CWM (Hin) Set of 17 volumes

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The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.

प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८)

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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Collected Works of The Mother (CWM) Questions and Answers (1957-1958) Vol. 9 433 pages 2004 Edition
English Translation
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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८) 430 pages 1977 Edition
Hindi Translation
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८ मार्च, १९५७

 

 निम्नलिखित कहानी श्रीमांने एक ''शुक्रवारकी

कक्षा'' मे' सुनायी थी । सामान्यतया तो यह

बच्चोंकी पढ्नेके लिये ही थी ।

 

 एक बौद्ध कथा

 

         आज भी मैं पढ नहीं सकती, इसलिये मैं तुम्हें एक कहानी सुरागी । यह एक बौद्ध कथा है, शायद तुम जानते होओ, यह आधुनिक है पर इसे प्रामाणिक होनेका श्रेय प्राप्त है । मैंने इसे श्रीमती '' सें सुना था, शायद तुम्हें मालूम हो वे सुविख्यात बौद्ध हैं, विशेषत: वे ल्हासा पहुंचने-

 

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वाली पहली यूरोपीय महिला थी । उनकी यह तिब्बत यात्रा बहुत संकट- पूर्ण और रोमांचकारी थी । इस यात्राकी एक घटना स्वयं उन्होंने मुझे सुनायी थी । इस शाम मैं तुम्हें वही सुना रही हू ।

 

         वै कुछ सहयात्रियोंके साथ यात्रा कर रही थीं और वह एक काफिला- सा बन गया था । और: तिब्बत जानेके लिये चुकी हिन्द-चीनसे होकर जाना अपेक्षाकृत अधिक आसान था, अतः वे उसी तरफसे जा रहे थे । हिन्द-चीन विशाल जंगलोंसे घिरा है और इन जंगलोंमें बाघ बहुतायतसे पाये जाते है । इनमेंसे कुछ नर-भक्षी बन जाते है... और जब ऐसा होता है तो वे उसे ''बाघजी'' कहते है ।

 

        एक दिन काफी शाम बीते, जब वे एक घने जंगलके बीचमें थे -- किसी सुरक्षित स्थानपर डेरा लगा सकनेके लिये इस जंगलको पार करना जरूरी था -- कि श्रीमती ''को ख्याल आया कि उनके ध्यानका समय हो गया है । उन दिनों वे निश्चित समयोंपर ध्यान किया करती थीं, बिलकुल नियमित रूपसे, बिना कभी चुके । और चूंकि उनके ध्यानक समय हो गया था, उन्होंने अपने हानियोंसे कहा : ''यात्रा जारी रखिये मैं यहां बैठकर ध्यान करूंगी और ध्यान समाप्त करके आप लोगोंसे आ मिलूंगी । इस बीच आप अगले, पड़ावतक पहुंचकर डेरा तैयार करें ।'' ''नहीं, नहीं, श्रीमतीजी, यह असंभव है, एकदम असंभव,'' एक कुलीन कहा - अवश्य ही उसने अपनी भाषामें कहा था, पर मैं बता दूं कि श्रीमती '' तिब्बतियोंकी तरह तिब्बती भाषा जानती थीं - ''यह बिलकुल असंभव है, इस जंगलमे बाघजी है और यह उसके भोजनकी तलाश- मे निकलनेका समय है । हम आपको नहीं छोड़ सकते और आप यहां नही रुक सकतीं! '' उन्होंने उत्तर दिया : ''मुझे उसकी परवाह नहीं, ध्यान सरक्षासे ज्यादा जरूरी है । आप सब जायं, मैं यहां अकेली रहूंगी ।''

 

           अपनी इच्छाके बिलकुल विपरीत वे चल पड़े, क्योंकि श्रीमती ''से बहस करना असंभव था, जब वे किसी कामको करनेका निश्चय कर लेती थीं तो कोई चीज उसे करनेसे न रोक सकती थी । साथी चले गायें और वे आरामसे एक वृक्षके नीचे बैठ गयीं और ध्यानमें चली गयीं । कुछ देर बाद उन्हें किसी अप्रिय चीजकी उपस्थितिका अनुभव हुआ । यह देखनेके लिये कि वह क्या है उन्होंने आंखें खोली... देखा, तीन-चार कदम दूर, ठीक सामने बाघजी ललचायी आंखोंसे देख रहा है! तो एक उत्तम बौच्छदकी तरह उन्होंने कहा : ''अच्छा, यदि इसी तरह' मुझे निर्वाण- की प्राप्ति होनी है तो ठीक है । बस, मुझे, जैसा कि उचित है, सम्यक् भावमें शरीर छोड़नेकी तैयारी करनी चाहिये ।'' और बिना हीले, बिना

 

जरा भी कांपे उन्होंने अपनी आंखें फिरसे बंद कर ली और ध्यानमें, कुछ अधिक गहरे और प्रगाढ़ ध्यानमें चली गयीं; संसार-मायासे अपने-आपको पूरी तरह अलग करके उन्होंने अपने-आपको निर्वाणके लिये तैयार कर लिया... । पांच मिनट बीते, दस मिनट बीते, आधा घंटा बीत गया - कुछ नहीं हुआ । तब चूंकि ध्यान समाप्तिका समय हो गया था, उन्होंने अपनी आंखें खोली... वहां कोई बाघ न था! निश्चय ही शरीर- को इतना निश्चल देखकर उसने सोचा होगा कि यह खाने योग्य नहिं है! क्योंकि लकड़बग्घेको छोड़कर अन्य जंगली पशुओंकी तरह, बाघ भी मृत शरीरपर नहीं झपटता, उसे नहीं खाता । संभवत: उस निश्चलतासे प्रभावित होकर वह चला गया होगा -- मैं यह नहीं कह सकती कि वह ध्यानकी प्रगाढ़तासे प्रभावित होकर चला गया क्योंकि मेरे विचारमें बाघ ध्यानके प्रति बहुत संवेदनशील नहीं होते! उन्होंने अपने-आपको अकेला और खतरेके बाहर पाया । वे शांतिसे अपने मार्गपर आगे बढ़ी और डेरेपर पहुंचकर बोली : ''लो, मैं यह रही ।',

 

        तो यह है कहानी । अब हम उनकी तरह ध्यान शुरू करते हैं, अपने- आपको निर्वाणके लिये' तैयार करनेके लिये नहीं (हंसी), बल्कि अपनी चेतनाको ऊंचा उठानेके लिये!

 

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