सन सर्वदा संदेह करता है, क्योंकि वह समझ नहीं सकता; परन्तु भगबत्-प्रेमीका विश्वास जाननेके लिये आग्रह करता है यधापि समझ नहीं पाता । हमारे अन्धकारके लिये ये दोनों ही आवश्यक हैं । परन्तु इस विषयमें कोई सन्देह नहीं कि उन दोनोंमेंसे अधिक शक्तिशाली कौन है । जिसे मै अभी नहीं समझ पाता उसे किसी दिन आयत्त कर लूंगा, पर यदि मैं विश्वास और प्रेमको ही खो बैठ तो एकदम उस लक्ष्यसे भ्रष्ट हो जाऊंगा जिसे भगवानने मेरे सामने रखा है ।

 

४६८ -- मैं भगवान्से, अपने पथप्रदर्शक और गुरुसे, प्रश्न कर सकता हूं और पूछ सकता हूं कि क्या मैं सही हूं अथवा अपने प्रेम और ज्ञानके वश तूने मेरे मनको मुझे धोखा देनेका मौका दिया है ? तू चाहे तो अपने मनपर सन्देह कर, पर इस बातपर सन्देह न कर कि भगवान् तुझे पथ दिखा रहे हैं ।

 

जीवन हमें इसलिये दिया गया है कि हम भगवान्को प्राप्त कर सकें और उनके साथ संयुक्त हो सकें ।

 

   मन हमें फुसलानेकी चेष्टा करता है कि ऐसा नहीं है; क्या हम इस झूठेका विश्वास करें ?

 

१० -४-७०

 

२६०


४६९ -- चूंकि तुझे सर्वप्रथम भगवानके विषयमें अपूर्ण धारणाएं दी गयी थीं इसलिये अब तू नाराज. हो रहा है और उन्हें अस्वीकार कर रहा है । ऐ मनुष्य ! क्या तु अपने शिक्षक पर सन्देह करता है क्योंकि उसने तुझे आरंभ में ही सारा ज्ञान नहीं दे दिया था ? तू उस अपूर्ण सत्यका अध्ययन कर और उसे यथास्थान रख दे ताकि तू सुरक्षित रूपमें उस विशालतर ज्ञानतक जा सकें जो अब तेरे सम्मुख उद्घाटित हो रहा है ।

 

४७० -- बस, यही तरीका है जिससे भगवान् अपने प्रेमवश शिशु अन्तरात्मा तथा दुर्बल प्राणिकों शिक्षा देते हैं वे उन्हें एकएक पग आगे ले जाते हैं तथा अपने चरम एवं अभी अप्राप्य पर्वत-शृंगोंका दर्शन नहीं होने देते । और, क्या हम सबके अन्दर कोई-न-कोई दुर्बलता नहीं है ? क्या उनकी वृष्टिमें हम सब-के-सब केवल नन्हीं बच्चे ही नहीं हैं ?

 

४७१ -- मैंने देखा है कि भगवानने मुझे जो कुछ नहीं दिया वह अपने प्रेम तथा ज्ञानके वश ही रोक रखा है । यदि मैंने उस समय उसे पा लिया होता तो मैं किसी महान् अमृतका एक महान् विषयमें बदल देता । फिर भी कभी-कभी, जब हम हठ करते है तो, भगवान् हमें विष पीनेके लिये दे देते हैं ताकि हम उससे मुंह मोड़ना सीख सकें तथा ज्ञानपूर्वक उनकी दिव्य सुधा और अमृतरसका आस्वादन कर सकें ।

 

जब मनुष्य थोड़ा और बुद्धिमान् हो जायगा तो वह किसी मी विषयमें शिकायत नहीं करेगा और भगवान्द्रारा दी गयी वस्तुओंको उनकी कृपाके रूपमें स्वीकार करेगा, ऐसी कृपाके रूपमें जौ अत्यधिक अनुग्रहपूर्ण है ।

 

  हम उनके प्रति जितने अधिक समर्पित होंगे उतना अधिक उन्है, समझ सकेंगे ।

 

   हम उनके प्रति जितने अधिक कृतज्ञ होंगे उतने अधिक प्रसत्र रहेंगे ।

 

११-४-७०

 

३६१


४७२ -- आज नास्तिकको भी यह देख सकना चाहिये कि सृष्टि किसी असीम और शक्तिशाली उद्देश्यकी ओर अग्रसर हो रही है, उस उद्देश्यकी ओर जिसे क्रमविवर्तन अपने स्वभाववश ही स्वीकार करता है । परन्तु असीम उद्देश्य और उसकी परिपूर्ति पहले ही मान लेती है कि कोई असीम प्रज्ञा है जो तैयार करती, रास्ता दिखाती, गढ़ती, रक्षा करती और समर्थन करती है । तब उस दिव्य प्रज्ञाका आदर कर, और, मन्दिरमें धूपबत्तीके दुरा नहीं तो, अपनी अन्तरात्मामें चिन्तनके द्वारा उसकी पूजा कर । यदि सु अनन्त प्रेमवाले हृदय तथा अनन्त आत्म-ज्योतिवाले मनको अस्वीकार करे तो भी उसकी पूजा कर । तब तू देखेगा कि, यद्यपि तू बिना जाने जिसका आदर करता और पूजा करता है वह श्रीकृष्ण ही हैं ।

 

शब्दोके परे और विचारोंके परे भगवानकी सर्वोच्च उपस्थिति हमें अपना अनुभव कराती है, तथा आश्चर्य और प्रशंसा करनेके लिये बाधित करती है ।

 

   हमें उन सब मानसिक धारणाओंसे पृथक् रहना चाहिये जो वस्तुओं- को सीमित एवं विकृत करती है । हमें संपर्कको शुद्ध रखनेके लिये प्रयत्न करना होगा ।

 

१२-४-७०

 

४७३ -- प्रेमेश्वरने कहा है, जो लोग अज्ञेय और अनिर्देश्यकी उपासना करते हैं वे मेरी ही उपासना करते हैं और मैं उन्हें स्वीकार करता हूं । उन्होंने अपनी वाणीके दुरा मायावादी और अज्ञेयवादीका समर्थन किया है । तब, हे भक्त, तू भला उसकी निन्दा क्यों करता है जिसे तेरे परम प्रभुने स्वीकार कर लिया है ?

 

   भागवत दृष्टिमें सभी सच्ची मानवीय अभीप्साएं स्वीकार करने योग्य है, चाहे उनके स्वरूपोंमें कितनी भी विषमताएं या प्रत्यक्ष असंगतिया क्यों न हों ।

 

और ये सब मिलकर भी भागवत सत्ताको अभिव्यक्त करनेके लिये काफी नहीं है ।

 

१३-४-७०

 

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४७४ -- जिस कालविनने शाश्वत नरकके अस्तित्वका प्रतिपादन किया उसने भगवानको नहीं जाना, बल्कि उनके एक भयावह छद्यवेशको ही उनका शाश्वत सत्य बना दिया । यदि कोई नित्य नरक हो तो वह केवल नित्य आनन्दोल्लासका ही एक निवास-स्थान हो सकता है; क्योंकि भगवान् आनन्द है और उनके आनन्दकी शाश्वतताके अतिरिक्त दूसरी कोई शाश्वतता है ही नहीं ।

 

४७५ -- दांतेने जब यह कहा कि भगवानके पूर्ण प्रेमने ही शाश्वत नरककी सृष्टि की थी तो संभवतः बह जितना जानता था उससे कहीं अधिक ज्ञानकी बात लिख गया; क्योंकि यदा-कदा प्राप्त होनेवाली झांकियोंके द्वारा मुझे यह धारणा हो गयी है कि कोई एक नरक है जहां हमारी अन्तरात्मा युगोंतक असह्य आनन्दका उपभोग करती है तथा मधुर और भयंकर रुद्रकी एकान्त गोदमें मानों चिरदिन लोटा करती है ।

 

भागवत वैभव मनुष्यकी क्षुद्रता और संकीर्णताके लिये बहुत अधिक चमत्कारपूर्ण है, वह उसे कठिनाईसे सहन कर पाती है. और आनंदकी मनुष्यके लिये बहुत अधिक असहनीय हो सकती है ।

 

१४-४-७०

 

४७६ -- जगद्गुरु भगवानका शिष्य बनना, जगत्पिता भगवानका पुत्र होना, जगन्माता भगवानका स्नेह पाना, दिव्य सुहृद्का हाथ पकड़े रहना, अपने दिव्य सहचर तथा बाल-सखाके साथ हंसना- खेलना, स्वामी भगवानकी आनन्दपूर्वक सेवा करना, अपने दिव्य प्रेमीसे उल्लासके साथ प्रेम करना -- मानवशरीरमें जीवनके ये सात प्रकारके आनन्द हैं । क्या तू इन सबको एक ही सर्वोत्तम और सतरंगी सम्बन्धके अन्दर युक्त कर सकता है? तब तुझे किसी स्वर्गकी आवश्यकता न रहेगी और इ अद्वैतवादीकी मुक्तिको भी अतिक्रम कर जायगा ।

 

    सोलहवीं शताब्दीके एक प्रसिद्ध सुधारक और लेखक ।

  

    इटलीके सर्वश्रेष्ठ कवि ।

 

३६३


इसके आगे और कुछ कहनेको नहीं है । यह कार्य-व्यवस्था अपने-आपमें पूर्ण है ।

 

   अब हमें इसे केवल चरितार्थ करना है ।

 

 १५-४-७०

 

४७७ -- यह संसार बदलकर स्वर्गकी प्रतिमूर्ति कब बनेगा? जब समूची मानवजाति बालक और बालिकाएं बन जायगी और उनके साथ-साथ स्वयं भगवान् भी कृष्ण और कालीके रूपमें प्रकट होंगे, जो उस दलके स्वसे अधिक प्रसन्न बालक और सबसे अधिक शक्तिशाली बालिका होंगे और स्वर्गके बगीचेमें एक संग खेलेंगे । सामी अधन ( सेमेटिक ईडन) काफी अच्छा था, पर आदम और हवा इतनी बढ़ी उखके थे और स्वयं उनके भगवान् भी इतने अधिक वृद्ध और कठोर और गंभीर थे कि सर्पकी प्रस्तावका प्रतिरोध न कर सके ।

 

४७८ -- सामयोनि एक ऐसे भगवानकी कल्पना करके मनुष्य- जातिको व्यथित किया जो कठोर और महाप्रतापी राजा है, नियम- निष्ठ विचारकर्ता है और जिसका हास्य-उल्लाससे कोई सरोकार नहीं । परन्तु हम लोग, जिन्हेंने कृष्णको देखा है, यह जानते हैं कि वह एक बालक है जो खेलनेका बड़ा शौकीन है तथा एक बच्चा है जो शरारत और सुखदायी खिलखिलाहटसे भरा रहता है ।

 

४७९ -- जो भगवान् हंस नहीं सकता बह इस हास्यजनक विश्व- का निर्माण भी न कर पाता ।

 

मिथ्यात्वकी शक्तियोंके विरुद्ध व्यंगका शस्त्र ही अत्यधिक बलशाली प्रमाणित होता है ।

 

   एक वाक्यसे ही श्रीअरविंद मनुष्य-निर्मित देवताओंमेंसे एकाकी शक्तिको नष्ट कर देते हैं ।

 

१७-४-७०

 

३६४


४८० -- भगवानने एक बच्चेको दुलारनेके ' लिये अपनी आनंद- मय गोदमें ले लिया, परंतु मां रोने लगी और उसे सांत्वना नहीं दी जा सकी, क्योंकि उसके बच्चेका कोई अस्तित्व ही नहीं रहा ।

 

४८१ -- जय मै किसी दुःख या शोक या दुर्भाग्यके कारण कष्ट पाता हूं तो कह उठता हूं : ''अच्छा, मेरे खेलके पुराने साथी, तूने फिर मुझे सताना आरंभ कर दिया'', और फिर मैं दुःखका सुख, शोकका हर्ष तथा दुर्भाग्यका सौभाग्य प्राप्त करनेके लिये बैठ जाता हूं; तब भगवान् देखते हैं कि बे पकड़े गये और बह अपने भूतों तथा हौओंको मुझसे हटा लेते हैं ।

 

श्रीअरविंद कितने चमत्कारपूर्ण हास्यके साथ हमें साधारण मानव चेतनाकी असत्यता और साथ ही भागवत चेतनाके आलोकपूर्ण एवं सर्वशक्तिमान् आनंदको समझानेका प्रयत्न करते है, जिसे हमें प्राप्त करना है ।

 

 १८१ -४ - ७०

 

४८२ -- दिव्य ज्ञानके साधकको गोपियोंके चीर हरणमें जीवके साथ शिकवे व्यवहारका एक अत्यंत गहरा रूपक दिखायी देता है, भक्तको अपने हदयकी गुह्य अनुभूतियोंकी भागवत कर्मके रूपमें एक पूर्ण अभिव्यक्ति दिखायी देती है और लंपट तथा अतिनैतिक (एक हा मनोभावके दो रूप) को केवल कामुकतापूर्ण कहानी दिखायी देती है । स्वयं अपने अंदर जो कुछ होता है मनुष्य उसे ही सामने लाते और उसीको शास्त्रोंमें प्रतिफलित देखते है ।

 

४८३ -- मेरे प्रेमीने मेरे पापके वस्त्रको उतार लिया और मैंने उसे खुशीसे गिर जाने दिया । तब उन्होंने मेरे पुष्यका वस्त्रको खींचा, पर मैं लज्जित और भयभीत हो उठा और उन्हें रोक दिया । परंतु जब उन्होंने उसे मुझसे जबर्दस्ती छीन लिया केवल तभी मुझे पता चला कि मेरी अंतरात्मा मुझसे कैसे छिपी हुई थी ।

 

३६५


(इसपर माताजी मौखिक रूपसे कहती हैं :) चलो, हम अपने पुण्यके चोगे- को त्याग दें, ताकि 'सत्य'के लिये तैयार हो सकें ।

 

२२-४-७०

 

४८४ -- पाप श्रीकृष्णकी एक चालाकी और छद्यवेश है जिससे वह धर्मात्माओंकी दृष्टिसे अपने-आपको छिपाये रखते हैं । ऐ धर्मार्थ! पापीमें भगवानको देख, अपने अंदर पापको देख जो तेरे हृदयको पवित्र बना रहा है और अपने भाईको खातीसे लगा ।

 

 

सदा की भांति यहां भी श्रीअरविंद अपने विशिष्ट विनोदपूर्ण ढंगसे हमें कि भागवत सत्य पाप और पुण्य दोनोंसे ऊपर है ।

 

१९-४-७०

 

४८५ -- भगवानके प्रति प्रेम, मनुष्योंके प्रति उदारता -- बस, यही पूर्ण प्रज्ञाकी ओर जानेका पहला पग है ।

 

४८६ -- जो असफलता और अपूर्णताकी निन्दा करता है बह भगवानकी निन्दा करता है; बह अपनी निजी आत्माको सीमित करता और अपनी निजी दृष्टिको धोखा देता है । निन्दा मत कर, बल्कि प्रकृतिका निरीक्षण कर, अपने भाइयोंकी सहायता कर और उन्हें स्वस्थ बना तथा सहानुभूतिके द्वारा उनकी क्षमता और साहसको प्रबल बना ।

 

४८७ -- पुरुषके प्रति प्रेम, स्त्रीके प्रति प्रेम, चीजोंके प्रति प्रेम, अपने पड़ोसीके प्रति प्रेम, अपने देशके प्रति प्रेम, पशुओंके प्रति प्रेम, मनुथ्यजातिके प्रति प्रेम आदि सभी उस भगवानके प्रति प्रेम है जो इन सजीव प्रतिमाओंके अंदर प्रतिफलित होता है । हमें प्रेम करना और शक्तिशाली बनना, सब कुछ उपभोग करना, सब- को सहायता देना और नित्य-निरंतर प्रेम करते रहना है ।

 

४८८ -- यदि ऐसी चीजों हों जो रूपांतरित होना एकदम अस्वी-

 

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कार करती हों अथवा संशोधित .होकर भगवानकी अधिक पूर्ण प्रतिभा बननेसे इन्कार करती हों तो हृदयमें कोमलता, पर प्रहारमें निष्ठुरता रखकर उनका विनाश किया जा सकता है । परंतु सबसे पहले इस विषयमें निसंदिग्ध हो जा कि भगवानने ही तुझे तेरी तलवार और तेरा कार्य प्रदान किया है ।

 

४८९ - मुझे अपने पड़ोसीसे प्यार करना चाहिये, पर इसलिये नहीं कि वह हमारे पड़ोसमें रहता है, -- क्योंकि आखिर पड़ोस- मे और दूरमें क्या रखा है? और न इसलिये कि धर्म मुझे यह सिखाते है कि वह मेरा भाई है, -- क्योंकि उस म्लतत्वके जड़ कहां है? बल्कि इसलिये कि वह स्वयं मेरी आत्मा है । पड़ोस और दूरी शरीरको प्रभावित करते हैं पर हृदय उनसे परे चला जाता है । म्गतृत्वभाव रक्तका, देशका, धर्मका था मानवताका होता है, पर जब स्वार्थ अपनी परिपूर्तिके लिये मचलता है, तब इस म्गतृत्वका क्या हाल होता है? जब मनुष्य भगवान्में निवास करता है और अपने मन, हृदय और शरीरको उनकी विश्व- व्यापी एकताकी प्रतिमूर्तिमें बदल देता है केवल तभी उस गभीर, निःस्वार्थ एवं दुर्धर्ष प्रेमको पाना संभव होता है ।

 

एकता तथा परस्पर प्रेमके लिये दिये गये सभी मानवीय कारणोंका मूल्य कम होता है और उनका प्रभाव कम ही होता है । भगवान्से प्रति सचेत बनकर, उनके साथ तादात्म्य पाकर ही सच्चा ऐक्य संभव हो सकता है ।

 

२०-४-७०

 

४९० -- जब मै श्रीकृष्णमें निवास करता हूं तब अहंकार और स्वार्थ विलीन हो जाते हैं । केवल भगवान् ही मेरे प्रेमको अतल और असीम होनेके योग्य बना सकते हैं ।

 

४९१ -- श्रीकृष्णमें निवास करनेपर शत्रुता भी प्रेमकी ही एक क्रीड़ा तथा भाइयोंकी मल्लयुद्ध बन जाती है ।

 

४९२ -- जिस जीवने उच्चतम आनंदको हस्तगत कर लिया है उसके लिये जीवन कोई अशुभ वस्तु या दुःखदायी मर्म नहीं हो

 

३६७


   सकता; उसके लिये तो सारा जीवन ही किसी दिव्य प्रेमी तथा बालसखाका लहराता प्रेम और हास्य बन जाता है ।

 

किसी भी परिस्थितिमें दिव्य संबंध रख सकना परमानंदका रहस्य है ।

 

 २१-४-७०

 

४९३ -- क्या तू भगवानको निराकार अनंतके रूपमें देख सकता है और फिर भी उनसे वैसे ही प्यार कर सकता है जैसे कोई मनुष्य अपनी प्रेमिकासे प्यार करता है? तभी कहा जा सकता है कि अनंतका उच्चतम सत्य तेरे सम्मुख प्रकट हो गया है । फिर तू क्या अनंतको एक गुप्त, आलिंगन करने योग्य शरीर प्रदान कर सकता है और ये जो दृश्य और ग्राह्य शरीर हैं उन- भैंसे प्रत्येकमें और सबमें उन्हें देख सकता है? तभी कहा जा सकता है कि उसका विशालतम और गभीरतम सत्य भी तेरे अधिकारमें आ गया है ।

 

४९४ -- भागवत प्रेम एक साथ दिविध क्रीड़ा करता है -- उसकी एक तो विश्वव्यापी गति, पातालके समुद्रकी तरह गभीर, शांत और अतल होती है, जो समग्र जगतके ऊपर तथा उसके अंदरकी प्रत्येक चीजके ऊपर झुकी रहती है मानों किसी समतल भूमिपर एकसमान दबाव डालकर झुकी हुई हो, और दूसरी शाश्वत गति जो उसी समुद्रकी नर्तनकारी सतहकी तरह शक्तिशाली, तीव्र और आनदपूर्ण होती है जो. अपनी तरंगोंके वल और पराक्रमको बदलती रहती है तथा उन बस्तुओंको चुनती है जिनपर वह अपने फेन और फुहारेके चुंबन देती हुई तथा अपने निमज्जित करनेवाले जलसे आलिंगन करती हुई गिरना चाहती है ।

 

अपनी बात समझानेके लिये श्रीअरविदने उन चित्रोंका उपयोग किया है जो सबके लिये सुलभ हैं । किन्तु वास्तवमें ऐक्यका चमत्कार इन मानवीय चीजोंसे अनंतगुना पर है ।

 

२२-४-७०

 

३६८


४९५ -- मै पहले दुःख-दर्दसे घृणा किया करता, उससे बचनेकी चेष्टा किया करता तथा उसके आगमनपर रोष किया करता था । परंतु अब मैं देखता हूं कि यदि मैंने दुःख न भोगा होता तो अब, इस प्रकार प्रशिक्षित और पूर्ण बनकर, अपने मन, हृदय और शरीरमें आनंद भोग करनेकी असीम और असंख्य रूपसे बोधक्षम इस क्षमताको अभी आयत्त न कर पाता । जब भगवान् एक निर्दयी और अत्याचारी व्यक्तिके रूपमें अपने-आपको छिपाये रखते हैं तो भी अंतमें बह अपने पक्षकी यथार्थता सिद्ध करते हैं ।

 

४९६ -- मैंने शपथ ली कि मैं संसारके शोक-ताप और संसारकी मूढ़ता, निर्दयता तथा अन्यायसे कभी दुःख नहीं पाऊंगा और मैंने अपने हृदयको सहनशीलतामें पातालकी चक्कीकी तरह कठोर बना लिया एवं अपने मनको इस्पातकी चिकनी सतहके समान । अब मुझे कोई कष्ट नहीं होता था, पर मैं सुख-भोगकी क्षमता भी खो बैठा, फिर भगवानने मेरा हृदय चूर-चूर कर डाला और मेरे मनको जोत दिया । उसके बाद मैं निर्दय और अविराम यातनामेंसे गुजरकर एक सुखकारी दु:खहीनताके अंदर तथा शोक, क्रोध और विद्रोहमेंसे होकर एक अनंत ज्ञान एवं सुस्थिर शांतिके अंदर जा पहुंचा ।

 

यह वही पाठ है जो परम प्रभु उस कायाको सिखाना चाहते हैं जिसका वे रूपांतर करनेमें लगे है ।

 

२३-४-७०

 

४९७ -- जब मैंने जाना कि दुःख आनंदका ही उल्टा पहलू है और उसीकी प्राप्तिका साधन है तो मैं अपने ऊपर आघातोंकी बौछारका स्वागत करने लगा तथा अपने सारे अंगोंमें पीड़ा बढ़ाने लगा; क्योंकि उस समय भगवानका उत्पीड़न भी मुझे धीमा, स्वल्प और अपर्याप्त प्रतीत होता था । तब मेरे परम प्रेमीको मेरा हाथ पकड़कर रोकना पड़ा और चिल्लाकर कहना पड़ा : ''बंद करो; क्योंकि मेरे कोड़े ही तुम्हारे लिये काफी हैं ।''

 

४९८ -- पुराने युगके साधुओं तथा अनुतापियोंका अपने-आपको

 

३६९


पीड़ा पहुंचाना उल्टे पथपर चलना और मूर्खतापूर्ण था; फिर भी उनकी स्वभाव-विकृतिके पीछे ज्ञानका एक प्रच्छन्न रूप विधमान था ।

 

४९९ -- भगवान् हमारे दिल और पूर्ण मित्र हैं, क्योंकि वह एक ही साथ यह जानते हैं कि कब थप्पड़ लगाना और क्या पुचकारना चाहिये, कब हमारी रक्षा और सहायता करनी चाहिये और वैसे ही कब हमारी हत्या करनी चाहिये ।

 

बस, एक ही शान है जो सच्चा हो सकता है और वह है परमेश्वर- का ज्ञान । अतः व्यक्तिगत इच्छाओंका पूरा त्याग करके केवल वही चाहना जो भगवान् चाहते है -- यही सचमुच ज्ञानी बननेकी एकमात्र  रीति है ।

 

 २४-४-७०

 

५०० - समस्त प्राणियोंके दिव्य सुहुद शत्रुका चेहरा पहनकर अपनी मित्रताको तबतक छिपाये रखते हैं जबतक कि वह हमें उच्चतम स्वर्गके योग्य नहीं बना लेते; उसके बाद, जैसा कि कुरुक्षेत्रमें हुआ था, युद्ध, यंत्रणा तथा विनाशके देवताका भयंकर रूप हट जाता है और श्रीकृष्णकी मधुर मूर्ति, करुणा तथा पुन:- पुनः आलिंगित देह उनके चिर-साथी और बाल-सखाकी विचलित आत्मा तथा शुद्ध नेत्रोंके सामने चमक उठती हैं ।

 

५०१ -- यंत्रणा हमें आनंदके अधीश्वरकी संपूर्ण शक्ति धारण करनेके योग्य बनाती है; यह हमें बलवर्धक अधीश्वरकी दूसरी लीलाका सहन करनेकी क्षमता भी प्रदान करती है । दुःख बह कुंजी है जो बल-सामर्थ्यका दुरा उन्मुक्त करती है; दुःख बह राजपथ है जो हमें आनंद-नगरीतक पहुंचा देता है ।

 

५०२ -- फिर भी, ऐ मानवात्मा, दुःखकी खोज मत कर, क्योंकि यह भगवानकी इच्छा नहीं है, केवल उनके आनंदकी ही खोज कर दुःख-कष्टका जहांतक प्रश्न है, वह तो निश्चित रूपसे उनके विधानके अनुसार उतनी बार और उतनी ही मात्रा-

 

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में तेरे पास आयेगा ही जितनी बार और जितनी मात्रामें आना तेरे लिये आवश्यक है । उस समय उसे सहन कर ताकि तू अंतमें उनके आनन्दोल्लासके भरे हृदयको खोज सके ।

 

५०३ -- और न तू, ऐ मनुष्य, अपने साथीपर ही कोई दुःख- कष्ट फेंक; दुःख पहुंचाने का अधिकार एकमात्र भगवानको ही है; अथवा उन्हें है जिनपर स्वयं भगवानने उसका भार सौंपा है । परंतु धर्मान्धताके वश, टार्कमादाकी तरह ऐसा न मान बैठ कि तू भी उनमेंसे एक है ।

 

यह कमी न भूलो कि जबतक जीवन और मनुष्यके संबंधमें तुम्हारी अपनी पसंद बनी रहेगी तबतक तुम भगवानके पवित्र तथा पूर्ण यंत्र नहीं बन सकते।

 

२८-४-७०

 

५०४ -- प्राचीन युगोंमें शक्ति और कर्मसे एकदम परिपूर्ण आत्माओंकी एक श्रेष्ठतम दृढ़ोक्ति थी : ''उतने ही निश्चित रूपमें जितने निश्चित रूपमें भगवान् विद्यमान हैं ।'' परंतु हमारी आधुनिक आवश्यकताके लिये दूसरी दृढ़ोक्ति अधिक उपयुक्त होगी : ''उतने ही निश्चित रूपमें जितने निश्चित रूप- मे भगवान् प्यार करते हैं ।',

 

हमारे दुखी युगके लिये -- जो बुद्धिके अत्यधिक प्रभुत्वके कारण लगभग शुष्क हो गया है, -- भागवत प्रेमकी अपेक्षा अधिक आवश्यक और मूल्यवान् कुछ भी नहीं है ।

 

२९-४-७०

 

  यह स्पेनकी 'धार्मिक कचहरी' (धर्मविरोधी लोगोंकी खोज करने ओर दण्ड देनेवाली संस्था) का एक प्रधान अफसर था ।

 

३७१


५०५ -- सेवा करना मुख्यतः भगवत्-प्रेमी और भगवद्-ज्ञानीफे लिये इस कारण उपयोगी होती है कि वह उसे भगवानकी स्थूल कलाकारीके विलक्षण आश्चर्योंको पूर्ण व्योरेके साथ समझने तथा उनका मूल्यांकन करनेकी योग्यता प्रदान करता है । एक तो सीखता ओर चिल्लाकर कहता है : ''देख, किस तरह आत्मा जडूतत्वमें अभिव्यक्त हुई है''; दूसरा कहता है : ''देख, मेरे प्रेमी और प्रभुका, पूर्ण कलाकार और सर्वशक्तिमान् हाथका स्पर्श देख ।',

 

हम भगवानकी सेवा कैसे कर सकते है जब कि उनके बिना हमारी कोई सत्ता ही नहीं है - ज्यादा-से-ज्यादा हम यही कर सकते है कि उन्होंने हमें जो यह सब दिया है उसीका एक अंश फूहडपनसे उनको अर्पित कर दें ।

 

३-४-७०

 

५०६ -- ऐ विश्वके ऐरिस्टोफेनीस! तू अपने जगत्को देखता है और मन-ही-मन मीठी हंसी हंसता है । पर क्या तू मुझे भी दिव्य नेत्रोंसे देखने और अपने विश्वव्यापी हास्यमें भाग लेने न देगा?

 

निःसंदेह, पृथ्वी जैसी है उसपर हंस सकनेके लिये हमारे अंदर दिव्य जैसी ही समग्र अंतर्दृष्टि होनी चाहिये ।

 

१-५-७०

 

५०७ -- कालिदास एक निर्भीक रूपक देते हुए कहते हैं कि कैलासके हिम-खंड क्या है, मानों शिवके जगत्-हास्यके निनाद परम शुम्ग्ता और शुद्धताके रूपमें पर्वत-शिखरोंपर जम गये हैं । यह सच है; और जब उनकी छाया हदयपर पड़ती है तब सांसारिक नीचेके बादलोंकी तरह विगलित होकर अपनी वास्तविक अस्तित्वहीनताको प्राप्त हो जाती है ।

 

एक हास्यरसका कवि ।

 

३७२


मानव विज्ञान बहुत ही सुनिश्चित घोषणाएं करता है; लेकिन सच्चे कारणोंकी कल्पना करनेके लिये क्षेत्र खुला है -- तब गुह्य कारणोंके लिये क्यों नहीं?

 

२-५-७०

 

५०८ -- जीवका स्वसे अधिक विलक्षण अनुभव यह है कि जब वह दुःखयलेशके आकार और उससे होनेवाली आशंकाकी परवा करना छोड़ देता है तो बह देखता है कि उसके इर्दगिर्द कहीं दुःख-क्लेशका नाम-निशान भी नहीं है । उसके बाद ही हम उन झूठे बादलोंके पीछे भगवानको अपने ऊपर हंसते हुए सुनते हैं ।

 

प्रभु, जब तुम चाहते हो कि आकार तुम्हारी समरूपतामें बदले, तो तुम क्या करते हो?

 

४-५-७०

 

     कल आपने जो लिखा था वह मेरी समझमें नहीं आया ।

 

श्रीअरविंद जिसे आकार कहते हैं वह भौतिक शरीर है । तो मैंने प्रभुसे पूछा कि जब बे भौतिक शरीरका रूपांतर करना चाहते थे तो उन्होंने क्या किया और कल रात उन्होंने मुझे दो अंतर्दर्शनोंदुरा जवाब दिया ।

 

  एक्का संबंध शारीरिक चेतनाकी मृत्यु-संबंधी सभी रुचियोंके मुक्तिके साथ था और दूसरेमें उन्होंने मुझे यह दिखाया कि अतिमानसिक शरीर कैसा होगा । देखते हो न, कि मैंने उनसे पूछकर अच्छा ही किया!

 

९-५-७०

 

५०९ -- ओ दानव ! क्या तेरा प्रयास सफल हो गया है? क्या तू रावण और हिरण्यकशिपुकी तरह बैठा देवताओं और जगत्पतिकी सेवा पा रहा है? परंतु तेरी अंतरात्मा जिस चीज- को वास्तवमें खोज रही थी बह तो तेरी पकडसे बाहर चली गयी ।

 

३७३


५१० -- रावणके मनने सोचा कि यह विश्वके एकाधिपत्य और रामके ऊपर विजय-प्राप्तिके लिये लालायित था; परंतु जिस उद्देश्यपर उसको अंतरात्माने अपनी दृष्टि चिरदिन जमाये रखी बह था यथासंभव शीक्ष-से-शीघ स्वर्गको वापस लौट जाना और फिरसे भगवानका चाकर बन जाना । अतएव, सबसे सहज पथके रूपमें, वह घोर टात्रुताके आलिंगनके साथ भगवान्पर टूर पड़ा ।

 

५११ -- सबसे महान् आनंद है नारदकी तरह भगवानका दास बन जाना; सबसे जघन्य नरक है भगवान्से परित्यक्त होकर संसारका मालिक बनना । जो चीज भगवान्-विषयक अज्ञान- पूर्ण परिकल्पनाके लिये सबसे अधिक समीप प्रतीत होती है वही उनसे सबसे अधिक दूर होती है।

 

५१२ -- भगवानका सेवक होना कुछ चीज है; भगवानका दास होना उससे बढ़कर है ।

 

श्रीअरविद हमें शास्त्रोंको समझनेका सच्चा ढंग बताते है जो इस तरह वैश्व प्रतीक बन जाते हैं ।

 

१२-५-७०

 

५१३ -- संसारका अधिपति बन जानेमें निश्चय ही चरम आनंद होगा लेकिन तभी जब सारे संसारका प्रेम प्राप्त हो; परंतु उसके लिये तो साथ-ही-साथ सारी मनुष्यजातिकागुलाम भी बनना पड़ेगा ।

 

५१४ -- आखिरकार, जब तू यह हिसाब लगायेगा कि तूने भगवानकी कितनी दीर्घ सेवा की तो तू देखेगा कि तूने मनुष्य- जातिके प्रेमके वश जो अधूरा और तुच्छ सत्कार्य किया वसु, वही तेरा सबसे बड़ा कार्य था ।

 

इसीलिये सेवाकी अपेक्षा पूर्णतया नितांत रूपसे भगवानका होकर रहना बेहतर है ।

 

१३-५-७०

 

३७४


   पूर्णतया और नितांत रूपसे भगवानका होकर रहनेके लिये क्या हमें उनकी सेवासे आरंभ नहीं करना चाहिये?

 

निश्चय ही, अपना सारा कार्य भगवानकी सेवामें लगा देना उनके पास पहुंचनेका बहुत अच्छा तरीका है । लेकिन यह, जितना श्रीअरविदने बताया है उससे बहुत आगेतक न ले जा सकेगा । ओर कुछ लोगों- को इससे संतोष नहीं होगा ।

 

२४-५-७०

 

५१५ -- दो कार्य है जिनसे भगवान् अपने सेवकसे पूर्णतः संतुष्ट होते हैं : एक तो मौन पूजा-भावके साथ उनके मंदिर- मे झाडू लगाना और दूसरा, मानवताके अंदर उनकी दिव्य ससिद्धिके लिये संसारके युद्धक्षेत्रमें संग्राम करना ।

 

५१६ - जिसने मानव प्राणियोंकी थोडी-सी भी भलाई की है बह, चाहे सबसे निकृष्ट पापी ही क्यों न हो, भगवान्द्रारा उनके प्रेमियों और सेवकोंकी श्रेणीमें स्वीकृत होता है । वह शाश्वत प्रभुके मुखमंडलके दर्शन अवश्य पायेगा ।

 

श्रीअरविंदका प्रयास हमेशा अपने शिष्यों और पाठकोंतकको सभी पूर्वाग्रहोंसे, सारी रूढ़िगत नैतिकतासे मुक्त करनेका रहा है ।

 

१५-५-७०

 

५१७ - ऐ दुर्बलतामें फंसे मूर्ख ! भयके पर्देके दुरा भगवान्का मुख अपने-आपसे मत छिपा, अनुनयशील दुर्बलताके साथ उनके समीप न जा । देख ! तु उनके चेहरेपर शासक और विचारककी गंभीरता नहीं, बल्कि प्रेमीकी मुस्कान देखेगा ।

 

५१८ -- जैसे एक पहलवान अपने साथीके साथ कुश्ती लड़ता है वैसे ही जबतक तू भगवानके साथ कुश्ती लड़ना नहीं सीख लेता तबतक तेरी अंतरात्माकी शक्ति तुझसे छिपी ही रहेगी ।

 

३७५


अगर हम सचमुच भगवानके नजदीक जाना चाहते है तो क्या यह अच्छा नहो होगा कि हम हमेशाके लिये अपनी सब सीमाओं तथा सब कमज़ोरियों- सें अपने-आपको मुक्त कर लें?

 

 १६-५-७०

 

५१९ -- शुंभने पहले अपने हृदय और शरीरसे कालीके साथ प्यार किया, फिर उनसे क्रोधित होकर उनके साथ युद्ध किया, अंतमें उसने उन्हें पराजित किया, उनके केश पकड़कर उन्हें अपने चारों ओर आकाशमें तीन बार घुमाया; और अगले ही क्षण वह कालीदुरा मारा गया । ये ही अमरत्वकी ओर ले जानेवाले दैत्यके चार पग हे? और उनमेंसे अंतिम पग सबसे अधिक लंबा और सबसे अधिक शक्तिशाली होता है ।

 

   मै दैत्यका चार लंबे पगोंका अर्थ नहीं समझा, जिनके दुरा वह अमरता प्राप्त करता है?

 

प्रत्येकका चाहे कैसा भी स्वभाव क्यों न हो, हिसाबके अंतमें एक ढंगसे या दूसरे ढंगसे, चाहे व्यक्ति उनसे युद्ध करे या प्रेम, अंतिम उद्देश्य हमेशा भगवान् ही होते हैं ।

 

१७-५-७०

 

५२० -- काली भयावनी शक्ति और क्रुद्ध प्रेमके रूपमें अभिव्यक्त श्रीकृष्ण ही है । वह अपने प्रचंड प्रहारोंके दुरा शरीर, मन और प्राणमें स्थित स्वकी हत्या करती है ताकि बह शाश्वत चिदात्माके रूपमें मुक्त हो जाय ।

 

  विश्वको समझनेमें समर्थ एक ज्योर्तर्मय चिगारीको स्थान देनेके लिये जब हम छोटे, असमर्थ अहंको अदृश्य होते देखते है तो शिकायत करते हैं ।

 

२१-५-७०

 

३७६


५२१ -- गभीर सामी कथानकके अनुसार हमारे माता-पिता- का पतन हुआ, क्योंकि उन्होंने पाप और पुष्यके वृक्षका फल चाख था । यदि उन्होंने तुरत शाश्वत जीवनके वृक्षका रसास्वादन कर लिया होता तो वे तात्कालिक परिणामसे बच गये होते; परंतु मानवताके अंदर भगवानका प्रयोजन विफल हो जाता । भगवानका आक्रोश हमारे लिये शाश्वत सुयोग होता हे ।

 

श्रीअरविंद यह समझानेकी कोशिश करते हैं कि किस तरह हमारी दृष्टिकी सीमाएं हमें भागवत प्रज्ञाको देखनेसे रोकती है ।

 

 २२-५-७०

 

५२२ -- यदि नरकका होना संभव हो तो वह उच्चतम स्वर्ग- मे जानेका सबसे छोटा रास्ता होगा । कारण, सचमुच भगवान् प्यार ही करते हैं।

 

५२३ -- भगवान् हमें प्रत्येक 'अदन' (स्वर्गीय बग़ीचे) भैंसे बाहर खदेड़ देते हैं ताकि हम रेगिस्तानमेंसे गुजरते हुए किसी अधिक दिव्य स्वर्गतक जानेके लिये बाध्य हों । यदि तुझे आश्चर्य होता हो कि उस रूखे-सूखे और भयंकर पथकी आवश्यकता ही क्यों होनी चाहिये तो इसका अर्थ है कि तेरे मनने तुझे मूर्ख बना दिया है और तूने पीछे विद्यमान आत्मा तथा उसकी अस्पष्ट इच्छाओं एवं गुप्त आनंदोंका अनुशीलन नहीं किया है ।

 

जब हमें दुःखके लिये आकर्षण नहीं रहेगा और जब हम उसकी विकृत आसक्तिसे मुक्त हो जायंगे तब भगवान् हमें उसके पीछे छिपे परम आनंदका अनुभव करायंगे ।

 

२३-५-७०

 

५२४ -- स्वस्थ मन दुःख-दर्दसे घृणा करता है; क्योंकि मनुष्य कभी-कभी अपने मनमें दुःख-दर्दकी जो कामना पैदा कर लेता है बह दूषित और प्रकृतिके विपरीत होती है । परंतु आत्मा

 

३७७


मन तथा उसके दुख-कष्टोंकी परवाह उससे अधिक नहीं करती जितनी परवाह कि लोहा बनानेवाला चूल्हेमें जलते हुए कच्चे लोहेके दुख-दर्दके लिये करता है; वह अपनी निजी आवश्यकताओं तथा निजी भूखका ही अनुसरण करती है ।

 

एकमात्र परम प्रभु ही स्वामी होने चाहिये और सामान्यतया चैत्य पुरुष उन्हींकी आज्ञा मानता है ।

 

 २४-५-७०

 

५२५ -- बिना विचारे दया करना स्वभावका सबसे उदार गण है; एक भी जीवित वस्तुको कम-से-कम आघात भी न पहुंचाना सभी मानवीय गुणोंमेंसे उच्चतम गुण है; परंतु भगवान् इन दोनोंमेंसे कोई कार्य नहीं करते । तो क्या इसी कारण मनुष्य उन सर्व-प्रेममयसे अधिक महान् और अधिक अच्छा है?

 

५२६ -- यह पता चलना कि किसी मनुष्यके शरीर या मन- को दुःख-कष्टसे बचा देना सर्वदा उसकी अंतरात्मा, मन या शरीरके लिये हितकारी नहीं होता, मानवीय ढंगसे करुणा करनेवालेके लिये अत्यंत कडुआ अनुभव होता है ।

 

भागवत चेतनाके प्रति सचेतन होना मानव सिद्धिकी परम उपलब्धि है; बाकी सब कुछ गौण है ।

 

२५-५-७०

 

५२७ -- मानवीय दया अज्ञान और दुर्बलतासे पैदा होती है; बह भावोवासकी दासी होती है । भागवत करुणा समझती, विवेक करती और रक्षा करती है ।

 

५२८ -- कभी-कभी दया प्रेमका एक अच्छा प्रतिरूप होती है; पर यह सदा ही प्रतिरूपसे अधिक कुछ नहीं होती ।

 

३७८


भगवानके आशयको समझना और उसकी उपलब्धिके लिये काम करना, क्या यह मानवताकी सहायता करनेका सबसे निश्चित मार्ग नहीं है?

 

 २८-५-७०

 

५२९ -- आत्म-दया सर्वदा आत्म-प्रेमसे उत्पन्न होती है; परंतु दूसरोंके प्रति दया सवंदा पात्रके प्रति प्रेमके कारण नहीं उत्पन्न होती । यह कभी-कभी तो दुख-कष्टके दृश्यके अहम्मन्यता हिचक होती है; ओर कभी दरिद्रके लिये धनी ब्यक्तिका घृणापूर्ण दान होती है । तू मानवीय दयाके बदले भगवानकी दिव्य करुणा- को विकसित कर ।

 

५३० -- दया नहीं जो हृदयको काटती और भीतरी अंगोंको दुर्बल बनाती है, बल्कि एक दिव्य प्रभुत्वशाली ओर अक्षुब्ध करुणा एवं उपकारिता वह गुण है जिसे हमें प्रोत्साहित करना चाहिये ।

 

क्या परम प्रभुको जाने बिना जीनेसे बढ़कर कोई और दुःख भी हो सकता है? और फिर मी यह प्रायः विश्वव्यापी दुःख कभी-कदास ही दयाको जगाता है । क्योंकि जो यह जानता है कि वह दुःखी है वह यह भी जानता है कि असीम ठीक होना उसके अपने ऊपर निर्भर है - क्योंकि प्रभुकी करुणा ह ।

 

१-६-७०

 

५३१ -- मनुष्योंसे प्यार कर और उनकी सेवा कर, पर सावधान, कहीं सु प्रशंसाकी कामना न कर बैठे । उसकी जगह अपने अंदर विराजमान भगवानकी आज्ञाका पालन कर ।

 

   ५३२ -- भगवान् तथा उनके बूतोंकी वाणीको न सुनना ही संसारकी भावनाके अनुसार मानसिक स्वस्थता है ।

 

   ५३३ -- भगवानको सर्वत्र देख और उनके छग्रवेशोंको देख- कर भयभीत न हो । विश्वास कर कि समस्त मिथ्यापन या

 

३७९


तो तैयार होता हुआ सत्य है अथवा भंग होता हुआ सत्य, समस्त असफलता प्रच्छन्न चरितार्थता, समस्त दुर्बलता अपनी दृष्टिसे ही अपनेको छिपानेवाली शक्तिमत्ता, समस्त पीड़ा एक गुप्त और प्रचंड आनदोल्लास है । यदि तू दृढ़तापूर्वक और सतत भावसे विश्वास बनाये रखे तो अंतमें सर्वसत्यमय, सर्वशक्तिमय और सर्वानन्दमयको देख और अनुभव कर सकेगा ।

 

सतत और अथक प्रयास तथा श्रद्धाद्वारा हम अपने-आपको भागवत चेतना- के साथ एक कर सकते हैं, जो सतत, संपूर्ण परमानन्द है ।

  

 २-६-७०

 

५३४ -- मानव प्रेम अपने निजी हर्षोल्लासके कारण ही असफल हो जाता है; मानव पराक्रम अपने निजी प्रयासके कारण ही निःशेष हो जाता है; मानव ज्ञान एक ऐसी परछाई फेंकता है जो सत्य-रूपी गोलकके आधे भागको उसके अपने सूर्यालोकसे छिपा देती है; परंतु भागवत ज्ञान विरोधी सत्योंका आलिंगन करता और उनमें सामंजस्य स्थापित करता है, भागवत सामर्थ्य अकुंठ आत्मव्ययके कारण वर्द्धित होता है, भागवत प्रेम अपने-आपको संपूर्ण रूपसे लूट सकता है और फिर भी न कभी नष्ट होता है, न घटता है ।

 

   क्या मानव प्रेम भागवत प्रेममें बदल सकता है? मानव शक्ति भागवत शक्तिमें और मानव ज्ञान भागवत ज्ञान-में ?

 

 बस एक ही प्रेम है ।

 

   मानव प्रेम भागवत प्रेमसे  अलग कोई और चीज नहीं है । वह जिस यंत्रके द्वारा अपने-आपको अभिव्यक्त करता है उसीके द्वारा पथम्ग्ष्ट और विकृत हो गया है । शक्ति और ज्ञानके लिये भी यही बात है । अपने मूल तत्त्वमें वे शाश्वत और असीम है । मानव स्वभावकी सीमाएं आर कमियां ही उन्है विकृत करती है और विरूप बना देती है ।

 

३-६-७०

 

३८०


५३५ -- विशुद्ध सत्यकी खोज करते हुए मन जो मिथ्यापन- का त्याग करता है वह एक प्रधान कारण है जिससे बह सुनिश्चित, अखंड और पूर्ण सत्यको नहीं प्राप्त कर सकता; दिव्य मन मिथ्यापनसे बच निकलनेका प्रयास नहीं करता, बल्कि उस सत्यको पकड़नेके प्रयास करता है जो अत्यंत भद्दा या म्पष्ट भूल-भ्रांतिके पीछे छिपा रहता है ।

 

    ''दिव्य मन'' क्या है?

 

श्रीअरविन्द मानसिक कार्यके आदि रूपको दिव्य मन कहते है । वह समग्र रूपसे पूर्णतया भगवानको अर्पित है और भागवत प्रेरणाके अधीन ही कार्य करता है ।

 

   अगर कोई मनुष्य भगवानके द्वारा और भगवानके लिये ही जीता है तो अनिवार्य रूपसे उसका मन दिव्य मन बन जाता है ।

 

 ४-६-७०

 

५३६ - किसी मी वस्तुके विषयमें सारा सत्य यह है कि बह एक पूर्ण तथा सर्वालिगनकारी गोलक होता है जो निरंतर ज्ञान- के एकमात्र विषय ओर वस्तु, भगवानके चारों ओर चक्कर काटता रहता है पर कभी उन्हें स्पर्श नहीं करता ।

 

५३७ -- बहुत-से गंभीर सत्य उन अस्त्रोंके समान हैं जो अन- न्यस्त अस्त्रचालकके लिये खतरनाक होते हैं । समुचित रूप- मे व्यवहार करनेपर वे भगवानके अस्त्रागारके अत्यंत मूल्यवान् और शक्तिशाली अस्त्र होते हैं ।

 

सच्चे ज्ञानकी एक बूंद अगर अज्ञानकी दुनियामें गिरे तो वह क्रान्ति पैदा कर सकती है ।

 

५-६-७०

 

३८१


५३८ -- जिस दुर्दमनीय आग्रहके साथ हम अपनी तुच्छ, खंड- विखंड, निशाक्रांत, क्लेशग्रस्त व्यक्तिगत सत्ताके साथ उस समय भी चिपके रहते हैं जब हमारे विश्वगत जीवनका आनंद हमें पुकारता है, वह भगवानके रहस्योंमेंसे एक अत्यंत आश्चर्यजनक रहस्य है । इसकी तुलना केवल उस अनंत अंधताके साथ की जा सकती है जिसकी सहायतासे हम अपने अहंकारकी एक छाया संपूर्ण जगत् पर फेंककर उसे ही विश्वपुरुषका नाम दे देते हैं । थे दोनों प्रकारके . अंधकार ही, मायाके ठीक-ठीक सारतत्व तथा अंतर्निहित शक्ति है ।

 

उस दिनतक जब अज्ञान और अहंकारकी मूर्खतासे थककर तुम प्रभुके पैरोंपर गिरकर उनसे याचना न करो कि वे ही स्वामी बन जायं ।

 

६-६-७०

 

५३९ -- अनीश्वरवाद भगवान्-संबंधी उच्चतम ज्ञानकी परछाई अथवा अंधकारमय पक्ष है । भगवानके विषयमें मनाया हुआ हमारा प्रत्येक सिद्धांत, यद्यपि रूपकके रूपमें सदा सत्य होता है, पर उस समय मिथ्या वन जाता है जब हम उसे एक पूर्ण सिद्धांतके रूपमें स्वीकार करते हैं । अनीश्वरवादी और अज्ञेयवादी हमारी भूल-म्रातिकी याद दिलानेके लिये आते है ।

 

५४० -- भगवान्-संबंधी अस्यीकृतियां भी हमारे लिये उतनी ही उपयोगी हैं जितनी उनके विषयकी स्वीकृतियां । सच पूछा जाय तो मानवीय ज्ञानको और भी अच्छे रूपमें पूर्णता प्रदान करनेके लिये स्वयं भगवान् अनीश्वरवादी बनकर अपने निजी अस्तित्वको अस्वीकार करते हैं । ईसा और रामकृष्णमें ही भगवानको देखना और उनकी वाणीको सुनना काफी नहीं है, हमें हक्सले' और हेकेल' मे भी उन्हें देखना चाहिये और उनकी वाणी सुन्नी चाहिये ।

 

   हक्सले १९ वों शताब्दीके प्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक थे । इन्होंने पार्थिव क्रमविकासके सिद्धांतका प्रतिपादन किया ।

 

   २हेकेल जर्मनीके प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक व्यक्ति थे । इन्होंने भी क्रमविकासके सिद्धांतको प्रकट किया है ।

 

३८२


भगवानके विषयमें सभी मानसिक ज्ञान अपूर्ण और अपर्याप्त है, यदि उन सबको समाविष्ट कर लिया जाय तो भी । एकमात्र अनुभव किया हुआ ज्ञान ही हमें सत्यकी एक झांकी दे सकता है ।

 

 ७ - ६ -७ ०

 

५४१ -- क्या तू अपने ऊपर अत्याचार करनेवाले और अपनी हत्या करनेवालेके भीतर मृत्युके क्षण या अत्याचारके समय भी भगवानको देख सकता है? क्या तू जिसकी हत्या कर रहा है उसमें भी उनको देख सकता है, उसकी हत्या करते समय भी उन्हें देख सकता और प्यार कर सकता है? तब निश्चय ही परम ज्ञान तेरे हाथमें आ गया है । भला वह मनुष्य कृष्णको कैसे पा सकता है जिसने कभी कालीकी उपासना नहीं की?

 

सब कुछ भगवान् है और एकमात्र भगवानका ही अस्तित्व है ।

 

८-६-७०

 

३८३









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