CWM (Hin) Set of 17 volumes

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The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.

प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८)

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The Mother

This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Collected Works of The Mother (CWM) Questions and Answers (1957-1958) Vol. 9 433 pages 2004 Edition
English Translation
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This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' प्रश्न और उत्तर (१९५७-१९५८) 430 pages 1977 Edition
Hindi Translation
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१८ दिसंबर, १९५७

 

 'दिव्य जीवन' भैंसे एक अनुच्छेद पढ्नेके बाद ।

 

 जिस एकमात्र सचमुच महत्त्वपूर्ण चीजकी आधुनिक विज्ञानने खोज की है वह यह है, विशुद्ध बाह्य बार भौतिक दृष्टिकोणसे चीजों वैसी नहीं है जैसी प्रतीत होती है । जब तुम किसी शरीरको, किसी मनुष्य या पदार्थ या भूदृश्यको देखते हो तो तुम इन चीजोंका बोध आंख, स्पर्श ओर श्रवणकी सहायतासे प्राप्त करते हो और इनकी विशद जानकारी गन्ध एवं स्वादके द्वारा; हां तो, विज्ञान तुम्हें बताता है : ' 'यह सब भ्रम है, तुम चीजोंको उस तरह बिल- कुल नही देखते जैसे कि वे है '', तुम उनका स्पर्श उस रूपमें नही पाते जैसी वे वास्तवमें है, उस रूपमें उन्हें अनुभव नहीं करते जैसी वे है,. उनका स्वाद उस रूपमें प्राप्त नहीं करते जैसा कि वह है । तुम्हारे अंगोंकी रचना ऐसी है जो तुम्हें इन चीजोंके संपर्कमें खास ढंगसे लाती है और वह ढंग एकदम ऊपरी, बाह्य, भ्रामक और अवास्तविक होता है । ''

 

      विज्ञानकी दृष्टिसे तुम -- अणुओंके नहीं -- किसी ऐसी चीजके समूह हो जो अणुसे भी असीम रूपमे अतीन्द्रिय है और सदा गतिशील रहती है । ऐसी कोई चीज नहीं है जो किसी चेहरेसे, किसी नाक, आंख या मुड से मेल खाती हो, यह केवल बस, एक प्रतीति है । ओर वैज्ञानिक इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं -- उसीपर जिसपर प्राचीन निर्बन्ध अध्यात्मवेत्ता पहुंचे थे -- कि संसार एक भ्रम है । यह एक बड़ी भारी खोज है, बहुत बड़ी... एक कदम ओर, और ३ सत्यमें प्रवेश पा जायेंगे । तो, जब कोई आकर मुझसे कहता है : ' 'मैं इसे देखता, छूता, अनुभव करता हू, मैं इसके बारेमें सुनिश्चित हू,'' तो वैशानिक दृष्टिकोणसे यह एक मूर्खता है । ऐसी बात वही कह सकता है जिसने वस्तुओंका कमी वैज्ञानिक ढंगसे, जैसी वे है उस रूपमें, अध्ययन नहीं किया । इस प्रकार बिलकुल विरोधी रास्तेसे वे उसी परिणामपर पहुंचे हैं : जगत्, जिस रूपमें तुम उसे देखते हों, एक भ्रम है ।

 

        अब, वह सत्य क्या है जो इसके पीछे है?... जिन लोगोंने आध्यात्मिक ज्ञानकी खोज की है, वे कहते है : ' 'हमें इसका अनुभव है, '' परन्तु स्वभावत: यह विशुद्ध रूपसे उनका आत्मनिष्ठ अनुभव है, अभीतक ऐसा को आधार नहीं जिसके अनुसार पूरी तरह यह कहा जा सके कि यह अनुभव

 

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हर एकके लिये निर्विवाद रूपसे सत्य है । प्रत्येक व्यक्तिका अनुभव उसके लिये निर्विवाद रूपसे सत्य होता है । परन्तु यदि तुम उससे कुछ आगे बढ़ते हों... ।

 

      वस्तुत: किसी अनुभव या अन्वेषणका महत्व उस शक्तिके द्वारा जाना जा सकता है जो वह हमें प्रदान करता है : इन बाह्य रूपोंको, वस्तुओं, परि- स्थितियों और संसारको उस अनुभवमेंसे अभिव्यक्त संकल्पके अनुरूप चीजमें परिवर्तित एवं रूपांतरित करनेकी शक्ति । मुझे लगता है कि किसी वैयक्तिक या सामूहिक अनुभवकी यथार्थताका सबसे व्यापक प्रमाण यह होगा कि उसमें वस्तुओंको -- इन दिखती वस्तुओंको ही हम संसार कहते है - जैसी वे अब है उससे भिन्न रूप देतेकी शक्ति हो । आत्मनिष्ठ दृष्टि- कोणसे अनुभवका व्यक्तिगत चेतनापर जो प्रभाव पड़ता है वही उसका सुनिश्चित प्रमाण है : जिसने परमानन्दको, परम शांति, नित्य सुरव और वस्तुविषयक गहन ज्ञानको पा लिया है उसे प्रमाण कही अधिक मिल चुका है । बाह्य रूपपर अनुभवका कैसा प्रभाव पड़ेगा यह अनुभवके अतिरिक्त और भी बहुत सारी चीजोंपर निर्भर है (संभवत: उन अनुभवोंके प्रथम कारणपर निर्भर है), पर इस सबमें एक चीज है जो छूसा प्रमाण प्रतीत होती है जिसे दूसरे लोग और साथ ही वह स्वयं भी जिसे अनुभव हुआ है, सहज ही स्वीकार कर सकते हैं और वह है दूसरे लोगों और वस्तुओंपर (जो सामान्य चेतनाके लिये ''वस्तुनिष्ठ'' हैं उनपर) अधिकार- शक्ति । उदाहरणार्थ, यदि बह व्यक्ति, जिसने चेतनाकी उस स्थितिको पा लिया है जिसकी मैंने चर्चा की है, उसे दूसरोंतक पहुंचानेकी शक्ति- सामर्थ्य रखता है तो वह आशिक रूपसे (केवल आशिक रूपसे ही) उसके अनुभवकी वास्तविकताका प्रमाण होगी; परंतु यदि, इससे आगे बढ़कर, चेतनाकी जिस स्थितिमें वह है उसे यदि वह इस बाह्य जगत्में मी ला सके -- उदाहरणार्थ, यदि बह पूर्ण समस्वरताकी स्थितिमें है तो उस समस्वरताको इस प्रत्यक्षत: असमस्वर जगत्में ला सकें -- तो, मैं समझती हू, वह ऐसा प्रमाण होगा जिसे बहुत सरलतासे स्वीकार किया जा सकेगा, यहांतक कि जड़वादी, वैज्ञानिक मनोमाववाले व्यक्ति भी उसे स्वीकार कर सकेंगे । यदि इन आभासी रूपोंको किसी ऐसी चीजमें परि- वर्तित किया जा सके जो इस जगत् से, जिसमें हम आजकल रहते हैं अधिक सुन्दर, अधिक सामंजस्यपूर्ण और अधिक आनन्दपूर्ण हों तो संभवत: वह एक ऐसा प्रमाण होगा जिससे इंकार नहीं किया जा सकेगा । यदि हम इस बातको कुछ और भी आगे बढायें, यदि, जैसा कि श्रीअरविंद हमें विश्वास दिलाते है, अतिमानसिक शक्ति, चेतना व ज्योति इस जगत्को

 

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परिवर्तित कर एक नयी जाति. उत्पन्न कर दे तो जैसे बन्दर और पशु मनुष्य- के अस्तित्वसे इंकार नही कर सके (यदि वे बोलनेवाले होते), ऐसे हीं मनुष्य भी इन नये प्राणियोंके अस्तित्वसे इंकार नहीं कर सकेगा - बशर्त्ते कि वे मानवजातिसे पर्याप्त रूपमें भिन्न हों, ताकि वह भेद मनुष्यके इन म्गंतिजनक अंगोसे भी स्पष्ट देखा जा सकें ।

 

       इन तर्कोसे ऐसा प्रतीत होता 'है कि (अतिमानसिक अभिव्यक्तिका) सबसे सुनिश्चित और स्पष्ट पहलू और वह एक जो संभवत: सबसे पहले प्रकाशमें आयगा (संभवत:), वह 'आनन्द' और 'सत्य' की अपेक्षा 'शक्तिा पहलू अधिक होगा । क्योंकि नयी जातिके पृथ्वीपर स्थापित हो सकने और जीवित रह सकनेके लिये यह जरूरी होगा कि पृथ्वीके अन्य तत्त्वोंसे उसकी रक्षा की जाय, और शक्ति ही सुरक्षा है -- कृत्रिम, बाह्य और झूठी शक्ति नही, बल्कि सच्चा 'बल', जयशाली 'संकल्प' । तो यह मानना असंभव नहीं है कि अतिमानसिक क्रिया सामंजस्य, ज्योति, आगद और सौंदर्यके क्रिया होनेसे मी पहले शक्तिकी एक क्रिया होगी, ताकि वह सुरक्षाका काम कर सकें । स्वभावतः, शक्तिकी इस क्रियाको सचमुच प्रभावकारी हो सकने- के लिये 'ज्ञान', 'सत्य', 'प्रेम' और 'सामंजस्य' पर आधारित होना चाहिये; परंतु ये चीजों भी तभी अभिव्यक्त हा सकेंगी -- दृश्य रूपमें, थोडी-थोडी करके अभिव्यक्त होगी -- जब, यूं_ कहा जा सकता है, कि आधार सर्वसमर्थ संकल्प एवं शक्तिकी क्रियाद्वारा तैयार हो चुकेगा ।

 

          परन्तु न्यूनतम रूपमें भी इनमेंसे किसी चीजके संभव हों सकनेके लिये सबसे पहले पूर्ण संतुलनका एक आधार होना जरूरी है, ऐसा संतुलन जो अहंके अत्यंताभाव, परम पुरुषके प्रति पूर्ण समर्पण तथा पूर्ण पवित्रताकी : परम पुरुषके साथ स्थापित तादात्म्यकी देन है । इस पूर्ण संतुलनके आभगरके बिना अतिमानसिक शक्ति बहुत खतरनाक गाती है, तुम्हें किसी भी सूरतमें उसे खोजना या अपनी ओर खींचना नहीं चाहिये, क्योंकि उसकी अत्यल्प मात्रा भी इतनी शक्तिशाली एवं भीषण होतीं है कि वह पूरी सत्ताके संतुलनका बिगड़ा सकती है ।

 

        ' इस बारेमें जब मैं तुमसे बात कर ही रही हू तो मैं तुम्हें एक चीजकी सलाह देना चाहती हूं । अपनी प्रगतिकी इच्छा तथा. उपलब्धिकी अभीप्सामें इसका ध्यान रखो कि कमी शक्तियोंको अपनी ओर मत खींचो । अपने-आपको दे दो, निरंतर आत्म-विस्मृतिद्वारा जितनी नि:स्वार्थता तुम प्राप्त कर सकते हों उतने निःस्वार्थ-भावसे अपने-आपको खोलो, अपनी ग्रहणशीलताको जितना अधिक हो सकें बढ़ाओ, परन्तु 'शक्तिको अपनी ओर खींचनेकी कभी कोशिश मत करो, क्योंकि खींचनेकी इच्छा करना ही एक

 

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खतरनाक अहंकार है । तुम अभीप्सा कर सकते हो, अपने-आपको रवोल सकते हो, अपने-आपको दे सकते हा, पर लेनेकी इच्छा कमी मत करो । जब कुछ बिगड़ जाता है तो लोग 'शक्ति'को दोष देते हैं, पर इसके लिये उत्तरदायी शक्ति नहीं है; यह पात्रकी महत्वाकांक्षा, अहंकार, अज्ञान और दुर्बलता है जो उत्तरदायी है ।

 

        उदारता एवं पूर्ण नि:स्वार्थावके साथ अपने-आपको दे दो और अधिक गहरे अर्थमें तुम्हारे साथ कमी कुछ बुरा नहीं होगा । लेनेकी कोशिश करो और तुम खाईके मुंहपर होंगे ।

 

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