The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
८ मई, १९५७
मां, सामान्यतः हम देखते है कि हममेंसे बहुत-से उन खेलों या उन प्रवृत्तियोंमें ही रुचि रखते हैं जिनमें कुछ उत्तेजना होती है, और ऐसे बहुत ही कम है जो गंभीर प्रकारकी प्रवृत्तियों या व्यायामोंमें रुचि लेते हों, ऐसा क्यों है?
क्योंकि अधिकतर लोगोंमें रुचि पैदा करनेवाली चीज है प्राणिक तुष्टि । प्रशिक्षणके व्यायामोंमें, जिनमें खेलों-जैसी उत्तेजना नहीं होती, रुचि लेनेके लिये यह आवश्यक है कि सत्तापर बुद्धिका शासन हो । सामान्य मनुष्योंमें बुद्धि ही मानव चेतनाका शिखर है और सत्ताके इसी भागको बाकीपर शासन करना चाहिये, क्योंकि यही भाग व्यवस्थित और युक्तिसंगत है, अर्थात् यह चीजोंको व्यवस्था, भलाई और उपयोगिताकी भावनासे करता है और एक' बनी-बनायी योजनाको, जिसे हरएक मान्यता देता और व्यवहारमें लाता है, मानकर चलता है; जब कि सत्ताका प्राणिक भाग उत्तेजना, आकस्मिकता और साहसिक कर्मको पसंद करता है -- ये सब खेलको आकर्षक बनाते है -- और इनसे भी बढ़कर प्रतियोगिताओंको, जीतनेके प्रयत्न और विरोधी दलपर विजय आदिको पसन्द करता है । यह प्राणिक तरंग है । और चूंकि प्राण ही मनुष्यमें उत्साह, प्रेरणा और सामान्य शक्तिका स्थान है इसलिये जब आकस्मिकता, संघर्ष और विजयका आकर्षण नहीं होता तो यह सों जाता है, जबतक कि इसने सतत और स्वाभाविक रूपसे बौद्धिक संकल्पकी आज्ञा माननेकी आदत ही न डाल ली हो । और यह भी शारीरिक शिक्षणका एक पहला लाभ है, क्योंकि यह एक तथ्य है कि यह चीज तबतक अच्छी तरह नहीं की जा सकती जबतभा शरीर भी प्राणिक तरंगकी अपेक्षा बुद्धिकी आशा माननेकी आदत न डाल त्व । उदाहरणार्थ, उस शारीरिक पूर्णताके विकासको, शारीरिक शिक्षणको को जो डबल आदि व्यायामोंकी सहायतासे किया जाता है; इन व्यायामोंमें विशेष उत्तेजनाकी कोई चीज नहीं होती, बल्कि ये व्यायाम अनुशासनकी, नियमित और बुद्धिसंगत अभ्यासोंकी मांग करते है, अतः इनमें आवेग, इच्छा या तरंगके लिये कोई स्थान नहीं होता (यदि इन्हें पूरी नियमितताके सार किया जाय), तो इन व्यायामोंको सचमुच अच्छी तरह करनेके लिये व्यक्ति- को अपने जीवनको बुद्धिद्वारा शासित करनेकी आदत डालती चाहिये । पर यह बात सर्वसामान्य- नही है । सामान्यत: तो इच्छाकी तरंगें, अपनी
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सब प्रतिक्रियाओंसहित उत्साह और आवेग ही मानव जीवनपर शासन करते हैं, जबतक कि व्यक्ति सावधानी न बरते कि बात दूसरी तरहसे हो । शरीरके कठोर अनुशासनका पालन कर सकनेके लिये और उससे व्यवस्थित और नियमित प्रयास करानेके लिये जिसमें कि वह पूर्ण बन सकें व्यक्तिको पहले ही कुछ-कुछ मनीषी होना चाहिये । इस प्रयासमें इच्छाकी सनकोंको लिये कोई स्थान नहीं है । क्या तुम नही देखते कि जब कोई व्यक्ति अतियोंमें, किसी प्रकारके असंयम और अव्यवस्थित जीवनमें ग्रस्त हो जाता है तो उसके लिये अपने शरीरको नियंत्रित करना और उसका सामान्य विकास साधना बिलकुल असंभव हों जाता है । यदि तुम इसका ख्याल नहीं रखते तो, स्वभावत: ही, तुम अपने स्वास्थ्यको चौपट कर लेते हो जिसके फलस्वरूप शारीरिक पूर्णताके आदर्शका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग नष्ट हो जाता है, क्योंकि बिगडे और टूटेफृटे स्वास्थ्यसे तुम किसी कामके नहीं रहते । और निश्चय ही ये इच्छाओं और प्राणिक तरंगोंके तुष्टि या किन्हीं महत्वाकांक्षाओंकी अनुचित माँगें ही हैं जिनकी बजहसे शरीर दुःख भोगता और बीमार पड़ता है ।
स्वभावत: जो लोग जीवनके अति प्रारम्भिक नियमोंतकको भी नहीं जानते, उनका अज्ञान भी तो है; पर वह -- क्यों, सब जानते हैं कि मनुष्यको जीवित रहना सीखना चाहिये; उदाहरणार्थ, सब जानते है कि आग जलाती है और पानी डुबो सकता है! ये सब बातें लोगोंको बतानेकी जरूरत नहीं होती, ज्यों ही वे कुछ बड़े होते है, इन चीजोंको तेजीसे सीख लेते है । परन्तु इस बातको कि केवल स्वस्थ बने रहनेके लिये ही जीवनपर बुद्धिका नियंत्रण बहुत जरूरी है, निम्न श्रेणीके मनुष्य सदा स्वीकार नही करते, उन्हें तो जीवनमें आनंद तभी मिलता है जब वे आवेगोंमें जीते हैं ।
मुझे एक आदमीकी याद है जो बहुत पहले यहां आया था । वह यहां- से फ्रेंच संसदके चुनावके लिये खड़ा होना चाहता था । उसे मुझसे मिलाया गया क्योंकि लोग उसके बारेमें मेरी राय जानना चाहते थे । उसने मुझसे आश्रम और यहांके जीवनके बारेमें प्रश्न किये और यह पूछा कि मेरी दृष्टिमें जीवनके लिये अनिवार्य अनुशासन क्या है । वह आदमी सारे दिन सिगरेट मुंहसे लगाये रखता और जरूरतसे ज्यादा शराब पीता था । और स्वभावत: उसे यह शिकायत थी कि वह बहुत ज्यादा थक जाता और कभी- कभी तो अपने-आपपर काबू न रख पाता था । मैंने उससे कहा : ''देखो, सबसे पहले तुम्हें सिगरेट छोड़ देनी चाहिये और फिर शराब भी छोड़ देनी चाहिये ।', उसे विश्वास ही नहीं हुआ, हक्का-बक्का होकर उसने मेरी ओर देखा और कहा : ''लेकिन, अगर न तो सिगरेट पीनी है और न शराब
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ही तो फिर जीनेका अर्थ ही क्या है? '' तब मैंने उससे कहा, ''यदि तुम अभी उस अवस्थामें हों तो किसी और चीजके बारेमें बातचीतका कुछ फायदा नहीं ।''
यह बात हम जितना समझते हैं उससे कहीं अधिक व्यापक हे । यह हमें वाहियात लगती है क्योंकि हमारे पास, निश्चय हो, सिगरेट फूंकने और शराब पीनेसे बढ़कर मजेदार काम है, लेकिन साधारण मनुष्योंके लिये इच्छाओंकी पूर्ति ही जीवनका एकमात्र हेतु है । उन्हें लगता है कि इस तरह वे अपनी स्वाधीनता और जीवनके हेतुको पुष्ट करते हैं । तथापि यह केवल जीवनका पथ-पुष्ट होना या विकृत होना है, जो जीवनकी मूल वृत्तिका निषेध और भौतिक जीवनमें मन और प्राणिक तरंगका एक विकृत हस्तक्षेप है । यह एक विकृत तरंग है जो सामल्यत पशुओंमें नहीं पायी जाती । पशुओंका सहज-बोध मनुष्यके सहज-बोधसे कहीं अधिक युक्तिसंगत होता है 1 इसके अलावा, मनुष्यके अंदर यह सहज-बोध अब रह भी नहीं गया है, इसका स्थान एक अति विकृत तरंगने ले लिया है ।
विकृति एक मानव रोग है, पशुओंमें यह बहुत ही विरल पाया जाता है, और वह भी केवल उन्हीं पशुओंमें जो मनुष्यके ज्यादा नजदीक हैं और इसी कारण उसकी छ्तमें आ गये है ।
इस विषयमें एक कहानी है । उत्तरी अफ्रीकामें -- अल्जीरियामें - कुछ अफसरोंने एक बंदर पाल रखा था । बंदर उन्हींके साथ रहता था । एक शामको भोजन करते समय उन्हें एक भद्दा विचार आया, उन्होंनें बंदर- के सामने शराब पेश की । बंदर पहले तो सबको पीते देखा, फिर उसे लगा यह तो कुछ मजेदार चीज है, उसने एक गिलास पी लिया -- शराब- का एक पूरा गिलास । इसके बाद उसकी तबीयत खराब हुई, वेहद खराब । दर्दके मारे बेचारा मेजके नीचे लुढ़कता, छटपटाता रहा, सचमुच वह बहुत ही कष्ट पा रहा था । अर्यात् भौतिक प्रकृतिपर, जो पहलेसे भ्रष्ट न हुई हो, अलकोहलका सहज प्रभाव क्या होता है यह उसने अपने उदाहरणसे दिखा दिया । वह इस विष-प्रयोगसे मरते-मरते बचा । रवैर, वह नीरोग हो गया । कुछ समय बाद उसे फिर ब्यालूके लिये आने दिया गया, क्योंकि अब वह ठीक था । किसी अफसरने फिरसे उसके सामने शराबका गिलास रख दिया । भयंकर गुस्सेमें उसने गिलास उठाया और देनेवालेके सिरपर दे मारा... इस तरहु उसने दिखा दिया कि वह मनुष्योंसे ज्यादा बुद्धिमान है!
छोटी अवस्थामें ही यह शुरू करना और जान लेना अच्छा है कि यदि सार्थक जीवन जीना है और शरीर अधिक-से-अधिक जितना देने योग्य है
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वह पूरा-पूरा प्राप्त करना है तो बुद्धिको ही गृह-स्वामी बनाना अनिवार्य है । और यह योग करने या किसी उच्च उपलब्धिकी बात नहीं है बल्कि एक ऐसी चीज है जो सब जगह सिखायी जानी चाहिये, सब विद्यालयोंमें 'सब परिवारोंमें, सब घरोंमें । मनुष्यकी रचना हुई ही इसलिये है कई वह एक मानसिक प्राणी बने, तो केवल मनुष्य होनेके लिये (हम किसी और चीजके लिये नहीं कह रहे, केवल मनुष्य होनेकी बात कर रहे हैं) जीवन- पर बुद्धिका शासन होना चाहिये, प्राणिक तरंगोंका नहीं । यह चीज सब बच्चोंको बिलकुल छुटपनसे ही सिखायी जानी चाहिये । यदि कोई व्यक्ति बुद्धिद्वारा शासित नहीं है तो वह उजड्ड गंवार है, सामान्य पशुसे भी गायाबीता; क्योंकि पशुओंमें मन या बुद्धि भले न हो जो उनका संचालन करे पर वे अपने जातिगत सहजबोधका अनुसरण करते हैं । उनमें एक ऐसा जातिगत सहज बोध होता है जो बहुत अधिक संतुलित होता है और जो उनकी क्रियाओंको उनकी हितकी दृष्टिसे यवस्थित करता है । और आप- से-आप, बिना जानें ही वे इस जातिगत सहज-बोधके अधीन रहते है जो उस जीव-जातिकी, प्रत्येक जीव-जातिकी दृष्टिसे पूरी तरह युक्तिसंगत होता है पर वे पशु जो किसी-न-किसी कारणसे इससे बाहर आ जाते है -- मैं अभी कुछ देर पहले उन पशुओंकी बात कर रही थी जो मनुष्यके नजदीक रहते है और अपने जातिगत सहज-बोधकी अपेक्षा मनुष्यकी बात मानने लगते है -- वे बिगड़ जाते है और अपने जातीय गुणोंको खो बैठते है । यदि पशुको उसकी अपनी स्वाभाविक अवस्थाओंमें रहने दिया जाय और वह मनुष्यके प्रभावसे मुक्त हो तो वह अपनी दृष्टिसे बहुत अधिक समझदार जीव होता है क्योंकि वह केवल उन्हीं चीजोंको करता है जो उसकी प्रकृतिके और उसके हितके अनुरूप होती है । अवश्य ही, वह अमंगलकारी दुर्घटनाओंसे क६ट पाता है, क्योंकि दूसरी जातियोंके साथ उसका सतत संघर्ष चलता है, परंतु अपने-आपमें वह असंयम नहीं करता । मुर्खताओंका और विकृतिका प्रारंभ होता है सचेतन मनसे और मनुष्यजातिसे । यह मनुष्यका अपनी मानसिक क्षमताका दुरुपयोग है । विकृति मानव जातिसे ही शुरू होती है । यह प्रकृतिके उस विकासका जो मानसिक चेतनाके रूपमें प्रकट है, अपरूप है । डसलिये ज्यों ही मनुष्य विचार करने योग्य हो जाय उसे सबसे पहले यही मिखना चाहिये कि वह बुद्धिकी आशा माने जो कि मनुष्यजातिका एक अति-बोध ( Super- Instinct) है । बुद्धि ही मानव-प्रकृतिकी स्वामी है । व्यक्तिको बुद्धिकी ही आज्ञा माननी चाहिये और निम्न सहज प्रवृत्तियों- का दास बननेसे पूरी तरह इंकार कर देना चाहिये । मैं' यहां योगकी या आध्यात्मिक जीवनकी बात नहीं कर रही, उस सबकी बात बिलकुल
नहीं, उससे इसका कुछ संबंध नहीं । यह तो, बस, मानव जीवनका प्राथमिक ज्ञान है, यह विशुद्ध रूपसे मानवीय है : जो भी मनुष्य बुद्धिको छोड़- कर किसी औरकी बात मानता है वह एक प्रकारसे निम्न श्रेणीका पशु है, सामान्य पशुसे भी निचले दर्जेका । लो, समझ गये । और यह बात सर्वत्र सिखायी जानी चाहिये । यह प्रारंभिक शिक्षा है जो बच्चोंको दी ज चाहिये ।
बुद्धिके राज्यका अंत केवल तभी होना चाहिये जब चैत्यका विधान आ जाय जो भागवत संकल्पको प्रस्थापित करता है ।
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