CWM (Hin) Set of 17 volumes

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The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.

प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८)

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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Collected Works of The Mother (CWM) Questions and Answers (1957-1958) Vol. 9 433 pages 2004 Edition
English Translation
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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८) 430 pages 1977 Edition
Hindi Translation
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१७ अप्रैल, १९५७

 

''पूर्णता ही सभी प्रकारके शिक्षण और संवर्धनका, आध्यात्मिक, आंतरात्मिक, मानसिक, प्राणिक संस्कृतियोंका उद्देश्य है और यही शारीरिक शिक्षणका भी उद्देश्य होना चाहिये । यदि हमारा प्रयत्न सत्ताकी सर्वांगीण पूर्णताके लिये है तो उसके भौतिक भाग- को एक तरफ नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि शरीर ही भौतिक आधार है, शरीर वह साधन है जिसका हमें उपयोग करना ह । ''शरीरं खलु धर्मसाधनम्'', यह पुरानी संस्कृत उक्ति है -- शरीर ही धर्मकी चरितार्थताका साधन है और धर्मका मतलब है वह प्रत्येक आदर्श जिसे हम अपने सामने रखते हैं, उसे कार्यान्वित करनेका विधान और उसकी क्यिावली । सर्वांगीण पूर्णता ही वह अंतिम उद्देश्य है जिसे हमने अपने सामने रखा है, क्योंकि हमारा आदर्श है दिव्य जीवन, जिसका हम यहां निर्माण करना चाहते है । हम चाहते हैं आत्माका जीवन जो पृथ्वीपर चरितार्थ हो, ऐसा जीवन जो यहीं, पृथ्वीपर भौतिक जगत्की अवस्थाओंमें अपने आध्यात्मिक रूपांतरको साधित करे । यह तब- तक नहीं हो सकता जबतक शरीरका भी रूपांतर नहीं हो जाता, जबतक इसकी क्रियाएं और व्यापार उस उच्चतम योग्यता और पूर्णतातक नहीं पहुंच जाते जो इसके लिये संभव है या संभव बनाये जा सकते है ।

 

(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

 मां, शरीरके व्यापार किस तरह अपनी ''उच्चतम योग्यता''तक पहुंच सकते हैं?

 

 ठीक ''रूपांतर''के द्वारा । इसका अर्थ है सर्वांगीण रूपांतर । श्रीअरविन्दने इसके बारेमें बादमें आगे चलकर कहा है ।

 

        हमारा वर्तमान शरीर पशु-शरीरका ही एक उन्नत रूप है, पर इसमें भी संदेह है क्योंकि यदि हमने कुछ दृष्टियोंसे पाया है तो अन्य कुछ दृष्टियोंसे खोया भी है । यह तो स्पष्ट ही है कि विशुद्ध भौतिक योग्यताओंकी दृष्टि- सें कई पशु हमसे ऊंचे है । जबतक हम किसी विशेष प्रशिक्षण और रूपांतरद्वारा अपनी योग्यताओंको सचमुच बदलनेमें सफल नहीं हो जाते तबतक


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यह कहा जा सकता है कि बल और शारीरिक शक्तिकी दृष्टिसे एक बाघ या सिंह हमसे कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । फुर्तीलेपनमें बंदर हमसे बढ़ा हुआ है । और उदाहरणके तौरपर एक पक्षी बिना किसी बाह्य यंत्रकी सहायता- के, बिना किसी वायुयानके, हवामें विचरण कर सकता है जो अभीतक हमारे लिये संभव नहीं हुआ है...... आदि । और हम अपने अंगोंकी क्रियाओंमें पशु-सदृश आवश्यकताओंसे बंधे हुए है । जबतक हम, उदाहरणार्थ स्थूल भोजनपर, जडतत्वको इस स्थूल रूपमें अपने अंदर ग्रहण करनेपर निर्भर करेंगे, तबतक हम निम्न कोटिके पशु ही रहेंगे ।

 

      अतः, हम जो कुछ आगे पढ़ने वाले है मैं उसके बारेमें पहलेसे चर्चा नहीं करना चाहती, परंतु हमारे शरीरके ये निरे पशु-सदृश व्यापार, वह सारा भाग जो पूरी तरह पशु-जीवन-सदृश है -- हमारी रक्तत-संचारप निर्भरता और रक्तके लिये रवानेकी आवश्यकतापर निर्भरता आदि तथा वह सब भी जो इसके अंतर्गत है -- ये भयानक सीमाएं और बंधन है! यह स्पष्ट है कि जबतक भौतिक जीवन इनपर निर्भर है, हम अपने जीवनको दिव्य नहीं बना सकेंगे ।

 

      तो, हमें सोचना होगा कि मनुष्यकी पशुताका स्थान जीवनके किसी अन्य स्रोतको लें लेना चाहिये, और यह बिलकुल समझमें आनेवाली बात है -- न केवल समझमें आने योग्य है बल्कि अंशत: चरितार्थ भी की जा सकती है; और प्रत्यक्ष ही यही वह लक्ष्य है जिसे हमें, यदि हम जडतत्वको रूपांतरित करना ओर इसे दिव्य गुणोंको व्यक्त करनेके योग्य बनाना चाहते है तो, अपने सामने रखना चाहिये ।

 

        अति प्राचीन परंपरामें (वेद और कैल्डियन परंपराओंसे भी पुरानी एक परंपरा थी जो इन दोनोंका मूल रही होगी), उस प्राचीन परंपरामें एक ऐसे ''गौरवपूर्ण शरीरका'' जिक्र आता है जो इतना नमनीय होगा कि वह अंतरतम चेतनाद्वारा प्रतिक्षाग बदला जा सकेगा : वह शरीर उस चेतनाको अभिव्यक्त करेगा, उसमें आकारकी दृढ़ता नहीं होगी । यह एक आलोकमयताका प्रश्न था : उस शरीरका उपादानरूप जडूतत्व इच्छा करते ही आलोकमय हों सहेगा । उसमें एक ऐसे हलकेपनकी संभावनाकी भी चची है जो शरीरको इच्छाशक्तिके द्वारा, आंतरिक शक्तिको प्रयोगमें लानेकी किसी प्रणालीद्वारा हवामें विचरने योग्य बना देगा । इसी प्रकारकी अन्य बातें भी है । इन बातोंके बारेमें बहुत कुछ कहा गया है ।

 

         मैं नहीं जानती कि पृथ्वीपर कमी ऐसे व्यक्ति हुए हों जिन्होंने अंशत: यह स्थिति पा ली हो पर बहुत थोड़े-से' रूपमे किसी एक या दूसरी चीजकी आशिक उपलब्धिके कुछ दृष्टांत मिलते है जिनसे प्रमाणित होता है

 

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कि ऐसा संभव है । इस भावनाके आधारपर .आगे चलें तो हम कल्पना कर सकते है कि इन् वर्तमान भौतिक अंगों और उनकी क्रियाओंका स्थान ऐसे केंद्र लें लेंगे जहां बल और शक्ति केंद्रित होगी और जो उच्चतर शक्तिको ग्रहण कर सकेंगे, साथ ही जो एक प्रकारकी कीमियाद्वारा उन शक्तियोंको जीवन और शरीरकी आवश्यकताओंके लिये प्रयुक्त कर सकेंगे । शरीरमें विभिन्न ''केंद्रों'' की बात हम. करते ही है--योगाम्यास करनेवालोंके लिये यह सुपरिचित ज्ञान. है -- परंतु इन केंद्रोंको इस हदतक पूर्ण बनाया जा सकता है कि ये जडतत्वपर उच्चतर शक्ति और स्पदनोंकी सीधी क्रिया- के द्वारा विभिन्न अंगोंका स्थान ले लें । जिन लोगोंने गुह्यविद्याका अच्छी तरह, उसके अतिशय सर्वांग रूपमें अभ्यास किया है, कहा जा सकता है कि वे सूक्ष्म शक्तियोंको भौतिक रूप देनेकी प्रक्रियाको जानते है और उन्हें भौतिक स्पदनोंके संपर्कमें ला सकते है । यह कार्य केवल हों ही नहीं सकता बल्कि किया भी जाता है । और यह सब एक विज्ञान है, इस विज्ञानको अपने-आपको पूर्ण और पूरा करना चाहिये । और इसका प्रयोग, स्पष्ट ही उन नये शरीरोंके निर्माण और उनकी गतिविधियोंके संचालनमें होगा जो इस भौतिक जगत्में अतिमानसिक जीवनको अभिव्यक्त कर सकेंगे ।

 

           परंतु जैसा कि श्रीअरविन्द कहते है कि इस स्थितिपर पहुंचनेसे पहले यह अच्छा है कि हम सभी सुलभ साधनोंका उपयोग करें और शारीरिक क्रियाओं- पर नियंत्रणको बढ़ाने और उसे एक विशेष विशिष्टतातक पहुंचानेमें सफल हों । यह बहुत स्पष्ट है कि जो लोग शारीरिक शिक्षणका वैज्ञानिक और सुसमन्वित रूपमें अनुशीलन करते है वे अपने शरीरपर इतना नियंत्रण प्राप्त कर लेते है जो साधारण व्यक्तिके लिये अकल्पनीय होता है । जब रूसी कसरतबाज यहां आये थे तो हमने देखा ही था कि वे कितनी सरलतासे ऐसे व्यायाम कर लेते थे जो साधारण व्यक्तिके लिये असंभव हैं और वे उन्हें ऐसे कर रेह थे जैसे यह संसारकी सबसे आसान चीज हो, उसमें प्रयासका थोड़ा भी .मान न होता था! हां तो, यह अधिकार शरीरके रूपा- तरकी ओर एक महान् पग है । और इन लोगोंने, कह सकती हू कि जो सिद्धांतत: जड़वादी हैं, अपने प्रशिक्षणमें किसी आध्यात्मिक पद्धतिका उपयोग नहीं किया था; एकमात्र भौतिक साधनों और मानवी संकल्पशक्तिको सज्ञान प्रयोगसे उन्होंने यह परिणाम प्राप्त किया था, यदि उन्होंने इसमें आध्या- त्मिक ज्ञान और शक्तिको जोड़ दिया होता तो बे चमत्कारिक परिणामोंपर पहुंच गये होते... । संसारमें प्रचलित मिथ्या धारणाओंके कारण सामापहुंच: हम इन दोनों चीजोंको -- आध्यात्मिक प्रभुत्व और भौतिक प्रभुत्वको -- एक साथ नहीं देखते, और इस प्रकार सदा ही एकमें दूसरी चीजका

 

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अभाव रहता है; पर ठीक यही चीज है जिसे हम करना चाहते हैं और श्रीअरविन्द इसीको समझाते हैं : यदि दोनों मिल जायं तो परिणाम ऐसी पूर्णतातक पहुंच सकता है जिसे साधारण व्यक्ति सोच भी नहीं सकता और इसीके लिये हम प्रयास करना चाहते है ।

 

        जैसा कि वे आगे कहते हैं (संभवत: इसे हम अगली बार पढ़ेंगे) पहले हमें उन अनेक मूर्खतापूर्ण पूर्वाग्रहोंसे लड़ना होगा जो भौतिक और आध्या- त्मिक जीवनके बीच एक दृढ विरोध पैदा कर देते है । और यह चीज मानव चेतनामें इतनी गहरी जड़ें जमाये हुए है कि इसे निकालना बहुत कठिन है, यहांतक कि उनमें' भी जो सोचते हैं कि उन्होंने श्रीअरविन्दकी शिक्षाको समझ लिया है! जब मैंने फिरसे ध्यान. शुरू किया (बिलकुल भिन्न कारणसे) तो बहुतोंने कहा : ''आह! आखिर, हम आध्यात्मिक जीवन- की ओर लौट पड़े है''.. । और सचमुच इसी चीजने मुझे लंबे समयतक ध्यान करनेसे रोका था ताकि इस मूर्खताको प्रोत्साहन न मिले; पर दूसरे कारणोंसे इसे करना जरूरी था, इसलिये मैंने इसे फिरसे शुरू किया । जबतक यह मूर्खता मानव चेतनामेंसे जड़मूलसे नहीं निकाल फैंकी जाती तबतक अतिमानसिक शक्तिके सामने यह कठिनाई सदा रहेगी कि मानव विचारका, जो कुछ भी समझता नहीं, अंधकार उसे निगाल न जाय । अच्छा, फिर भी, कुछ करेंगे ।

 

        मैंने 'अतिमानसिक अभिव्यक्ति' पुस्तकको इसलिये चूना है कि इससे मुझे एक अवसर मिलेगा कि मैं तुम्हें उस सत्यके संपर्कमें छा सकूं जो एक योद्धाकी-सी भावनाके साथ व्यक्त किया गया है ताकि तुम उस पुराने विभाजनके, सनातन 'सत्य' के विषयमें इस पूर्ण नासमझीके विरुद्ध लड़ सको ।

 

        और संभवतः, जब हम इस पुस्तकका वाचन समाप्त कर चुकेंगे, मैं तुम्हें बताऊंगी कि हमने फिरसे ध्यान क्यों शुरू किया, पर निश्चय ही ''आध्या- त्मिक जीवनकी ओर लौटने'' के लिये नहीं!

 

        ओह! यह चीज इतनी गहरी जड़ें जमाए हुए है । यहांतक कि जो समझनेका दावा करते है -- जब वे आध्यात्मिक जीवनकी बात सोचते है तो झट ध्यानकी बात सोचने लगते है ।

 

        अच्छा, फिर भी हम ध्यान करेंगे, पर किसी और ही कारणसे!

 

 ( ध्यान)

 

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