The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
५ जून, १९५७
कोई प्रश्न है? नहीं?
मधुर मां, क्या हमें ऐसे प्रश्न पूछने चाहिये जो सहज रूपसे नहीं आते?
''जो प्रश्न सहज रूपसे नहीं आता''से तुम क्या समझते हो?
क्योंकि सामान्यतः, कक्षामें ऐसा बहुत बार होता है कि हम यह महसूस करते है कि यदि हम कुछ पूछेंगे नहीं तो आप हमें कुछ न बतायेंगे, अतः हम सोचते हैं, फिर-फिर सोचते हैं, क्योंकि हमें कोई प्रश्न तो पूछना ही चाहिये!
यह इसपर निर्भर है कि तुम कौन-सा प्रश्न खोज पाते हो! यदि प्रश्न रोचक है... तुमने उसे खोजनेके लिये प्रयास किया है, इसका मतलब यह नहीं कि वह आवश्यक रूपसे खराब ही है ।
क्या तुम्हारे पास ऐसा कोई प्रश्न है?
नहीं ।
तो...
(लंबा मौन)
वस्तुत: श्रीअरविदने जो कुछ लिखा है व्यक्ति उस सबको ध्यानसे पढ जाय तो उसे अपने सब प्रश्नोंके उत्तर मिल जायेंगे । परन्तु कुछ ऐसे क्षण होते है और विचारोंको प्रस्तुत करनेके कुछ ऐसे ढंग होते है जो चेतना- को गहरे रूपमें प्रभावित करते हैं और आध्यात्मिक प्रगति करनेमें सहायक होते है । पर प्रस्तुत विचारके'; प्रभावशाली होनेके लिये जरूरी है कि वह तात्कालिक अनुभवकी एक सहज-स्फ्र्त अभिव्यक्ति हो । जो चीजों पहले कही जा चुकी है उन्हें, यदि उसी ढंगसे दोहरा दिया जाय तो चूंकि वे चीजों भूतकालके अनुभव है, वह कथन एक प्रकारकी शिक्षाका रूप ले लेता है
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जिसे उपदेशात्मक कथोपकथन कहा जा सकता है, वह मस्तिष्कके कुछ कोषोंको तो सक्रिय कर देता है पर वस्तुत: बहुत उपयोगी नहीं होता ।
मेरे लिये, जो कार्य मैं करनेका प्रयत्न कर रही हू उसके लिये, नीरवता- मे किया गया कार्य सदा ही बहुत अधिक महत्चपूर्ण होता है... । उस अवस्थामें, जो शक्ति कार्य करती है वह शब्दोंद्वारा बंधी नहीं होती, इससे उसे अनतगुना बल प्राप्त हों जाता है और साथ ही वह प्रत्येक चेतनामें उसी चेतनाके ढंगके अनुरूप अभिव्यक्त होती है, इससे वह असीम रूपमें अधिक प्रभावकारी हों जाती है । नीरवतामे जब कोई स्पन्दन किसी विशेष उद्देश्य या किसी सुनिश्चित परिणामकी प्राप्तिके लिये दिया जाता है तो वह प्रत्येक व्यक्तिके मनकी ग्रहणशीलताके अनुसार उसकी चेतनामें ठीक ऐसा रूप लेता है जो उसके लिये अत्यधिक प्रभावकारी, सक्रिय एवं तात्कालिक रूपमें अत्य- धिक उपयोगी हो सकता है । उधर जब उसे शब्दोंका रूप दे दिया जाता है तो हरेकको उसे एक सुनिश्चित रूपमें, उन शब्दोंके सुनिश्चित अर्थमें ग्रहण करना होता है जिनमें उसे प्रकट किया गया है, -- इसमें उसकी कर्मसंबन्धी बहुत बड़ी शक्ति और समृद्धता खो जाती है, क्योंकि पहले तो शब्दोंको ठीक उसी रूपमें समझा नहीं जाता जो उनसे अभिप्रेत होता है; दूसरे, उन्हें सदा व्यक्तिकी समझनेकी योग्यताके अनुसार नहीं कहा जाता ।
अतः जबतक प्रश्न ऐसा न हो जो तुरत किसी ऐसी अनुभूतिको उत्पन्न करनेवाला हों जिसे नये सूत्रमें अभिव्यक्त किया जा सकें तबतक मेरे विचार- मे सदा यही अच्छा है कि चुप रहा जाय । और केवल सजीव प्रश्न ही ऐसी अनुभूति करा सकता है जो जीवंत शिक्षाका सुअवसर बन सकें । और प्रश्न सजीव हो इसके लिये जरूरी है कि वह प्रगतिकी आंतरिक आवश्यकताको प्रतिध्वनित करता हो, उस सहज-स्वाभाविक आवश्यकताको प्रतिध्वनित करता हो जो किसी एक या दूसरे स्तरपर, सामान्यत: मानसिक स्तरपर, प्रगति करनेकी होती है, परंतु यदि कदाचित् वह किसी आंतरिक अभीप्साको, किसी समस्याको जो सामने है और जिसे वह सुलझाना चाहता है, प्रतिध्वनित करता हों तो वह बहुत रोचक, सजीव और उपयोगी बन जाता है । वह किसी अंतर्दृष्टि, किसी उच्चस्तरीय बोध या चेतनामें किसी ऐसी अनुभूतिकी ओर लें जा सकता है जो सूत्रको नया रूप दे दे ताकि वह उपलब्धिके लिये नयी शक्तिसे भर उठे ।
ऐसे प्रसंगोंको छोड़कर मैं सदा यही अनुभव करती हू कि यह कही अधिक अच्छा है कि कुछ न कहा जाय और यह कि पुछ मिनटका ध्यान सदा ही अधिक उपयोगी होता है ।
कक्षाके शुरूमें मैं जो वाचन करती हू वह विचारकों एक दिशा, एक
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मोड प्रदान करने, ओर उसे किसी विशेष समस्या या विचार-समुहपर स्थित करनेके लिये होता है या समझकी नयी संभावनाके लिये होता है जो वाचन- से आती है । वस्तुत: यह वाचनके बाद नीरवतामें किये जानेवाले घ्यानके लिये एक विषय जैसा बन जाता है ।
बोलनेकी खातिर बोलना बिलकुल रोचक नहीं होता । इसके लिये विद्यालय है, यहां नही ।
पर, मधुर मां, जब आप बोलती हैं तो और चीज होती
( मौन)
(दूसरा बालक) मां, जब आप कुछ कहती हैं तो हम उसे मनसे समझनेकी कोशिश करते हैं, पर जब आप नीरवतामें कुछ देती है तो हमें सत्ताके किस भागपर एकाग्र होना चाहिये?
घ्यानके लिये सदा ही यह अधिक अच्छा है, -- समझ रहे हो न? हम यहा ''ध्यान'' शब्दका प्रयोग तो कर रहे है पर इसका मतलब ''सिरमें विचारोंकी क्रियाशीलता'' नहीं है, बल्कि ठीक इससे विपरीत है -- तो ध्यानके लिये सदा ही यह अधिक अच्छा है कि उसे एक केंद्रपर एकाग्र किया जाय, उस केंद्रपर जिसे अभीप्साका केंद्र कहा जा सकता है, जहां अभीप्साकी लौ जलती रहती है, उस सौर-चक्रके केंद्रपर अपनी सब शक्तियोंको एकत्र कर लिया जाय, और यदि संभव हों तो, एक ऐसी सजग नीरवताकी स्थिति प्राप्त कर ली जाय जिसमें व्यक्ति मानों किसी अत्यधिक सूक्ष्म चीजको सुननेका प्रयास कर रहा हों, किसी ऐसी चीजको जो उसकी पूर्ण सजगता, पूर्ण एकाग्रता ओर संपूर्ण नीरवताकी अपेक्षा रखती हो, और फिर बिलकुल भी क्रियाशील न हुआ जाय । सोचे या क्रियाशील हुए बिना अपने-आप- को इतना खोल देना कि जो कुछ ग्रहण किया जा सकता हो वह सब ग्रहण कर लिया जाय, पर इसकी पूरी सावधानी रखते हुए कि जो वस्तु उस समय हों रही है उसे समझनेकी कोशिश भी न की जाय, क्योंकि यदि व्यक्ति उसे जानना, यहांतक कि ध्यानसे देखना भी चाहता है तो उसमें एक प्रकारकी मस्तिष्ककी क्रिया बनी रहती है जो ग्रहणशीलताकी पूर्णताके अनुकूल नहीं होती -- नीरव रहना, सजग एकाग्रतामें जितना संभव है
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उतने समग्र रूपमें नीरव रहना और फिर निश्चल हो जाना ।
यदि व्यक्ति इसमें सफल हो जाय तो सब समाप्त होनेपर, जब वह ध्यानसे बाहर आता है तो कुछ देर बाद ( सामान्यत: तुरत नहीं), सत्ताके अंदरसे चेतनामें कुछ नयी चीज प्रकट होती है. एक नयी बोध-शक्ति, वस्तुओं- का एक नया मूल्यांकन, जीवनमें एक नयी वृत्ति -- संक्षेपमें, जीवनका एक नया ढंग प्रकट होता है । यह सब क्षणिक हो सकता है, परंतु उस क्षण- मे, यदि व्यक्ति इधर ध्यान दे तो उसे पता चलता है कि कोई चीज है जो बोध-शक्ति या रूपांतरके मार्गपर एक कदम आगे बढ़ गयी है । यह एक ज्ञानालोक हो सकता है, एक ऐसी बोधशक्ति हो सकती है जो अधिक क्यफची हो या सत्यके अधिक निकट हों या एक रूपांतरकारी शक्ति हो सकती है जो तुम्हें आंतरिक प्रगति करने मे या चेतना को विस्तारित करनेमें या अपनी गतियों एवं क्रियाओंपर प्रभुत्वकी वृद्धिमें सहायता पहुंचाती है ।
पर ये परिणाम कमी तात्कालिक नहीं होते । क्योंकि यदि व्यक्ति उन्हें, उसी समय देखनेकी कोशिश करे तो वह एक ऐसी सक्रिय अवस्थामें रहता है जो सच्ची ग्रहणशीलताकी विरोधी है । व्यक्तिको उस समय जितना संभव हो उतना तटस्थ, निश्चल और निष्क्रिय रहना चाहिये, पृष्ठ-भूमिमें नीरव अभीप्सा अवश्य रहनी चाहिये पर वह शब्दों, विचारों यहांतक कि भावनाके रूपमें भी रूपायित नहीं होनी चाहिये । उसे एक ऐसी वस्तु होना चाहिये जो तीव्र स्पन्दनके रूपमें इस प्रकार ऊपर उठती है ( ऊपर उठती लौकी तरहका संकेत), पर जो कोई रूप धारण नहीं करती तौर सबसे बढ़कर, जो समझनेका कोई प्रयास नहीं करती ।
थोड़े अम्यासके बाद व्यक्ति ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है कि जब चाहे, कुछ क्षणोंमें ही, इस स्थितिमें आ जाय, अर्थात्, तब वह ध्यानमें कोई समय नहीं खोता । शुरूमें, स्वभावत: व्यक्तिको धीरे -धीरे मनको शांत करना, चेतनाको एकत्रित और एकाग्र करना होता है, इस प्रकार तीन- चौथाई समय वह तैयारीमें बे देता है । परन्तु जब व्यक्ति अभ्यास कर लेता है तो वह दो-तीन क्षणोंमें ही इसे प्राप्त कर लेता है और तब उसे ग्रहण करनेके लिये सारे समयका लाभ मिल जाती है ।
स्वभावत: इससे और आगेकी तथा अधिक पूर्ण अवस्थाएं भी है पर वे बादमें प्राप्त होती हैं । परन्तु यदि तुम कम-से-कम इस अवस्थाको पा लो तो ध्यानका पूरा लाभ उठा सकते हों ।
अब हम प्रयत्न करते है ।
( ध्यान)
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