The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
४ दिसंबर, १९५७
''वास्तवमें हम देखते है कि सृष्टिके मूलतत्व स्थिर और अपरिवर्तनशील हैं : सत्ताका प्रत्येक प्ररूप अपने रूपमें बना रहता है और अपने स्वसे भिन्न होनेकी न तो चेष्टा करता है, न इसकी कोई आवश्यकता ही है । माना कि सत्ताके कुछ प्ररूप विलुप्त हो जाते हैं और अन्य प्ररूप उत्पल होते हैं, इसका कारण यह है कि विश्वगत 'चित्-शक्ति' विनष्ट होनेवाले प्ररूपोंसे अपने जीवन-आनंदको वापस ले लेती है और अपनी प्रसन्नताके लिये दूसरे रूपोंका सर्जन करने लगती है । परंतु प्रत्येक जीवनके प्ररूपका, जबतक बह रहता है, अपना एक खास प्रकार होता है और उसमें चाहे जो भी छोटे-मोटे परिवर्तन हों, वह अपने उस प्रकारके प्रति सच्चा बना रहता है : वह अपनी ही चेतनासे बंधा रहता है और उससे निकलकर अन्य चेतनामें नहीं जा सकता; अपनी ही प्रकृतिसे सीमित होनेके कारण इन सीमाओंका उल्लंघन करके अन्य-प्रकृतिमें नहीं जा सकता । यदि 'अनत'की 'चित्-शफ्ति'ने 'जडू-तत्त्व'को अभिव्यक्त कर चुकनेके बाद 'जीवन'- को अभिव्यक्त किया और 'जीवन को अभिव्यक्त कर चुकनेके बाद 'मन' को अभिव्यक्त किया है तो इससे यह परिणाम नहीं निकलता कि वह अगली पार्थिव सृष्टिके तौरपर अब अति- मानसको अभिव्यक्त करेगी! कारण, 'मन' और 'अतिभन' सर्वथा विभिन्न गोलाद्धोंसे संबंध रखते हैं, 'मन 'अज्ञान' की निम्नतर स्थितिकी वस्तु है और 'अतिमन' 'दिव्य ज्ञानकी', उच्चतर स्थितिकी । यह जगत् 'अज्ञान' का जगत् हैं और इस-
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का ऐसा ही बने रहना अभिप्रेत है; उसमें यह अभिप्राय तो नहीं जान पड़ता कि उच्चतर गोलार्द्धकी शक्तियोंको सत्ताके इस निम्नतर गोलार्द्धमें नीचे उतार लाया जाय या उनकी छुपी उपस्थितिको यहां अभिव्यक्त किया जाय । क्योंकि यदि वे शक्तियां यहां विद्यमान हैं भी, तो एक छिपे, अगम्य अंतर्धापित रूपमें ही हैं, और सृष्टिको केवल बनाये रखनेके लिये है । उसे पूर्ण बनानेके लिये नहीं । मनुष्य इस अज्ञानमयी सृष्टिका शिखर है, वह उस चरम चेतना और ज्ञानतक पहुंच चुका है जहांतक यह सृष्टि पहुंच सकती थी : यदि वह ओर आगे जानेकी कोशिश करता है तो वह केवल अपने-आप मनके ही अधिक विस्तृत चक्रोंमें चक्कर काटता रहेगा । क्योंकि यहां तो उसके अस्तित्वकी चाप यही है, एक सीमित वृत्त जो 'भन' को अपने चक्करोंमें धुमाता रहता है और वह उसी बिंदु- पर वापस लौट आता है जहांसे बह चला था; 'मन' अपने चक्करोंसे बाहर नहीं निकल सकता -- ऐसा सब विचार कि गति या प्रगतिकी एक सीधी रेखा है जो असीम रूपमें ऊपर या पार्श्व दिशामें, 'असीम' में जा पहुंचती है, एक मग्न है । यदि मनुष्यकी आत्माको मानवताके परे जाना हो ताकि वह अति- मानस या उससे भा आगे पहुंच सके तो इसे वैश्व अस्तित्वमेंसे बाहर निकल जाना होगा या तो 'आनंद' और 'ज्ञान' की भूमिका अथवा जगत्में या फिर अनभिव्यक्त 'शाश्वत' और 'असीन्स, में चले जाना होगा ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ ८२७-२८)
वस्तुतः, कुछ प्रारंभिक तैयारी कर लेनी चाहिये, प्रत्येक नये अनुच्छेदके विचारको लिख लेना चाहिये और उसे पहलेके विचारके साथ जोड़ना चाहिये, ताकि अध्यायके अंतमें एक पूरा चित्र तुम्हारे सामने उपस्थित हो सकें, क्योंकि जो कुछ मैंने अभी पढा है उसमेंसे यदि तुम कोई प्रश्न पूछो तो उसके लिये ऐसे उत्तरकी जरूरत हो सकती है जो कभी-कभी हमने पहले अनुच्छेदमें जो पढा है, उससे लगभग उलटा हो । यह प्रतिपादनका उनका तरीका है । यह ऐसा है मानों श्रीअरविन्द अपने-आपको एक प्रकारके गोलकके केंद्रमें, जैसे पहियेकी धुरीमें, रख रहे हों जिसके कि आरे नेमि या परिधिसे लगे होते हैं । श्रीअरविन्द सदा प्रारंभ-बिंदुपर वापस लौट आते हैं और वहांसे सीधे सतहतक आ जाते है और वह हर बार ऐसा करते हैं
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जिससे यह छाप पड़ती है कि वह उसी एक चीजको बार-बार दोहराते रहे हैं, परंतु यह केवल विचारकी स्पष्टताके लिये है जिससे तुम उसे समझ सको । यह जरूरी है कि तुम्हें विचारोंकी बहुत स्पष्ट स्मृति हो ताकि जो वह कहते हैं तुम उसे ठीक-ठीक समझ सको ।
मैं इसपर जोर इसलिये दे रही हू कि यदि तुम कर्मसे नहीं बढ़ते तो अध्ययनसे बहुत लाम नहीं उठा सकोगे, यह तुम्हें एक गोरखधंधेके समान लगेगा जिसमें रास्ता ढूंढ पाना बहुत मुश्किल होता है... । सब विचार केंद्रमें एक साथ जुड़े हुए है और नेमिसे सर्वथा विभिन्न दिशाओंमें चले नये है । क्या तुम्हारे पास इस बार कोई प्रश्न है?... नहीं ।
यह कठिन है, है न? मैं पढ़ती हू और यह बहुत अच्छी तरह देखती हू कि प्रश्न करना कठिन है, क्योंकि जबतक हम उपपत्तिके अन्ततक न पहुंच जायं हम नही जानते कि वह कहां पहुंचना या क्या समझाना चाह रहे हैं; पर साथ ही यह भी ठीक है कि यदि तुम सारा विवरण पढ जाओ तो सब बातोंको याद कर सकना असंभव है (जबतक कि किसीको विशेष रूपसे सच्ची और यथार्थ स्मृति प्राप्त न हो) । अन्ततक पहुंचते-पहुंचते तुम यह भूल जाओगे कि शुरूमें क्या आया था । अतः कुछ लिख लेना, संक्षेपमें कुछ लिख लेना हितकर होगा, प्रत्येक अनुच्छेदका सारांश एक या दो प्रमुख विचारोंमें तैयार करके लिख लो ताकि अन्तमें मिलान कर सको ।
( मौन)
श्रीअरविन्द यह।- कहते है कि प्रत्येक जाति अपने जातिगत गुणोंसे, अपनी रचनाके मूल सूत्रोंसे, सन्तुष्ट रहती है, वह नयइ?ा जातिमें अपने-आपको रूपान्तरित या परिवर्तित करनेकी चेष्टा नहीं करती । एक कुत्ता कुत्ता बने रहनेसे ओर एक घोडा घोडा बने रहनेसे सन्तुष्ट है और कभी भी वह, उदाहरणार्थ, हाथी बननेकी चेष्टा नहीं करता! यहांसे शुरू करके श्रीअरविद पूछते हैं : क्या मनुष्य भी मनुष्य बने रहनेसे सन्तुष्ट रहेगा या वह मनुष्यसे अतिरिक्त कुछ और बन जानेकी आवश्यकताके प्रति, अर्थात्, अतिमानव बन जानेकी आवश्यकताके प्रति जाग जायगा?
यह है इस अनुच्छेदका सार ।
परन्तु जब व्यक्ति इन व्याख्याओंके, विचारशील मनका अभ्यस्त हो और वह इसे पढे तो सत्तामें कोई चीज सन्तुष्ट नहीं होती, कहनेका मत- लब यह कि यहां जो प्रश्न है वह केवल बाह्यतम रूपका, सत्ताके बाहरी खोलका है, परन्तु इसके विपरीत ठयक्ति अपने अन्दर ऐसी 'कुछ चीज'
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महसूस करता है जिसमें उस रूपके परे जानेकी अदम्य प्रवृत्ति है । इमि चीजको श्रीअरविन्द हमें स्पष्टतासे महसूस कराना चाहते है ।
मैंने ऐसे पालतू पशु देखें है जिनमें वे जो कुछ थे उससे भिन्न बन जाने- की सचमुच एक प्रकारकी आन्तरिक आवश्यकता विद्यमान थी । मैंने ऐसे कुत्ते देखे है जो इस प्रकारके थे, बिल्लियां देखी है जो इस प्रकारकी थीं, घोड़े, यहांतक कि पक्षी भी देखे है जो इस प्रकारके थे । बाह्य रूप अवश्य ही वही था जो होता है, परन्तु वहां उन पशुओंके अन्दर कोई ऐसी सजीव और सुव्यक्त चीज थी जो दूसरी अभिव्यक्तिपर, दूसरे रूपपर पहुंचनेका स्पष्ट प्रयत्न कर रही थी । और प्रत्येक मनुष्य जो पशु-मानवकी अवस्थासे ऊपर उठ चुका है और मनुष्य-मानव बन चुका है उसमें इस सर्वथा असंतोष- जनक अर्द्ध-पशुसे -- जो अपनी अभिव्यक्तिमें और अभिव्यक्ति तथा जीवन- के साधनोंमें असन्तोषजनक है - कुछ और बन जानेकी ऐसी आवश्यकता होती है जिसे मैं 'सुधारातीत' आवश्यकता कह सकती हू । तो समस्या यह है : क्या यह अनिवार्य आवश्यकता अपनी अभीप्सामें इतने पर्याप्त रूपमें प्रभावकारी होगी कि स्वयं रूप या जाति, अपना विकास एवं रूपान्तर साबित कर सकें अथवा यह चीज, सत्तामें स्थित यह अनश्वर चेतना, रूपके नष्ट होनेपर उससे बाहर उच्चतर रूपमें प्रविष्ट होनेके लिये चली जायगी, इसके अतिरिक्त वह रूप जैसा कि हम देखते है, अभीतक अस्तित्वमें नहीं आया है!
तो, जो समस्या हमारे सामने है वह यह है : यह उच्चतर रूप कैसे बनेगा? यदि तुम इस समस्यापर विचार करो तो यह वडी रोचक बन जाती है । क्या यह एक प्रक्रियाद्वारा होगा, हमें कल्पना करनी होगी, कि यह रूप ही थोडा-थोडा करके एक नये आकारको जन्म देनेके लिये रूपान्तरित हो जायगा या किन्हीं दूसरे साधनोंद्वारा, जिन्हें हम अभीतक नहा जानते, वह नया रूप संसारमें प्रकट होगा?
कहनेका मतलब यह कि क्या एक सातत्य बना रहेगा या अकस्मात् नये रूपका आविर्भाव होगा? हम अभी जो है और हमारी आन्तरिक आत्मा जो बनना चाहती है इन दोनोंके बीच एक उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ संक्रम रहेगा या वहां एक व्यवधान होगा, अर्थात्, क्या हमें नये रूपके आविर्भावकी प्रत्याशामें - जिस आविर्भावकी प्रक्रियाका हमें कोई पूर्वानुमान नहीं और जिसका हमारे वर्तमान रूपसे कोई सम्बन्ध नहीं - इस वर्तमान मानव रूपको छोड़ देना पड़ेगा? क्या हम आशा कर सकते है कि इस शरीरके लिये ही, जो भौतिक अभिव्यक्तिका वर्तमान साधन है, यह संभव हों जायगा कि वह अपने-आपको किसी ऐसी चीजमें क्रमश: रूपान्तरित
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कर ले जो उच्चतर जीवनको अभिव्यक्त करनेकी सामर्थ्य रखता हों या दूसरे रूपमें जानेके लिये, जो पृथ्वीपर अभीतक है ही नही, हमें इस रूपको पूरी तरह छोड़ देना जरूरी होगा?
यह है समस्या, और यह बहुत रोचक समस्या है ।
यदि तुम इसपर चिन्तन करना चाहो तो वह तुम्हें कुछ अधिक प्रकाश- की ओर लें जायगी ।
हम इसपर अभी चिन्तन कर सकते है ।
( ध्यान)
( इस वार्ताके प्रथम प्रकाशनके समय
( ६ मार्च, १९६३), श्रीमांने निम्नलिखित
टिप्पणी जोड़ी :]
दोनों क्यों नहीं?
दोनों एक ही समय होंगे । एक दूसरेका बहिष्कार नहीं करता ।
हां, परंतु क्या एक दूसरेमें रूपांतरित हो जायगा?
एक रूपान्तरित हों जायगा और दूसरेकी मोटी रूपरेखाके समान होगा । और दूसरा, पूर्ण, तब प्रकट होगा जब यह अस्तित्वमें आ जायगा । क्योंकि दोनोंका अपना सौन्दर्य है, अपना अस्तित्व-हेतु है, अतः दोनों होंगे ।
मन हमेशा चुनाव करना, निश्चयपर पहुंचना चाहता है -- पर चीजों इस प्रकार कही है । यहांतक कि बह सब, जिसे हम कल्पनामें ला सकते है, उससे बहुत कम है जो होगा । सच पूछो तो उन सभीका, जिनमें तीव्र अभीप्सा और आन्तरिक निश्चयता है, इसकी चरितार्थताके लिये आवाहन किया जायगा ।
सब जगह, सभी क्षेत्रोंमें, सर्वदा, शाश्वत रूपसे सब कुछ संभव होगा और जो कुछ संभव है वह सब, सब, किसी निश्चित समयपर चरितार्थ होगा - कम-या-अधिक लम्बे नियत समयपर, पर होगा सब ।
ठीक ऐसे ही जैसे पशु ओर मनुष्यके बीच सब प्रकारकी संभावनाएं पायी गयी है जो कि बनी नही रहीं, उसी प्रकार वहां भी सब प्रकारकी संभावनाएं होंगी : हर एक अपने ही ढंगसे प्रयत्न करेगा और वह सब मिलकर भावी उपलब्धिको तैयार करनेमें मदद करेगा ।
यह प्रश्न पूछा जा सकता है : क्या मानव जाति कुछ अन्य जातियोंकी तरह ही पृथ्वीपरसे लुप्त हो जायगी?... कुछ जातियां पृथ्वीपरसे लुप्त हैं। गयी है । पर मानवजातिके समान लम्बे समयतक बनी रहनेवाली जातियां नही । मेरा ख्याल ऐसा नहीं है; और निश्चय ही वे जातियां तो नहीं ही जिनमें प्रगतिका यह बीज, प्रगतिकी यह संभावना थी । बल्कि लगता तो कुछ ऐसा है कि क्रमविकास ऐसी धाराका अनुसरण करेगा जो अधिकाधिक उच्च जातिके सन्निकट पहुंचती जायगी, और, संभवतः, जो कुछ अभीतक निम्न जातिके बहुत अधिक समीप है वह सब मिट जायगा, जैसे वे जातियां मिट गयीं ।
हम सदा यह भूल जाते है कि, न केवल सब चीजों संभव हैं - सब चीजों, यहांतक कि अत्यन्त विरोधी भी २- बल्कि सब संभव चीजों कम-सें- कम एक क्षणका अस्तित्व तो पाती ही हैं ।
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