CWM (Hin) Set of 17 volumes

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The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.

प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८)

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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Collected Works of The Mother (CWM) Questions and Answers (1957-1958) Vol. 9 433 pages 2004 Edition
English Translation
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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८) 430 pages 1977 Edition
Hindi Translation
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१३ अगस्त, १९५८ 

 

     मधुर मां, जुलाई १९५३ मे आपने हमसे कहा था कि पांच साल बाद मैं तुम्हें ''आध्यात्मिक जीवनके बारेमें पढ़ाऊंगी' । जो कुछ आपने कह। था, मां, मैं बह ले आया हू ।

 

अच्छा! यह तो मजेदार बात है ।

 

     (श्रीमां बच्चेद्वारा दिया गया मूल पड़ती है) क्या यह छप गया है?

 

 नहीं, मां ।

 

ओह, अंतिम वाक्य कितना सुन्दर है!

     (थोडी देर चुप रहनेके बाद) तो, तुम मुझसे क्या आशा करते हो (इ... शुरू करनेकी?

 

 ,'प्रश्न ओर उत्तर, १९५३, १ ०' जुलाई ।

 

३४१


    हां, मां ।

 

लेकिन मैंने तो पहले ही शुरू कर दिया है, है न? पांच साल बीतनेके पहले ही ।

 

   लगता है उस दिन, मैंने... ओह! मैंने यहां लिखा--मैंने जो लिखा... ।

 

       यह 'मातृबाणी'में लिखा हुआ है, मधुर मां ।'

 

उसमें मैंने संन्यास और आध्यात्मिक जीवनके बीच जो उलझन पैदा होती है उसके विषयमें लिखा है, और मैंने वचन दिया था कि एक दिन मै तुम्हें बताऊंगी कि लोग जिसे भगवान् कहते है और जिसे मैं भगवान् कहती हू, उनके बीच ३ क्या उलझन पैदा कर लेते हैं ।

 

    लेकिन इस विषयमें तो मैं तुम्हें कई बार बता चुकी हू, है न?

 

   मुझे अपना वचन याद नहीं था लेकिन याद रखे बिना हीं मैंने उसे निभाया है, और वह भी वह दिन आनेसे पहले ही!

 

   अब यदि तुम इस विषयपर ठीक-ठीक प्रश्न पूछो तो मैं देखूंगा कि मैं क्या बता सकती हू । आध्यात्मिक जीवनके बारेमें तुम क्या जानना चाहते हो?... क्या तुम्हारे पास कोई खास प्रश्न है?

 

 आपका मतलब है कि आप ध्यान शुरू करा चुकी हैं, मां?

 

हां!.. .और जो पड़ती हू उसकी व्याख्याएं देना भी शुरू कर चुकी हू । छोटी कक्षामें तो हमने आध्यात्मिक जीवन बितानेके लिये आवश्यक अनुशासनपर ध्यान करना शुरू भी कर दिया है । और जब मैंने 'धम्मपद' पढ़ना शुरू किया तो हमने बहुत-सी ऐसी चीज़ें पढ़ीं जो आध्यात्मिक जीवन- के ज्ञानकी ओर ले जाती है । किंतु यदि तुम्हें किसी खास विषयपर कोई सुनिश्चित प्रश्न पूछना हों तो पूछ सकते हो, मैं उत्तर दूंगी ।

 

    मधुर मां, यहां आश्रममें रहते हुए हमें जितना लाभ उठा सकना चाहिये हम उतना लाभ क्यों नहीं उठाते?

 

 आह! यह तो बहुत सीधी-सी बात है, इसलिये क्योंकि यह बहुत आसान

 

 ' 'मातृवाणी' १९२१ ।

 

३४२


है ।...... जब गुरुको ढूंढनेके लिये तुम्हें, सारी दुनियाका चक्कर लगाना पड़े, जब तुम्हें शिक्षाके पहले शब्दोंको पानेके लिये सब कुछ त्यागना पड़े, तब, वह शिक्षा, वह आध्यात्मिक सहायता उस चीजकी तरह बहुत अनमोल बन जाती है जो बड़ी कठिनाईसे मिलती है और तुम उसके अधिकारी बननेके लिये बहुत प्रयास करते हों ।

 

    तुममेंसे अधिकतर यहां तब आये जब ३ बहुत छोटे थे, ऐसी उमा थी जब आध्यात्मिक जीवनका या आध्यात्मिक शिक्षाका कोई प्रश्न ही नहीं उठता... वह बिलकुल असामयिक होता । तुम यहांके वातावरणमें रहे पर उसे जाने बिना, तुम मुझे देखनेके, मेरी बात सुननेके अम्यस्त हो, मैं तुम्हारे साथ ऐसे बात करती हू जैसे सभी बच्चोंके साथ की जाती है, मैं तुम्हारे साथ रवेलीतक हू, जैसे कोई बच्चोंके साथ खेलता है; तुम्हें बस यहां आना और बैठना होता है और तुम मुझे बोलते हुए सुनते हों, तुम्हें सिर्फ प्रश्न करना होता है और मैं' उतर दे देती हू । मैंने कमी किसी- को कोई बात बतानेसे इन्कार नहीं किया । यह इतना सरल है । बस इतना काफी है... जीना - सोना, खाना, व्यायाम करना और विद्यालयमें अध्ययन करना । तुम यहां वैसे ही रहते हों जैसे कहीं बाहर रहते । और इसीलिये, तुम इसके आदी हों गयें हो ।

 

    यदि मैंने कड़े नियम बनाये होते, यदि मैंने कहा होता : ''मैं तुम्हें तबतक कुछ नहीं बताऊंगी जबतक तुम उसे जाननेके लिये प्रयास नही करते,'' तो शायद तुम कुछ प्रयास करते, पर नहीं, यह मेरे विचारोंसे मेल नहीं खाता । कठोर शिक्षाकी अपेक्षा मैं वातावरणकी शक्ति  उदाहरणपर ज्यादा विश्वास करती हू । मैं विधिवत्, अनुशासित प्रयत्नकी अपेक्षा मूक संचार- द्वारा सत्तामें कुछ जगा देनेपर ज्यादा भरोसा करती हू ।

 

   शायद, अंतत:, कोई चीज तैयार हा रही है और एक दिन वह फूट निकलेगी ।

 

  मैं इसीकी आशा करती हू ।

 

   एक दिन तुम अपने-आप कहोगे : ''अरे! मैं इतने समयसे यहां हू मुझे कितना कुछ सीख लेना चाहिये था, उपलब्ध कर लेना चाहिये था, और मैंने कमी हसके बारेमें सोचातक नही । बस, ऐसे ही कभी-कभार! '' और तब, उस दिन... हां, उस दिन, जरा कल्पना करो, तुम सहस.।- एक ऐसी चीजके प्रति जाग्रत् हों उठोगे जिसकी ओर कभी तुम्हारा ध्यान ही नहीं गया; लेकिन जो तुम्हारे भीतर गहराईमें है, जिसमें सत्यके लिये प्यास है, रूपांतरके लिये प्यास है और जो इसे पानेके लिये अपेक्षित प्रयत्न करनेको तैयार है । उस दिन तुम बहुत तेज चलोगे, लंबे डगोंसे आगे बढ़ोगे... ।

 

३४३


शायद जैसा कि मैंने कहा था, आज पांच साल बाद, वह दिन आ पहुंचा है? मैंने कहा था : ''मैं तुम्हें पांच साल देती हू''.. । अब वे पांच साल बीत गयें हैं, अतः शायद वह दिन आ गया है । शायद, तुम अचानक एक अदमनीय आवश्यकता अनुभव करो कि अब निश्चेतन और अज्ञानमें नहीं जीना है, उस अवस्थामें नहीं रहना है जिसमें कारण जाने बिना तुम काम करते हो, कारण समझे बिना अनुभव करते हों, विरोधी इच्छाएं रखते हा, किसी चीजके बारेमें कुछ नहीं समझते, केवल आदत, दिनचर्या और प्रतिक्रिया वश जीते हों, बस जीवनको सहज रूपमें लेते हों । और एक दिन आता है जब तुम उससे संतुष्ट नही रहते ।

 

     तुम देखोगे कि यह हर एकके लिये अलग-अलग 'है । ज्यादातर यह जानने, समझनेकी आवश्यकता होती है ' कुछ लोगोंके लिये यह जो कुछ करना चाहिये और जैसे करना चाहिये उसे वैसा करनेकी आवश्यकता होती है; कुछ दूसरोंके लिये यह एक धुंधली-सी अनुभूति होती है कि इस इतने अचेतनता, व्यर्थ और निरर्थक जीवनके पीछे कुछ ऐसी चीज है जो जीनेके लायक हैं, जिसे पाना है -- एक सद्वस्तु है, इन मिथ्यात्वोंका और माया- जालोंके परे एक सत्य है ।

 

    सहसा तुम महसूस करते हो कि जो कुछ तुम कर रहे हो, जो कुछ देख रहे हो उसका कोई अर्थ नही, उसके अस्तित्वका कोई हेतु नहो, लेकिन कही कुछ ऐसा है जिसका अर्थ है कि मूलतः .हम यहां इस धरतीपर किसी काम- के लिये है, इस सबका, इन सब गतिविधियोंका, सब उद्वेगोंका, शक्ति और ऊर्जाके इस सारे अपव्ययका जरूर कोई प्रयोजन होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, और यह बेचैनी जो हम अपने अंदर अनुभव कर रहे हैं, यह असंतोष, यह आवश्यकता, किसी चायके लिये प्यास जरूर हमें कही लें जायेंगी ।

 

   और एक दिन तुम अपनेसे पूछते हो. ''पर हमारा जन्म क्यों दुआ?.. हम मर क्यों जाते है?... हम दुख क्यों भोगते है?... हम काम क्यों करते है?..... .''

 

    अब तुम एक छोटी-सी मशीनकी तरह नहीं रह जाते, मुश्किलसे अर्ध- चेतन । तुम सचमुच अनुभव करना, सचमुच काम करना, सचमुच जानना चाहते हो । तव, साधारण जीवनमें व्यक्ति पुस्तकें खोजता है, ऐसे लोगों- को ढूंढता है जो उससे थोड़ा ज्यादा जानते हों, किसीकी रवे  शुरू करता है जो इन प्रश्नोंका समाधान कर सकें, 'अज्ञान'का परदा उठा मकें । यहां, यह सब बहुत आसान है । तुम्हें केवल... वही करना होता है जो प्रतिदिन करते हों, लेकिन करना होता है किसी उद्देश्यसे ।

 

३४४


     तुम समाधिपर जाते हो, श्रीअरविन्दका चित्र देखते हो, मुझसे फूल लेने आने हो, पढ़ने बैठते हो, तुम बह सब करते हो जो प्रायः किया करते हो लेकिन... अपने अंदर एक प्रश्न लिये : क्यों?

 

     और तब, यदि तुम प्रश्न करो तो तुम्हें उत्तर मिल जाता है ।

 

     क्यों?

 

    क्योंकि अब हम वैसा जीवन नहीं चाहते जैसा वह है, क्योंकि हम अब मिथ्या और अज्ञानको नहीं चाहते, क्योंकि हम पीड़ा और अचेतनताको और नहीं चाहते, क्योंकि हम अव्यवस्था एवं दुर्भावनाको और नहीं चाहते, क्योंकि श्रीअरविन्द हमें यह बतानेके लिये आये हैं : 'सत्य'को पानेके लिये धरतीको छोड़नेकी जरूरत नहीं, अपनी 'अंतरात्मा 'को पानेके स्किये जीवनका त्याग आवश्यक नहीं, भगवानके साथ संबंध जोड़नेके लिये संसारका त्याग या सीमित मत रखना जरूरी नहीं है । भगवान् सब जगह हैं, हर वस्तुमें है और यदि वे छिपे हुए हैं तो इसलिये कि हम उन्हें ढूंढनेका कष्ट नहीं उठाते ।''

 

    मात्र एक सच्ची अभीप्साद्वारा हम अपने अंदरका मुहरबंद द्वार खोल सकते हैं और पा सकते हैं... वह 'कोई' चीज जो जीवनकी सारी सार्थ- कताको बदल देगी, हमारे सारे प्रश्नोंका उत्तर दे देगी, सारी समस्याओंको हल कर देगी और हमें उस पूर्णता और 'सद्वस्तु'तक ले जायेगी जिसके लिये हम अनजाने अभीप्सा करते हैं, केवल वही हमें संतुष्ट कर सकती है और स्थायी उत्फुल्लता, संतुलन, बल और जीवन थे सकती है ।

 

    यह सब तो तुम बहुत बार सुन चुके हों ।

 

   तुम सुन चुके हो -- आह! यहां कुछ ऐसे मी है जो इसके इतने आदी पटा चुके है कि यह उन्हें वैसा ही लगता है जैसे एक गिलास पानी पीना या धूपके लिये अपनी खिड़की खोलना ।

 

  पर चूकि मैंने तुम्हें, वचन दिया था कि पाच सालमें तुम इन चीजोंको जी सकोगे., इनका ठोस, सच्चा विश्वास दिलानेवाला अनुभव पाओगे तो, इसका मतलब है कि तुम्हें तैयार हों जाना चाहिये और यह कि हम शुरू करनेवाले हैं ।

 

  हमने थोड़ा-सा प्रयत्न किया है लेकिन अब गंभीरतासे करने जा रहे है! आरंभिक बिंदु : इच्छा करना, सचमुच चाहना, इसकी जरूरत महसूस करना । अगला चरण : केवल उसीके बारेमें सोचना । एक दिन आयेगा, बहुत जल्दी आयेगा, जब तुम किसी और चीजके बारेमें सोच ही न सकोगे । यही एक चीज है जिसका कुछ मूल्य है । और इसके बाद... ।

 

   तुम अपनी अभीप्साको शब्दबद्ध करते हो, अपने हदयसे सच्ची प्रार्थनाका

 

निर्झर फूटने देते हो जो तुम्हारी आवश्यकताकी सच्चाईको व्यक्त करती है । और तब... हां, तब, तुम देखोगे कि क्या होता है ।

 

    कुछ होगा । निश्चय ही कुछ होगा । हर एकके लिये. इसका रूप भिन्न होगा । बस । मुझे खुशी हुई कि तुमने मुझे यह दिया ।

 

३४५

 









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