The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
९ जुलाई, १९५८
''धर्मने यह दावा किया कि वह सत्यका निर्णय दैवी प्रमाण, अंत:- प्रेरणा, ऊपरसे आये हुए परम पवित्र और अचूक प्रभुत्वके आधारपर करता है । इस दावेके कारण उसने अपने-आपको निषेधके प्रति खोल दिया है । उसने अपने-आपको मानव विचार, भावना, आचार-व्यवहारपर विना किसी ननुनचके, बिना किसी बाद-विवाद या प्रश्नके लादना चाहा है । यह दावा अतिशय और अपक्व है यद्यपि एक तरहसे उन अंत:- प्रेरणाओं और प्रदीप्तियोंके आदेशात्मक और निर्बोध स्वभावके द्वारा धार्मिक भावनाओंपर आरोपित किया गया है जो उसे प्रमाणित करती हैं और उसे उचित ठहराती हैं और मनके अज्ञान, संदेह, दुर्बलता, अनिश्चितताके बीच अंतरात्मासे आती हुई गुह्य ज्योति और शक्तिके रूपमें श्रद्धाकी आवश्यकताके द्वारा आरोपित की गयी हैं । मनुष्यके लिये श्रद्धा अनिवार्य है, उसके बिना वह अपनी 'अज्ञात'की ओर यात्रा न कर सकेगा । लेकिन उसे आरोपित नहीं करना चाहिये । उसे आंतरिक आत्मासे मुक्त प्रत्यक्ष दर्शन या अलंध्य आदेशके रूपमें आना चाहिये । निर्विवाद स्वीकृतिके लिये उसका दावा. तभी उचित माना जा सकता है जब मनुष्यकी प्रगति आध्यात्मिक प्रयास- के परिणामस्वरूप उस उच्चतम ऋतचित्तक पहुंच जाय जो पूर्ण और समग्र है, सब प्रकारके मानसिक और प्राणिक मिश्रणोंसे मुक्त है । हमारे सामने यही चरम उद्देश्य है लेकिन अभीतक यह उपलब्ध नहीं हुआ है । और समयसे पहलेके दावेने मनुष्यकी धार्मिक सहज-वृत्तिके सच्चे कार्यको धुंधला कर दिया है । इस सहज-वृत्तिका सच्चा काम है आदमीको 'दिव्य सद्वस्तु'की ओर ले जाना । अभीतक उसने इस दिशामें जो कुछ पाया है उसे संगठित करना और हर आदमीको आध्यात्मिक साधनाका एक ऐसा ढांचा देना, 'दिव्य सत्य'को खोजने, स्पर्श करने और उसके नजदीक जानेका एक ऐसा मार्ग बतलाना जो उसकी प्रकृतिकी शक्यताओंके लिये उपयुक्त हो ।',
('लाइफ डिवाइन', पृ ८६३-६४)
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मधुर मां, क्या व्यक्तिगत प्रयाससे श्रद्धा बढ़ायी जा सकती है?
श्रद्धा निश्चित रूपसे हमें भागवत कृपाद्वारा दिया गया उपहार है । यह सनातन सत्यकी ओर सहसा खुलते हुए द्वारकी तरह है जिसमेंसे हम उसे देख सकते हैं, लगभग छू सकते हैं ।
मानवीय आरोहणमें अन्य सब चीजोंकी तरह इसमें भी व्यक्तिगत प्रयासकी जरूरत पड़ती है (विशेषकर प्रारंभमें) । यह संभव है कि किन्हीं अपवाद- रूप परिस्थितियोंमें, किन्हीं ऐसे कारणोंसे जो हमारी बुद्धिकी पकडूमें बच निकलते है, श्रद्धा संयोगकी तरह, अप्रत्याशित रूपसे आये, चाहे इसके लिये अभ्यर्थना भी न की गयी हो, परंतु अकसर यह किसी कामनाका, आवश्यकता- का, अभीप्साका, सत्तामें किसी ऐसी चीजका प्रत्युत्तर होती है जो ढूंढता है और चाहती है, चाहे वह अनवरत और क्रमबद्ध रूपमें भले न हों । लेकिन, चाहे जैसे मी आयी हो, जब श्रद्धाका उपहार मिल चुका हों, जब यह आकस्मिक, आंतरिक प्रकाश हो चुका हो तब इसे सक्रिय चेतनामें निरंतर बनाये रखनेके लिये व्यक्तिगत प्रयास नितांत अपरिहार्य है । व्यक्तिको अपनी श्रद्धाको पकड़े रहना चाहिये, इसके लिये संकल्प करना चाहिये, इसके पीछे लगा रहना चाहिये, इसे बढ़ाना चाहिये, इसे सुरक्षित रखना चाहिये । मानव मनको संदेह, तर्क और संशय करनेकी एक बड़ी विकृत और शोचनीय आदत है । बस इसी जगह जरूरत पड़ती है मानव प्रयासकी : इन्हें माननेसे इन्कार करना, इनकी बात सुननेसे इन्कार करना और इससे बढ़कर इनका अनुसरण करनेसे इन्कार करना । संदेह और अविश्वासके साथ मानसिक रूपसे खेलनेसे बढ़कर खतरनाक कोई और खेल नहीं है । वे केवल शत्रु ही नहीं, भयंकर जाल हैं, एक बार कोई इनमें फंस जाय ते। उसके लिये अपने-आपको बाहर निकालना अत्यंत दुष्कर हो जाता है ।
कुछ ऐसे लोग हैं जो विचारोंके साथ खेलनेको, उनपर बहस करनेको, अपनी श्रद्धाका प्रतिवाद करनेको एक बड़ी मानसिक सुरुचि समझते है, वे सोचते है कि यह तुम्हें बहुत ऊंची मनोवृत्ति देती है, और इस तरह तुम ''अंधविश्वासों'' ओर ''अज्ञान''से ऊपर उठ जाते हों; लेकिन संदेह और अविश्वासके इन सुझावोंको सुननेसे ही तुम घोरतम अज्ञानमें जा गिरते हो ओर सीधे रास्तेसे भटक जाते हो । तुम उलझन, भूल और प्रतिवादोकी भूल- भुलैयामें जा घुसते हो... । यह सदा निश्चित नहीं होता कि तुम इसमेंसे बाहर निकल मी सकोगे । तुम आंतरिक सत्यसे इतनी दूर चले जाते हो कि वह तुम्हारी दृष्टिसे ओझल हो जाता है और कभी-कभी तो अपनी आत्माके साथ सभी संभव संपर्क गंवा बैठते हो ।
निश्चय ही अपनी श्रद्धाको बनाये रखनेके लिये, इसे अपने अंदर बढ़ने देनेके लिये व्यक्तिगत प्रयास आवश्यक है । बादमें - बहुत बादमें - एक दिन, जब हम अतीतकी ओर नजर डालेंगे तो देखेंगे कि जो कुछ हुआ है, यहांतक कि जो हमें सबसे ज्यादा खराब लगा था बह भी, हमें पथपर बढ़ानेके लिये 'भागवत कृपा' थी; और तब हमें भान होता है कि व्यक्तिगत प्रयास भी कृपा ही थी । परंतु वहां पहुंचनेसे पहले बहुत दूरतक चलना पड़ता है, बहुत संघर्ष करना पड़ता है, और कभी-कमी तो बहुत सहना भी पड़ता है ।
तामसिक निष्क्रियतामें बैठे रहना और कहते रहना : ''यदि मुझे श्रद्धा मिलनी है तो मिलेगी ही, भगवान् मुझे देंगे,'' यह आलस्य और अचेतनाकी वृत्ति है, लगभग दुर्भावना है ।
आंतरिक ज्वालाको प्रज्वलित रखनेके लिये उसमें ईंधन देना होगा; आग- पर नजर रखनी होगी, उसमें अपनी सब गलतियोंका, जिनसे तुम छुटकारा पाना चाहते हो, जो कुछ तुम्हारी प्रगतिको धीमा करता है, जो कुछ तुम्हारे पथको अंधियारा बनाता है, उस सबको समिधा बनाकर आहुति देनी होगी । यदि तुम आगमें ईंधन नहीं डालते तो यह तुम्हारी अचेतनता और तमस्की राखमें दबी हुई सुलगती है, और तब तुम्हें अपने लक्ष्यतक पहुंचनेके लिये कुछ साल ही नहीं, अनेक जन्म और शताब्दियां लग जायेगी ।
तुम्हें अपनी श्रद्धाकी उसी तरह निगरानी करनी चाहिये जैसे कोई किसी अत्यधिक मूल्यवान् वस्तुके कदमके समय करता है और इसका उन सब चीजोंसे सावधानीके साथ बचाव करना चाहिये जो इसे हानि पहुंचा सकती '' ।
प्रारंभके अज्ञान और अंधकारमें श्रद्धा ही 'भागवत शक्ति'को सबसे सीधा आविर्भाव है जो युद्ध करने और विजय प्राप्त करनेके लिये आती है ।
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