The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
१३ नवंबर, १९५७
मेरे पास पहले पृष्ठके बारेमें एक प्रश्न है जहां श्रीअरविन्दने कहा है : ''एक आध्यात्मिक विकास ही, जडू-तत्वमें चेतनाका ऐसा विकास कि वह अपने रूपोंको इस प्रकार विकसित करती चले कि अंतमें रूप अंतरस्थ आत्माको अभिव्यक्त कर सके यही, तब पार्थिव जीवनका मुख्य स्वर, उसका केंद्रीय अर्थ-पूर्ण हेतु है ।''
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८२४)
तो, रूप या आकारकी दृष्टिसे, मनुष्य दूसरे पशुओंसे किस अर्थमें अधिक श्रेष्ठ है?
मैं मोचती हू इसे जानना काफी सरल है ।
श्रीअरविंद एक ऐसे रूपकी बात कहते हैं जो 'आत्मा' को अभिव्यक्त कर सकें । 'आत्मा' की अभिव्यक्तिका अपना स्वरूप ही है चेतना, ज्ञान और अंतमें प्रभुत्व । यह स्पष्ट ही है कि सौंदर्यके दृष्टिसे और विशुद्ध बाह्य भौतिक रूपकी दृष्टिसे कुछ पशुओंके रूप ऐसे मिल सकते है जो सुन्दर हों और मैं समझती हू शायद मनुष्य इस रूपसे... इस अवनतिकी अवस्था- मे जो रूप है उससे सुन्दर रूप मिल सकते है । ऐसे भी युग रहे' है जब मनुप्यजाति अधिक सुन्दर और अधिक सामंजस्यपूर्ण प्रतीत होती थी, पर जहांतक 'आत्मा' को अभिव्यक्त करनेके ढंगका प्रश्न है, मनुष्यकी श्रेष्ठताके बारेमें लेशमात्र भी सदेह नहीं । और कुछ नहीं तो केवल यह तथ्य ही कि वह सीधा खड़ा हों सकता है चीजोंको ऊपरसे देख सकनेकी क्षमताका प्रतीक है । सदा जमीनकी ओर नाक लगाये रहनेकी जगह वह जिसे देखता है उक्तता शासन करता है । स्पष्ट ही यह कहा जा सकता है कि पक्षी तो उड़ते है पर पैरवोंसे बंदरी आत्म-अभिव्यक्तिका साधन प्राप्त करना कठिन है!
यह सीखी, खड़ी स्थिति बड़ी प्रतीकात्मक है । यदि तुम चौपाये बन- कर चलनेकी कोशिश करो तो देखोगे कि उस स्थितिमें, जब कि आरव और नाक आवश्यक रूपसे जमीनकी ओर होते हैं, ऐसा नहीं लगता कि तुम चीजोंको दृष्टिके एक दूसरे स्तरसे या ऊपरसे देख रहे हो । मानव शरीर. की सारी रचना ही मानसिक जीवनको अभिव्यक्त करनेके लिये हुई है ।
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उदाहरणार्थ, मस्तिष्कका अनुपात मनुष्यके सिरकी रचना, भुजाओं और हाथोंकी रचना, यह सब, आत्माको अभिव्यक्त करनेकी दृष्टिसे निर्विवाद है, उनसे एकदम श्रेष्ठ है, और ऐसा प्रतीत होता है कि उसे पूरी तरह बुद्धिको अभियुक्त करनेकी दृष्टिसे कल्पित करके ही गढ़ा गया है ।
निश्चय ही, शक्ति, नमनीयता और स्फूर्तिकी दृष्टिसे मनुष्य पशुओंमें सबसे बढ़कर प्रतिभाशाली नही है, परंतु 'आत्मा'को अभिव्यक्त करनेमें कोई दूसरा प्राणी ऐसा नही जिससे उसकी तुलना की जा सकें । उसकी प्रत्येक चीज इसी दृष्टिसे बनायी गयी है । हम चाह सकते हैं कि इस संभावनाके साथ उन दूसरी चीजोंको भी जोड़ दें जो केवल मानसिक जीवनके लिये ही उत्सर्ग कर दी गयी प्रतीत होती हैं -- परंतु यह बात भी है कि ठीक इस मानसिक जीवनको अभिव्यक्त करनेकी क्षमताके कारण हीं मनुष्य अपने- मे उन सामथ्योंको विकसित कर सकता है जो उसमें अभी केवल सुप्त अवस्थामें ही विद्यमान है । मनुष्यके पास प्रशिक्षण-शक्ति है, उसके शरीर- को उन्नत एवं प्रशिक्षित किया जा सकता है । वह अपनी कुछ सामथ्योंको बढ़ा सकता है । तुम ऐसे किसी पशुकी कल्पना नही कर सकते, उनमेसे भी किसी पशुकी नहीं जिन्हें कि हम बहुत सराहते है, जो उदाहरणार्थ, शारीरिक शिक्षणके, विशुद्ध रूपसे शारीरिक शिक्षणके योग्य हों (मैं स्थल जाने और चीजोंको सीखनेकी बात नहीं कर रहीं हू, बल्कि विशुद्ध रूपसे शारीरिक शिक्षणकी, मांसपेशियोंको विधिपूर्वक समुन्नति करनेकी बात कह रहीं हू) । पशु जन्म लेता है और जो कुछ उसके पास है उससे लाभ उठाता है और अपनी प्रकृतिके नियमके अनुसार विकसित होता है किंतु वह अपने-आपको प्रशिक्षित नहीं करता या करता भी है तो बिलकुल प्रारंभिक अनगढ़ रूपमें और अत्यधिक सीमित क्षेत्रमें; जब कि मनुष्य एक सामान्य और योजनाबद्ध विकासके द्वारा अपने दोषोंको सुहगर सकता और अपनी संभावनाओंको पूरा कर सकता है । मनुष्य निश्चय ही एक सुव्यवस्थित तरीकेसे प्रगति करनेवाला पहला पशु है, क्योंकि वह अपनी योग्यताओं और अपनी संभावनाओंको बढ़ा सकता है, और अपनी क्षमताओंको विकसित कर उन वस्तुओंको पा सकता है जो सहज-स्वाभाविक रूपमें उसे प्राप्त नहीं है । परंतु ऐसा पशु एक भी नहीं जो यह कर सकें ।
हां, मनुष्यके प्रभावमें आकर बहुत-से पशुओंने उन क्रियाओंको करना सीख लिया है जिसे वे सहज-स्वाभाविक रूपमें नहीं कर सकते थे, पर फिर भी यह संभव हुआ है मनुष्यके प्रभावसे ही । निश्चय ही, यदि मनुष्य न होते तो कोई कुत्ता या घोड़ा उन क्रियाओंको कमी न सीख पाता जिन्हें वह मनुष्यके संपर्कमें आकर सीख जाता है । परिणामतः, यह स्पष्ट है कि
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मानव शरीर-रचना 'आत्मा'को अभिव्यक्त करनेके लिये सबसे उपयुक्त है । यह शरीर हमें अपर्याप्त प्रतीत हो सकता है, पर यह सिर्फ इस कारण है क्योंकि हम महसूस करते है कि हम अपने शरीरसे उससे अधिक प्राप्त कर सकते हैं जितना यह अपने-आप सहज-स्वाभाविक रूपमें, प्रशिक्षित करनेके संकल्पके बिना देता । और बुद्धिको, निरीक्षण, अवधारणा और निगमनको -- सभी मानसिक क्षमताएं है -- अभिव्यक्त करनेकी शक्यताके कारण ही मनुष्यने प्रकृतिके नियमोंको धीरे-धीरे समझना सीखा है और उसने न केवल उन्हें समझनेका, बल्कि उनपर वशित्व प्राप्त करनेका भी प्रयत्न किया है ।
यदि हम जो कुछ मनुष्य इस समय है उसकी तुलना 'सत्य'में निवास करनेवाले उस उच्चतर प्राणीसे करें जो हम बनना चाहते है तो स्पष्ट ही हम मनुष्यके बारेमें, जैसा कि वह अभी है, काफी निन्दा करते हुए बात कर सकते है ओर उसकी अपूर्णताओंको शिकायत कर सकते हैं ।यदि हम अपने-आपको उन पशुओंके स्थानपर रखें जो विकासमें ठीक उससे पहले आये है तो वह ऐसी संभावनाओं और शक्तियोंसे सज्जित है जिन्हें दूसरे अभिव्यक्त करनेमें एकदम असमर्थ है । यह तथ्य ही कि उसमें ऐसी महत्वाकांक्षा, इच्छा, संकल्प मौजूद है कि मैं प्रकृतिके नियमोंको जानु, उन- पर ऐसा वशित्व प्राप्त कर लू कि उन्हें, अपनी आवश्यकताओंके अनुरूप एक हदतक बदल ढालू, एक ऐसी चीज है जो किसी मी पशुके लिये असंभव है, अकल्पनीय है ।
तुम कह सकते हो कि मुझे मनुष्यके बारेमें इतने प्रशंसात्मक रूपमें कहने- की आदत नहीं है (हंसी), परन्तु यह इसलिये है कि उसकी अपने बारेमें अत्यधिक प्रशंसात्मक रूपमे सोचनेकी आदत है!
परंतु यदि हम उसकी तुलना प्रकृतिकी बनायी हुई दूसरी वस्तुओंसे करें तो नि:संदिग्ध रूपमें वह सीढीके शिखरपर है ।
परंतु, मां, तब प्रश्न उठता है : क्या चेतनाके अवतरणसे आकार- का विकास होता है या आकारका विकास ही उच्चतर चेतनाके अवतरणको आवश्यक बना देता है?
चेतनाके अवतरणके बिना कोई विश्व ही न होगा । वह, तुम्हारा विश्व, कहांसे ओर किसके द्वारा आरंभ होगा?
मनुष्यका उदाहरण लें तो, क्या पशु-मानव मनको नीचे लाया या मनके अवतरणसे ही...
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ओह! तुम्हारा मतलब है : क्या यह मध्यवर्ती प्राणी या उच्चतर वानरमें विद्यमान कोई चीज थी जिसने अपनी अभीप्साके द्वारा मनके आगमनको संभव बनाया? परन्तु स्वयं अभीप्सा पहलेके अवतरणका फल है ।
यह बहुत स्पष्ट है कि ऐसी कोई चीज उस वस्तुमेंसे अभिव्यक्त नही हों सकती जो उसमें शुरूसे विद्यमान न हो । तुम किसी चीजको शून्यमें- से नहीं प्रकटा सकते । तुम उसी चीजको जो पहलेसे है उमगने, प्रकट होने, खिलौने और वर्धित होनेमें सहायता कर सकते हों । लेकिन यदि कुछ न होता तो कभी कुछ बाहर न आता । समस्त प्रगति, समस्त पूर्णता ऐसी ''किसी चीज' के आन्तरिक प्रयत्नका फल है जो पहलेसे विद्यमान है और आत्म-अमिउयक्ति खोज रही है । कहनेका मतलब यह कि, पूरी तरह, यह मूलतत्व ही होता है जो पहले आता है, अभिव्यक्ति बादमें । जैसे-जैसे हम 'दिव्य जीवनको आगे आगे पढ़ते जायंगे, श्रीअरविदो इस चीज- को हमारे आगे सभी संभव उपायोंसे सिद्ध करेंगे । यदि वहां कोई सनातन 'तत्व' न होता, कोई 'परमसद्वस्तु' न होती (इसे हम जो चाहें नाम दे सकते हैं, दे सकते है न!), तो कोई विश्व न हुआ होता, क्योंकि कुछ नहीमेसे कभी कुछ चीज नहीं प्रकट हुआ करती ।
इस बातको हम पढ़ते समय देखेंगे, तब तुम दार्शनिक कसरत करनेको मजबूर होओगे । पर फिर मी, बिना दर्शन या मानसिक व्यायामके, यह स्पष्ट है कि कोई चीज बनानेके लिये तुम्हारे पास कोई चीज होनी चाहिये जिससे तुम उसे बना सको ।
मनुष्यके मानसिक विकासका एक पूरा युग ऐसा है या था जिसमें लोगों- ने बड़ी गंग्रीरतासे यह प्रमाणित करनेकी चेष्टा की कि 'जड-तत्व'के उत्कर्षने ही 'आत्मा'को जन्म दिया है । पर वह सिद्धान्त टिक नहीं सका (श्रीमां हंसती है) । तुम्हारी छोटी-से-छोटी चेष्टा, जो कुछ भी तुम करते हा वह सब, इस बातका स्पष्ट प्रमाण है कि पहले तुम सोचते हो और फिर उसे करते हों, छोटी-से-छोटी मात्रामें भी । जो जीवन चेतन संकल्पका परिणाम नहीं, वह एक सर्वथा असंबद्ध जीवन होगा । मेरा मतलब है कि यदि प्रकृति चेतन उद्देश्यसे युक्त एक चेतन शक्ति अरि चेतन संकल्प न होती तो कोई भी चीज रूप न लें पाती । यदि हम थोड़ा भी निरीक्षण करें, वैयक्तिक जीवनका जो बहुत छोटा-सा क्षेत्र हमें मिला है उसमें मी यदि हम देखें, तो हमें इसका पूरा-पूरा विश्वास हो जायगा ।
पर फिर मी... यह ठीक उन विषयोंमें सें एक है जिनपर श्रीअरविदने काफी विस्तारसे कहा है, अतः इसके बारेमें हम फिर बात करेंगे ।
(मौन)
यह कहा जा सकता है कि आगपर प्रभुत्व मनुष्यकी श्रेष्ठताका प्रतीकात्मक चिह्न है । जर्हा मनुष्य होता है, आग जलायी जाती है ।
दो चीजों ऐसी हैं जो पशुओंकी क्रियाओसे स्पष्ट रूपमें श्रेष्ठ हैं, एक तो लिखनेकी क्षमता, दूसरे सुस्पष्ट वाणीकी संभावना । ओर यह चीज स्पष्टतया इतनी श्रेष्ठ है कि सभी उन्नत पशु इस स्पष्टोच्चारित वाणीके प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, यह उन्हे मोह लेती है । यदि तुम किसी जंगली पशुसे बहुत स्पष्टताके साथ, ठीक आवाजमें और साफ-साफ बोलो तो बह तत्काल आकर्षित हो जाता है, सचमुच मुग्ध हो जाता है (मैं' उन पशुओंके बारेमें नहीं कह रही जो मनुष्यके पास रह चुके हैं, बन्कि ठीक उन पशुओंके बारेमें कह रही हू जो मनुष्यके संपर्कमें पहले कभी नही आये) । एकदम वें घ्यान देते हैं और अभिव्यक्त होती हुई श्रो:ठतर शक्तिको अनुभव करते हैं ।
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