The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' spoken or written in French.
The Mother’s commentaries on Sri Aurobindo’s 'Thoughts and Aphorisms' were given over the twelve-year period from 1958 to 1970. All the Mother's commentaries were spoken or written in French. She also translated Sri Aurobindo's text into French.
रोग और चिकित्सा-विज्ञान
बीमारीको ठीक करना अच्छा है, किंतु बीमार न
पड़ना उससे मी अच्छा है ।
-माताजी
३८६ -- रोग अनावश्यक रूपसे लम्बा हो जाता है और प्रायः ही मृत्युका कारण बन जाता है, जब कि ऐसा होना आवश्यक नहीं है, और यह इस कारण होता है कि रोगीका मन अपने शरीरकी व्याधिको प्रश्रय देता है, और उसीपर लगा रहता हैं ।
पूर्णतया सत्य है यह!
३८७ -- चिकित्सा-विज्ञान मनुष्यजातिके लिये वरदानसे अधिक अभिशाप रहा है । इसने महामारियोंके वेगको नष्ट अवश्य कर दिया है, तथा एक अद्भुत प्रकारको शल्य-चिकित्साको जन्म दिया हैं, किन्तु साथ ही इसने मनुष्यके प्राकृतिक स्वास्थ्यको दुर्बल बना दिया है तथा विभित्र प्रकारके रोगोंकी बाढ़-सी ला दी है; इसने मन और शरीरमें भय और निर्भरताकी भावनाको बद्धमूल कर दिया है; इसने हमारे स्वास्थ्यको, प्राकृतिक स्वस्थताको आधार न मानकर धातु और वनस्पति जगत के निस्तेज और निस्वाद प्रभावका सहारा लेना सिखाया है।
३८८ -- चिकित्सक रोगपर किसी औषधिका निशाना लगाता है; कभी यह लग जाता है तो कभी चूक जाता है । चूकनेका कोई हिसाब नहीं रखा जाता, पर लगनेका लेखा-जोखा रखा जाता है, उसपर बिचार किया जाता है और फिर 'उसे विज्ञानका सुसंगत कप दे दिया जाता है ।
बड़ा अद्भुत है यह!
३३९
३८९ -- हम बर्बरपर हंसते हैं क्योंकि वह ओझाओंमें विश्वास करता है । किन्तु डाक्टरोंपर विश्वास करनेवाली सभ्य जातियां कौन-सी कम अंधविश्वासी हैं ? प्रायः बर्बर देखता है कि जब कोई विशेष मंत्र बार-बार उच्चारा जाता है तो उसका रोग दूर हो जाता है, वह विश्वास कर लेता है । सभ्य रोगी देखता है जब बह किसी विशेष नुस्सेकी दवाई लेता है तो वह प्रायः उस रोगसे मुक्त हो जाता है, वह विश्वास कर लेता है । इनमें भेद कहां हुआ ?
इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दवाईकी रोगमुक्तिकी शक्ति रोगीके विश्वाससे आती है ।
यदि मनुष्योंको भगवत्कृपामें पूर्ण विश्वास होता तो वे शायद बहुत-सी व्याधियोंसे बच जाते ।
१३ -३ -७ ०
३९० -- उत्तर-भारतके चरवाहेको यदि ज्बर हो जाय तो बह नदीकी बर्फीली धारामें एक-दो घंटे बैठ जाता है और स्वस्थ और ताजा होकर उठता है । यदि कोई पढा-लिखा सभ्य व्यक्ति ऐसा करे तो बह मर जायगा। इसलिये नहीं कि एक ही इलाज एकको मार देता है और दूसरेको ठीक कर देता है, किन्तु इसलिये कि हमारे मनने हमारे शरीरोंकी मुठ अभ्यासोंसे पकड़कर घातक सिद्धान्तोंका शिकार बना दिया है।
३९१ -- औषधि रोगको उतना ठीक नहीं करती जितना कि रोगीका डाक्टर या उसकी औषधि में विश्वास । ये दोनों रोगीकी अपनी शक्तिमें स्वाभाविक श्रद्धाके भद्दे स्थानापन्न है, उस शक्तिके जिसे स्वयं इन्होंने नष्ट क्रय दिया है ।
३९२ -- मनुष्यजातिके सबसे अधिक स्वस्थ युग बे थे जिनमें भौतिक दवाइयां बहुत ही कम थीं ।
३१३ -- पृथ्वीपर सबसे अधिक बलिष्ठ और स्वस्थ जाति अफ़ीका-
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निवासी जंगलियोंकी थी, किन्तु जब उनकी भौतिक चेतना सभ्य जातियोंके मतिभ्रमसे दूषित हो गयी तो वे कबतक स्वस्थ रह सकते हैं ?
श्रीअरविन्दके ये शब्द मी सदाकी भांति भविष्य-सूचक हैं । कारण जब मनुष्यजाति अपने मतिभ्रमसे मुक्ति पा लेगी, केवल तभी वह अतिमानसिक चेतनाको अभिव्यक्त करनेमें सफल होगी तथा उस प्राकृतिक स्वास्थ्यको पुन: प्राप्त कर सकेगी जिससे मनने उसे वंचित कर दिया है ।
१ ४- ३ -७ ०
३९४ - हमें रोगोंकी रोक-थाम तथा चिकित्साके लिये अपने अन्दर स्थित दिव्य स्वास्थ्यका प्रयोग करना चाहिये; किन्तु गेलेन और हिपोक्रेटस तथा उनके अनुयायियोंने इसके बदले हमें दवाइयोंका एक बड़ा शस्त्रागार दे दिया है । भौतिक शास्त्रके रूपमें एक बर्बर लेटन मंत्र-तंत्र दे दिया है ।
३९५ -- चिकित्सा-विज्ञान सदाशय है और उसका अभ्यास करनेवाले भी प्रायः ही दयालु स्वभावके होते हैं तथा उनमें त्यागकी भावनाकी कमी नहीं होती । किन्तु अज्ञानीका सदाशय उसे हानि पहुंचानेसे कब रोक सका है ?
३९६ - यदि सभी इलाज सचमुच अपने-आपमें प्रभावकारी हैं तथा सभी चिकित्सासबंधी सिद्धान्त ठीक हैं तो इस बातसे हमें खोये हुए प्राकृतिक स्वास्थ्य और बलके लिये कैसे सांत्वना मिल सकती है ? उपास पैड ( इंडोनीशियाका एक पेड़ जिसकी शाखाओंसे जहरीले तीर बनाये जाते थे )के सारे हिस्से स्वस्थ होते हैं, किन्तु है तो वह उपासका पेड़ ही न !
३९७ -- हमारे अन्दरकी आत्मा ही एकमात्र निपुणतम चिकित्सक है और सच्ची रामबाण औषधि है शरीरकी उसके प्रति अधीनता ।
३९८ -- अन्त:स्थित भगवान् असीम है और चरितार्थ करनेवाली
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संकल्प-शक्ति हैं । क्या तुम मृत्युके भयसे प्रभावित हुए बिना अपनी समस्त थ्याधियोंको उन्हें सौंप सकते हो, एक प्रयोगके रूपमें नहीं वरन् एक सुस्थिर और पूर्ण विश्वासके साथ ? और तुम देखोगे कि अन्तमें वे लाखों डाक्टरोंकी कुशलतासे भी आगे निकल जायेंगे ।
३९९ -- डाक्टरका कहना है कि स्वास्थ्यके लिये हमें बीस हजार सावधानियां बरतनी पड़ेगी, किन्तु शरीरके लिये यह न तो ईश्वरका वेद-वाक्य है न प्रकृतिका ।
मनके अधिराज्यने मनुष्यजातिको डाक्टरोंका और उनकी दवाइयोंका दास बना दिया है । परिणामत: रोग संख्या और गंभीरतामें बढ़ रहे हैं ।
मनुष्यके उद्धारका एकमात्र उपाय यही है कि वह भागवत प्रभावके प्रति खुलकर मानसिक दासतासे मुक्त हो जाय और यह पूर्ण समर्पणसे ही हो सकता है ।
१५ - ३ -७ ०
४०० -- एक बार मनुष्य स्वभावसे ही स्वस्थ था और यदि उसे फिरसे उस आदिम स्थितिकी ओर लौटने दिया जाय तो लौट सकता है । किन्तु चिकित्सा-विज्ञान हमारे शरीरका ढेरों दवाइयोंके साथ पीछा कुरता है और हमारी कल्पनाको शिकारकी खोजमें निकले कीटाणुओंके झुंड-के-झुंड दुरा आक्रान्त कर देता है ।
४०१ -- कीटाणुओंकी मायामय धेरा-बन्दीसे अपने-आपको बचनेमें सारा जीवन बितानेकी जगह मैं मरकर किस्सा खतम करना अधिक पसन्द करुंगा । यदि यह बर्बरता और अज्ञानताकी निशानी है तो भी मैं प्रसत्रतापूर्वक अपने सुमेरियन आदिम जातिके अज्ञानको ही गले लगाना पसन्द करुंगा ।
४०२ -- शल्य-चिकित्सक अंगोंको काट-कूटकर और पंगु बनाकर इलाज करते और जीवनको बचाते हैं । इसके बदले प्रकृतिकी प्रत्यक्ष सर्वसमर्थ औषधियोंकी खोज क्यों न की जाय ?
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४०३ -- औषधिक स्थानपर अपनी चिकित्सा आप करनेमें बहुत समय लगेगा क्योंकि भय, आत्म-अविश्वास और दवाइयोंपर शरीरकी अस्वाभाविक निर्भरताकी हमारे मनों और शरीरोंको चिकित्सा-विज्ञानने जो शिक्षा दी है बह हमारी दूसरी प्रकृति बन गयी है ।
दवाइयोंकी आवश्यकतामें मानसिक विश्वासदुरा की गयी हानिके विरुद्ध हम किन्हीं बाहरी उपायोंसे प्रतिक्रिया नहीं कर सकते । ऐसा केवल मन-रूपी बंदीगृहसे निकलकर और आत्माके प्रकाशमें चेतन रूपसे प्रवेश करके तथा भगवानके साथ चेतन रूपमें एक होकर ही किया जा सकता है, तभी वे हमें हमारा खोया संतुलन और स्वास्थ्य प्रदान कर सकेंगे ।
अतिमानसिक रूपांतर ही एकमात्र सच्चा इलाज है ।
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४०४ - बीमारीमें औषधि हमारे शरीरके लिये इसलिये आवश्यक है क्योंकि हमारे शरीरोंने औषधियोंके विना ठीक न होनेकी कला सीख ली है । तो भी प्रायः देखा जाता है कि जो क्षण प्रकृति रोगीको रोगमुक्त करनेके लिये चुनती है वह वही क्षण होता है जब डाक्टर रोगीके जीवनकी आशा छोड़ देते हैं।
४०५ -- अपनी आंतरिक रोगहर शक्तिमें अविश्वास ही स्वर्गसे हमारे पतनका कारण था । चिकित्सा-विज्ञान और बुरी आनुवंशिकता भगवानके वे देवदूत हैं जो स्वर्गके दुरापर खड़े हमें वापिस जाने तथा पुन: प्रवेश करनेसे रोकते हैं ।
४०६ -- चिकित्सा-विज्ञान शरीरके लिये एक ऐसी भारी शक्ति है जो किसी छोटे-से राज्यको सुरक्षा प्रदान करके उसे कमजोर बना देती है था उस दयालु डाकूकी तरह है जो अपने शिकारको नीचे गिराकर उसे घायल कर देता है ताकि अपना सारा जीवन उस टूटे-फूटें शरीरकी सेवामें ही लगा सके।
४०७ - दवाइयां शरीरको - जय बे न तो उसे कष्ट पहुंचाये
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और न विषाक्त करें -- केवल तभी ठीक करती हैं जय रोगोंपर उनके भौतिक आक्रमणको आत्माकी शक्तिकी सहायता भी प्राप्त हो । यदि इस शक्तिको स्वतंत्र रूपसे कार्य करनेकी अनुमति मिले तो फिर दवाइयां एकदम अनावश्यक हो जाती हैं ।
श्रीअरविन्द हमें उस दुःस्वप्नका प्रत्यक्ष दिग्दर्शन कराते है जिसमें हम निवास करते है ताकि हमारे अंदर गुच्ची चेतनाकी अभिव्यक्ति तथा 'भगवानकी सर्वशक्तिमत्तामें अनन्य विश्वासकी अथक अभीप्सा जाग उठे ।
१८-३-७०
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