The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
९ जनवरी, १९५७
''भगवान् प्रकृतिकी ओर झुकना नहीं छोड़ सकते, न ही मनुष्य देवत्वकी अभीप्सा करनेसे रुक सकता है । यह तो सांत और अनंतका सनातन संबंध है । जब ३ एक-दूसरेसे विमुख होते हुए प्रतीत होते है तो उनका यह पीछे हटना और भी अधिक प्रगाढ़' मिलनके लिये होता है ।
मानवमें आकर जगत्की प्रकृति फिरसे आत्म-चेतन हो उठती है ताकि वह अपने दिव्य भोक्ताकी ओर लंबी छलांग लगा सके । इस दिव्य भोक्ताको ही उसने अनजाने अपने अधिकारमें कर रखा है, इसीको प्राण और इंद्रिय-संवेदन अपने अधिकारमें करते हुए भी अस्वीकार करते है और अस्वीकार करते हुए भी बढ़ते हे । यह जगत्-प्रकृति भगवान्को इसी कारण नहीं जानती कि वह अपने-आपको नहीं जानती । अपने-आपको जान लेनेपर बह सत्ताके विशुद्ध आनंदको भी जान जायगी ।
एकत्वमें सर्वकी उपलब्धि, विलय नहीं, यही रहस्य है । भगवान् और मानव, विश्व और विश्वातीत जब एक-दूसरेको जान लेते हे तो एक हो जाते है । उनका विभेद ही अज्ञानका मूल है जिस तरह कि अज्ञान दुःखका मूल है ।',
(विचार ओर झांकियां)
श्रीअरविन्द जैसे कि यहां कहते है, विश्वकी यथार्थ वस्तु वह शैव जिसे मनुष्य
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भगवान् या दिव्यता कहते हैं, किन्तु असलमें वह वस्तु पर 'आनन्द । इस विश्वकी उत्पत्ति आनन्दमें और आनन्दके लिये हुई । किन्तु यह आनन्द सृष्टिका साथ स्रष्टाके पूर्ण एकत्वमें ही रह सकता है । और श्रीअरविन्द इस एकत्वका अधिकर्ताके रूपमे वर्णन करते है, अन्गत्, खापुटा-अधिकर्ता अपनी सृष्टिद्वारा अधिकृत होता है । यह एक प्रकारका पारस्परिक अधि- कार है जो एकताका सच्चा सारतत्व है और सारे आनन्दका स्रोत हू ।
ओर इस विभेदके कारण ही, अर्थात् क्योंकि अधिकर्ताका अधिकृतपर अधिकार नहीं रह गया, न ही अधिकृतका अधिकर्तापर कोई अधिकार रहा, इसीलिये विभेद उत्पन्न हुआ और मूल आनन्द अज्ञानमें बदल गया ।यह अज्ञान (अविद्या) ही सब कष्टका मूल कारण है । यहा 'अज्ञानका भाव वह नहीं है जो साधारागतया समझा जाता है, उसे श्रीअरविन्दने 'अचिन् नाम दिया है । यह अचित् अज्ञानका परिणाम है । यथार्थ अज्ञान ऐसा एकत्वके, मिलनेके, तादात्म्यके सम्बन्धमें अज्ञान । और यही सारे कष्टका कारण है ।
अज्ञानका शासन तमिसे शुरू हों गया जबसे विभेद आरंभ हुआ, दृष्टिके साथ स्रष्टाका सम्बन्ध टूट गया । अज्ञानका राज्य हुक और ये सारे दुःख-कष्ट उसीका परिणाम है ।
जिन लोगोंने आन्तरिक प्रयोग किये हे उन्हें इस बातका अनुभव हैं कि दिव्य स्रोतके लाटा पुन. सम्बन्ध स्थापित हाते ही सब कष्ट विम्हीन हीं जाते. हूं । किन्तु एक बडा आन्दोलन रहा है जिसके सम्बन्धमे मौसे तुम्हें पिछले सप्ताह कहा था । यह आन्दोलन इस मूल दिव्य आनन्दको नही बल्कि कामनाको सृष्टिके स्रोतके रूपमे स्थापित करता हैं । सर्जनके, आत्म-आवि- र्भावके, आत्म-अभिव्यक्तिके इस आनन्दको जिज्ञासुओं और साधु-सन्तोकी एक पूरी-की-पूरी परंपराने आनन्द नहीं बल्कि कामना माना है, बौद्द वर्म- का सारा झुकाव इसी प्रकारका है । और हमारे भीतर आविभवि और संभूतिकैं आनन्दको पुनः प्रतिष्ठित करनेवाली एकतामें समाधानके रूपमे देखनेके बदले वें मानते है कि हमारा लक्ष्य और साधन दोनों अस्तित्वमे आनेकी सारी कामनाका पूर्ण निवेष और शून्यमें लौट जाना ही है ।
यह धारणा एक मूलगत गलतफहमी जैसी है । आत्म-स्वातंत्र्य लिये बिन पद्धतियोंका सुझाव दिया गया है वे विकासकी पद्धतियां है ओर बहुत उपयोगी भी हो सकती है, परन्तु तत्वतः यह बुरे संसारकी धारणा -- क्योंकि यह कामनाका परिणाम है - और इनमें मनुष्यको किसी भी किमतपर यग्गमभव जल्दी-से-जल्दी बचना चाहिये, इसी धारणाने मानवताके इतिहासमें संपूर्ण आध्यात्मिक जीवनको अत्यधिक महान् ओर गंभीर विकृत रूप दिया है ।
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यह धारणा शायद किसी विशेष कालमें उपयोगी हो सकती थी, क्योंकि जगतके इतिहासमें सभी चीजे उपयोगी है, किन्तु यह उपयोगिता अब समाप्त ह?ए गयी है, जीर्ण हों गयी है, और अव समय आ गया है कि हम इस धारणा- का अतिक्रमण करके अधिक मूलगत और उच्चतर सत्यकी ओर लोटे, सत्ताके 'आनन्द', मिलनेके 'हर्ष' और भगवान्के आविर्भावकी ओर मुड़े ।
इस नवीन - मेरा मतलब पार्थिव साक्षात्कारकी दृष्टिसे नवीन -- निर्धारणको ही पहले सब आध्यात्मिक निर्धारणोंका स्थान लेना होगा और आगे आनेवाले नये अतिमानसिक साक्षात्कारके लिये मार्ग खोलना होगा । इसी कारण पिछले सप्ताह मैंने तुमसे कहा था कि इस पृथ्वीपर केवल आनन्द, सच्चा भागवत आनन्द ही 'विजय' ला सकत है ।
स्वभावतः, मनुष्यको आनन्दके नामसे चकरा नहीं जाना चाहिये, और इसीलिये प्रारंभसे ही श्रीअरविन्द हमें यह कहकर सावधान कर देते है कि सब भागोंसे परे होनेपर ही मनुप्य परमानन्दमें प्रवेश कर सकता है । निश्चय ही परमानंद अवस्था यथार्थ रूपमें वह अवस्था है जो इस दिव्य आनन्दके आविर्भावमेसे प्रकट होती है । किन्तु यह उस सबसे एक- दम भिन्न वस्तु है जिसे हम साधारणतया आमोद-प्रमोद और भोग-विलास कहते है और उसे पानेके लिये हमें इन्हें पूरी तरहसे त्याग देना होगा । (एक बालकसे) तुम्हें कोई प्रश्न पूछना है?
कुछ पूछना है, पर हमने अभी उसे पढा नहीं है)
क्या है वह?
वह ईश्वर और प्रकृतिके संबंधमें है ।
अच्छा तो ??इ
ईश्वर और प्रकृति एक-दूसरेकी झलक पा लेनेके भाव परे क्यों भागते है?'
'''ईश्वर और प्रकृति: बालक ओर वालिकाकी तरह खेलने है और प्यार करते है । वे एक-दूसरेकी झलक पानेपर छिपते और भागते है जिससे एक-दूसरेको खोज सकें, पीछा कर सकें और अधिकारमें ले सकें ।
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खेलनेके लिये । श्रीअरविन्द ऐसा ही कहते है. ''वे खेल रहे है ।' ' वे खेलनेके लिये ऐसा करते है ।
(एक तरुण शिष्य) माताजी, क्या प्रकृति यह जानती है कि यह खेल है? भगवान् तो यह ज्नानते हैं कि यह खेल है । किंतु क्या प्रकृति भी यह जानती है?
मेरा विश्वास है कि प्रकृति भी इस बातको जानती हैं, केवल मनुप्य ही नहीं जानता ।
( दूसरा बालक) मधुर मां, प्रकृति अपनेको कहां छिपा सकती
वह कहां छीप सकती है? मेरे बच्चे, वह निश्चेतनामें छिपती है । यह निश्चेतना ही छिपनेका सबसे बड़ा स्थान है । इसके सिवाय, भगवान् भी निश्चेतनामें छिपते है ।
शायद व्यक्ति जब उसे खेल मानकर प्रसन्नतापूर्वक खेलता है तो यह मनोरंजक लगता है । किन्तु जब वह नहीं जानता कि यह एक खेल है तो यह मनोरंजक नहीं होता । तुम समझे या नहीं? जब वह दूसरी तरफ, अर्थात्, भगवान्की ओर पहुंच जाता है तभी इस प्रकार देख सकता है; अर्यात्, जबतक वह अज्ञानमें निवास करता है तो अवश्य ही उस वस्तु- से कष्ट पाता है जो वस्तुत: हमारे लिये रुचिकर और प्रीतिदायक होनी चाहिये । म्उलत: इसका निष्कर्ष यह हैं : जब मनुष्य किसी कार्यको ज्ञान और विवेक-विचारके साथ करता है तो वह उसके लिये बड़ा मजेदार हो जाता है और बड़ा रुचिकर हों सकता है । किन्तु जब यह कार्य ऐसा हो जाता है जो विचारपूर्वक न किया गया हों और जिसे तुम समझते भी नहीं, ऐसी कोई चीज बन जाता है जो तुमपर लादी गयी है और जिसे तुम किसी तरह झेल रहे हो तो यह तुम्हें प्रीतिकर नहीं लगता । इसका समाधान वही हैं जो हमेशा दिया गया है कि तुमुल इस कर्मको विचार- विवेकपूर्वक सीखना, समझना और करना चाहिये । किन्तु यदि मैं अपनी सच्ची भावना कहूं नो मुने लगता है कि रवेलको विदल देना ही अधिक अच्छा होगा... इस स्थितिमें निवास करते हुए व्यक्ति- मुस्करा और समक्ष सकता है और इससे उनका विनोद भी हो सकता है किन्तु जब वह उन लोगोंको देरवता है और उनके विषयमें सचेतन होता है जिन्हें यह समझ
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पाना कठिन लगता है वे खेल रहे है, जो खेलको बहुत गंभीरतासे लेते हैं, बल्कि इसे कगफी बुरा मानते है, तो.. मालूम नहीं, व्यक्ति उसे बदलना ही पसन्द करेगा । यह विशुद्ध रूपसे एक व्यक्तिगत अभिप्राय है ।
में' यह खूब अच्छी तरह जानती हू : जैसे ही व्यक्ति दूसरी ओर पहुंचता है उसके साथ ही... जब निराश और दुःखी होनेके स्थानपर व्यक्ति उच्च भावमें रहकर केवल निरीक्षण ही नहीं बल्कि स्वयं कार्य भी करता है, तो यह परिवर्तन इतना पूर्ण होता दे_ कि' उसके लिये फिर उस स्थितिको याद करना भी कठिन हो जाता है जब कि वह इस निश्चेतनामें, इस अज्ञान- के सारे भारको अपनी पीठपर ढोते हुए जी रहा था; वह क्यों और कैसे जाने बिना ही, और यह जाने बिना कि वह कहां जा रहा है और ऐसी स्थिति क्यों है, सब कुछ 'सह रहा है । वह इन बीती बातोंको भूल जाता है । और तब वह कह सकता है ''यह एक सनातन खेल है जो सनातन उद्यानमें चल रहा है ।'' परन्तु इस खेलको रुचिकर बनानेके लिये प्रत्येक व्यक्तिको नियमोंको जानकर ही खेल खेलना चाहिये, जबतक व्यक्ति रवेलके नियम नहीं जानता तबतक यह उसे प्रीतिकर नहीं लगता । इसी- लिये समाधानके रूपमें यह कहा जाता है : ''लेकिन तुम रवेलके नियम सीखो ।''... यह सबके बूतेकी बात नहीं ।
मेरे ऊपर, वस्तुतः, यह प्रभाव, बड़ा प्रबल प्रभाव पड़ा है कि कोई शरारती विदूषक है जिसने आकर रवेलको बिगड़ दिया और इसे एक नाटकीय वस्तु बना दिया है, और यह शरारती विदूषक ही स्पष्टतया विभेदका और उस अज्ञानका कारण है जो विभेदका परिणाम है और उस कष्टका भी जो उस अज्ञानका परिणाम है । मूलतः, सब आध्यात्मिक परंपराओंके बावजूद, यह मानना मुश्किल है कि इस विभेद, अज्ञान और कष्टकी स्थितिका ज्ञान सृष्टिके प्रारंभसे ही हो गया था । हरेक चीजके बावजूद, यह सोचना कठिन है कि इस अवस्थाको पहले ही जाना जा सकता था । मैं वस्तुत: इस बातपर विश्वास करनेसे इनकार करती हूं । मैं इसे एक संयोग कहती हूं एक काफी भयंकर दुर्घटना कहती हू, किन्तु, तमी, तुम समझ गये न कि यह कम-से-कम मानव चेतनाके अनुपातमें भयंकर है वैश्व चेतनाके अनुपातमें यह केवल एक ऐसी घटना है जिसे सुधारा जा सकता है । और आखिर सुधारनेके बाद व्यक्ति यह कहकर इसे फिर याद भी कर सकेगा. ''अहा इस घटनाने हमें एक ऐसी वस्तु प्रदान की है जो अन्यथा हमें न प्राप्त होती ।'' परन्तु हमें पहने इसके सुधरनेकी प्रतीश्रा करनी होगी ।
जो भी हो, मुझे नहो मालूम ऐसी लोग है या नहि जो कहते है कि इस बातको पहले जान लिया गया था और ऐसा ही संकल्प किया गयाn
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था, परन्तु मैं तुमसे कहती हूं कि यह पहलेसे ज्ञात न था, न ऐसा संकल्प ही किया गया था, और इसी कारण जव यह दुर्घटना बिलकुल अप्रत्याशित रूपसे हुई तो तुरन्त ही म्ल स्रोतमेसे एक अन्य वस्तु कूदकर बाह्रा अ! गयी जो संभवतः प्रकट न होती यदि यह द्दुर्घटना न हुई होनी । यदि. दिव्य आनन्द दिव्य बना रहता और उसी रूपमे धारण किया जाता और प्रत्येक वस्तु विभेदके स्थानपर दिव्य आनन्द और एकताके रूपमे घटती, तो भाग- वत चेतनाको निश्चेतनामें दिव्य प्रेमके श्त्रपमें कभी कूद कोई आवश्यकता न होती । नो, मानव जब इस चीजको बहुत दूसरे और बहुत ऊंचाईपर रहकर देखता है, तो कहता है : ''आखिर, शायद कोई चीज इसमेंसे बाहर आयी है_ ।'' लेकिन मनुष्यको उसे बहुत देरसे और बहुत उच्चावस्थामें रहकर देखना चाहिये ताकि वह ऐसा कह सकें । बल्कि, जब वह बहुत पीछे छूट जाती है, जब मनुप्य इस अवस्थासे परे चला जाता है, दिव्य एकता और आनंदमें प्रवेश फर केत है, जब विभेद, निश्चेतना ओर कष्ट विलीन हुए जाते है, तब वह बहुत समझदारीके साथ कह सकता है : ''ओह, हां, मुझे वह अनुसूची प्राप्त हो गयी है जो अन्यथा कमी न प्राप्त होती ।'' किंतु अनुमतिको पीछे छूट जाना चाहिये, हमें बची अनुभूतिमें नहीं रहना चाहिये । क्योंकि, उसके लिये भी जो - इस बातको मैं जानती हूं -- उसके लिये भी जो इस अवस्थासे बाह्रा निकल आया है, जो 'एकत्व' की चेतनामें निवास करता है, जिसके लिये अज्ञान एक बाह्य वस्तु बन गया है, अब निकटकी -मोर कष्टदायक कोई वस्तु नहीं रहा, उस व्यक्तिके लिये -मीत उन सब लोगोंके कड्योंको, जो अभी उस अनुभवसे बाहर नहीं निकटम है, उदामीन मुस्कराहटके सार्थ देखना असंभव है । मुझे तो यह बात असंभव लगती है । अतः जगत् वस्तुओंका और बीमारीकी उग्रताका विलीन हो जाना सचमुच आवश्यक है, ताकि यह कहा जा सकें : ''ओह! हा, इसमे हमें फायदा हुआ खै । '' यह सच है, हमें कोई वस्तु प्राप्त हुई है किंतु यह सौदा हमें' बना महंगा पड़ा है ।
इसीलिये, मेरा विश्वास है कि इसी कारण, इतने सारे अध्याएममै दीशित और साधु-संत शून्यके, निर्वाणके समाधानकी ओर आकुर हुए है, क्योंकि स्पष्ट ही, अज्ञानमय आविभविके परिणामोंसे बचनेका यही तुक बहुत प्रारंभिक तरीका है ।
केवल, इस आविर्भावको सच्ची यथार्थतामें, सच्ची दिन अभिव्यक्तिमेसे बदल देनेवाला समाधान ही एक बहुत अधिक महान समाधान है । ओर अब इसीके लिये हम कोशिश करना चाहते है, इस निश्चयके सत्य कि
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प्रत्येक वस्तुके बावजूद, चाहे कोई भी चीज सामने आ?g, किसी-न-किसी दिन जरूर सफल होंगे, जो सत्य है वह सनातन रूपसे सत्य रहेगा और जो मूलगत पथ्य हु उसे साक्षात्कारमें एक-न-एक दिन अवश्य ही सत्य होना होगा । श्रीअरविदने हमें कहा है कि हमने इस मार्गपर पहला कदम उठा लिया है और यह भी कहा है कि उपलब्धिका क्षण निकट ही हे खै, इसीको हमें बन, निकल पड़ना चाहिये । बस, इतना ही ।
तो यह प्रश्न तुमहो किया है इr (उस बच्चेंसे जिसने आंख-मिचौनीवाले खेलके भविष्यमें पूछा था) क्या तुम- यही जानना चाहते थे?
वास्तवमें तुम जो पुछना चाहिये थे वह था : ' 'यह मूर्त्ति रूप क्यों है? ''
हां
हम इस बातको उलटा कर सकते थे । विश्व ऐसा है अर्थात्, भगवान् -वाक् मनुप्य ऐसे है, ऐसे प्रतीत होते है, यह कहनेके स्थानपर हमें यह कहना चाहिये कि भगवान् और मनुष्यमें जो मूलगत संबंध है, वर्तमान कहना चाहिये यह शायद उसकी बाह्य और बनावटी अभिव्यक्ति है । वस्तुत: यह वात इम कथनके जैनी होगी कि मनुप्य जब खेलता है तो अपनी गंभीजाकी स्थितिकी अपेशा कही अहइवक उच्चावस्थामें होता है! (हंसी) पोइक्:न गैना फहना हमेशा प्रच्छद नही होता ' शान्त, वैज्ञानिकके पांण्डित्य और लऐतकी कठोर तपस्याकी अपेदरा बच्चोंकी सहज कडिमें अधिक दिव्यता है । मैंने हमेशा यही समझा है । केवल, (मुस्कराते हुए) यह अप: ऐसी दिव्यता है जो अपने क्रियामें बिलकुल सचेतन नर्हो है ।
जहांतक मरी बात खै, मुझे तुम्हारे सामने स्वीकार करना चाहिये कि जब मैं बहुत 'ग मीर ;और चिंतनशील अवस्थाने होती हू उसकी अपेक्षा जब मैं- -- अपने ढंगसे -- अतादमे होती हू और खेलती हू तो मुझे कमाता खैनी: मैं अपने मूल स्वरूपके अड़! इहग्क निकट हू । गंभीर और चिंतनशील होनेपर मुझे हमेशा लगता है कि में इस सारी सृष्टिका बोझ ढो रही कष्ट जो बहुत अधिक मारी और प्रधेरी है जब कि खेलते समय, अर्थात् जब मैं ग्त्रेलती हू, हंस हू, आनंद कर सकतीं हू, तथ- मुझे ऐसा रुप कि त्रारंदकी दरमा रज ऊपरसे बरस रही है औ' इस दृष्टिको, इस जगत्को एक विशेष प्रकारकी आभासे रंग रही है, उसे उसेके मल डःपके अत्रिक निकट ला रही है ।
माताजी, आप कब गंभीर होती है और क्यों?
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ओह! तो तुमने मुझे कमी गंभीर देखा है, नहीं? शायद जब औ एक सीढ़ी नीचे आ जाती हू, मालूम नहीं -- जब कोई डूब रहा हिना है या कठिनाईमें 'होता है तो मनुष्यको उससे बाहर खींच लानेके लिए किनारेसे उतरकर पानिमें आना पड़ता है । शायद यही कल थ है । जव दृष्टीपर कोई विशेष विपत्ति आ पड़ती है तो व्यक्ति थोड़ा नींवें उतरकर खींचता है और इसीलिये वह गंभीर हो जाता है । किंतु जव सब ठीक चर रहा हो तो व्यक्ति हंस सकता है, अनंद कर सकता है ।
असलमें तो यह कहा जा सकता है कि एक प्रतिपादन, सारे उपदेश, यहांतक कि सब प्रार्यनाएं एवं आवाहन भी, उस जगहसे त्वसे है जिसे श्रीअरविद निम्नगोलार्द्ध कहते है, इसका ढाई यह है कि व्यक्नि अभी निम्न भूमिकापर ही है । यह स्थान निम्न गोलार्द्धका शिखर हो सकता है, सीमाप्रांत हों सकता है या केवल कोई किनारा, किंतु व्यक्ति तब भी होता निम्न गोलार्द्धमें ही है । और दूसरी और पहुंवते ही व्यतिको यह सब बिलकुल व्यर्थ और प्रायः बचकाना -- तुरै अ पथमें, -- अजानपूर्ण, बहुत ही अज्ञानपूर्ण प्रतीत होता है । इस स्थितिमें रहना मी बड़ा मनोरंजक होता है जब व्यक्ति कभी एक उमर आता है और कभी दूसरी तरफके किनारे पहुंच जाता हैं । तो, दूसरी ओरका राह किनारा, मानव चेतनाके लिये प्रायः अगम्य शिखर टोह, और जो व्यक्ति इम गोलार्द्ध- मे सचेतन रूपसे और स्वतंत्रतापूर्वक रह सकता है उसके : बावजूद, यह नीचे उतरना ही है ।
मैं बादमें यहां तुम्हारे साथ 'दिव्य जीवन' के पीतम अध्याय पुहना चाहेंगी । मैं समझती हू कि तुम काफी बड़े और काफी वयस्क हों गोते हों, इतने कि इसे समझ सको । और उसके बाद बहुत प्रकारकी बानोंको तुम समझ सकोगे और इस मूल पाठपर आधारित, ऐसे वहुत-से विपयोको हम हाथमें ले सकेंगे जिनसे हमें उपलठिंधकी दिशामें एक गंभीर कदम उठानेमें सहायता मिलेगी । श्रीअरविद इन दो अवस्थाओंके बीचके भेदका बहुटी निश्चित और अद्भुत ढंगसे वर्णन करते है कि किस प्रपत्र मानवकों यह पूर्णताकी, बहरहाल साक्षात्कारकी लगभग सर्वोच्च स्थिति प्रतीत होता है, किस प्रकार वह सब उाब मी निम्न गोलार्द्वसे भवन रखता है, इसमे दैव- ताओके उन सब 'संर्त्रगेंका समावेश है जैसे मानवने' रहे जाना तै और अब भी जानते है -- किस प्रकाय ये सब चीज़ें अव मी बहुत निम्न भूमिकाकी है -- और उयक्ति जब और ऊंवाईपर उठता है नो वह कौन- सी सच्ची अवस्था है, जिसका उन्होंके अतिमानसिक अवस्थाके रूपमें वर्णन किया है ।
और नव नो यह है कि जबतक मनु सचेतन रूपसे ऊपर नहीं जाता नवतक यह वस्तुओंके एक पूरे-के-पूरे जगत्को नहीं समझ सकता ।
नो नव, मैं चाहूँगा, की हम मार्गका उद्घाटन करें और सब साय मिल कर थोडी' परेकी ओर आगे बढे ।
ठीक तो!
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