CWM (Hin) Set of 17 volumes

ABOUT

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' spoken or written in French.

THEME

aphorisms

'विचार और सूत्र' के प्रसंग में

The Mother symbol
The Mother

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.

Collected Works of The Mother (CWM) On Thoughts and Aphorisms Vol. 10 363 pages 2001 Edition
English Translation
 PDF    aphorisms
The Mother symbol
The Mother

The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' 'विचार और सूत्र' के प्रसंग में 439 pages 1976 Edition
Hindi Translation
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कर्म

 

आत्मबिकास और आध्यात्मिक अभीप्सा व्यक्तिको

अपने कर्मपर नियंत्रण रखनेमें समर्थ बना देती है ।

 

*

 

सीखना अच्छा है, वैसा बनना अधिक, अच्छा है ।

 

 २५-११- ६१  --श्रीमां


 

कर्म

 

२०६ -- भगवान् मनुष्यको रास्ता दिखाते हैं, जब कि मनुष्य अपने-आपको उलटी ओर ले जाता है; उच्चतर प्रकृति निम्न-तर मर्त्य सत्ताके स्खलनोंपर चौकसी रखती है । यही वह उलझन और विरोध है जिसमेंसे निकलकर हमें एक स्पष्ट ज्ञान और आत्म-एकत्वमें प्रवेश करना है, केवल यही निर्दोष कर्म- को संभव बनाता है ।

 

जीवनमें एकमात्र सुरक्षा, अपनी पुरानी भूलोंकी परिणामोंसे बचनेका एकमात्र रास्ता आंतरिक विकास है, जो भागवत उपस्थितिके साथ सचेतन एकत्व स्थापित करनेमें सहायक होता है । बह एकमात्र सच्चा पथप्रदर्शक हमारी सत्ताका और सभी सत्ताओंका 'सत्य' है ।

 

२५-११-६१

 

२०७ -- तुम्हें सब जीवोंपर दया करनी चाहिये, यह बात अच्छी है किंतु यह तब अच्छी नहीं रहती जम तुम अपनी दयाके दास बन जाते हो । भगवान के सिवाय और किसीके दास मत बनो, उनके अत्यधिक ज्योतिपूर्ण देवदूतोंके भी नहीं ।

 

जो लोग सत्यके अनुसार अपना-जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, उनके लिये एकमात्र मार्ग है भागवत उपस्थितिके प्रति सचेतन होना और केवल उन्हींकी इच्छाके अनुसार जीवन बिताना ।

 

   अशुभ और कष्टसे बचनेका एकमात्र मार्ग यही है; सदा शांति, प्रकाश और आनंदमें निवास करनेका भी यही एकमात्र मार्ग है ।

 

२ ६- ११-६१

 

२०८ -- दिव्यानंद है भगवानका उद्देश्य जिसे उन्होंने मनुष्य- जातिके लिये निश्चित किया है; सबसे पहले तू इस परम श्रेयको अपने लिये प्राप्त कर ताकि तू इसे संपूर्णत अपने साथी प्राणियोंमें भी विस्तारित कर सके ।
 


   २०९ -- जो केवल अपने लिये ही अर्जन करता है वह बुरे रूपमें अर्जन करता है, भले ही वह उसे स्वर्ग ओर पुण्यका ही नाम क्यों न दे ।

 

मनुष्यको परमानंद पानेका अधिकार है क्योंकि उसकी रचना इसीके लिये हुई थी । किंतु सभी अहंभावपूर्ण क्रियाएं इस परमानंदकी विरोधी होती है । अत: यदि व्यक्ति उसे केवल अपने लिये ही खोजता है तो बह उसे अपनी ओर खींचनेके स्थानपर दूर हटा देता है । आत्म-विस्मृति और आत्म-निवेदनके द्वारा, बदलेमें कुछ भी मांगे बिना या यूं कहै अपने- आपको परमानंदमें इस प्रकार लीन करके कि वह सभीपर फैल जाय, व्यक्ति आंतरिक शांति और आनंद प्राप्त करता है, जो उसे कभी नहीं छोड़ते ।

 

२१-११-६९

 

      मां, ' 'आत्म-विस्मृति'' और ''आत्म-निवेदन'' मे क्या अंतर ?

 

हैं । 

 

आत्म-विस्मृति केवल एक निष्क्रिय अवस्था हो सकती है जो अहंभावकी पूर्ण अनुपस्थितिके परिणामस्वरूप प्राप्त होती है । जब कि आत्म-निवेदन, जिसका कि पूरा मूल्य तभी होता है जब वह भगवानके प्रति किया जाता है, एक सक्रिय प्रक्रिया है जो अपने अंदर प्रेमके विशुद्ध- तम एवं उच्चतम रूपको लिये रहती है ।

 

  भगवानके प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण ही मनुष्यके अस्तित्वका सच्चा हेतु है ।

 

३०-११-६१

 

२१०-- अपनी अज्ञानावस्थामें मैंने समझा था कि क्रोध महत् और प्रतिहिंसा गौरवपूर्ण हो सकती है; परंतु अब जय मैं अकिलीस को प्रचंड कोपमें देखता हूं तो एक बहुत सुन्दर

 

   यह होमरके महाकाव्य 'इलियड'का मुख्य पात्र है और यूनानी सभ्यतामें मनुष्यत्वका आदर्श गिना जाता है ।

 

२८८


बालकको एक बहुत सुन्दर क्रोधमें देखता हूं और मै प्रसन्नता तथा आमोदसे भर जाता हूं ।

 

२११ --शक्ति जब क्रोधसे ऊपर उठ जाती है तो महान् होती है; विनाश भव्य होता है, परंतु वह प्रतिहिंसासे आरंभ हो तो अपनी जाति खो देता है । इन चीजोंका त्याग कर दो, क्योंकि ये निम्नतर मानवतासे संबंध रखती हैं ।

 

क्रोध और बदलेकी भावना निचली मानवताकी वस्तुएं हैं, ये बीते कलकी मानवजातिकी चीजों है, आनेवाले कलकी नहीं ।

 

१-१२-६९

 

२१२ -- कविगण मृत्यु और बाहरी क्लेशोंको बहुत अतिरंजित कर देते हैं, पर एकमात्र दुखांत नाटक है अंतरात्माकी असफल सफलताएं तथा एकमात्र महाकाव्य है मानवका देवत्वकी ओर विजयपूर्ण आरोहण ।

 

साधारणतया, मनुष्य जो एकमात्र दुःखद वस्तु है उससे पीड़ाकर अनुभव नहीं करता, वह प्रभावित नहीं होता, अर्थात्, आत्माको प्राप्त करने तथा उसीके नियमके अनुसार जीवन बितानेमें असफलता ।

 

   सच तो यह है कि एकमात्र सच्ची दुःखद बात है अपनी आत्माके प्रति, आंतरात्मिक सत्ताके प्रति सचेतन न होना, अपने जीवनको संपूर्णतः उसीके दुरा संचालित होनेकी अनुमति न देना ।

 

   सच्ची पराजय तब होती है जब व्यक्ति अपनी आत्माको पाये बिना, उसके नियमके अनुसार जीवन बिताये बिना ही मृत्युको प्राप्त हो जाता हैं ।

 

   और सच्चा महाकाव्य, सच्चा गौरव भगवानको अपने अंदर प्राप्त करने और उन्हींके विधानके अनुसार जीनेमें है ।

 

३-१२-६९

 

 यह वाक्य मूलमें अंग्रेजीमें था ।

 

२८९


२१३ -- हृदय और शरीरके दुःख-शोक हैं बालकोंका अपने तुच्छ कष्टों और अपने टूटे खिलौनोंके लिये रोना । अपने भीतर हंसों, पर बच्चोंको सांत्वना दो; यदि तुम्हारे लिये संभव हो तो, उनके खेलमें भी भाग लो ।

 

मानवी चेतनाकी संकीर्णता ही उन घटनाओंको दुखांत बना देती है जो दिव्य चेतनाके लिये सामान्य विकासकी क्रियाएं मात्र होती हैं । किंतु जब व्यक्ति यह जान भी ले, तो भी उसके अंदर उन लोंगोंके लिये, जो अभीतक अज्ञानके दुःखमें निवास करते हैं, गहरी सहानुभूति हो सकती है और होनी चाहिये ।

  

 ४-१२-६९

 

२१४ -- ''प्रतिभाशाली व्यक्तियोंमें सर्वदा कोई चीज असाधारण होती है और अव्यवस्थित होती है ।'' और क्यों न हो ? क्योंकि स्वयं प्रतिभा भी एक असामान्य उपज है और मनुष्यके साधारण केंद्रके बाहर होतीं है ।

 

२१५ -- प्रतिभा है प्रकृतिका अपने मानव-सांचेके भीतरसे काराबद्ध देवताको मुक्त करनेका प्रथम प्रयास; इस प्रक्रियामें  मेंसांचेको क्षति-ग्रस्त होना पड़ता है । आश्चर्यजनक बात तो यह है कि दरारें इतनी कम और सामान्य होती हैं ।

 

ज्यों ही मनुष्य भगवानके प्रति सचेतन हो जाता है और उनके साय जुड़ जाता ह, वह निश्चय ह सामान्य दलीय असामान्य बन जाता है, क्योंकि तब उसमें सामान्य मानव प्रकृतिका निर्माण करनेवाली दुर्बलताएं नहीं रहती ।

 

   किंतु सौभाग्यवश आंतरिक प्राप्तिके तथ्यके कारण बह सामान्य लोगों- में पायी जानेवाली शेखी बधारनेकी आदत भी खो देता है और इस तरह औरोंकी बुरी भावनाओंसे मी बच सकता है ।

 

५-१२-६९

 

२९०


२१६ -- कभी-कभी प्रकृति स्वयं अपनी बाधाके ऊपर अत्यंत कुपित हो उठती है ओर क्रय वह अंतःप्रेरणाको मुक्त करनेके लिये मस्तिष्कको ही बिगाड़ देती है; क्योंकि इस प्रयासमें साधारण भौतिक मस्तिष्ककी समतोलता ही उसकी प्रधान विरोधिनी होती है । ऐसे लोगोंके पागलपनकी उपेक्षा करो ओर उनकी अंतःप्रेरणासे लाभ उठाओ ।

 

वस्तुतः, वस्तुओंको पूर्ण विश्वासकी शांत मुस्कानके साथ देखना ही बुद्धिमत्ता है । कारण, मनुष्य इस समय जिस चेतनामें निवास करता है वह परम प्रभुके प्रयोजनोंको बिलकुल नहीं समझ सकती ।

 

७-१२-६१

 

२१७ -- अपनी प्रचंड शक्ति तथा ज्वलंत देवत्वके साथ आधारमें अत्यंत वेगसे प्रवेश करती हुई कालीको भला कौन सह सकता है ? केवल वही जिसे कृष्णने पहलेसे हो अधिकृत कर रखा हो ।

 

यह इस बातको कहनेका सुन्दर और व्यंजनापूर्ण ढंग है कि केवल भगवानकी सचेत उपस्थिति ही सब उग्रताओंके वशमें कर सकती है और जीत सकती है ।

 

८-१२-६९

 

२१८ -- अत्याचारीसे घृणा मत कर, क्योंकि, यदि वह प्रबल हो तो तेरी धृणा उसके विरोधकी शक्तिको बड़ा देगी; यदि वह दुर्बल हो तो तेरी घृणा निरर्थक है ।

 

२१९ -- घृणा एक शक्तिशाली तलवार है, पर इसकी धार सर्वदा दोहरी होती है । यह प्राचीन जादूगरोंकी क्रियाके जैसी है जो, यदि अपने शिकारसे वंचित कर दी जाती तो भेजनेवालेको ही निगलन जानेके लिये क्रोधके साथ वापस आ जाती थी ।

 

२२० --जय तू अपने शत्रुपर आघात करता हो तब भी उसके

 

२९१


अंदर विधमान भगवान्से प्यार कर इस तरह दोनोंमेंसे कोई भी नरकका भागीदार न होगा ।

 

२२१ -- मनुष्य शत्रुओंकी बात करते हैं पर, कहां हैं वे ? मैं तो केवल विश्वके विशाल अखाड़ेमें किसी एक या दूसरे पक्षके पहलवानोंको ही देखता हूं ।

 

यह सब मानवजातिको अपनी एकताके प्रति जागनेके उद्देश्यसे लिखा गया है । जब व्यक्ति इस एकताके प्रति चेतन हा जाता है तथा सब व्यक्तियोंमें भगवानको देखता है तब उस वस्तुको अनुभव करना सरल हों जाता है जिसकी श्रीअरविंद सलाह दे रहे है ।

 

 ९-१२-६९

 

२२२ -- संत और देवदूत ही दिव्य सत्ताएं नहीं है; दैत्य और असुरके लिये भी प्रशंसाके शब्द कहो ।

 

२२३ -- पुराने ग्रंथोंमें असुरोंको ज्येष्ठ देवता कहा जाता है । और वे अब भी वही हैं कोई भी देवता पूरी तरहसे दिव्य नहीं होता जबतक कि उसमें एक असुर न छिपा हुआ हो ।

 

२२४ -- यदि मैं राम नहीं हो सकता तो मै रावण होऊंगा; क्योंकि वह विष्णुका अंधकारमय पक्ष है ।

 

इसका अर्थ यह है कि बिना बलके मधुरता और बिना शक्तिके भलाई अपूर्ण होती है ओर वे भगवानको पूरी तरहसे व्यक्त नहीं कर सकतीं ।

 

   श्रीअरविंदने जिस प्रकारकी अलंकारिक भाषाका प्रयोग किया है उसीको आगे चलाते हुए, मै यह कह सकती हूं कि जो असुर रूपांतरित हों चुका है, उसकी दयालुता और उदारता एक सीधे-सादे देवदूतकी दयालुता ओर उदारतासे अनंतगुनी प्रभावशाली है ।

 

११-१२-६१

 

२९२


२२५ -- त्याग करो, त्याग करो, सदा त्याग करो, पर भगवान् के और मानवताके लिये, त्यागके लिये त्याग नहीं।

 

२२६ -- स्वार्थपरता अंतरात्माका हनन कर देती है; इसे नष्ट कर दो । किंतु इस बातका ध्यान रखो कि तुम्हारी परोपकार-वृत्ति दूसरोंकी आत्माओंको नष्ट न कर दे ।

 

२२७-- अधिकतर परोपकार-ब्रुती स्वार्थपरताका ही अत्यधिक उन्नत रूप होती है ।

 

    मां, परोपकार-वृति दूसरोंकी आत्माका हनन कैसे कर सकती है ?

 

दूसरोंकी (परोपकार-भावनामें) धनादिसे सहायता करके साथ-साथ यदि तुम उनपर अपना दृष्टिकोण भी लादोतो इससे तुम उनकी अंतरात्माका हनन ही कर डालोगे, क्योंकि नैतिक ओर सामाजिक नियम किसी तरह उस आंतरिक नियमका स्थान नहीं लें सकते जिसे प्रत्येक व्यक्तिको अपनी आत्मासे पाना चाहिये ।

 

१३- १२-६९

 

२२८ -- भगवानके आदेशपर जो व्यक्ति बंध नहीं करता, बह संसारमें बहुत बड़े विनाशका कारण होता है ।

 

२२९ -- जबतक हो सके मानव जीवनका सम्मान क२ने;  मानवजातिके जीवनको और भी अधिक सम्मान दो ।

 

२३० -- मनुष्य क्रोध, घृणा अथवा बदलेकी बेलगाम भावना- से किसीका वध करते हैं; उसके परिणामस्वरूप उन्हें देर या सवेर कष्ट उठाना ही पड़ेगा । या फिर वे अपनी स्वार्थ- पूर्तिके लिये ठंडे भावमें यह कार्य करते हैं; भगवान् उन्हें क्षमा नहीं करेंगे । वध करनेसे पहले मनुष्योंको अपनी आत्मा- मे यह जान लेना चाहिये कि मृत्युका अर्थ कष्टसे मुक्ति है,

 

२९३


    बे उसमें, जिसपर प्रहार किया जा रहा है, स्वयं प्रहारमें तथा प्रहार करनेवालेमें, भगवानको देख लें ।

 

   मां, किन परिस्थितियोंमें भगवान् देते है ?

 

यह ठीक वह प्रश्न है जिसका उत्तर मै नहीं भगवानने मुझे कमी वध करनेके लिये नहीं कहा ।

 

१४-१२-६९

 

२३१ -- साहस और प्रेम ही अनिवार्य गुण है; और सब गण यदि धुंधले या निस्तेज पड जायं तो भी ये दोनों आत्माको जीवित रखेंगे।

 

२३२ -- नीचता और स्वार्थपरता ही ऐसे पाप है जिन्हें क्षमा करनेमें मैं कठिनाई अनुभव करता हूं; पर ये दोनों प्रायः सभी लोगोंमें पाये जाते हैं । अतएव, इन्हें दूसरोंमें देखकर हमें इनसे घृणा नहीं करनी चाहिये, बल्कि अपने अंदर इनका नाश करना चाहिये ।

 

२३३ -- सज्जनता और उदारता आत्माका सूक्ष्म आकाश हैं; इनके बिना व्यक्ति काल-कोठरीमें पड़ा कीड़ा ही दिखायी देता ह ।

 

२३४ -- तुम्हारे गुण ऐसे न हों जिन्हें मनुष्य सराहें या पुरस्कृत करें, बल्कि ऐसे हों जो तुम्हें पूर्णता प्रदान करें, जिनकी तुम्हारी प्रकृतिमें निवास करनेवाले भगवान् तुमसे मांग करते है ।

 

   मा, क्या आप निम्नलिखित शब्दोंकी व्याख्या कर सकेंगी ?

 

    १. साहस और प्रेम

    २. नीचता और स्वार्थपरता

    ३. सज्जनता और उदारता

 

३९४


   १. साहसका अर्थ है भयके सभी रूपोंकी पूर्ण अनुपस्थिति ।

 

  २. प्रेम है बदलेमें कुछ मी चाहे बिना अपने-आपको देना ।

 

   ३. नीचता एक प्रकारकी दुर्बलता है जो हिसाब-किताब करती है ओर दूसरोंसे उन गुणोंकी मांग करती है जो स्वयं उसमें नहीं है ।

 

  '४. स्वार्थपरताका अर्थ है अपने-आपको विश्वके केंद्रमें रखना और यह चाहना कि सबका अस्तित्व मेरे संतोषके लिये ही हो ।

 

  ५. सज्जनताका अर्थ है समस्त वैयक्तिक हिसाब-किताबको अस्वीकार कर देना ।

 

  ६. उदारताका अर्थ है दूसरोंके संतोषमें अपना संतोष पाना ।

 

 १५-१२-१९६१

 

२३५ -- परोपकार, कर्तव्य, परिवार, देश, मानवजाति -- ये जब आत्माके उपकरण नहीं रहते तो ये उसके बंदीगृह बन जाते हैं ।

 

२३६ -- हमारा देश मातृरूप भगवान् है; उसके बारेमें' तबतक बुरी बात न कहो, जबतक कि तुम उसे प्रेम और कोमल-भाव- के साथ न कह सको ।

 

२३७ -- मनुष्य अपने लाभके लिये ही देशके प्रति मिथ्या व्यवहार करते है; फिर भी यह मानते रहते है कि उन्हें मातृहत्याकी ओरसे घृणामें मुंह मोड लेनेका अधिकार है ।

 

     स्नेहमयी मां, परोपकार, कर्तव्य, परिवार, देश, मनुष्यजाति - ये आत्माके सच्चे उपकरण कैसे हो सकते है ?

 

अंतरात्मा भगवानकी है, और उसे केवल भगवानकी ही आज्ञा और सेवामें रहना चाहिये । यदि भगवान् उसे परिवार, देश या मनुष्यजातिके लिये कार्य करनेका आदेश दें तो यह बहुत अच्छा है और वह बिना बन्दी हुए ऐसा कर सकती है ।

 

   यदि यह आदेश उसे भगवान्से प्राप्त नहीं होता तो इनकी सेवा करनेका अर्थ केवल सामाजिक और नैतिक परंपराओंका पालन करना है।

 

१७-१२-६९

 

३९५


२३८ -- अतीतके सांचोंको तोड़ दो,  उसकी प्रतिभाको, उसकी भावनाको सुरक्षित रखो, अन्यथा तुम्हारा कोई भविष्य नहीं होगा ।

 

२३१ -- क्रांतियां पुरानी वस्तुओंको तोड-फोड़ देती हैं और उन्हें एक कड़ाहेमें डाल देती हैं, किंतु उसमेंसे निकलता है वही पुराना दास जिसका बस चेहरा ही नया होता है ।

 

२४० -- संसारमें सफल क्रांतियां केवल छ: ही हुई हैं और इनमेंसे भी अधिकांश असफल जैसी ही रही है; फिर भी महान् और श्रेष्ठ असफलताओंके द्वारा ही मानवजाति आगे बढ्ती है ।

 

     स्नेहमयी मां, ''महान् और श्रेष्ठ असफलताओं'' से श्रीअरविन्दका क्या अभिप्राय है ?

 

कसी घटनाकी महानता और श्रेष्ठता उसकी भौतिक सफलतापर नहीं, बल्कि उन भावनाओंपर निर्भर है जो उसे प्रेरित करती है और उस लक्ष्यपर निर्भर है जिसके लिये मनुष्य काम करते है ।

 

   सफलता महानताका कारण नहीं होती, बल्कि कार्यको प्रेरित करनेवाला उद्देश्य और भावनाओंकी श्रेष्ठता ही उसका कारण होती है ।

 

 १८-१२-६९

 

२४१ -- नास्तिकता गिरजाघरोंकी दुष्टता ओर धर्मकी संकीर्णताके विरुद्ध किया गया एक आवश्यक प्रतिवाद है । भगवान् इन दूषित ताशके महलोंको चकनाचूर करनेके लिये इसका प्रयोग पत्थरके रूपमें करते हैं ।

 

२४२ -- न जाने कितनी ही अधिक घृणा और मूर्खताको मनुष्य पेटीमें भरकर, सजाकर उसपर 'धर्मका' ठप्पा लगानेमें सफल हो जाते है।

 

   स्नेहमयी मां, क्या अधिक अच्छा है, धर्म या नास्तिकता ?

 

२९६


जबतक धर्मोंका अस्तित्व रहेगा, तबतक उनके विरोधका पलड़ा बराबर रखनेके लिये नास्तिकता अनिवार्य रहेगी । अच्छा तो यह है कि दोनों ही स्वयं मिटकर अपना स्थान सत्यकी एक सच्ची और निःस्वार्थ खोजको तथा इस खोजके उद्देश्यके लिये पूर्ण आत्म-निवेदनको दे दें ।

 

 २१-१२-६१

 

२४३ -- जब भगवान् बुरे-से-बुरा प्रलोभन देते है तभी भगवान् सर्वोत्तम पथ-प्रदर्शन करते हैं, जब वे निर्दयतापूर्वक दण्ड देते हैं तभी पूर्ण रूपसे प्रेम करते है, जब वे उग्रतापूर्वक विरोध करते हैं तभी वे पूर्ण सहायता देते हैं ।

 

२४४ -- यदि भगवान् मनुष्योंको प्रलोभन देनेका भार अपने ऊपर न लें तो जगत्  ही नष्ट हो जाय ।

 

२४५ -- अपने अंदर प्रलोभनोंको आने दो, जिससे कि इनके साथ संघर्ष करनेमें तुम्हारी निम्न प्रवृत्तियां समाप्त हो जायं ।

 

२४६ -- यदि तुम अपना शोधन भगवानके ऊपर छोड़ दो तो वे तुम्हारे अशुभको तुम्हारे अंदरसे समाप्त कर देंगे; किंतु यदि तुम अपना पथ-प्रदर्शन आप ही करनेका हठ करो तो तुम बहुतसे बाहरी पाप-तापमें जा गुरगे ।

 

२४७ -- ऐसी प्रत्येक वस्तुको जिसे मनुष्य अशुभ कहते हैं, तुम भी अशुभ न कहो, केवल उसी वस्तुको अस्वीकार करो जिसे भगवानने अस्वीकार किया है; ऐसी प्रत्येक वस्तुको जिसे मनुष्य अच्छा कहते हैं, तुम भी अच्छा न कहो, केवल उसीको अंगीकार करो जिसे भगवानने अंगीकार किया है ।

 

   स्नेहमयी मां, यदि व्यक्ति भगवानके प्रति पूर्ण समर्पण कर दे तो भी क्या उसे अपने व्यक्तिगत संकल्पको, चुनावकी शक्ति आदिको विकसित करनेकी आवश्यकता पड़ेगी ? क्या ये वस्तुएं मार्गकी बाधाएं नहीं बन जायेगी ?

 

२९७


व्यक्तिगत संकल्प और चुनाव-शक्ति उन लोगोंके लिये आवश्यक गुण है जो साधारण अज्ञान और भ्रमकी अवस्थामें निवास करते है ।

 

   भगवानके प्रति पूर्ण समर्पणका अर्थ ही है इनका त्याग । किन्तु दुर्माग्यसे बहुत-से लोग अपने-आपको भुलावा दे लेते हैं कि उन्होंने अपने- आपको पूरी तरहसे भगवानको सौंप दिया है, और फिर भी वे अपने अंदर एक अत्यंत सक्रिय 'अहं' को बचाये रखते है जो उन्है भागवत इच्छाको स्पष्ट रूपमें देखने नहीं देता; यदि ऐसे लोग व्यक्तिगत इच्छा एवं विवेकका त्याग कर दें तो उनके असंगत एवं अस्थिर-बुद्धि हों जानेका डर रहता है ।

 

   सबसे पहले तो व्यक्तिको एक पूर्ण सच्चाई प्राप्त करनी होगी जिससे कि उसे यह निश्चय हा जाय कि वह अपने-आपको धोखा नहीं दे रहा है, और उसे इस बातके स्पष्ट प्रमाण मिल जाने चाहिये कि भागवत इच्छा ही व्यक्तिका पथप्रदर्शन करती है तथा उसे कर्मके लिये प्रेरित करती है ।

 

 २२ - १२ - ६१

 

२४८ -- संसारमें मनुष्योंके पास दो प्रकारके आलोक है, कर्तव्य और सिद्धान्त; किन्तु जिस ब्यक्तिने भगवानका आश्रय ले लिया है, वह इन दोनोंको त्यागकर इनके स्थानपर भागवत इच्छाको ले आया है । यदि लोग इसके लिये तुम्हें गाली दें तो, हे दिव्य यंत्र, परवाह मत कर, पर हवा अथवा सूर्यके समान अपनी राहपर बढ़ा खल जो पोषण भी करते है और नाश भी ।

 

२४९ -- भगवानने तुझे लोगोंकी प्रशंसाएं बटोरते फिरनेके लिये नहीं, वरन् निर्भय होकर अपना आदेश माननेके लिये अपनाया है ।

 

२५ -- संसारको भगवानकी नाटकशाला मानो, तुम अभिनेता- का मुखौ टा बनो और फिर उन्हें ही अपने द्वारा अभिनय करने दो । यदि लोग तुम्हारी प्रशंसा करते है या तुम्हें दुत्कारते हैं, तो यह जान लो कि वे मुखौटे ही हैं; केवल अंतरस्थित भगवानको अपना एकमात्र आलोचक और दर्शक मानो ।

 

२९८


सबसे पहले यह आवश्यक है कि तुम भागवत संकल्पके प्रति सचेतन होओ और इसके लिये तुम्हारे अन्दर न कोई कामना होनी चाहिये न व्यक्ति- गत इच्छा ।

 

   इस स्थितिको पानेके लिये सबसे अच्छा उपाय यह है कि व्यक्ति अपनी सारी अभीप्सा भागवत पूर्णताकी ओर मोड दे, बिना कुछ शेष रखे अपने-आपको उसके प्रति समर्पित कर दे तथा अपनी सभी तुष्टियोंके नये उसीकी ओर निहारते ।

 

   बाकी सब कुछ स्वयं इसके फलस्वरूप हो जायगा ।

 

 २३-१२-६९

 

२५१ -- यदि अकेले कृष्ण एक तरफ हों और सेना और गोले-बारूद तथा अपने सिद्धान्तों और नारोंके साथ लैस और संगठित संसार दुसरी ओर हो, तो भी भगवानके एकाकीपनको ही चुनो । परवाह मत करो यदि संसार तुम्हारे शरीरको रंद दे और उसकी गोपियां तुम्हारे चीथते कर दे, तथा उसकी घुड़सवार सेना तुम्हारे अंगोंको कुचलकर उसे आकाररहित लौंदा बनाकर एक ओर डाल दे; कारण, मन तो सदा ही मिथ्यारूप रहा है और शरीर एक मृत ढांचा । इसके खोलोंसे मुक्त होकर ही आत्मा ऊपरकी ओर उठकर विजय प्राप्त करती है ।

 

यह सूत्र हमें यह बताता है कि हमें केवल एक ही चुनाव करना है -- सब कुछके बावजूद हमें भगवानके साथ जुतना है, तब भी, जब कि सारा संसार हमारे विरुद्ध हो जाय, क्योंकि संसारके पास अपनी मानसिक और शारीरिक सत्तामें एक ऊपरी शक्ति ही है, जब कि भगवानके पास सत्य- की सनातन शक्ति है ।

 

२६-१२-६९

 

२५२ -- यदि तुम यह सोचते हो कि पराजय ही तुम्हारा अंत है तो युद्धके लिये आगे मत बढ़ो, अधिक शक्तिशाली हो तो भी न बढ़ो। कारण, भाग्यको कोई खरीद नहीं सकता, न ही शक्ति अपने अधिकर्ताके साथ बंधी हुई है । किंतु

 

२९९


पराजय अंत नहीं है, यह केवल एक द्वार है या एक आरंभ है ।

 

२५३ -- तुम कहते हो मेरे हाथ असफलता लगी है । इस- की जगह यह कहो कि भगवान् अपने लक्ष्यकी ओर चक्राकार गतिसे बढ़ रहे हैं।

 

२५४ - संसारसे निराश होकर तुम भगवानको पकड़नेके लिये दौड़ते हो । यदि संसार तुमसे अधिक बलशाली है तो क्या तुम भगवानको अपनेसे दुर्बल समझते हो ? तुम उनके आदेशके लिये तथा उसे पूरा करनेकी शक्ति प्राप्त करनेके लिये उन्हींकी ओर मुडों ।

 

   स्नेहमयी मां, भगवानको अपने लक्ष्यकी ओर जानेके लिये चक्कर क्यों काटने पड़ते है ? वे इच्छा करते ही आसानीसे उसे एकदम प्राप्त कर सकते हैं, इससे अन्य सबका कार्य भी अधिक सुगम और प्रभावकारी हो जायगा, क्या यह ठीक नहीं हैं ।

 

निश्चय ही श्रीअरविंदने यह नहीं कहा है कि ''भगवान्''के चक्कर काटनेकी आवश्यकता है, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान् हैं, किंतु उनमें ऐसी निरंकुश शक्ति नहीं है जैसा कि मनुष्य समझते हैं ।

 

   किसी वस्तुको समझना शुरू करनेके लिये व्यक्तिको यह जानना और समझना होगा कि समस्त विश्वमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनकी सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक संकल्प-शक्तिकी अभिव्यक्ति 'न हो'; उनके साथ चेतन रूपसे संयुक्त होनेसे ही व्यक्ति इसे समझना आरंभ कर सकता है, पर मानसिक रूपसे नहीं, बल्कि चेतना और अंतर्दृष्टिकी अद्भुत क्रियाके रूपमें ।

 

  अपनी सामान्य चेतनामें, विशालतम बुद्धिमत्ताके होते हुए भी, मनुष्य सृष्टिके एक अत्यंत छोटे-से कणको ही देख सकता है, अतएव वह उसे समझ' तो सकता नहीं, और निर्णय तो और भी कम दे सकता है ।

 

  यदि हम संसारके रूपांतरको शीघ्र लाना चाहते है तो हम अच्छे-से- अच्छा यही कर सकते हैं कि निःशेष भावमें, बिना हिसाब-किताब किये अपने-आपको उन्हें सौंप दे, जो सब कुछ जानते हैं ।

 

२ ८- १२-६९

 

३००


२५५ -- जबतक किसी महान् ध्येयके पक्षमें एक भी अविचल विश्वासबाला व्यक्ति हो, बह कभी असफल नहीं हो सकता ।

 

२५६ -- तुम बड़बड़ाते हो : तर्क इस विश्वासका आधार नहीं बन पाता । मूर्ख ! यदि ऐसा होता तो तुम्हें न तो विश्वास- की आवश्यकता होती न तुमसे उसकी मांग ही की जाती ।

 

२५७ -- हदयका विश्वास एक गुप्त ज्ञानका अस्पष्ट एवं प्रायः ही विकृत प्रतिबिंब होता है । प्रायः जितना अधिक संशय विश्वासीको सताता है उतना अत्यधिक हठी अविश्वासीको नहीं । वह स्थिर इसलिये रहता है कि उसके अवचेतनामें कोई ऐसी वस्तु होती है जो जानती है । बह उसके अंधविश्वासको और धूमिल संशयोंको सहती है और उसे उस वस्तुके प्रकट करनेमें सहायता पहुंचाती है जिसे वह जानता है।

 

  स्नेहमयी मां, क्या ऐसा ''अंध-विश्वास'' रखना अच्छा है जो न प्रश्न करे न तर्क ?

 

जिसे सामान्यत: मनुष्य अंध-विश्वास कहते हैं वह वास्तवमें वह वस्तु होती है जिसे भागवत कृपा कमी-कमी उन लोगोंको प्रदान करती है जिनकी बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुई कि वे सच्चे ज्ञानको प्राप्त कर सकें । अतएव, अंध-विश्वास बहुत सम्माननीय हो सकता है, यधापि यह बात ठीक है कि जिस व्यक्तिके पास सच्चा ज्ञान है वह इससे कहीं उच्च अवस्थामें है ।

 

२९-१२-६९

 

    स्नेहमयी मां, विश्वास किस स्तरकी वस्तु है -- मानसिक स्तरकी या आंतरात्मिक ?

 

विश्वास संपूर्णतया आंतरात्मिक विषय है ।

 

३०-१२-६१

३०१


२५८ -- संसार सोचता है कि वह तर्कके प्रकाशके सहारे आगे बढ़ रहा है, किंतु वास्तवमें उसे आगे चलाते हैं विश्वास और सहज प्रेरणाएं ।

 

२५९ -- तर्क अपने-आपको विश्वासके अनुकूल बना लेता है और सहज प्रेरणाओंको भी न्यायोचित ठहराता है, किंतु बह प्रेरणाको अवचेतन रूपमें ग्रहण करता है; अतएव, लोग सोचते हैं कि वे तर्क-संगत व्यवहार कर रहे हैं ।

 

२६ -- तर्कका एक ही कार्य है, इंद्रिय-बोधोंको व्यवस्थित ढंगसे रखना और उनकी आलोचना करना । उसके अपने अंदर न तो प्रत्यक्ष निष्कर्षका कोई साधन है, न कार्य करने- का आदेश । जब बह सोचता है कि बह मौलिक रूपसे किसी वस्तुको चला रहा है, तो वह अन्य साधनोंपर पर्दा डाल रहा होता है ।

 

२६१ -- जबतक तुममें 'प्रज्ञा' न उत्पत्र हो, तबतक तर्कका प्रयोग करो, उसके ईश्वर-प्रदत्त प्रयोजनके लिये, इसी प्रकार विश्वास ओर सहज प्रवृत्तिको भी उनके प्रयोजनोंके लिये । अपने विभिन्न अंगोंको परस्पर अड़ाते क्यों हो ?

 

   स्नेहमयी मां, सामान्य जीवन और आध्यात्मिक जीवनमें तर्क, श्रद्धा, और सहजप्रवृत्तिका सबसे बड़ा प्रयोजन क्या हैं ।

 

प्रत्येकका अपने स्वभावके अनुसार अपना प्रयोजन होता है; वह उस लक्ष्यपर निर्भर है जिसे व्यक्ति अपने सामान्य जीवनमें प्राप्त करना चाहता है ।

 

   जहांतक आध्यात्मिक जीवनका प्रश्न है, उसका केवल एक ही उद्देश्य है : भगवानको जानना और उसके साथ संयुक्त होना; इसमें सभी साधन प्रयुक्त किये जा सकते हैं, विशेषतया विश्वास, जो निश्चित ही नए जिज्ञासुओंकी लिये अत्यधिक शक्तिशाली रूपमें प्रेरणारूप होता है ।

 

३१-१२-६१

 

३०२


२६२ -- सदा अपने उतरोतर बढ़ते हुए वस्तु-बोधके प्रकाशमें देखो और कार्य करो, पर यह बोध केवल तर्क करनेवाले मस्तिष्कका न हो । जब मस्तिष्क भगवानको नहीं समझ सकता तो वे हदयके साथ बात करते हैं ।

 

२६३ -- यदि तुम्हारा हृदय तुम्हें कहें कि कोई बात इस प्रकार, इन साधनोंके दुरा और इस समय होगी तो उसमें विश्वास न करो । किंतु यदि वह तुम्हें भगवानके आदेशके रूपमें पवित्रता और विशालताका आभास दे तो उसकी बात सुनो ।

 

२६४ -- जब तुम्हें आदेश मिले तो उसको माननेमें ही अपनी सारी शक्ति लगा दो । बाकी सब भगवानकी इच्छा और व्यवस्थापक छोड़ वों, इन्हें ही लोग संयोग, दैव और भाग्य कहते है ।

 

स्पष्ट ही, मनकी नीरवतामें ही व्यक्ति भागवत आदेशकों जान सकता है । जाननेकी सच्ची विधि शब्दों और विचारोंसे परे है ।

 

   ऐसा होनेपर सब कुछ बड़ा स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति भागवत आदेशकों पहले जान लेता है और उसका वर्णन करनेवाले शब्द पीछे आते हैं ।

 

 १-१-७०

 

२६५ -- यदि तुम्हारा लक्ष्य महान् हो और साधन छोड़, तो भी कार्य करते रहो, कारण कर्मके द्वारा ही ये बढ़ सकते हैं ।

 

२६६ -- समय और सफलताकी  न करो । अपनी भूमिका निभाते रहो, चाहे उसमें सफलता मिले था असफलता।

 

२६७ -- आदेश तीन रूपोंमें आ सकता है, तुम्हारी प्रकृतिका संकल्प और विश्वास, तुम्हारा आदर्श जिसे तुम्हारा हृदय और मस्तिष्क स्वीकार करते हैं और भगवान् और उसके देवदूतोंकी आवाज ।

 

३०३


२६८ -- कई ऐसे समय होते हैं जब कार्य करना बुद्धिमानी- का काम नहीं होता था उसे करना संभव ही नहीं होता; तब तुम एकांत स्थानमें जाकर या अपनी आत्माके एकाकीपन- मे बैठकर तपस्या करो और भगवानके आदेश अथवा उनके प्रकट होनेकी प्रतीक्षा करो ।

 

२६९ -- सभी आवाजोंके आदेशपर ही एकदमसे कूद मत पड़ो, क्योंकि तुच्छ सत्ताएं तुम्हें ठगनेके लिये उतावली बैठी हैं अपना हृदय पवित्र रखो और फिर सुनो ।

 

सच ही, यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक आवाजको भगवानकी आवाज नहीं समझ लेना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार किसी ठगके आदेशको मानकर व्यक्ति खतरेमें पड़ जायगा । एकमात्र सुरक्षा समस्त व्यक्तिगत इच्छाके पूर्ण अभावमें है, भगवानकी सेवा करने और पूर्ण शांतिमें निवास करनेकी इच्छा भी वहां नहीं होनी चाहिये । केवल तभी व्यक्ति अपनी विवेक-बुद्धिपर भरोसा रख सकता है ।

 

 ३-१-७०

 

२७० -- कुछ ऐसे समय होते हैं जब ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कठोरतापूर्वक भूतकालको प्रश्रय दे रहे हैं; तब जो कुछ हो चुका है और है, वह मानों जमकर बैठ जाता है और अटल वाणीका बाना पहनकर कहता है : ''मै' रहूंगा ही ।', तब भी डटे रहो, चाहे तुम्हें ऐसा लगे भी कि तुम सर्वेश्वरसे लड़ाई कर रहे हो । कारण, यह उसकी सबसे अधिक तीखी परीक्षा है ।

 

२७१ -- मानवी रूपसे किसी कार्यमें असफलता या निराशाके हाथ लगनेसे बात समाप्त नहीं होती, स्थिरता केवल तब आती है जब आत्मा प्रयत्नका त्याग कर देती है ।

 

इसका प्रयोजन हमें इस बातके लिये उत्साहित करना है कि हम बाह्य प्रतीतियोंसे प्रभावित हुए बिना अपने प्रयत्नमें लगे रहें,, भले ही ऐसा प्रतीत हो कि कोई परिणाम नहीं आ रहा ।

 

३०४


   जीवनमें हमें वही करना चाहिये जो हमारे बोधकों करने योग्य सच्ची वस्तु प्रतीत हो, चाहे दूसरे लोग हमारी कितनी भी आलोचना करें या हमारी हंसी उड़ायें । कारण, लोगोंके मतका कुछ मूल्य नहीं है, केवल भागवत इच्छा ही सच्ची है और उसीकी विजय होगी ।

 

४-१-७०

 

२७२ -- जो व्यक्ति उच्च आध्यात्मिक पदविया प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अनंत कसौटियों और परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होना होगा । किंतु अधिकांश व्यक्ति तो केवल परीक्षकोंको घूस देनेको ही उत्सुक रहते हैं ।

 

२७३ -- जबतक तेरे हाथ मुक्त हैं ? तबतक अपने हाथोंसे, वाणी और मस्तिष्कसे, सभी प्रकारके शस्त्रोंसे युद्ध करता रह । क्या बैर अपने शत्रुकी कालकोठरीमें बंधा पड़ा है ? क्या उसने तेरे मुखमें पकड़ा ठूंसकर तुझे चुप करा दिया है ? अपनी मूक सर्वाक्रामक आत्मा ओर विशाल संकल्प-शक्तिसे युद्ध कर और जब तू मृत्युको प्राप्त हो जाय तव भी तू उस विश्वव्यापी शक्तिके साथ युद्ध करता रह जो तेरे अंदर स्थित भगवान्से प्रकट हुई थी ।

 

सत्य एक कठिन और आयासपूर्ण विजय है । इस विजयको प्राप्त करनेके लिये व्यक्तिका सच्चा योद्धा बनना होगा, एक ऐसा योद्धा जिसको किसीका भय न हो, न शत्रुका न मृत्युका । कारण, यह संघर्ष सारे संसारके विरुद्ध, शरीरमें या शरीरके बिना भी, चलता रहेगा और उसका अंत विजयमें ही होगा ।

 

६-१-७०

 

२७४ -- तू सोचता है कि अपनी गुहामें या पर्वतकी चोटीपर बैठा संन्यासी एक पत्थरके समान निठल्ला बैठा है । तुझे क्या पता ? बह शायद संसारको अपनी संकल्प-शक्तिकी धाराओंसे प्लावित कर रहा हो तथा अपनी आत्माकी अवस्थाके दबावसे उसमें परिवर्तन ला रहा हो ।

 

३०५


२७५ -- जिस वस्तुको ये मुक्त व्यक्ति पर्वतकी चोटीपर बैठे अपनी आत्मामें देखते. हैं उसे योद्धा और पैगंबर भौतिक जगत्में उद्घोषित एवं क्रियान्वित करनेको आगे आ जाते हैं ।

 

२७६ -- ब्रह्यविधावादी अपने कथनमें गलत होते हैं पर साररूपमें वे ठीक होते हैं । फ्रेंच क्रांतका कारण यह था कि भारतकी महमामंडित चोटियोंपर बैठी आत्माने भगवानकी स्वतंत्रता, महत्त्व और समानताके रूपमें कल्पना की थी।

 

यह केवल इस बातका द्योतक है कि आत्माकी शक्ति सभी भौतिक शक्तियोंसे बहुत बड़ी है । किंतु लक्ष्य-सिद्धिके लिये दोनोंकी आवश्यकता

 

 ७-१-७०

 

२७७ -- समस्त वाणी और कर्म शाश्वत 'नीरवता'से तैयार होकर निकलते हैं ।

 

२७८ -- 'सागर'की गहराइयोंमें कोई हलचल नहीं होती, किन्तु ऊपरी तलपर उसके कोलाहल और किनारेसे टकराहटका आनंद- दायी शोर होता रहता है; प्रचंड कार्यके बीच वास करनेवाली मुक्त आत्माकी भी यही बात होती है । आत्मा कार्य नहीं करती; बह केवल अपने अंदरसे प्रचंड कार्यकी प्रेरणाको निस्सारित करती है ।

 

यह बात मी हमें यही बताती है कि कार्यका उद्गम उसीमें प्रकट हुई 'चेतना' और 'शक्ति' के अंदर होता है जो भौतिक रूपमें कार्यरत सत्ताओंसे बिलकुल मित्र होती है, जब कि ये सत्ताएं अज्ञानवश सोचती है कि स्वयं दे ही कार्य कर रही हैं ।

 

८-१-७०

 

३०६


२७९ -- ओ भगवानके सिपाही और योद्धा, तेरे लिये यह दुःख, कष्ट और लज्जा क्यों? कारण तेरा जीवन तो एक गौरव है, तेरे कार्य आत्मा-निवेदन है, विजय तेरा देवत्व और पराजय तेरी जीत है ।

 

जो व्यक्ति भगवानके प्रति पूर्णतया आत्म-निवेदित है, उसके लिये न कष्ट है न लज्जा, क्योंकि भगवान् सदा उसके साथ है तौर उनकी उपस्थिति सभी वस्तुओंको गौरवपूर्ण बना देती है ।

 

९-१-७०

 

२८० -- क्या तुम्हारे निम्न अंग अभी भी पाप और शोकका आघात अनुभव करते हैं ? किंतु ऊपर चाहे वे देखें या न देखें तेरी आत्मा राजसी ठाठमें विधमान है, शांत, मुक्त और विजेताके गौरवसे परिपूर्ण । निश्चय रख कि अंत आनेसे पहले ही भगवती मां अपने कार्यको कर लेगी और तेरी सत्रके उपावानको आनंद और पवित्रतासे परिपूर्ण कर देंगी ।

 

२८१ -- यदि तेरा हृदय दुःखी है, यदि बहुत समयसे तूने कुछ भी प्रगति नहीं की है, यदि तेरी शक्ति शिथिल और निस्तेज हो गयी है, तो हमेशा' हमारे प्रेमी प्रभुका यह शाश्वत शब्द याद रख : ''मैं तुझे समस्त पाप और अशुभसे मुक्त कर दंगा; शोक मत कर ।',

 

जिसे श्रीअरविन्द यहां आत्मा कहते है वह हममेंसे प्रत्येकमें उपस्थित भागवत उपस्थिति है; और हमारे अंदरकी इस उपस्थितिकी सुनिश्चितिको हमें अंतिम अनिवार्य विजयका विश्वास दिलाते हुए हमारे सब दुख-दर्दमें सांत्वना देनी चाहिये ।

 

१०-१-७०

 

   २८२ -- पवित्रता तेरी आत्मामें विधमान है; किन्तु कायोंमें पवित्रता या अपवित्रताका प्रश्न कहां ?

 

३०७


श्रीअरविन्द पवित्रता शब्दको सामान्य नैतिक अर्थ नहीं देते । उनके लिये ''पवित्रता'' का अर्थ है ''पूर्णतया भगवानके प्रभावके तले'' होना तथा भगवानको ही अभिव्यक्त करना ।

 

    इस समय, पृथ्वीपर जो भी कार्य हों रहे हैं, उनके विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता ।

 

 १२ - १ -७ ०

 

२८३ -- ओ मृत्यु, हमारी प्रच्छन्न मित्र एवं अवसरोंकी निम्रत्री, जब तू दुरा खुलने लगे तो हमें पहलेसे ही सूचित करनेमें संकोच न करना; कारण, हम उन लोगोंमेंसे नहीं हैं जो लौह कपाटकी चरमराहटसे भयभीत हो जाते हैं।

 

२८४ -- मृत्यु कभी-कभी एक धृष्ट दासके समान होती है, किंतु जब वह पृथ्वीके इस वेषको एक चमकीली पोशाकमें बदल देती है तो उसकी इस चालाकी और धृष्टताको क्षमा किया जा सकता है ।

 

२८५ -- ओ अमर आत्मा, तुझे कौन भार सकता है? तुझे कौन सात सकता है, ओ शाश्वत आनन्दपूर्ण देव !

 

  आरंभसे ही मृत्युके आस-पास इतना शोक क्यों मंडराता रहता है ?

 

 शोकका कारण मनुष्यका अज्ञान और अहंभाव होता है । किंतु इस शोककी भी मनुष्यजातिके विकासमें अपनी भूमिका रही है ।

 

१३-१-७०

 

   मानवजातिके विकासमें शोकने कौन-सी भूमिका की है ?

 

शोक, कामना, कष्ट, महत्वाकांक्षा और इसी प्रकारकी भावनाओं और वेदनोंसंबंधी अन्य सभी प्रतिक्रियाएं चेतनाको अचेतनामेंसे उद्भूत होने तथा फिर इस चेतनामें प्रगतिकी प्रबल इच्छाको जागृत करनेमें सहायता पहुंचाती है ।

 

१४-१-७०

 

३०८


२८६ -- जब तेरी सत्रके निम्न अंग निराशा और दुर्बलताके वशमें होने लगे तो यह सोच : ''मै 'बाक्स, 'एरस्र' और 'अपोलो' हूं, मैं पवित्र अग्नि हूं और अजेय हूं; मैं सदा प्रचंड रूपसे प्रज्ज्वलित रहनेवाला सूर्य हूं।"

 

२८७ -- अपने अंदरकी डायनिसियन पुकार और हर्षातिरेकसे पीछे न हट, किंतु इसका भी ख्याल रख कि कहीं तू लहरोंपर डूबता-उतराता तिनका ही न बन जाय ।

 

२८८ -- तुझे अपने अंदरके सभी देवताओंको सहना सीखना होगा, न उनके आक्रमणसे तुझे लड़खड़ाना है और न उनके बोझके नीचे टूट ही जाना है ।

 

यह मनुष्यको यह सीखनेके लिये है कि उसे विभित्र धर्मोके देवताओंसे न तो अभिभूत हो जाना है न उनसे डरना है, क्योंकि मनुष्य, मानवसर्ता होनेके कारण, अपने अंदर सर्वोच्च प्रभुके साथ संयुक्त होने तथा उसके प्रति सचेतन होनेकी समावना लिये रहता !

 

१५-१-७०

 

२८१ - - मानवजातिने शकित और आनंदसे तंग आकर शोक और दुर्बलताको एक गुण कहा, ज्ञानसे तंग आकर अज्ञानको शुद्धता कहा, प्रेमसे तंग आकर हृदयहीनताको विवेक और बुद्धिमत्ताके नाम दिया ।

 

२९० - सहनशीलता कई प्रकारकी होती है । मैंने एक कायर देखा जिसने प्रहार करनेवालेके आगे अपना गाल कर दिया । मैंने एक ऐसे निःशक्त व्यक्तिको भी देखा जो एक बलवान् और अहंकारी गुंडेसे मार खाखर अपने आक्रमणकर्ताकी ओर चुपचाप ताकता रह गया; मैंने एक अवतारी देवताको देखा जो अपनेपर पत्थरकी वर्षा करनेवालोंकी ओर प्रेमपूर्वक निहारता रहा । पहला उपहासके योग्य था, दूसरा भयंकर एवं तीसरा दिव्य ओर पावन ।

 

 ३०९


श्रीअरविन्द हमसे कहते है कि सभी परिस्थितियोंमें प्रेमको प्रक्षिप्त करते रहना ही देवत्वका लक्षण है, वह उसे भी प्यार करता है जो उसे लप्पड़ मारता है और उसे मी जो उसकी उपासना करता है -- कैसा पाठ है यह मानवजातिके लिये !

 

 १७-१-७०

 

२९१ -- जो लोग तुम्हें नुकसान पहुंचाते हैं उन्हें क्षमा करना भला कार्य है, किंतु दूसरोंको हानि पहुचानेवालेको क्षमा करना भला नहीं है । तो भी उन्हें क्षमा कर दो,  जब आवश्यकता पड़े तो शांतिपूर्वक बदला भी ले लो ।

 

२९२ -- जब एशियावासी किसीका वध करते हैं तो बह क्रूरता कहलाती है.; जब यूरोपीय ऐसा करते हैं तो सामरिक आवश्यकता । इस भेदको समझो और संसारकी अच्छाइयोंके ऊपर विचार करो ।

 

यह सब हमें  गहराईसे यह अनुभव करनेको बाध्य करता है कि मनुष्यों ऐसे निर्णय जो स्वार्थ और अहंभावकी प्रतिक्रियाओंपर आधारित होते है, कितने मूर्खतापूर्ण है ।

 

  जबतक मनुष्य अज्ञानकी अवस्थामें निवास करता है, जिसमें कि आजकल वह है, तबतक उसके मतों और निर्णयोंका सत्यके सामने कुछ मूल्य नहीं होता, इन्हें ऐसा ही समझना भी चाहिये ।

 

२०-१-७०

 

२९३ -- अत्यधिक जोशीली पुण्यात्माओंकी ओर जरा ध्यानसे दृष्टि डालो । शीघ्र ही तुम देखोगे कि जिस दोषी वे इतने जोर-शोरसे निन्दा करते थे उसीको वे या तो स्वयं कर रहे है या उसकी ओरसे बेखबर है ।

 

२९४ -- ''मनुष्यमें सचमुचका पाखंड बहुत ही कम होता है ।" यह सत्य है, किंतु उनमें कूटनीति काफी है और इससे भी अधिक है आत्म-प्रवंचना । यह आत्म-प्रवंचना तीन प्रकारकी


३१०


   होती है : चेतन, अवचेतन और अर्ध-चेतन; किंतु इनमेंसे तीसरी बहुत भयावह है ।

 

   स्नेहमयी मां, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि चेतन आत्मप्रवंचना सबसे अधिक बुरी है, क्या यह ठीक नहीं है ?

 

चेतन आत्म-प्रवंचना विरले ही देखनेमें आती है, क्योंकि इसका अर्थ है चेतनाका विपुल विकास जिसका संबंध धोखा देनेवाली विरोधी इच्छासे जुड़ा होता है । यह फिर अत्यधिक भयानक झूठोंको जन्म देती है; किंतु इसका इलाज मी शायद सबसे अधिक सरल है । क्योंकि चेतना पहलेसे ही जाग्रत होती है, उसे केवल उसकी गलतीके प्रति सचेतन करना और उस गलतीको दूर करनेका निर्णय लेना ही काफी है क्योंकि उसमें ऐसा करनेकी शक्ति मौजूद होती है ।

 

   औरोंको पहले अपनी क्रियाओंके प्रति सचेतन होना पड़ता है और इसमें सामान्यतया काफी समय लगता है ।

 

२१-१-७०

 

२९५ -- लोगोंके अपने गुणोंके प्रदर्शनसे धोखा मत खाओ, न ही उनके प्रत्यक्ष या गुप्त दोषोंके लिये उनसे घृणा करो । ये वस्तुएं तो मानवजातिके लंबे संक्रमणकालमें आवश्यक परि- वर्तन हैं ।

 

२९६ -- संसारकी कुटिलताके प्रति विरक्ति न दिखाओ; संसार एक घायल और विषधर नाग है जो निश्चित रूपसे अपनी केंचुली उतारने और पूर्णताकी ओर बढ़नेके लिये संघर्ष कर रहा है । थोडी प्रतीक्षा करो, यह भगवानका एक दांव है; और फिर इसी निम्न अवस्थामेंसे भगवान् देदीप्यमान और विजयी होकर प्रकट होंगे ।

 

श्रीअरविन्द हमें बताते है कि मनुष्य संक्रमणकालकी प्राणी है और यह भी कि संसारकी सभी बुराइयोंमेंसे एक ऐसी प्रकाशपूर्ण सत्ता उत्पत्र होगी जो भगवानको अभिव्यक्त कर सकेगी ।

 

  अतएव, जो लोग संसारके वर्तमान स्वरूपसे संतुष्ट नहीं हैं, वे सब यह

 

३११


जानते है कि उनकी अभीप्सा निष्फल नहीं जायगी और यह भी कि संसार बदल रहा है ।

 

  यदि आत्म-निवेदन और प्रयत्न भी अभीप्साके साथ जड़ जायें तो कार्य अधिक शीलतासे होगा ।

 

२२-१-७०

 

२९७ -- बाह्य आवरणसे क्यों विरक्त होते हो ? इसकी घृणित, अहंगत अथवा भयानक प्रतीतियोंके पीछे श्रीकृष्ण तुम्हारे मूर्खतापूर्ण क्रोधपर और इससे भी अधिक तुम्हारी मूर्खतापूर्ण घृणा या विरक्तिपर तथा स्वसे अधिक तुम्हारे मूर्खतापूर्ण आतंकपर हंस रहे हैं ।

 

२९८ -- जब तुम किसी दूसरेका तिरस्कार कर रहे होते हो तो तुम अपने हदयकी ओर देखो और अपनी मूर्खतापर हंसों ।

 

क्या हमारी अपनी मानसिक धारणा ही वस्तुओंको घृणित या अरुचिकर समझती है या क्या ये सचमुचमें वैसी है जैसा व्यक्ति उन्हें देखता है ?

 

तो फिर यही बात सौंदर्यपर भी लागू होनी चाहिये, है न ?

 

यह निश्चित है कि भौतिक जगत् की वर्तमान अवस्थामें बाह्य प्रतीतियां अभीतक बहुत भ्रमोत्पादक हैं, भौतिक सुन्दरता सदैव एक सुन्दर आत्माका चिह्न नहीं होती, उधर एक कुरूप या बेडौल शरीर भी एक प्रतिभावान और ज्योतिपूर्ण आनंदका धारक हो सकता है ।

 

   किंतु जिस मनुष्यमें आंतरिक वेदनशीलता अधिक होती है, उसे बाह्य प्रतीतियां धोखा नहीं दे पातीं और वह एक सुन्दर मुखमें छुपी कुरूपताको और एक कुरूप बाह्य आवरणके पीछे स्थित सौंदर्यको भी देख सकता है ।

 

   ऐसे उदाहरण मी है -- इनकी संख्या दिनोंदिन बढ्ती ही जा रही है -- जिनमें बाह्य प्रतीति उस आंतरिक सत्यताको उजागर कर देती है जो पीछे सबकी दृष्टिमें आ जाती है ।

 

२३-१ -७०

 

३१२


२९९ - व्यर्थके झगड़ेसे बचो; किंतु विचारोंका आदान-प्रदान स्वतंत्रतापूर्वक करो । यदि झगड़ने ही हो तो अपने विरोधीसे कुछ सीखो; कारण, एक मूर्खसे भी तुम बुद्धिमानीकी बातें सीख सकते हो, पर केवल तभी जब कि तुम अपने कानों या तर्कशील मनसे न सुनकर आत्माके प्रकाशमें उसकी बात सुनो ।

 

३०० -- सभी वस्तुओंको मधुरताकी ओर मोड. दो; यही दिव्य जीवनका नियम है ।

 

३०१ -- निजी झगड़ेसे सदैव बचना चाहिये;  सार्वजनिक लडाईसे पीछे न हटो; किंतु वहां भी अपने शत्रुकी शक्तिका मूल्य अवश्य आक लो।

 

३०२ -- जय तुम किसी ऐसी सम्मतिको सुनते हो जो तुम्हें नापसंद हो, तो भी उसकी गहराईमें जाकर उसमें निहित सत्यको ढूंढो ।

 

यदि व्यक्ति सच्चे दिलसे 'सत्य' के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहता है तो उसे यह जान लेना चाहिये कि प्रत्येक वस्तु उसे कुछ सीखा सकती है । प्रत्येक क्षण उसके सामने प्रगतिकी संभावना रहती है । प्रायः एक बड़ी पर ऐसा मूर्खता ही तुम्हारे सामने महान् प्रकाशको प्रकट कर देती है । तभी होता है जब व्यक्ति उसे। देखना जाने।

 

२४-१-७०

 

३०३ -- मध्यकालीन संन्यासी स्त्रियोंके घृणा करते थे और यह सोचते थे कि उन्हें भगवानने साधु-संतोंको लुभानेके लिये ही बनाया है । हमें भगवान् तथा स्त्रीकी विषयमें अधिक अच्छे बिचार रखने चाहिये ।

 

३०४ -- यदि किसी स्त्रीने तुम्हें लुभाया है तो यह उसका दोष है या तुम्हारा ? मूर्ख और आत्म-प्रवंचक मत बनो।

 

३१३


   ३०५ -- स्त्रीके जालसे मचनेके दो ढंग हैं, एक है सभी स्त्रियोंके बहिष्कार करना और दूसरा सभी प्राणियोंसे प्रेम करना ।

 

   सामान्य जीवनमें आधुनिक स्त्रीका आदर्श क्या होना चाहिये ?

 

सामान्य जीवनमें स्त्रियोंके, जो भी दे चाहै, आदर्श हो सकते है । इसका कोई अधिक महत्व नहीं है ।

 

   आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे पुरुष और नारी, दोनों ही, भगवानको प्राप्त करनेकी संभावनामें समान है, पर प्रत्येकको यह कार्य अपने ढंगसे, और अपनी संभावनाओंके अनुसार करना है ।

 

२५-१-७०

 

३०६ -- वैराग्य निस्संदेह बड़ा सुखकारी होता है, गुफा बहुत शांतिप्रद होती है और पर्वतकी चोटियां अद्भुत रूपसे आनंददायक ! फिर भी तुम संसारमें वही करो जो भगवान् तुमसे करवाना चाहते हैं ।

 

श्रीअरविन्द हमें बताते हैं कि व्यक्ति त्यागके कारण नहीं अपनी रुचिके अनुसार वैरागी हो सकता है । इस प्रकार वे हमें समझाते हैं कि भगवान्का सेवक बनना और केवल उन्हींकी इच्छानुसार कार्य करना सभी व्यक्तिगत अभिरुचिसे कहीं अधिक श्रेष्ठ है, चाहे उसकी अभिरुचि कितनी ही साधु-संतों जैसी क्यों न प्रतीत हो ।

 

२६-१-७०

 

३०७ -- भगवान् शंकरपर तीन बार हंसे, पहले तब, जब बे अपनी मांका दाहसंस्कार करनेके लिये लोटे, फिर तब, जब उन्होंने ईश उपनिषद्की टीका की और तीसरी बार तब, जब बे

 

  बादमें माताजीने यह भी कहा था कि सामान्य जीवनमें स्त्रियोंका आदर्श ''अच्छा स्वास्थ्य और सामंजस्य है'' ।

 

३१४


    भारतभरमें अकर्मष्यताफे प्रचारके लिये गरजते फिरे ।

 

भगवान् हंसे जब कि इस व्यक्तिने, जो अपने-आपको बहुत बुद्धिमान् समझता था, प्रचलित रीति-रिवाजोंका पालन किया, व्यर्थकी बातें लिखीं और अकर्मण्यताके प्रचारके लिये अत्यधिक क्रियाशीलताका उदाहरण रखा ।

 

 २७-१-७०

 

३०८ -- लोग सफलताके पीछे दौड़-धूप करते है और यदि उन्हें असफल होनेका सौभाग्य प्राप्त होता है तो इसलिये कि प्रकृतिकी बुद्धिमत्ता और शक्ति उनकी बौद्धिक कुशलताको दबा देती हैं । केवल भगवान् ही यह जानते हैं कि कब और कैसे बुद्धिमतापूर्बक गलती की जाय और फलप्रद रूपमें असफल हुआ जाय ।

 

३०९ - जो व्यक्ति कभी असफल न हुआ हो या जिसने कभी कष्ट न झेला हो, उसपर विश्वास मत करो; उसकी समृद्धिके पीछे मत चलो, न ही उसके झंडे तले युद्ध करो ।

 

३१० -- दो हैं जो महानता और स्वाधीनताके अयोग्य होते हैं, एक तो यह मनुष्य जो कभी किसीका दास नहीं रहा और दूसरा यह राष्ट्र ओ कभी विदेशी जूए तले नहीं रहा ।

 

कुछ ऐसे आवश्यक गुण होते है जो केवल कष्ट और कठिनाईमेंसे गुजरनेके बाद ही विकसित हो सकते है । लोग अज्ञानवश इनसे पीछे हटते हैं, किंतु परम प्रभु इन्हें उन लोगोंपर डालते है जिन्हें उन्होंने पृथ्वीपर अपना प्रति-

 

  शंकर (७८८-८२०) का सिद्धांत यह था कि संसार एक म्रान्ति है । संन्यासी होनेके कारण उन्होंने संसारके बंधनोंका त्याग तो कर दिया था पर वह त्याग उन्है भारतीय रीतिके अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होनेके कारण मांका अंतिम संस्कार करनेसे रोक न सका । ईश उपनिषद्की टीका करते समय उन्होंने उसके वास्तविक अर्थका अनर्थ करके अपने मायावादके सिद्धांतको सच्चा बताया था जब कि ईश उपनिषद् भगवान् और कर्मकी वास्तविकता- को सिद्ध करता है ।

 

३१५


निधित्व करनेके लिये चूना है ताकि उनका विकास तेजीसे हो सके क्योंकि भगवान् ही सर्वोच्च प्रज्ञा है ।

 

२८-१-७०

  

३११ - अपने आदर्शकी पूर्तिके लिये कोई समय या विधि निश्चित न करो । कार्य करो और समय एवं विधि उस सर्वज्ञ भगवान्पर छोड़ दो ।

 

३१२ -- कार्य इस प्रकार करो मानों आदर्शकी पूर्ति शीघ्र ही, तुम्हारे जीवन-कालमें ही होनी है । काममें ऐसी दृढ़तासे लगे रहो मानों तुम जानते हो कि यह एक हजार वर्षके परिश्रमके बाद ही संपत्र होगा । जिस कार्यके होनेकी तुम पांच हजार वर्षसे पहले आशा नहीं कर सकते वह कल प्रभातसे पहले भी संपत्र हो सकता है और जिसकी तुम अभी आशा और चाहना कर रहे हो बह शायद तुम्हारे सौवें जन्ममें ही हो ।

 

रूपांतरके विषयमें हम सबकी यही मनोवृत्ति होनी चाहिये; वही उत्साह और वही लगन हो मानों हमें इसे अपने वर्तमान जीवनमें प्राप्त कर लेनेका विश्वास हो और वही धैर्य और वही सहनशीलता हो मानों इसे चरितार्थ करनेमें कई शताब्दियोंकी आवश्यकता पड़ेगी ।

 

२९-१-७०

 

३१३ -- हममेंसे प्रत्येकको अभी पृथ्वीपर लाखों जीवन धारण करने हैं । तब यह गड़बड़ी, कोलाहल और अधैर्य क्यों ?

 

३१४ -- शीघ्रतासे डग बढ़ाओ, क्योंकि लक्ष्य दूर है । बिना आवश्यकता विश्राम मत करो; क्योंकि तुम्हारे प्रभु तुम्हारी यात्राके अन्तमें तुम्हारी बाट जोड़ रहे हैं ।

 

यहां मी, सदाकी भांति श्रीअरविंद प्रश्नके सभी पहलुओंको देखते

 

३१६


 है । उत्तेजित व्यक्तिको शांति और धैर्यका पाठ पढ़ाते हुए आलसियोंको झकझोरकर उत्साहकी शिक्षा देते है, विरोधी पक्षोंके मिलनमें ही सच्ची बुद्धिमता और पूर्ण सामर्थ्यकी प्राप्ति हो सकती है ।

 

 ३०-१-७०

 

३१५ - मैं उस बचकाने अधैर्यसे ऊब उठा हूं जो आदर्शको इस कारण नकारता, अस्वीकार करता एवं उसकी निन्दा करता है क्योंकि हम अपने छोटे-से जीवन था कुछ शताब्दियोंमें स्वर्णिम चोटियोंतक नहीं पहुंच सकते ।

 

३१६ -- कामनामुक्त होकर अपनी आत्माको लक्ष्यपर स्थिर रखो और अपने अन्दरकी भागवत शक्तिकी सहायतासे उसीपर दृढ़ रहो; और तब स्वयं लक्ष्य ही साधनको उत्पन्न करेगा; नहीं, वह अपना साधन आप बन जायगा । कारण, लक्ष्य स्वयं ब्राहा है और वह साधित हो भी चुका है; उसे सदा ब्रह्के रूपमें देखो, उसे सदा अपनी आत्मामें साधित हुआ ही देखो ।

 

निश्चय ही हम उस शाश्वत यात्राके दैवी लक्ष्यको अपनी आत्मामें ही लिये रहते है और हमारी व्यक्तिगत अक्षमता ही वह चीज है जो इसके प्रति हमारे चेतन होनेमें बाधा पहुंचाती है ।

 

    परम प्रभु (ब्रह्म) के प्रति संपूर्ण एवं बिना शर्त समर्पण एक अद्भुत वस्तु है और इस अक्षमतासे छुटकारा पानेका एकमात्र साधन ।

 

१-२-७०

 

३१७ - बुद्धिकी सहायतासे योजनाएं मत बनाओ, अपने लिये योजनाएं बनानेका कार्य अपनी दैवी वृष्टिपर छोड़ दो । जब कोई साधन तुम्हारे सामने किसी करणीय कार्यके रूपमें आता है, तो उसे अपना लक्ष्य बना लो; जहांतक लक्ष्यका संबद्ध है बह संसारमें तो अपने-आपको साधित कर रहा है और तुम्हारी आत्मामें साधित हो चुका है ।

 

३१७


३१८ - लोग घटनाओंको इस प्रकार लेते है मानों बे चरितार्थ नहीं हुई हैं ओर उन्हें साधित करनेके लिये अभी प्रयत्न करना है । देखनेका यह ढंग गलत है । घटनाएं साधित नहीं होतीं, विकसित होती हैं । कार्य ब्रह्रा है, वह पहलेसे पूरा हो चुका है, अब बह केवल अभिव्यक्त हो रहा है ।

 

यह बात ऐसे कही जा सकती है सब कुछ सनातन कालसे चला आ रहा है, हम ही इस तथाकथित भौतिक जगत् में उसके प्रति उत्तरोत्तर सचेतन होते है ।

 

  वस्तुओंको इस प्रकारसे देखने तथा उनके विषयमें बात करनेका यह ढंग सामान्य मनुष्यकी चेतनासे बिलकुल उलटा है ।

 

२-२-७०

 

३११ - जिस प्रकार तारेके अस्तित्वके समाप्त होनेके सैकड़ों वर्ष बाद उसका प्रकाश पृथ्वीतक पहुंचता है उसी प्रकार खो घटना शुरूमें ही ब्रह्ममें घट चुकी है बह हमारे भौतिक अनुभवमें अब दृष्टिगोचर होती है ।

 

 हां, किंतु ब्रह्राकी यह इच्छा कि हम घटनामें हस्तक्षेप करें यह उसी पुराने क्षणकी बात है ओर इनके बीचका संबंध. भी वही रहता है । अतएव, महत्त्वपूर्ण बात केवल यह है कि व्यक्तिगत आवेगके वश काम न करो, बहासे मिले आदेशानुसारी करो ।

 

४-२-७०

 

३२० - सरकार, समाज, राजा, पुलिस, न्यायाधीश, संस्था, धर्ममन्दिर, नियम-कानून, रीति-रिवाज, सैन्य-सामंत आदि सभी चीजों सामयिक आवश्यकताएं हैं जो हमारे ऊपर कुछ शताब्दियोंके लिये लादी गयी हैं, क्योंकि भगवानने हमसे अपना मुंह छिपा लिया है । जय वह फिर अपने सत्य-स्वरूप तथा सौन्दर्यके साथ हमारे सामने प्रकट होंगे तब उस प्रकाशमें ये सब चीजों विलीन हो जायेगी ।

 

३१८


३२१ -- जैसे आरंभमें, वैसे ही अन्तमें, अराजक स्थिति ही मनुष्यकी सच्ची दिव्य स्थिति है; पर मध्यवर्ती कालमें यह हमें सीधे शैतान और उसके राज्यकी ओर ले जाती है ।

 

प्रत्येकका स्वयं अपने लिये शासन ही अराजकता है ।

 

  पूर्णशासन तभी बनेगा जब प्रत्येक अपने अंदर स्थित भागवत सत्ताके प्रति सचेतन होकर उसकी और केवल उसीकी आज्ञा मानेगा ।

 

 ५-२-७ ०

 

३२२ -- समाज-सम्बन्धी साम्यवाद सिद्धान्त मूलतः व्यक्तिवादसे उतना ही श्रेष्ठ है जितना भ्रातृत्व-भाव ईर्ष्या तथा पारस्परिक मारकाटते श्रेष्ठ है; परन्तु यूरोपमें आविष्कृत समाजवादकी जितनी भी व्यावहारिक योजनाएं हैं वे सभी एक प्रकारका जुआ, अत्याचार और कारागार हैं ।

 

३२३ -- यदि साम्यवाद (कम्यूनिजम) कभी सफलतापूर्वक पृथ्वीपर पुनः स्थापित हो तो उसे अन्तरात्माके म्गतृभाव तथा अहंकारकी मृत्युकी नींवपर ही स्थापित होना होगा । बलपूर्वक स्थापित संघ और यांत्रिक साहचर्यका अन्त तो एक विश्वव्यापी विफलतामें ही होगा ।

 

३२४ -- जीवनमें उपलब्ध वेदान्त ही साम्यवादी समाजके लिये एकमात्र व्यवहार्य आधार है । यही वह ''साधूना साम्राज्यम्'' (सन्तोंका साम्राज्य) है जिसका स्वप्न ईसाई, मुस्लिम तथा पौराणिक हिन्दू धर्मने देखा था ।

 

जैसा कि श्रीअरविंद हमें इतनी अच्छी तरह बताते हैं व्यक्तिवाद एक प्रकारकी न्यायसंगत ईर्ष्या है, अर्थात्, प्रत्येकका राज्य स्वयं अपने लिये है ।

 

   किंतु इसका वास्तविक उपचार एक ही है, उन परम प्रभुका संपूर्ण और व्यापक राज्य जो सभी प्राणियोंमें चेतन रूपमें उपस्थित है, बाकी संक्रमण कालकी सरकारें उनकी हों जो सचमुच उनके प्रति सचेतन तथा उन्हींकी इच्छाके प्रति पूर्णतया समर्पित हों ।

 

७-२-७०

 

३१९


३२५ -- फ्रासके क्रान्तिकारियोंने ''स्वाधीनता, समानता, और भ्रातृत्व'' का मंत्रोच्चार किया, परन्तु यथार्थमें एक घूंट समानताके साथ केवल स्वाधीनताको ही लानेका प्रयास किया गया है । भ्रातृत्वका जहांतक सम्बन्ध है, केवल 'केन' 'का भ्रातृत्व ही स्थापित किया गया -- और फिर 'बाराब्बास''का । कभी-कभी इसे ''ट्रस्ट'' या ''व्यापारिक्स संघ नाम दिया जाता है और कभी-कभी ''यूरोपका एकत्व' कहा जाता है ।

 

३२६ -- यूरोपका उन्नत बिचार घोषित करता है : ''चूंकि स्वतंत्रता असफल हो गयी है, इसलिये आओ, हम समानतासहित स्वतंत्रताके लिये प्रयास करें, अथवा, चूंकि इन दोनोंको एक साथ जोड़ना कुछ कठिन है इसलिये स्वतंत्रताके बदले समानताका ही प्रयत्न करें । म्रातृत्वका जहांतक प्रश्न है, वह तो असंभव है; अतएव हम उसके स्थानपर ''औद्योगिकी संघ'' रखेंगे ।'' परन्तु इस बार भी, मैं समझता हू, भगवान्को धोखा न दिया जा सकेगा ।

 

अभीतक तो स्वतंत्रता, समानता और बंदुत्व कोरे शब्द ही है जिन्है बड़े जोर-शोरसे घोषित तो किया गया था किंतु जिन्है अभीतक व्यवहारमें नहीं लाया गया है और ये तबतक व्यवहारमें लाये भी नहीं जा सकते जबतक मनुष्य वही बने रहेंगे जो अब हैं - केवल एकमेव सर्वोच्च एवं परम दिव्य सत्तादुरा शासित होनेकी जगह अपने अहंभाव और उसकी सभी इच्छाओंदुरा शासित होते रहैगे ।

 

८-२-७०

 

३२७ -- भारतमें सामाजिक जीवनके तीन गढ़ थे, ग्राम्य समाज, विशालतर सम्मिलित परिवार और संन्यासी-संप्रदाय । ये सब सामाजिक जीवन-सम्बन्धी अहंजन्य परिकल्पनाओंके पदचापसे भंग हो गये हैं था हो रहे हैं; परन्तु क्या, आखिर-

 

   केंन - आदम और हौवाका पहला लड़का था जिसने अपने भाई एबेलको मार डाला था ।

 

  बाराब्बास - एक डाकू था जिसका जिक्र बाइबिलमें आया है ।

 

३२०


कार इन अपूर्ण सांचोंका टूटना केवल एक विशालतर और दिव्यतर समाजवादकी ओर जानेके लिये ही नहीं है ?

 

३२८ -- व्यक्ति तबतक पूर्ण नहीं हो सकता जबतक वह अभी जिसे ''मैं'' कहता है उसे संपूर्णतः भागवत सत्ताको समर्पित न कर दे । ठीक उसी तरह मानवजाति जो कुछ है वह सब बह जबतक भगवानको नहीं दे देती तबतक पूर्णताप्राप्त समाजकी सृष्टि नहीं हो सकती ।

 

श्रीअरविद यहां एक स्पष्ट और निश्चित ढंगसे वही कह रहे हैं जिसे मैंने पहले व्यक्त करनेका प्रलय किया था : कोई भी पूर्णता तबतक प्राप्त नहीं की जा सकती जबतक परम प्रभुके शासनको सर्वत्र, सब वस्तुओंमें मान्यता एवं प्रतिष्ठा नहीं मिलती ।

 

 *

 

   स्वाधीनता तभी अभिव्यक्त हो सकती है जब सब मनुष्य परम प्रभुकी स्वाधीनताको जान लेंगे ।

 

   समानता तभी अभिव्यक्त हो सकती है जब सब व्यक्ति परम प्रभुके प्रति सचेतन हो जायंगे ।

 

  और बंधुभाव तमी प्रकाशमें आयेगा जब सब मनुष्य यह अनुभव करने लगेंगे कि दे सभी परम प्रभुसे समान रूपमें उत्पल हुए हैं तथा उनके 'एकत्व'में सब एक है ।

 

९-२-७०

 

३२९--भगवान्की नजरोंमें कोई चीज तुच्छ नहीं है; तेरी नजरोंमें भी कोई चीज तुच्छ न हो । भगवान् एक सीपीकी रचनामें भी दिव्य शक्तिका उतना ही श्रम प्रयुक्त करते हैं जितना कि एक सासाज्यके गठनमें । तेरे लिये एक विलासी और अयोग्य राजा होनेकी अपेक्षा एक निपुण मोची होना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

 

३३० -- जो कार्य तेरे लिये अभिप्रेत है उसमें अपूर्ण क्षमता

 

३२१


  तथा अधूरा फल किसी कृत्रिम दक्षता एवं उधार ली हुई पूर्णतासे कहीं अधिक अच्छा है ।

 

   ३३१ -- कर्मका उद्देश्य फल नहीं है, बल्कि उद्देश्य है होने, देखने और करनेमें भगवानका शाश्वत आनन्द ।

 

यह बात स्पष्ट है कि कोई तराजू किसी कार्यकी महानताको नहीं नाप सकती, न ही उसकी पूर्णता किन्हीं बाह्य परिस्थितियों अथवा अवस्थाओंपर निर्भर है, वरन् उसका आधार होता है व्यक्तिके आत्म-निवेदनकी वह सच्चाई जिसके साथ वह कार्य करता है ।

 

  भगवान् हमसे जो करवाना चाहते है वही अपनी सत्ताके पूर्ण समर्पणके भावमें करना - बस, यही है एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु; कार्यका बाह्य मूल्यांकन कुछ अर्थ नहीं रखता ।

 

 १०-२-७०

 

३३२- भगवानका जगत् बृहत्तर इकाईके ऊपर गंभीरतापूर्वक प्रयास करनेसे पहले अपेक्षाकृत छोटी इकाईको परिपूर्ण बनाते हुए एक-एक पग आगे बढ़ता है । यदि तू कभी संपूर्ण संसारको एक राष्ट्रका रूप देना चाहे तो सबसे पहले स्वतंत्र राष्ट्रीयताको स्थापित कर ।

 

३३३ -- एक ही रक्त, एक ही भाषा या एक ही धर्मसे कोई राष्ट्र नहीं बनता; ये सब केवल महतपूर्ण सहायक और शक्तिशाली सुविधाएं हैं । परन्तु जहां कहीं पारिवारिक बन्धनोंसे रहित मनुष्योंके समाज एक ही भाव और अभीप्सा रखकर अपने पूर्वजोंसे प्राप्त एक ही उत्तराधिकारकी रक्षा करनेके लिये या अपनी संततिके लिये एक जैसे भविष्यको प्रतिष्ठित करनेके लिये ऐक्यबद्ध होते हैं वहां, समझ लेना चाहिये कि, एक राष्ट्रका अस्तित्व पहलेसे हा विद्यमान है ।

 

३३४ -- राष्ट्रीयता परिवारकी अवस्थासे परे जानेवाले प्रगतिशील भगवानका एक पदक्षेप है; अतएव एक राष्ट्रके उत्पन्न होनेसे पहले कुल और जातिकी आसक्तिको दुर्बल और नष्ट होना होगा ।

 

३२२


इस प्रकार श्रीअरविंद हमें वह महान् राजनीतिक रहस्य बताते है जो प्राप्त किये जानेपर हमें समस्त राष्ट्रोंकी एकता तथा अंतमें मानव एकताकी ओर ले जा सकता है ।

 

 ११-२-७०

 

३३५-- परिवार, राछ और मानवता पृथग्भूत एकत्वसे सामूहिक एकत्वकी ओर जानेके लिये विष्णुके तीन पग' हैं । इनमेंसे पहला चरितार्थ हो गया है, दूसरेकी पूर्णताके लिये अभी हम प्रयास कर रहे हैं, तीसरेकी ओर हम अपने हाथ फैला रहे है और पथ परिष्कृत करनेका प्रयास किया जा चुका है ।

 

३३६ - मनुष्यजातिकी जो वर्तमान नैतिकता है उसकी सहायतासे एक सुदृढ़ तथा स्थायी एकत्वका निर्माण करना अभी संभव नहीं; परन्तु यह कोई कारण नहीं कि हम अपनी उत्कट अभीप्सा और अथक प्रयासके पुरस्कारस्वरूप अस्थायी रूपसे उसके समीप भी न पहुंच सकें । निरन्तर निकटवर्ती होते हुए, आंशिक उपलब्धियां प्राप्त करते हुए तथा क्षणिक सफलताएं प्राप्त करते हुए ही प्रकृति माता आगे बढ़ती है ।

 

जैसी कि श्रीअरविंदने भविष्यवाणी की है, वस्तुएं तेजीसे आगे बढ़ रही है, और जबसे श्रीअर्रावंदने सूक्ष्म भौतिक जगत्में कार्य करना आरंभ कर दिया है तबसे मानवजातिकी अवस्था बहुत बदल चुकी है : मानव एकताके विचारने सामान्य जनताकी बुद्धिमें काफी प्रगति कर ली है ।

 

१२-२-७०

 

  भारतीय परंपराके अनुसार तिगुने -- विकासक्रममें -- वामन रूप धारण किया और राजा बलिके पास गये । बलिने पूछा कि वे क्या चाहते हैं । ' तीन पग पृथ्वी'', विष्णुने कहा । उनकी इच्छा पूर्ण की गयी । अब वामनने विराट रूप धारण कर लिया, उन्होंने समूची पृथ्वी ही अपने एक पगमें नाप ली, आकाशको दूसरे पगमें, और अपना तीसरा पग बलिके सिरपर रख दिया ।
 

३२३


   ३३७ - अनुकरण कभी-कभी एक अच्छे शिक्षण-पोतका काम देता है परंतु उसपर नौसेनाध्यक्षका झंडा कभी नहीं फहरायेगा ।

 

  ३३८ -- सफल अनुकर्ताओंके झुंडमें मिलनेकी अपेक्षा अपने- आपको फांसी लगा लेना कहीं अधिक अच्छा है ।

 

  यह बात कलाकारों और लेखकोंपर लागू होती है -- प्रायः सभी अनुकरण और नकल करते हैं । फिर भी, जो सृजन करते हैं, जिनके पास कुछ कहने या दिखानेके लिये कोई नयी वस्तु है उन्हें ही सृजन करना चाहिये ।

१३-२-७०

 

३३९-- संसारमें कार्य करनेकी विधि बची उलझी हुई है । जब अवतार रामने बालि'का वध किया, अथवा कृष्णने, जो स्वयं भगवान थे, अपनी जातिको अपने अत्याचारी मामा कंससे मुक्त करनेके लिये उसका वध किया तो यह कौन कहेगा कि उन्होंने उचित किया या अनुचित, उनका यह कार्य ठीक था था गलत ? किंतु हम यह अनुभव कर सकते है कि उन्होंने जो किया दिव्य रूपमें किया ।

 

यह इस बातको कहनेका एक बहुत ही सुन्दर ढंग है कि भले और बुरेका विचार पूरी तरह मानवी है और भगवानकी दृष्टिमें इसका कुछ मूल्य नहीं है ।

१६-२-७०

 

३४० -- प्रतिक्रिया अपने अंदर निहित शक्तिको बढ़कर और शुद्ध करके ही विकासको पूर्ण एवं द्रुत बनाती है । इस बातको अधिकांश दुर्बल व्यक्ति नहीं देख सकते, ये वे व्यक्ति होते हैं जो अपने जहाजको अंधड़में निः सहाय अवस्थामें डूबता-उतराता देखकर बंदरगाहके बारेमें निराश होने लगते हैं, तो भी बह वर्षा और सागरकी धारामें छुपा भगवानके इच्छित स्थानकी ओर दौड़ता ही रहता है ।

 

वानरोंका राजा ।

 

३२४


यह हमें कभी निराश न होनेका पाठ सिखानेके लिये है । कारण जिन लोगोंका हृदय शुद्ध और श्रद्धा अडोल है, उन लोगोंके लिये अत्यधिक प्रत्यक्ष पराजय वह गुप्त मार्ग मात्र है जो अंतिम विजयकी ओर ले जाता है ।

 

१७-२-७०

 

३४१ - लोकतंत्र निरंकुश राजा, पुरोहित और सामंतकी गुटबंदीके विरुद्ध मानव आत्माका विद्रोह था, और समाजवाद धनिक वर्षके प्रजातंत्रकी तानाशाहीके विरुद्ध, जब कि अराजकता नौकरशाही समाजवादके अत्याचारके विरुद्ध उसका विद्रोह हो सकता है । एक म्रातिसे दूसरी भ्रांतितक, एक असफलतासे दूसरी असफलतातक उग्र और उत्सुक भावमें बढ़ते रहना यूरोपीय प्रगतिका चित्रण करता है ।

 

३४२ -- यूरोपमें जनतंत्र मंत्रीमंडलके सदस्यका, किसी म्रष्टाचारी प्रतिनिधि या स्वार्थी पूंजीवादीका शासन होता है जिसपर संशयपूर्ण सर्वसाधारणके अस्थायी प्रभुत्वका मुखौटा चढ़ा होता है । यूरोपमें समाजवाद अफसरशाही ओर पुलिसका एक ऐसा शासन हो सकता है जो एक आदर्शवादी राज्यके अव्यावहारिक शासनके परिवेशमें हो । यह पूछना भ्रमकारी होगा कि इनमेंसे कौन-सी प्रणाली ज्यादा अच्छी है; साथ ही यह निश्चय करना भी कठिन होगा कि कौन-सी प्रणाली ज्यादा गलत है ।

 

३४३ - लोकतंत्रका लाभ है अत्याचारी या कुछ स्वार्थरत व्यक्तियोंकी सनकोंसे व्यक्तिके जीवनको, उसकी संपदा एवं स्वतंत्रताको सुरक्षा प्रदान करना; और उसकी बुराई है मानव- जातिकी महानताकी अधोगति ।

 

सभी मानव सरकारें मिथ्या या भ्रामक होती है । यह आशा की जा सकती है कि एक दिन पृथ्वीपर केवल सत्यका साम्राज्य होगा किंतु केवल तभी, जब सर्वोच्च प्रभु इस सत्यको सबके लिये स्पष्ट कर देंगे ।

 

१८-२-७०

३२५


३४४ -- मनुष्योंकी यह म्रांतिशील जाति सदा ही अपने परिवेशको सरकारों और समाजकी मशीनरीसे पूर्ण बनानेका स्वप्न देखती रहती है । किंतु अन्तस्थित आत्माकी पूर्णताके दुरा ही बाह्रा परिवेश पूर्ण बनाया जा सकता है । जो कुछ तुम अंदर होंगे उसीका तुम अपनेसे बाहर भी उपभोग कर सकोगे, कोई भी मशीनरी तुम्हारी अपनी सत्ताके विधानसे तुम्हें छुटकारा नहीं दिला सकती ।

 

३४५ -- जब कि तुम सच्ची बातके बाह्य स्वरूप या प्रतीककी पूजा कर रहे हो, उस समय उसे दोष देने या उसकी उपेक्षा करनेकी अपनी प्रवृत्तिसे सदा सावधान रहो । मनुष्यकी दुष्टता नहीं बल्कि उसकी दुर्बलता ही 'अशुभ 'को अवसर देती है ।

 

हम जो कुछ हैं, जीवनमें उसके परिणाम भोगनेसे कोई मी कानून, कोई भी सरकार हमें नहीं बचा सकती ।

 

    एकमात्र भागवत सत्यका ही आदेश मानो और तब वह जीवनको समस्त कानून और मानवनिर्मित सरकारोंसे अलग रखकर जीवनका परि- चालन करेगा । 

 १९-२-७०

 

३४६ -- संन्यासीके वेशको सम्मान अवश्य दो, किंतु उस वेशको धारण करनेवालेको भी देखो, कहीं ऐसा न हो कि पवित्र स्थानोंपर पाखंडका राज्य हो जाय और आंतरिक साधुता एक कहानी बनकर रह जाय ।

 

३४७ -- कितने ही लोग योग्यता अथवा धनकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करते रहते हैं, कुछ गरीबीको दुलहिनके रूपमें स्वीकार कर लेते हैं; किंतु तुम केवल भगवानके पीछे ही दौडो और उन्हींको गले लगाओ । तुम उन्हें ही अपने लिये चुननेके अवसर दो, चाहे वह राजाका महल हों या भिखारीका भिक्षा-पात्र ।

 

 ३४८ -- पाप अपने-आपको दास बनानेकी वृत्तिका अभ्यास है और पुण्य एक मानवी विचारमात्र । भगवानको देखो और उन्हींकी

 

३२६


  इच्छाका पालन करो, जिस भी मार्गको उन्होंने तुम्हारे लिये निश्चित किया है उसीपर चलो ।

 

 सबसे अच्छी बात यही है । सच्ची साधुताका अर्थ वही कुछ चाहना और प्राप्त करना है जो भगवान् तुम्हारे लिये चाहते है; और सच्ची बुद्धिमता उनके साथ इतना जुड़ जानेंमें है कि तुम यह स्पष्ट रूपमें जान सको कि वे तुमसे और तुम्हारे लिये क्या चाहते हैं । बाकी सब तो मानवीय रूढ़ियां और सिद्धांत ही होते हैं ।

 

 २०-२-७०

 

३४९ -- संसारके संघर्षमें धनियोंका उनके धनके लिये अथवा गरीबोंका उनकी गरीबीके लिये पक्ष न लो, न राजाका उसकी शक्ति और उपाधिके लिये और न ही लोगोंका उनकी आशाएं और उत्साहके लिये । बल्कि सदा भगवानके पक्षमें रहो जबतक कि उसने तुम्हें अपने विरुद्ध युद्ध करनेकी आज्ञा न दी हो! तव अपने पूरे हृदय और शक्तिसे उल्लासपूर्वक उसी कार्यको करो ।

 

३५० -- यह मैं कैसे जानु कि भगवान् मुझसे क्या चाहते हैं? इसके लिये मुझे अपने अहंभावको अपने अंदरसे, कोने-कोनेसे निकाल देना होगा और अपनी दोषमुक्त और निष्कलुष आत्माको उनकी असीम क्रियाओंमें निमज्जित करना होगा; तब वे स्वयं ही अपनी इच्छाको मेरे सामने प्रकट कर देंगे ।

 

३५१ -- केवल वही आत्मा जो निष्कलुष और संकोचविहीन होगी निर्दोष एवं निष्कलंक हो सकती है, उसी प्रकार जिस प्रकार आदम मानवजातिके पुरातन उधानमें था ।

 

  ''निष्कलुष और संकोचविहीन आत्मा'का क्या अर्थ है? क्या आत्मा सदा ही शुद्ध और पवित्र नहीं होती?

 

हां, यही बात श्रीअरविन्द कहते हैं । आत्मा छद्यवेश नहीं पहनती, वह अपने-आपको असली रूपमें प्रकट करती है, बह मनुष्यके मूल्यांकनकी परवाह

 

३२७


नहीं करती; कारण वह भगवानकी निष्ठावान सेविका है, उन भगवानकी जिनका वह वासस्थल है ।

 

 २३-२-७०

 

३५२ -- धन-संपत्तिकी शेखी मत बघारो, न ही लोगोंसे अपनी गरीबी और आत्म-त्यागकी प्रशंसा मांगते फिर; ये दोनों वस्तुएं अहंभावका स्थूल या सूक्ष्म भोजन हैं ।

 

३५३-- परोपकारकी भावना मनुष्यके लिये अच्छी है, पर तब उतनी अच्छी नहीं रहती जब वह अपनी ही सर्वोच्च तुष्टिका रूप धारण कर लेती है और दूसरोंके स्वार्थको पोसकर ही जीती है ।

 

३५४-- परोपकारसे तुम अपनी आत्माकी रक्षा कर सकते हो, किन्तु ध्यान रखो कि तुम अपने भाईसे विनाशमें रस लेकर उसकी रक्षा न करो ।

 

३५५ -- आत्म-त्याग शोधन-क्रियाका एक बड़ा साधन अवश्य है; किन्तु यह न तो अपने-आपमें कोई उद्देश्य ह, न ही जीवनका कोई चरम नियम । आत्मपीड़न नहीं बल्कि संसारमें भगवानकी संतुष्टि तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये ।

 

३५६ -- अधर्म और पापसे किये हुए बुरे कर्मको जान लेना सरल है, किन्तु एक प्रशिक्षित आंख उस बुरे कर्मको भी देख लेती है जो अपने-आपको सच्चा या गुणवान माननेवाला व्यक्ति करता है ।

 

क्रमिक रूपमें और सभी दृष्टिकोणसे श्रीअरविन्द हमें बताते है कि किस प्रकार सत्य सभी विपरीत और विरोधी वस्तुओं ओर मतभेदोंसे ऊपर और परे है -- वह एक दीप्तिपूर्ण और समग्र एकत्वमें स्थित है ।

 

२५-२-७०

 

३२८


३५७ -- पहले बाह्राणने शास्त्र और कर्मकांडकी पद्धतिसे शासन किया, उसके बाद क्षत्रियने तलवार और ढालसे; अब वैश्य मशीन और मुद्रासे शासन करता है और शूद्र, विमोचित दास, ''संयुक्त-श्रम राज्य" के सिद्धान्तसे कार्य करता है । किन्तु न तो पुरोहित, न राजा, न वैश्य, और न ही श्रमिक मनुष्यजातिका सच्चा शासक है ओर औजारों और कुदालकी यह तानाशाही पहलेके सभी तानाशाहियोंकी तरह ही असफल होगी । जब अहंभाव नष्ट हो जाता है ओर मनुष्यके अन्दर स्थित भगवान् अपनी विश्व-मानवतापर शासन करते हैं, केवल तभी पृथ्वी एक प्रसत्र और सन्तुष्ट जातिको धारण कर सकती है ।

 

इस विषयपर कुछ कहनेको नहीं है । सब कुछ स्पष्ट रूपसे समझा दिया गया है -- केवल दिव्य शासन ही सच्चा शासन हो सकता है ।

 

 २६ - २ - ७०

 

३५८ -- लोग सुखके पीछे दौड़ते है और बड़े आवेशपूर्वक उस अग्निशिखा-सी दुलहिनको अपने क्षुब्ध हदयसे लगा लेते है, जब कि उसी समय एक दिव्य और निर्दोष परम आनंद उनके पीछे खड़ा, देखे और बुलाये जाने और अधिकृत किये जानेकी प्रतीक्षा करता है ।

 

३५९ -- लोग तुच्छ सफलताओं और अति साधारण वस्तुओं- को अधिकृत करनेकी चेष्टामें रहते हैं, और फिर उनसे थकान और परिश्रातिमें जा गिरते हैं, जब कि इस बीच विश्वमें स्थित भगवानकी असीम शक्ति व्यर्थ ही इस प्रतीक्षामें रहती है कि वे आये और उसे प्राप्त कर लें ।

 

३६० - लोग ज्ञानकी छोटी-छोटी बारीकियोंको खोदकर निकालते रहते हैं और फिर उन्हें इकट्ठा करके कुछ एक सीमित और क्षणिक विचार-प्रणालीयोंका रूप दे देते हैं, जब कि समस्त असीम बुद्धिमत्ता उनके सिरके ऊपर खड़ी हंसती है और अपने रंगबिरंगे पंखोंके वैभवको उनके सामने बिखेरती है ।

 

३२९


३६१ - लोग अपनी सीमित और छोटी-सी सत्ताको -- उस सत्ताको जो उनके हीन और तृष्णापूर्ण अहंभावके चारों ओर एकत्रित ।मानसिक धारणाओंसे निर्मित हुई है -- संतुष्ट और सम्मानित करनेके लिये काफी जोर लगाते है जब कि स्थान और कालसे अतीत आत्माको अपनी आनंद और वैभवपूर्ण अभिव्यक्तिसे वंचित रखा जाता है ।

 

इस वस्तुस्थितिको बदलना ही होगा ताकि अतिमानसिक चेतनाका शासन पृथ्वीपर स्थापित हो सके । यधापि अतिमानसिक चेतना एक वर्षसे अधिक पृथ्वीपर कार्य कर रही है, फिर भी क्या इस दुखद अवस्थामें कोई परिवर्तन हुआ है ?...

 

२८-२-७०

 

    चूंकि अतिमानसिक चेतना पृथ्वीपर कार्य कर रही है, तो चाहे कुछ भी होता रहे क्या इस दुःखद अवस्थाको बदलना नहीं होगा ?

 

स्वभावतया पहला परिणाम होगा चेतनाका परिवर्तन, पर यह पहले उनमें होगा जो सबसे अधिक ग्रहणशील होंगे, उसके बाद ही कुछ अधिक व्यक्तियोंमें हो सकता है ।

 

   सामूहिक जीवनकी सामान्य अवस्थामें परिवर्तन केवल बादमें ही आसकता है; जब वैयक्तिक प्रतिक्रियाएं बदल जायंगी, उसके बहुत समय बाद ही शायद यह परिवर्तन आयेगा । उसका सबसे पहला प्रभाव, जो हम इस समय देख सकते है, यह है कि सामान्य अस्तव्यस्तता आगेसे बहुत बढ़ गयी है, क्योंकि पुराने सिद्धांतोंने  अपनी शक्ति खो दी है, और मनुष्य (बहुत कम लोगोंको छोड़कर) दिव्य विधानका आदेश माननेको तैयार नहीं हैं, क्योंकि वे उसे देखनेमें समर्थ नहीं हैं ।

 

१-३-७०

 

 माताजी यहां इस नई चेतना (या सर्वोच्च चेतना) का उल्लेख कर रही हूं जो १ जनवरी, १९६९ को अभिव्यक्त हुई थी ।

 

३३०


३६२ -- ओ भारतकी आत्मा, कलियुगके अज्ञानी पंडितोंके पीछे अपने-आपको रसोईगृह और मंदिरमें न छुपा, भावहीन पूजा-पाठ, दक्षिणाकी पुरानी विधि और अभिशप्त पैसोंके आवरणसे अपने-आपको न ढक, बल्कि अपनी आत्मामें खोज कर, भगवान्से प्रार्थना कर, और सनातन वेदके द्वारा अपने सच्चे ग्राह्यणत्व और क्षत्रियत्वको पुनः प्राप्त कर : बैदिक यज्ञके छुपे हुए सत्यको पुनः स्थापित कर, एक प्राचीनतर और अधिक शक्तिशाली वेदान्तको चरितार्थ कर ।

 

इसका अर्थ है कि व्यक्तिको उन तथाकथित धार्मिक परंपराओंसे मुक्त होना चाहिये जो यह बताती है कि व्यक्तिको क्या करना चाहिये, क्या नहीं । उसे सच्चे ज्ञानको ढूढना चाहिये तथा सीधे भगवान्से ही सत्य- मे और सत्यके लिये जीवन बितानेके यथार्थ निर्देशोंको प्राप्त करना चाहिये ।

 

२-३-७०

 

३६३ -- अपने यज्ञको सांसारिक बरुआ या कुछ इच्छाओं और कामनाओंके त्यागतक ही सीमित न करो, बल्कि अपने प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य और प्रत्येक आनदोपभोगको अंतर- स्थित भगवानके प्रति अर्पित फर वों, तुम्हारे पग तुम्हारे प्रभुके अंदर ही प्रवेश करें, तुम्हारी निद्रा और जाग्रत अवस्था कृष्णके प्रति ही निवेदित हों ।

 

३६४ -- यह मेरे शास्त्र या मेरी विधाके अनुसार नहीं है, ऐसा नियमप्रिय और रूढ़िवादी कहते हैं । मूर्ख ! क्या भगवान् केवल एक पुस्तक हैं कि उसमें लिखे हुए के सिवाय ओर कुछ सत्य या शुभ नहीं हो सकता ?

 

३६५ -- मैं किस मानदण्डके अनुसार चलूं, उस वाणीके अनुसार जिसमें भगवान् मुझसे कहते हैं : ''यह मेरी इच्छा है, मेरे दास'', अथवा उन नियमोंके अनुसार जिनके लिखनेवाले मरउप चुके हैं ? न, यदि मुझे किसीका डर या आदेश मानना है तो मैं भगवानका ही डर और आदेश मानूंगा, किसी पुस्तकके पृष्ठों था किसी पंडितकी  भृकुटिका नहीं ।

 

३३१


३६६ -- तुम्हें धोखा हो सकता है, क्या तुम यह कहोगे कि तुम्हें चलानेवाली आवाज भगवानकी आवाज नहीं है ? फिर भी मै यह जानता हूं कि वे उन लोगोंका भी त्याग नहीं करते जिन्हेंने, भले अज्ञानपूर्वक सही, उनपर विश्वास किया है; मैंने यह भी देखा है कि बे तब भी जब कि वे पूरी तरह धोखा देते प्रतीत होते हैं, बुद्धिमत्तापूर्वक रास्ता दिखा रहे होते है । बहरहाल मै मृत नियम-विधानमें विश्वास रखकर बच जानेकी अपेक्षा सजीव भगवानके जालमें फंसना अधिक पसंद करुंगा ।

 

३६७ -- अपने ही हठ और इच्छासे कार्य करनेकी अपेक्षा शास्त्रोंके अनुसार कार्य करो, इस प्रकार तुम अपने अंदर स्थित लुटेरेपर नियंत्रण रखनेमें समर्थ हो सकोगे; किंतु शास्त्रकी अपेक्षा भगवानके आदेशानुसारी कार्य करो, इस प्रकार तुम उनकी सर्वोच्च स्थितितक पहुंच जाओगे जो कि सब नियमों और सीमाओंसे बहुत परेकी वस्तु है ।

 

३६८ -- नियम उन लोगोंके लिये है जो बद्ध है, जिनकी आंखें बंद हो चुकी है, यदि वे उसके सहारे नहीं चलेंगे तो रास्तेमें लड़खडायोंगे । किंतु तुम तो स्वतंत्र रूपसे श्रीकृष्णमें हो, या तुमने उसके जीवंत प्रकाशको देख लिया है, तुम अपने 'सखा'का हाथ पकड़कर 'सनातन वेद' के प्रकाशमें आगे बढ़ो ।

 

३६९ -- वेदान्त तुम्हें बंधन और अहंभावकी इस अंधकारपूर्ण रात्रिभैंसे निकालकर आगे चलानेवाला भगवानका प्रकाश है; किंतु जब वेदका प्रकाश तुम्हारी आत्मामें अवतरित हो जाय तब तुम्हें उस दिव्य प्रकाशकी भी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि अब तुम सनातन प्रकाशमें स्वतंत्रता और विश्वासपूर्वक विचार सकते हो ।

 

केवल सर्बच्च प्रभुके आदेशको ही सुननेकी चेष्टा करो, और यदि तुममें पूर्ण सच्चाई होगी तो वे तुम्हें सुनने और अपने आदेशकों विश्वासपूर्वक पहचाननेका रास्ता भी स्वयं ढूंढ निकालेंगे ।

 

   यह आश्वासन उन सबको प्रदान किया गया है जो सर्वोच्च सत्यके अनुसार अपना जीवन बिताना चाहते है ।

 

३-३-७०

 

३३२


३७० -- केवल जाननेका क्या लाभ ? मै तुमसे कहता हूं, कुछ करो और कुछ होओ । कारण, भगवानने तुम्हें इस मनुष्यके शरीरमें इसीलिये भेजा है ।

 

३७१ -- केवल 'होने' का भी क्या लाभ ? मै तुमसे कहता हूं, वैसा ही बन जाओ; क्योंकि इस जड़तत्त्वको जगत्में मनुष्य रूपमें तुम्हारी स्थापना इसीलिये हुई है ।

 

३७२ -- कर्मका पथ एक प्रकारसे भगवानके तिहारे मार्गका एक अत्यधिक कठिन पक्ष है; तो भी क्या यह, कम-से-कम, इस जड़ जगत्में सबसे अधिक सरल, विस्तृत और आनंद- दायक भी नहीं है ? कारण, प्रत्येक क्षण हम भगवान्से, जो कि स्वयं कर्मी हैं टकराते हैं, तथा उनके सहस्रों दिव्य स्पशोंसे उन्हीं जैसे बन जाते है ।

 

३७३ -- कर्म-पथका चमत्कार यह है कि भगवानके साथ शत्रुता भी मुक्तिका साधन बनायी जा सकती है । कभी-कभी भगवान् हमें अपनी ओर खींचकर द्रुत वेगसे अपने साथ सटा लेते हैं और फिर हमारे साथ एक भयानक, अजेय और दुराग्रही शत्रुके रूपमें बुद्ध भी करते हैं ।

 

संद्रोपमें भागवत कृपा इतनी अद्भुत है कि तुम कुछ भी करो वह तुम्है लक्ष्यकी ओर देर या सवेर लें ही जायगी ।

 

५-३-७०

 

३७४ -- क्या मै मृत्युको स्वीकार कर लूं या उसके साथ संघर्ष करके उसपर विजय प्राप्त करूं, इसका निर्णय मेरे अंतरस्थित भगवान्को ही करना होगा । मैं जीवित रहूं या मृत्यु को प्राप्त होऊं, मेरा अस्तित्व सदा ही रहेगा ।

 

३७५ -- तब वह है क्या जिसे तुम मृत्यु कहते हो ? क्या भगवान् मर सकते हैं ? ओ मृत्युसे डरनेवाले, यह जीवन ही

 

 

३३३


तो है जो तुम्हारे पास मृत्युका मुकुट सजाये आतंकका मुखौटा पहने आया है ।

 

३७६ -- शरीरकी अमरता प्राप्त करनेका कोई तरीका अवश्य है और मृत्यु हमारी इच्छापर निर्भर है, प्रकृतिकी इच्छापर नहीं । किंतु सौ बर्षतक एक ही वस्त्रमें या लंबे कालतक उसी एक संकरे, पुराने धरमें रहना कौन पसंद करेगा?

 

  यदि व्यक्ति यह अनुभव करे कि उसका इस जीवनका कार्य समाप्त हो गया है और उसे अब भेंट देनेके लिये दुरा उसके पास कुछ नहीं बचा तो क्या एक लक्ष्यहीन अस्तित्वको घसीटनेकी अपेक्षा मरकर दुबारा जन्म लेना अधिक अच्छा नहीं है ?

 

यह बह प्रश्न है जो एक असंतुष्ट अहं अपने-आपसे उस समय पूछता है जब उसे लगता है कि वस्तुएं उसकी इच्छानुसार नहीं चल रहीं । किंतु जो व्यक्ति भगवानका है और सत्यमें ही निवास करना चाहता है बह यह जानता है कि भगवान् उसे पृथ्वीपर तबतक रखेंगे जबतक वह उनकी दृष्टिमें पृथ्वीपर उपयोगी होगा, जब पृथ्वीपर उसके करने लायक कुछ न रहेगा तो उसे हटा देंगे । अतएव, यह प्रश्न उठ ही नहीं सकता । और तब व्यक्ति भगवानकी सर्वोच्च बुद्धिमत्ताकी निश्चयतामें शांतिपूर्वक निवास करेगा ।

 

६-३-७०

 

    आपने कल लिखा था : ''किन्तु जो व्यक्ति भगवानका है... ।'' प्रत्येक प्राणी ही भगवानका है, चाहे वह कोई भी हो, ठीक है न ?

 

जब मैं कहती हूं : ''जो व्यक्ति भगवानका है'', तो मै उस व्यक्तिकी बात कहती हूं जिसने अपने अहंसे मुक्ति पा ली है, जो सदा भगवान् के प्रति सचेतन रहता है, जिसकी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है, जो केवल भागवत प्रेरणासे ही कार्य करता है ओर जिसका इसके सिवाय कोई और लक्ष्य नहीं है कि वह वही करे जो भगवान् उससे करवाना चाहते है ।

 

  मुझे नहीं लगता कि ऐसे लोग अधिक है जो इस अवस्थामें हों ।

 

३३४


और यह भी निश्चित है कि वे इस बातकी कभी चिंता नहीं. करेंगे कि उनका जीवन पृथ्वीपर उपयोगी है या नहीं क्योंकि ३ केवल भगवानके लिये तथा उन्हींके द्वारा जीवन धारण करते है, उनका कोई वैयक्तिक जीवन नहीं रह जाता ।

 

 ७ - ३ -७ ०

 

३७७ -- भय और चिन्ता इच्छा-शक्तिके विकृत रूप हैं । जिस वस्तुसे तुम भय मानते हो ओर जिसके बारेमें सोचते हो, जिसे अपने मनमें बार-बार घोखते रहते हो, उसके आनेमें तुम सहायता भी करते हो । कारण, यदि तुम्हारी ऊपरी जाग्रत अवस्था उसे परे धकेलती है, तो भी नीचे दबा हुआ तुम्हारा मन सब समय उसीकी इच्छा करता रहता है, अवचेतन नभ तो और भी अधिक शक्तिशाली और विशाल होता है तथा तुम्हारी जाग्रत शक्ति और बुद्धिकी अपेक्षा उसमें चरितार्थ करनेकी शक्ति भी अधिक होती है । किन्तु आत्मा उन दोनोंसे अधिक शक्तिशाली है; भय और आशाका पल्ला छोड़कर आत्माकी महान् शान्ति और चिन्तारहित प्रभुत्वमें आश्रय लो ।

 

३७८ -- भगवान् ने आत्म-ज्ञानसे इस असीम जगत्को बनाया, यह आत्म-ज्ञान अपने कर्मोंमें वह संकल्प-शक्ति है जो अपने-आपको चरितार्थ करती है । उन्होंने अज्ञानका प्रयोग अपनी असीमताको सीमाबद्ध करनेके लिये किया; किन्तु भय, क्लान्ति, अवसाद, आत्म-अविश्वास और दुर्बलताको प्रश्रय ऐसे यंत्र है जिनसे वे अपनी बनायी चीजोंको नष्ट करते हैं । जब ये वस्तुएं तुम्हारे अन्दरकी अशुभ या हानिकारक या असंयमित वस्तुओंपर आक्रमण करें तो भला होता है; किन्तु यदि ये तुम्हारे जीवन और तुम्हारी शक्तिके मूलस्रोतोंपर धावा बोलें, तो तुम उन्हें पकड़कर अपने अन्दरसे निकाल दो, नहीं तो तुम मर जाओगे ।

 

जब ये विनाशकारी शक्तियां हमपर आक्रमण करती है, तो यह इस बातका प्रमाण है कि हम अपने अहंभावसे मुक्त होनेके लिये और चेतन रूपसे भागवत उपस्थितिमें प्रवेश करनेके लिये, और साथ ही अहंभावदुरा

 

३३५


थोपे हुए कष्टोंसे मुक्त होकर शांति और आनंद पानेके लिये तैयार है । उस भागवत उपस्थितिमें जो पूर्ण प्रकाशसहित हमारी सत्ताके केंद्रमें विधमान है । अहंभाव ही जीवनके सब संपर्कोको दुःख में बदल देता है । अहंभाव ही हमें अपने अंदर भागवत उपस्थितिके प्रति सचेतन होने तथा भगवानके शांत, शक्तिशाली और आनन्दपूर्ण यंत्र बननेसे रोकता है ।

 

    आओ, हम इस अहंभावको उसकी समस्त इच्छाओसहित भगवानके प्रति पूर्ण रूपसे समर्पित कर दें और विश्वासपूर्वक प्रतीक्षा  करें जो अवश्य आयेगी ।

 

९-३-७०

 

३७९ -- मनुष्यजातिने अपनी शक्तियों और सुखको नष्ट करनेके लिये दो बड़े शक्तिशाली शास्त्रोंका उपयोग किया है : गलत उपभोग और गलत त्याग।

 

३८० -- हमारी गलती सदासे यही रही है कि हम इलाजके रूपमें पेगेनिज्मकी बुराइयोंसे तप और त्यागकी द्वंओर और तप और त्यागकी बुराइयोंसे पेगेनिज्मकी ओर भागते रहते हैं । हम सदा इन दोनों झूठे विरोधी छोरोंके बीच झूलते रहते हैं ।

 

३८१ -- न तो खेलमें अत्यधिक ढील देकर खेलमें रत रहना अच्छा है, न अपने जीवन और कार्यमें बहुत अधिक गंभीर होना । हम दोनोंमें ही एक प्रफुल्ल स्वतंत्रता और गंभीर व्यवस्थाकी चाहना करते हैं ।

 

अतिशयता, वह चाहे जो भी रूप ले, उग्रता है; केवल शांति, समता और सांमजस्यमें ही सत्यकी खोज की जा सकती है, और उसमें निवास किया जा सकता है ।

 

१०-३-७०

 

३८२ -- लगभग चालीस वर्षोतक मैं सदा ही किसी-न-किसी छोटी या बुद्धि व्याधिसे पीड़ित रहा । मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि मेरी शरीर-रचनामें ही दुर्बलता है, साथ ही इनकी

 

३३६


चिकित्साको मै प्रकृतिका अपने ऊपर एक बोझ मानता था । जब मैंने दवाइयोंकी सहायता लेनी छोड़ दी तो रोग भी निराश परजीवियोंकी तरह मुझे छोड़ते चले गये । केवल तभी मेरी समझमें आया कि मेरे अन्दरका प्राकृतिक स्वास्थ्य कितना सबल है और संकल्प-शक्ति और विश्वास तो और भी अधिक शक्तिशाली हैं जो मनसे परेकी वस्तुएं हैं तथा जिन्हें भगवानने इस शरीरमें स्थित हमारे जीवन-तत्त्वकी दिव्य सहायताके लिये हमें प्रदान किया है ।

 

जीवनकी सभी परिस्थितियोंकी व्यवस्था हमें यह सिखानेको की गयी है कि मनसे परे, भागवत कृपामें विश्वास ही हमें सभी परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होने, सभी दुर्बलताओंपर विजय प्राप्त करने तथा दिव्य चेतनाके साथ संपर्क स्थापित करनेकी शक्ति प्रदान करता है, उस दिव्य चेतनाके साथ जो हमें केवल शांति ओर आनंद ही नहीं बल्कि शारीरिक संतुलन एवं अच्छा स्वास्थ्य भी प्रदान करती है।

 

११-३-७०

 

३८३ -- हमारी असाध्य बर्बरताके कारण आधुनिक मनुष्यजातिके लिये मशीनें आवश्यक हैं । यदि हमें अपने-आपको चकरानेवाली आरामदेह वस्तुओं और साजोसामानके ढेरमें ढककर रखना है तो हमें कला और उसकी प्रणालियोंको छोड़ना पड़ेगा; कारण सरलता एवं स्वतंत्रताको छोड़नेका अर्थ है सुन्दरताको छोड़ना । हमारे पूर्वजोंका वैभव बड़ा समृद्ध और आडम्बरयुक्त भी था, किन्तु कभी बोझ नहीं बना।

 

३८४ - मैं यूरोपीय जीवनकी बर्बर सुख-सुविधाओं तथा बोझिल आडम्बरको सभ्यताका नाम नहीं दे सकता । जो लोग अपनी आत्मामें स्वतंत्र और अपनी जीवन-व्यवस्थामें अभिजात ढंगसे लयबद्ध नहीं हैं, वे सभ्य नहीं हैं ।

 

३८५,-- आधुनिक समयमें और यूरोपीय प्रभाव-तले कला जीवनकी एक ग्रंथि या एक अनावश्यक दासी बन गयी है,

 

३३७


    जब कि इसे होना चाहिये था मुख्य अभिकर्ता श एक अनिवार्य व्यवस्थापक ।

 

जबतक मन जीवनपर इस अभिमानपूर्ण निश्चयताके साथ शासन करता रहेगा कि वह सब कुछ जानता है, तबतक भगवानका राज्य कैसे स्थापित हो सकता है ?

 

१२ -३ -७ ०

 

३३८









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