The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
४ सितंबर १९५७
आज किसीने मुझसे एक प्रश्न पूछा हैं। यह मेरे उन शब्दोंसे सम्बन्ध रखता है जो मैंने तुमसे १४ अगस्तको, श्रीअरविन्दके जन्मदिवसके पहले कहें थे । यह प्रश्न मुझे रोचक प्रतीत हुआ क्योंकि इसका सम्बन्ध उन वाक्योंमेंसे एकके साथ है जो जरा गूढुया रहस्यमय होते है और सरली- करणके कारण अनेकार्थक या अस्पष्ट-से हों जाते है । जानबूझकर ही उन्हें ऐसा रवा गया था ताकि प्रत्येक ठयक्ति उसे अपनी चेतनाके मंत्रके अनुसार समझ सकें । यह बात मैं तुम्हें पहले कई बार बता चुकी हू कि यह संभव है कि ठीक उन्हीं शब्दोंको विभिन्न स्तरोंपर समझा जाय । इन शब्दोंको जानबूझकर सरल और जानबुद्कर ही अपास्त गया था ताकि उन्हें अर्थकी जिस जटिलताको व्यक्त करना था उसके वाहक बन सकें ।
वह अर्थ विभिन्न स्तरोंपर थोडा-थोडा भिन्न होता है परन्तु वह एक- दूसरेका पूरक होता है और वह तबतक सचमुच पूर्ण नहीं होता जबतक कि
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उसे एक साथ सब स्तरोंपर न समझा जाय । सच्ची समझ सब अर्थोंकी एक साथ समझ है, उसमें सभी अर्थ एक साथ दृष्टिमें, पकडूमें, समझमें आ जाते है । पर उन्हें, व्यक्त करनेके लिये, हमारे पास जो भाषा है वह बहुत अक्षम है, हमें चीजोंको विवश होकर एकके बाद एक करके, बहुत-से शब्दों और अनेक व्याख्याओंके द्वारा कहना पड़ता है.. । मैं भी अब वही करने जा रही हू!
यह प्रश्न उन शब्दोंसे संबंधित है जो मैंने श्रीअरविन्दके जन्मके बारेमें कहें थे (यह उनके जन्मदिनसे पहले कहें गायें थे) । मैंने उसका एक ''सनातन जन्म''के रूपमें वर्णन किया था । मुझसे पूछा गया है कि ''सना- तन''से मेरा क्या. अभिप्राय है ।
स्वभावत:, यदि इन शब्दोंको अक्षरशः: लिया जाय तो एक ''सनातन जन्म' 'का कुछ विशेष अर्थ नहीं बनता । पर मैं तुम्हें अभी बताऊंगी कि कैसे इसकी एक भौतिक व्याख्या या अर्थ, एक मानसिक अर्थ, एक चैत्य अर्थ और तुक आध्यात्मिक अर्थ हो सकता है -- और वास्तवमें है मी । भौतिक रूपमें, इसका अर्थ यह है कि इस जन्मके परिणाम तबतक रहेंगे जबतक स्वयं पृथ्वी रहेगी । श्रीअरविन्दके जन्मके परिणाम पृथ्वीके संपूर्ण अस्तित्वकालमे अनुभव होते रहेंगे । अतः मैंने इसे कुछ कवित्वपूर्ण ढंगसे 'सनातन'' कहा है ।
मानसिक रूपमें, यह एक ऐसा जन्म है जिसकी स्मृति सनातन कालतक बनी रहेगी । आगे युगोतक श्रीअरविन्दका जन्म और उसके प्रभाव स्मरण किये जायेंगे ।
चैत्य रूपमें यह एक ऐसा जन्म है जिसकी पुनरावृत्ति विश्वके इतिहासमें शाश्वत रूपसे युगयुगतक होती रहेगी । यह एक ऐसा प्रादुर्भाव है जो पृथ्वीके इतिहासमें, युग-युगमें, समय-समयपर होता है, अर्थात् यह जन्म स्वयं अपने-आपको नये-नये रूपोंमें बार-बार दुहराता है और शायद प्रत्येक बार कुछ अधिक बड़ी चीज -- अधिक सिद्ध और अधिक पूर्ण चीज -- अपने साथ लाता है, परन्तु यह पार्थिव शरीरमें अवतरित होने, अभिव्यक्त होने, जन्म लेनेकी वही क्रिया होती है ।
और अन्तमें, विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे, यह कहा जा सकता है कि यह जन्म पृथ्वीपर ''सनातन''का जन्म है । क्योंकि प्रत्येक बार जब अव- तार भौतिक रूप ग्रहण करते है ते। यह पृथ्वीपर स्वयं ''सनातन''का जन्म होता है ।
यह सब बात, दो शब्दोंमें आ गयी है : ''सनातन जन्म'' ।
तो, अपनी बात पूरी करते हुए अन्तमें, मैं तुम्हें, एक सलाह देती हू -
भविष्यमें, अपने-आपसे यह कहनेसे पहले : ''लो, इसका, भला, क्या अर्थ है, मुझे ते। कुछ समझमें नहीं आया, शायद ठीकसे अभिव्यक्त नहीं किया गया,'' तुम अपने-आपसे यह कह सकते हों : ''संभवत: मैं उस स्तरपर नहीं हू जहां मैं इसे समझ संक्,'' और तब शब्दोंके पीछे केवल शब्दोंको नही, बल्कि किसी और चीजको खोजनेकी कोशिश करो । यह लो!
मैं सोचती हू हमारे ध्यानके लिये यह एक अच्छा विषय है ।
( ध्यान)
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