The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
१८ जून, १९५८
''आंतरिक सत्ताको खोलनेके प्रयासमें प्रकृतिने चार मुख्य दिशाओं- का अनुसरण किया है, -- धर्म, गुह्य विद्या, आध्यात्मिक विचार और आंतरिक आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूति । इनमें पहली तीन उस तरफ जानेवाली गालियां है और चौथी दिशा ही वहां प्रवेश पानेका खुला रास्ता है । इन चारों शक्तियोंने एक साथ कभी कम या ज्यादा संबंध रखते हुए, कभी बदलते हुए सहयोग, कभी एक-दूसरेका खंडन करते हुए और कभी एकदम स्वतंत्र रूपमें काम किया है । धर्मने अपने कर्मकांड, अनुष्ठान और संस्कारोंमें गुह्य तत्व स्वीकार किया है, उसने आध्यात्मिक चिंतनका सहारा लिया है । उसने कभी उससे मत या धर्मशास्त्रको प्राप्त किया है, कभी उसके सहायक आध्या- त्मिक दर्शनको पाया है । इसमें पहली विधि सामान्यतः पश्चिम- की है और दूसरी पूर्वकी । लेकिन आध्यात्मिक अनुभूति ही धर्मका अंतिम लक्ष्य और उपलब्धि, उसका आकाश और शिखर है । लेकिन कभी-कभी धर्मने गुह्य विद्याका निषेध भी किया और अपने गुह्य तत्त्वको कम-से-कम कर दिया है, उसने दार्शनिक मनको शुद्ध बौद्धिक विदेशी मानकर परे हटा दिया है और अपने पूरे भरके साथ मत, धार्मिक आग्रह, धार्मिक भावावेग, पार्थिव उत्साह और नैतिक आचरणका सहारा लिया है; उसने आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूतिको कम-से-कम कर दिया है या एकदम हटा दिया है । गुह्यजान कभी-कभी आध्यात्मिक उद्देश्यको अपना लक्ष्य बनाया है और गुड्यान और अनुभूतिको उसका एक मार्ग बनाया है और एक प्रकारके गुह्य दर्शनकी रचना की है लेकिन अधिकतर उसने आध्यात्मिक दृश्योंके बिना ही अपने-आपको गुड्यान और अम्यासोतक ही सीमित रखा है । बह इंद्रजाल या केवल जादूगरीकी ओर मुड गया और पैशाचिक आचरणतक जा पहुंचा है । आध्यात्मिक दर्शन प्रायः ही दर्शनकी सहायता लेता रहा है और उसे अपना सहारा था अनुभूतिका मार्ग मानता रहा है । वह उप- लब्धि और अनुभूतिका परिणाम रहा है था उसने ऐसी रचनाएं की हैं जो वहांतक पहुंचनेका साधन हों । लेकिन उसने धर्मकी
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सहायता -- या बाधाका पूरा परित्याग किया है और अपने ही बलपर आगे चला है । बह या तो मानसिक ज्ञानसे संतुष्ट रहा है था उसने विश्वासके साथ अनुभव ओर प्रभाव- शाली साधनाका रास्ता ढूंढ लिया है । आध्यात्मिक अनुभूतिने इन तीनों साधनोंका आरंभ-बिंदुका रूपमें उपयोग किया है लेकिन उसने उन सबको भी त्यागकर शुद्ध रूपसे अपने ही बल- का आश्रय लिया है । उसने गुह्य ज्ञान और शक्तियोंको भयानक प्रलोभन और उलझानेवाली बाधाएं मानकर दूर रखा । उसने केवल आत्माके शुद्ध सत्यकी खोज की और दर्शनको उठाकर रख दिया । उसकी जगह वह हदयके उत्साह और एक आंतरिक रहस्यमय आध्यात्मीकरणके द्वारा अपने लक्ष्यपर पहुंचती है । वह धार्मिक मतों, पूजा, आचार-व्यवहार आदिको निचली कोटिका या पहली भूमिका मानकर, इन सब सहारोंको छोड़कर, सब जालोंको उतारकर आध्यात्मिक परमार्थ तत्त्वके शुद्ध संपर्कतक जा पहुंची है । ये सब विभित्रताएं आवश्यक थीं । प्रकृति- ख विकासात्मक प्रयासने अपना सच्चा मार्ग पानेके लिये और परम चेतना और पूर्ण ज्ञान पानेके लिये, अपना सच्चा और संपूर्ण मार्ग खोज निकालनेके लिये सभी दिशाओंमें प्रयोग किये है । इनमेंसे हर एक साधन था मार्ग हमारी समग्र सत्ताकी किसी चीजके अनुरूप है और इसलिये उसके विकासके पूर्ण लक्ष्यके लिये आवश्यक है । मनुष्यके आत्म-विस्तारके लिये चार बातें आवश्यक हैं, यदि उसे ऊपरी तलके अज्ञानका ऐसा प्राणी न रहना हो जो वस्तुओंके सत्यको अंधेरेमें टटोलता हुआ और ज्ञानके टुकड़ों और खंडोंको जोड़नेवाले -- बाहरी तलपर, अभी जैसा है, वैसा ही - छोटा-सा वैश्व 'शक्ति 'का अर्ध-क्षम जीव है । उसे अपने-आपको जानना चाहिये और अपनी सभी क्षमताओंको खोजना और उनका उपयोग करना चाहिये । लेकिन अपने- आपको और जगत्को पूरी तरह जाननेके लिये उसे अपने और उसके बाहरी रूपके पीछे जाना होगा, उसे अपनी मानसिक सत्ता और प्रकृतिके भौतिक तत्त्वके नीचे गहरी डुबकी लगानी होगी । यह तभी किया जा सकता है जंबू वह अपने आंतरिक मन, प्राण, शरीर और चैत्य सत्ता और उसकी शक्तियों और गति-विधियों तथा वैश्व विधानों और गुह्य 'मन' और 'प्राण' की प्रक्यिाओंको जाने जो विश्वके भौतिक उग्र रूपके पीछे मौजूद
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हैं : यदि गुह्यवाद शब्दको इसके विस्तृत अर्थोंमें लें तो यही गुह्यवादका क्षेत्र हैं । उसे उस 'शक्ति' या उन 'शक्तियों'को भी जानना चाहिये जो जगत् पर शासन करती हैं । यदि कोई 'वैश्व आत्मा' या 'स्रष्टा' है तो उसके साथ जैसे भी संभव हो संबंध या सायुज्य स्थापित करके वैश्व सत्ता या विश्वकी शासक 'सत्ताओंके साथ या परम पुरुष और उनके परम संकल्पके साथ किसी प्रकारकी समस्वरता लाकर उसके दिये हुए विधानका अनुसरण करे और उसके द्वारा दिये हुए या प्रकट किये हुए जीवन और आचरणके लक्ष्यका अनुसरण करे । और अपने- आपको उस ( पुरुष) की मांगके अनुसार उच्चतम उच्चतातक उठानेमें समर्थ हो । वह ( पुरुष) इस जन्ममें या अगले जन्म- मे जिस उच्चतर उच्चताकी मांग करता है, उसतक अपने-आप- को उठानेमें समर्थ हो । और अगर इस प्रकारकी कोई वैश्व या परम 'सत्ता' दा 'आत्मा' नहीं है तो उसे यह जानना चाहिये कि वह है क्या, और अपनी वर्तमान अपूर्णता और अशक्यतामेंसे वहांतक कैसे उठा जा सकता है । यह धर्मका रास्ता है । उसका उद्देश्य है मानव और भगवान्में संबंध स्थापित करना और यह करते हुए विचार, प्राण और शरीरको इतना ऊंचा उठाना कि वे अंतरात्मा और आत्माके शासनको स्वीकार कर सकें । परंतु यह ज्ञान एक मत या रहस्यमय अंतःप्रकाशसे बढ़कर होना चाहिये । मनुष्यके विचारशील मनको इसे स्वीकार कर सकना, वस्तुओंके तत्व और विश्वके अवलोकित सत्यके साथ यह संबंध करनेमें समर्थ होना चाहिये । यह दर्शनका क्षेत्र है और आत्माके सत्यके क्षेत्रमें यह काम केवल आध्यात्मिक दर्शन ही कर सकता है । चाहे वह अपनी प्रक्रियामें बौद्धिक हो या अंतर्भासिक । किंतु सारा ज्ञान और सारा प्रयास तभी सफल हो सकता है जब वह अनुभूतिमें बदल जाय और चेतना तथा उसकी प्रतिष्ठित क्यिाओंका अंग बन जाय । आध्यात्मिक क्षेत्रमें सभी धार्मिक, गुह्य या दार्शनिक ज्ञान और प्रयास तभी सफल हो सकते हैं जब ३ अंतमें आध्यात्मिक चेतनाको खोल सकें और ऐसे अनुभवोंको लाये जो उस चेतनाकी प्रतिष्ठा करें, उसे हमेशा उन्नत, विस्तृत और समृद्ध बनायें तथा ऐसे जीवन और कर्मकी रचना करें जो आत्माके सत्यके अनुरूप रह सकें ।', ( 'लाइफ डिवाइन', पृ ० ८६० -६२)
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एक बात बड़ी विलक्षण है -- अब मुझे याद नहीं कि आगे चलकर श्री- अरविंद इसके बारेमें कुछ कहेगे या नहीं -- लेकिन ये चारों क्रियाएं या उपलब्धिया जिनके बारेमें श्रीअरविन्द कह रहे है (धर्म, गुह्यवाद, आध्यात्मिक दर्शन और आध्यात्मिक अनुभूति), और जो मनुष्यके रूपांतर एवं विकासके लिये आवश्यक हैं, समान रूपसे मनुष्यके पहुंचके भीतर नहीं है ।
जिसका, अधिक-से-अधिक मनुप्योंद्वारा (जो लगभग पूरी तरह भौतिक चेतनामें रहते हैं), अभ्यास किया जा. सकता है, और शायद जिसे अधिक-से-अधिक लोग ''समझ'' सकते है (यद्यपि वह निश्चय ही ''समझ'' नहीं है!), वह है धार्मिक पद्धति, केवल इसलिये कि वह निर्धारित मतों और प्रथाओंपर आधारित है । सिर्फ श्रद्धावश या सामूहिक सुझाव (मुख्यत: सामूहिक सुझाव) द्वारा अधिकांश मनुष्य जो अभीतक पर्याप्त आंतरिक विकासतक नहीं पहुंचे है, धर्मके मार्गपर इकट्ठे हों सकते है ।
गुहावादके लिये तो तुम्हें पहलेसे ही विकासके दूसरे चरणतक पहुंच जाना चाहिये और प्राणिक जगत्में और भी अधिक सचेतन होना चाहिये, ताकि शक्तियोंके खेलके साथ संपर्कमें आ सको, यह उनके संचालनके लिये अनिवार्य है ।
आध्यामिक दर्शनके लिये तो सिर्फ ३ थोड़े-से लोग हैं जिनका मानसिक विकास काफी पूर्ण हों चुका है और जो बौद्धिक स्तरपर पूर्णत: सचेतन है, जो इस साधनको उपयुक्त ढंगसे अपना सकते हैं; नहीं तो उन सबके लिये यह अंध-पत्र है जिनमें मानसिक कसरत करनेकी क्षमता नहीं है, और जो मनकी कलाबाजियोंका अनुसरण नहीं कर सकते !
और अंतमें, 'दिव्य जीवन' में कहींपर श्रीअरविदने कहा है कि आध्यात्मिक अनुभूतिके मार्गका अनुसरण करनेके लिये अपने अंतरमें ''आध्यात्मिक सत्ता'' होनी चाहिये, तुम्हें ''द्विज'' होना चाहिये, क्योंकि यदि अपने अंदर आध्यात्मिक सत्ता नहीं है जो कम-से-कम आत्म-ज्ञान पानेके छोर- पर तो हो, तो भले व्यक्ति उन अनुभूतियोंकी नकल करनेकी चेष्टा कर लें, पर वह घटिया अनुकरण होगा या पाखंड, वह वास्तविकता नहीं होगी ।
फलतः, एक साथ ही इन चारों मार्गोंका अनुसरण कर सकने और उनके अम्याससे सत्ताके लिये पूरा लाभ उठानेके लिये पहलेसे ही पूर्ण व्यक्तित्व होना चाहिये, जो मानवी और आध्यात्मिक प्रक़ुतिके चारों मुख्य- तत्वोंमें सचेतन जीवनके योग्य हो ।
स्वभावतः, यह आंतरिक विकास सदा प्रत्यक्ष नहीं होता, और हमारी
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भेंट किसी ऐसे व्यक्तिसे हों सकती है जिसके अंदर एक सचेतन आध्यात्मिक सत्ता हो, जो सुन्दरतम अनुभूतियां पानेके लिये तैयार हों, जब कि, बाहर- से वह बिलकुल अनगढ़ और अधूरा दिखता हो ।
यह भी जरूरी नहीं कि इस प्रगतिका उल्लिखित कर्मसे ही अनुसरण किया जाय, पर यदि हम चाहें कि हमारी उपलब्धि पूर्ण हो और सत्ताका पूर्ण रूपांतरण हो तो इन साधनोंमें हर एक जो कुछ लाये उसके सारका हमें उपयोग कर सकना चाहिये ।
चैत्य या आध्यात्मिक चेतना तुम्हें गहरी आंतरिक सिद्धि, भगवानके साथ संपर्क, बाह्य बाधाओंसे मुक्ति देती है; पर यदि इस मुक्तिका असर होना है, बाकी सत्तापर इसकी प्रतिक्रिया होनी है तो मनको काफी उपर्युक्त होना होगा, ताकि 'ज्ञान'की आध्यात्मिक ज्योतिको धारण कर सके; प्राणको यथेष्ट शक्तिशाली होना होगा, ताकि प्रत्यक्ष रूपोंके पीछेकी शक्तियोंका संचालन कर सकें, उनपर प्रभुत्व पा सके, शरीरको काफी अनुशासित और व्यवस्थित होना होगा ताकि नित्यके, हर पलकें आचरण और चेष्टामें गहरी अनुभूतिको व्यक्त कर सके और संपूर्ण जीवन जी सके ।
यदि इन चीजोंमेंसे एकाकी भी कमी हो तो परिणाम पूर्ण नहीं होगा । कोई यह बहाना बनाकर कि यही सबसे महत्त्वपूर्ण, 'केंद्रीय वस्तु' नहीं है -- इस या उस चीजको अति तुच्छ समझ सकता है -- और बाहरी चीजोंकी अवहेलना तुम्हें 'परम' के साथ आष्यात्मिक संबंध बनानेमें रोक नहीं सकती, पर यह बात जीवनसे पलायन करनेवालोंके लिये ही अच्छी है । यदि हमें संपूर्ण समग्र सत्ता बनना है, सर्वांगीण सिद्धि पानी है, तो हमें अपनी आध्यात्मिक अनुभूतिको मन-प्राण-शरीरमें रूपायित कर सकना चाहिये । जितना ही यह रूपायन पूर्ण होगा, अखंड और संपूर्ण सत्ताद्वारा संपादित होगा, उतनी ही हमारी सिद्धि सर्वांगीण और अविकल होगी ।
पूर्ण योगका अनुसरण करनेवालोंके लिये कुछ भी निरर्थक नहीं है और कुछ भी उपेक्षा योग्य नहीं है... । सारी बात है हर चीजको उसके उचित स्थानपर रखना जानना, और उसीको शासनका भार देना जो सचमुच शासनका अधिकारी हो ।
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