The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
१० जुलाई, १९५७
''यह भी संभव है कि विकासका प्रबेग यह रूप ले कि स्वयं अंगोंका ही परिवर्तन हो जाय, उनकी क्रिया एवं उपयोगमें परिवर्तन आ जाय ओर उनके उपकरणत्वकी, बल्कि उनके अस्तित्वकी भी आवश्यकता बहुत कुछ कम हो जाय । सूक्ष्म शरीरके केंद्र ही -- व्यक्ति सूक्ष्म शरीरसे सचेतन हो जायगा और उसके अंदर जो कुछ होता है उसे जान जायेगा -- अपनी शक्तियोंको स्थूल स्नायु, चक्रों और तंतुओंमें उंडेल देंगे और ३ शक्तियां फिर सारे स्थूल शरीरमेंसे विकीर्ण होंगी । इस प्रकार इस नये जीवनमें सारा भौतिक जीवन और उसके आवश्यक क्रिया-कलाप इन उच्चतर अभिकरणोंद्वारा अधिक स्वच्छंद और प्रचुर रूपमें तथा कम बोझिल और कम सीमाकारी पद्धतिसे चलते रहेंगे और संपादित होते रहेंगे । और यह क्रिया इतनी दूरतक जा सकती ह कि ये अंग अनिवार्य ही न रह जायं, बल्कि हो सकता है कि ये अत्यंत बाधक प्रतीत होने लगें : केंद्रीय शक्ति इनका व्यवहार कम-से-कम करती जा सकती और अंतमें उनके व्यवहारको पूरी तरह हटा सकती है । यदि ऐसा हुआ तो वे अंग पोषणके अभावमें क्षीण हो सकते है और नगण्य अवस्थाको प्राप्त हो सकते हैं या लुप्त हो सकते हैं । केंद्रीय शक्ति उनके स्थानपर बिलकुल भिन्न गुणधर्मवाले सूक्ष्म अंगोंको ला सकती है, और यदि किसी स्थूल वस्तुकी आवश्यकता हो तो ऐसे उपकरणोंको ले आ सकती है जो क्रिया-शक्तिके रूप था नमनीय वाहन हों,
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हो सकता ह ३ ऐसे अंग न हों जिन्हें हम जानते है । यह ( परिवर्तन) शरीरके परमोच्च संपूर्ण रूपांतरका एक भाग हो सकता है, यद्यपि यह भी अंतिम नहीं होगा । ऐसे परिवर्तनों- की कल्पनाके लिये हमें बहुत आगेकी ओर देखना होगा और जो मन वस्तुओंके वर्तमान रूपसे आसक्त है वह उनकी संभावनापर विश्वास करनेमें असमर्थ हो सकता है । पर किसी आवश्यक परिवर्तनको लानेके विषयमें कोई ऐसी सीमा या असंभावना विकासके प्रवेगपर नहीं लादी जा सकतीं... । जिस चीजका अतिक्रमण करना है, जिस चीजका अब कोई उपयोग नहीं रह गया है या जो हासको प्राप्त हों गयी है, जो सहायक नहीं रही, या जो बाधक बन गयी है, उसे छंटा एवं रास्तेमें छोड़ा जा सकता है । शरीरके विकासके, उसके शुरूके प्रारंभिक रूपसे लेकर अत्युन्नत रूप, मानव रूपतक हुए विकासके इतिहासमें यह बात स्पष्ट रही है, तो कोई कारण नहीं कि यही प्रक्यिा मानवसे दिव्य शरीरकी ओर संक्रमणमें क्यों न दखल करे । क्योंकि पृथ्वीपर दिव्य शरीरके आविर्भाव या निर्माणके लिये एक प्रारंभिक रूपांतर अवश्य होना चाहिये, एक नया, महत्तर एवं अधिक उन्नत रूप अवश्य प्रकट होना चाहिये, न कि छोटे-मोटे सुधारोंके साथ वर्तमान भौतिक रूप और उसकी सीमित संभावनाओंको ही चलते जाना चाहिये । ''
( अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
एक नये जीवनकी, नये संसारकी स्वच्छन्द कल्पना कर सकनेके लिये सत्ताकी पुरानी आदतोंसे मुक्ति पानेमें सफल होना होगा जो काफी कठिन है । स्वभावतः, मुक्तिका प्रारंभ चेतनाके उच्चतम स्तरोंसे होता है : मनके लिये यह अधिक आसान है कि वह नयी चीजोंकी कल्पना कर लें अपेक्षा प्राण- के कि वह, उदाहरणार्थ, चीजोंको नये रूपमें महसूस करे और शरीरके लिये तो यह और भी कठिन है कि इसका विशुद्ध भौतिक बोध प्राप्त कर सके कि नया जगत् कैसा होगा । फिर भी यह बोध भौतिक रूपांतरसे पहले होना जरूरी है : पहले व्यक्तिको पुरानी चीजोंकी अस्वाभाविकता, और यदि ऐसा कह सकूं तो, उनमें वास्तविकताका अभाव अत्यन्त यथार्थ रूपमें महसूस होना चाहिये । उसे ऐसे महसूस होना चाहिये, बल्कि ऐसे ठोस छाप होनी चाहिये कि वे जीर्ण-शीर्ण, भूतकालकी वस्तुएं है और जिनके बने रहनेका कोई हेतु नहीं रह गया है । भूतकालकी वस्तुएं, जो ऐति-
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हासिक बन चुकी हैं (जौ उस दृष्टिसे अपना महत्व रखती है और वर्तमान और -भविष्यके आगे बढ़ाती है) 1 उनकी पुरानी छाप एक ऐसी गति है जो पुराने जगतसे संबंध रखती है : यह पुराना जगत् है जो अनावृत हो रहा है जिसका अपना भूत, वर्तमान और भविष्य है । पर जहांतक नये जगत्की सृरि:टकी वात है हम कह सकते है कि वहां केवल अवस्थांतर चल रहा है, देरवनेमें ऐसा लगता है -- ऐसी छाप डालता है कि दो चीजों हैं जो एक-दूसरेमें मिली हुई है, पर जो लगभग अलग-अलग है; ' भूतकालकी चीजोंमें, मलें न्यूनाधिक परिवर्तन कर दिये जायें, नयी चीजोंके साथ बने रहनेकी शक्ति-सामर्थ्य नहीं रह गयी है । वह, वह नया जगत् हठात् एक बिलकुल नया ही अनुभव है । इससे मिलते-जुलते कालको जाननेके लिये हमें गिछेके उस समयमें जाना चाहिये जब पशुसे मानव सृष्टिमें संक्रमण हुआ था, पर उस समय चेतना इतने पर्याप्त रूपमें मानसिक नहीं हुई थी कि वह निरीक्षण कर सकती, समझ सकती और बुद्धिपूर्वक अनुभव कर सकती -- मक्र बिलकुल अविज्ञात रूपमें बनाना पड़ा होगा । इसलिये जिस चीजके बारेमें मैं कह रही हू वह पार्थिव सृष्टिमें बिलकुल नयी है, अपूर्व है, ऐसी चीज है जिसका कोई पूर्व-दृष्टांत नही, सचमुच यह एक ऐसा बोध या संवेदन या छाप है... जो बिलकुल निराला और नया है । (थोडी चुप्पीके बाद) एक स्थानान्तरण; एक ऐसी वस्तुसे जो अनावश्यक रूपसे बनी हुई है और जिसके पास, बस, बहुत गौण-सी अस्तित्व-शक्ति शेष है एक ऐसी वस्तुकी ओर जो बिलकुल नयी है, पर जो इतनी छोटी है, इतनी अलक्ष्य है, कह सकते है, अभी प्रायः दुर्बल ही है; उसके पास अभी अपना प्रभाव डालने, अपने स्वत्वको स्थापित करने, अपनी प्रभुता जमानेकी इतनी शक्ति नही है कि वह दूसरेका स्थान ले सकें । इस कारण दोनों साथ-साथ बनी हुई है, पर, जैसा कि मैंने कहा है, एक दूसरेको स्थानांतरित करती हुई, अर्थात्, दोनोंके बीच संबंध गुम है ।
इसका वर्णन करना कठिन है, परंतु यह बात मैं तुमसे इसलिये कह रही हू क्योंकि यही चीज थी जिसे मैंने कल शाम महसूस किया। था । मुझे यह इतनी तीव्रतासे महसूस हुई... कि उसने मुझे कुछ चीजों दिखलायी और एक बार जब मैं उन्हें देख चुकी तो मुझे लगा कि इनके बारेमें तुमसे कहना मजेदार रहेगा ।
( मौन)
यह विचित्र बात है कि इतनी नयी, इतनी विशेष क्षौर मैं कह सकती
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हू कि इतनी अप्रत्याशित चीज सिनेमा' दिखाये जाते समय घटी । जो लोग यह मानते है कि कुछ चीजों महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं, कुछ क्रिया- कलाप योगमें सहायक हैं दूसरे नहीं, हां, उनके लिये यह एक और अवसर है जो उन्हें, झुठलाता है । मैंने सदा यह पाया है कि अप्रत्याशित चीजों ही सबसे रोचक अनुभव प्रदान करती हैं ।
कल शाम एकाएक कुछ ऐसी चीज हुई जिसका मैंने अभी, जितनी अच्छी तरह मुझसे हों सका, वर्णन किया है (मुझे मालूम नहीं कि मैं तुम्हें अपनी बात समझनेमें सफल हुई या नही), पर यह चीज सचमुच बिलकुल नयी और एकदम अप्रत्याशित थी । हमें गंगा-किनारे स्थित एक मंदिरमें मूर्तिका चित्र दिखाया गया था, जो काफी भद्दा-सा था (क्योंकि मैं समझती हू कि यह मूर्तिका फोटो रहा होगा, मैं इस बारेमें कोई ठीक जानकारी नही प्राप्त कर सकी), जब मैं उस चित्रको देख रही थी, जो देखनेमें बहुत साधारण- सा आर जैसा मैंने कहा काफी भद्दा था, तो मैंने उस वास्तविकताको मी देखा था जिसे वह निरूपित करनेका प्रयत्न कर रहा था और जो उसके पीछे था, और उसने मुझे उस समूचे जगत् के संपर्कमें ला दिया जो धर्मका, पूजा-उपासनाका, अभीप्साका और देवताओंके साथ मनुष्यके संबंधका जगत् था, - मैं पहले ही भूतकालकी क्रियाका प्रयोग कर रही हूं - जो मनुष्यका अपनेसे दिव्यतर किसी चीजको पानेके आध्यात्मिक प्रयासका पुष्प-रूप था, कुछ ऐसी चीज थी जो अपनेसे उच्चतर वस्तुकी ओर उसके प्रयत्नकी उच्चतम और लगभग शुद्धतम अभिव्यक्ति थी । और एकाएक बहुत यथार्थ ओर ठोस रूपमें मुझपर यह छाप पडी कि यह एक दूसरा ही जगत् है, ऐसा जगत् है जो अब वास्तविक और सजीव नहीं रहा, जो पुराना हों चुका है, अपनी वास्तविकता, अपना सत्य रहो चुका है, किसी ऐसी चीजने, जिसने अभी जन्म ग्रहण किया है, इसे अतिक्रांत कर दिया है, पीछे छोड़ दिया है । उसने अपने-आपको व्यक्त करना केवल शुरू ही किया है, पर उसका जीवन इतना प्रबल, इतना सत्य और इतना उदात्त है कि उसके आगे यह सब मिथ्या, अवास्तविक और निसार हों गया है ।
'यहां उल्लेख ''रानी रासमणि'' नामक बंगला फिल्मके बारेमें है जिसमें श्री रामकृष्ण परमहंसका जीवन अंशत: चित्रित किया गया है और रानी रासमणिका भी, जो एक धनी, अत्यन्त बुद्धिमती और धार्मिक प्रवृत्तिकी बंगाली विधवा थीं । उन्होंनें १८४७ मे दक्षिणेश्वर (बंगाल) मे कालीका मंदिर बनवाया था । वहीं श्री रामकृष्ण रहा करते थे और कालीकी पूजा किया करते थे ।
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तब मैंने सचमुच समझा -- क्योंकि मैंने सिरसे या बुद्धिसे नहीं, बल्कि शरीरसे समझा, तुम समझ रहे हों कि मेरा क्या मतलब है -- शरीरके कोषाणुओंमें इसे समझा -- कि एक नये जगत् ने जन्म ले लिया है औ र बढ़ना शुरू कर रहा है ।
जब मैंने यह सब देखा तो उससे मुझे एक चीजकी याद हों आयी जो .... मेरा ख्याल है कि मुझे ठीक याद है, सन् ११२६ ' मे हुई थीं ।
श्रीअरविन्दने बाह्य कार्यका दायित्व मुझे सौंप दिया था क्योंकि वे अति- मानसिक चेतनाकी अभिव्यक्तिमें शीघ्रता लानेके लिये एकाग्रतामें निमग्न हो जाना चाहते थे । कुछ लोगोंसे जो वहां थे उन्होंने कहा था कि वे 'उन्हें सहायता एवं पथ-प्रदर्शनके लिये मुझे सौंप रहे है, स्पष्ट ही मैं उनके संपर्कमें रहूंगी और वे मेरे द्वारा कार्य करेंगे । चीजों एकाएक और जल्दी हीं एक निश्चित रूप लेने लगीं; एक बहुत अद्भुत सृष्टि चरितार्थ की जा रही थी, असाधारण व्योरोंतक मे, अद्भुत अनुभव हो रहे थे, दिव्य सत्ताओंके साथ संपर्क प्राप्त होता था और सब प्रकारकी अभिव्यक्तिया हों रही थीं जिन्हें सामान्यत : चामत्कारिक समझा जाता है । अनुभव एक-पर-एक होने लगे थे, सचमुच चीज एं बिलकुल अद्भुत रूपमें औ र.... मुझे कहना चाहिये, अतीव रोचक रूपमें आत्मप्रकाश कर रही थीं ।
एक दिन, रोजानाकी तरह मैं श्रीअरविन्दको यह बताने गयी कि क्या हुआ है -- हम किसी ऐसी चीजतक पहुंच गये थे जो सचमुच बहुत ही दिलचस्प थी औ र शायद जो हुआ था उसे सुनानेमें मैंने जरा अत्युत्साह दिखाया था -- तो श्रीअरविन्दने मेरी ओर ताका... और कहा : ' 'हां, यह अधिमानसिक सृष्टि है । यह बहुत रोचक है औ र बहुत सुन्दरतासे संपादित की गयी है । तुम चमत्कारोंको संपन्न कर सकोगी और वे तुम्हें सारे संसारमें प्रसिद्ध कर देंगे, तुम पृथ्वीपर सब घटनाओंको उलट-पुलट सकोगी, निश्चित ही.. । '' और फिर वे मुस्कराये और बोले : '' यह बहुत बड़ी सफलता होगी । परंतु यह अधिमानसिक सृष्टि है । यह वह सफलता नहीं है जो हम चाहते है । एक नये जगत्की, अतिमानसिक जगत्की, उसकी समग्रतामें, सृष्टि कर सकनेके लिये तात्कालिक सफलताको कैसे छोड़ा जाता है यह जानना चाहिये । ''
अपनी आंतरिक चेतनामें मैं तुरत समझ गयी : कुछ घंटोंके बाद वह
'यह सन् १९२६ की बात है कि श्रीअरविन्द एकांतमें चले गये और आश्रमकी आधिकारिक रूपसे स्थापना हुई ।
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सृष्टि समाप्त हो गयी... । और त्बसे हमने फिरसे दूसरे आधारपर (कार्य) शुरू किया है ।
हां तो, मैंने तुम लोगोंके सामने यह घोषणा की थी कि नया संसार उत्पन्न हो चुका है । परंतु यह पुराने संसारके भंवर-जालमें इतना अधिक निमग्न था कि आजतक बहुतोंको भेदका कुछ खास पता नहीं लगता । फिर भी नयी शक्तियोंका कार्य अत्यन्त नियमित रूपसे, अत्यन्त धीर-स्थिर रूपमें, अत्यन्त दृढ रूपमें और एक हदतक अत्यन्त प्रभावशाली रूपमें -भल रहा है । मेरा कल शामका अनुभव -- सचमुच इतना नवीन अनुभव -- इस कार्यकी ही एक अभि-व्यक्ति था । इस सारेका परिणाम मैंने उतरोत्तर रूपमें प्राय. प्रतिदिनके अनुभवोंमें लक्ष्य किया है । इसे संक्षेपमें, बल्कि सीधेमें। रूपमें, इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता हैं
पहली बात तो यह कि यह आध्यात्मिक जीवन ओर दिव्य 'सहस्तु' का केवल एक 'नया विचार' मात्र नहीं' है । इस विचारकों श्रीअरविन्दने व्यक्त किया था और स्वयं मैंने भी इसे बहुत बार व्यक्त किया है, इसे कुछ-कुछ ऐसा रूप दिया जा सकता है : पुरानी आध्यात्मिकताका मतलब था जीवनसे भागकर दिव्य 'सद्वस्तु' मे चले जाना और संसारको वही और उसी रूपमें छोड़ देना जहां और जिस रूपमें यह था, जब कि, इसके विपरीत, हमारी नयी दृष्टिका स्वरूप है जीवनको दिव्य बनाना, भौतिक जगत्को दिव्य जगत्में. रूपांतरित करना । यह पहले कहा जा चुका है, वार-बार कहा जा चुका है, बल्कि थोड़ा-बहुत समझा भी जा चुका है, और निश्चय ही यही उस कार्यका आधारभूत विचार है जिसे हम करना चाहते है । परंतु यह ऐसे भी हो सकता था कि उन्नति और विस्तारके साथ पुराना जगत् ही बना रहता (और जबतक यह धारणा विचारके नेत्रमें मौजूद है, वस्तुत: यह उससे भिन्न चीज नही हो सकती), परंतु जो चीज हुई है, सच- मुचमें नयी चीज, वह यह है कि एक नया संसार जन्मा है, जन्मा है, जन्मा है । यह रूपांतरित होता हुआ पुराना संसार नहीं है, बत्कि यह एक नया संसार है जो जन्मा है । और हम ठीक उस कालमें है जो संक्रमणका काक है जहां दोनों एक-दूसरेमें गुंये है -- जहां दूसरा अभी सर्वशक्तिमान् बना हुआ है और साधारण चेतनाको पूरी तरह शासित करता है, पर जहां नया मी चुपके-से घुस आता है, बहुत नम बने रहकर और बिना पता लगे -- इसका पता इस हदतक नहीं लग पात। कि बाहरी रूपमें यह अभीतक अधिक उलट-फेर नहीं कर रहा और अधिकतर लोगोंकी जेतनाके प्रिय ही पूकदम अलक्ष्य है । ' फिर भी यह कार्यरत है और बढ़ रहा है -- समय आयेगा जब यह इतना प्रबल हों जायेगा कि दृश्य तौरपर भी अपनेको मनवा सकेगा।
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जो भी हो, चीजोंको सरल ढंगसे प्रस्तुत करनेके लिये यह कहा जा सकता है कि पुराना संसार, जिसे श्रीअरविदने अधिमानसिक सृष्टि कहा है, विशिर रूपमें, देवताओंका युग था और फलस्वरूप धर्मोंका युग था । और जैसा कि मैंने कहा, यह अपनेसे उच्चतर वस्तुके प्रति मानव प्रयासका पुरुष-रूप था, इसने अनेक धर्मोंको जन्म दिया जो कि सर्वश्रेष्ठ आत्माओं और अदृश्य जगत् के बीच एक धार्मिक संपर्क-रूप थे । इन सबसे ऊपर एक और मी अधिक ऊंची उपलब्धिको पानेके प्रयत्नस्वरूप धर्मकी एकता- के विचारने, सब अभिव्यक्त धर्मोंके पीछे स्थित इस 'अद्वितीय किसी वस्तु'के विचारने जन्म लिया; और यह विचार, कहा जा सकता है कि, सचमुच मानव अभीप्साकी पराकाष्ठा थीं । हां तो, यह है अग्रभाग, एक ऐसी चीज जो अभीतक पूरी तरह अधिमानसिक जगतसे, अधिमानसिक सृष्टिसे संबंध रखती है और वहांसे' इस ''दूसरी किसी चीज''को देखती प्रतीत होती है जो एक नयी सृष्टि है, पर इसे पकडू नहीं पाती -- इसतक पहुंचनेके प्रयत्न करती है, इसे आता हुआ अनुभव करती है, पर इसे समझ नहीं पाती । इसे समझनेके लिये (चेतनाका) विपर्यय जरूरी है । यह जरूरी है कि अधिमानसिक सृष्टिसे बाहर निकल आया जाय । नयी सृष्टि, अति- मानसिक मूउटिको आना था ।
और अब ये सब पुरानी चीजों इतनी पुरानी, इतनी अव्यवहार्य, इतनी अविहित प्रतीत होती है -- जैसे ये वास्तविक सत्यकी विडंबना हों ।
अतिमानसिक जगत्में धर्म नहीं रहेंगे । सारा जीवन ही जगत्में प्रकट होता हुई दिव्य 'एकता'की, रूपोंमें अभिव्यक्ति एवं प्रस्फुटन होगा । और जिन्हें लोग आज देवता कहते हैं वे भी नहीं रहेंगे ।
ये महान् दिव्य सत्ताएं स्वयं भी नयी सृष्टिमें भाग लें सकेंगी; पर इसके लिये उन्हें उस परिधानके साथ जिसे ''अतिमानसिक उपादान'' कहा जा सकता है पृथ्वीपर आना होगा । और यदि उनमेंसे कुछ अपने ही जगत्में, जैसे वे है वैसे ही, बने रहना पसंद करें, यदि वे यह निश्चय करें कि उन्हें भौतिक रूपमें अभिव्यक्त नही होना है तो उनका संबंध अतिमानसिक पृथ्वीके प्राणियोंके साथ मित्रताका, सहयोगिताका, और बराबरीका संबंध होगा, क्योंकि उच्चतम दिव्य तत्व नये अतिमानसिक जगतके प्राणियोंमें पृथ्वीपर प्रकट हो चुका होगा ।
जब भौतिक उपादान अतिमानसिक रूप ले लेगा तो पृथ्वीपर जन्म लेना हीनताका परिचायक नहीं रह जायेगा, इसके ठीक विपरीत, इससे उस परि- पूर्णता एवं प्राचुर्यको प्राप्त किया जा सकेगा जो किसी और तरह नहो पाया जा सकता ।
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परन्तु यह सब भविष्यकी बात है, उस भविष्यकी जो शुरू हो चुका है, पर इसे पूरी तरहसे चइग्रतार्थ होनेमें कुछ समय लगेगा । इस बीच, हम एक ऐसी विशेष, अतीव विशेष अवस्थामें स्थित है जैसी पहले कमी नहीं आयी । हम उस वेलामें उपस्थित है जब नया जगत् जन्म ले रहा है, पर जो बहुत छोटा है, दुर्बल है -- अपने सार-रूपमें नहीं बल्कि बाह्य अभिव्यक्तिमें -- जो अभी पहचाना नहीं गया, अनुभव नहीं किया गया, और बहुतोंने तो उसमें इंकार ही किया है । पर यह मौजूद है । मौजूद है और बढ़नेका प्रयत्न भी कर रहा है तथा परिणामके बारेमें सुनिश्चित है । ता भी इसतक पहुंचनेवाला पथ बिलकुल नया पथ है जिसपर अबतक कोई नहीं चला -- कोई नहीं गया, किसीने अभीतक ऐसा नहीं किया! यह आरंभ है, एक विश्वव्यापी आरंभ । इसलिये. यह एक बिल्कुल अप्रत्याशित और अकल्पित अभियान है ।
पु?छ लोगोंको अभियान प्रिय होते है । उन्हीं लोगोंका मैं आह्वान कर रही हू और उनसे यह कहती हू : ''मैं तुम्हें इस महान् अभियानके लिये निमंत्रित करती हू ।''
यह आध्यात्मिक रूपसे उन्हीं कार्र्योको, जिन्हें, दूसरे हमसे पहले कर चुके है, दुबारा करनेका प्रश्न नही है, क्योंकि हमारा अभियान उससे आगेसे शुरू होता है । यह नयी सृष्टिका, बिधकुल नयी सृष्टिका प्रश्न है जिसमें सब अनपेक्षित चीजों, संकट, खतरे एवं संयोग मौजूद है -- यह सच्चे रूपमें एक अभियान है । इसका लक्ष्य है सुनिश्चित विजय, पर उधर जानेंका मार्ग अज्ञात है, इसे बीहड़ प्रदेशमेसे पग-पगपर खोजना होगा । यह एक ऐसी बात है जो इस वर्तमान जगत्में इससे पहले कभी नहीं हुई और इसी रूपमें फिर कमी होगी मी नही । यदि तुम्हें इसमें रुचि हो... । हां तो, हम चल पड़े । कल तुम्हारे साय क्या होगा -- इस बाबत मैं कुछ नहीं जानती ।
उस सबको एक तरफ रख दो जो पहले देखा जा चुका है, सोचा जा चूका है, बनाया ज। चुका है शेर तब... अज्ञतामें चलना शुरु: करो । जो होना है, हुआ करे! अच्छा ।
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