The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
१९ फरवरी, १९५८
श्रीमां ३ फरवरीको हुई अपनी अनुभूति
पढ़कर सुनाती है ।
३ फरवरी, १९५८
अतिमानसिक जगत्की सत्ताओंमें और मनुष्योंमें वही अन्तर है जो मनुष्यो ओर पशुओंमें है । कुछ दिन पहले मुझे पशुओंके जीवनसे एकाकार हों जानेकी अनुभूति हुई थी, ओर यह एक तथ्य है कि जानवर हमें नहीं समझते, उनकी चेतना इस तरह बनी है कि हम उनकी पकड़से लगमग पूरी तरह बच निकलते है । फिर भी मैं कुछ पालतू जानवरोंको जानती थी - बिल्ली, कुत्ते -- विशेषकर बिल्लिया, जो हमतक उठ आनेके ??? अपनी चेतनामें प्रायः यौगिक प्रयत्न करती थी । पर साधारणतः, जब वे हमें, जीते ओर कार्य करते देखती है तो वे हमें नही समझती, ३ हमें उस तरह नही देखतीं जैसे कि हम है, और हमारे कारण तकलीफ पाती है । हम सदा उनके लिये एक पहेची बने रहते है । उनकी चेतनाका एक बहुत छोटा-सा अंश ही हमारे साथ जुडा होता है । ठीक यही बात हमारे माथ होती है जब हम अतिमानसिक लोककी ओर देखनेका प्रयास करते है । जब चेतनाका नाता स्थापित हों जायगा तभी हम उसे देखेंगे, ओर तब भी हमारी सत्ताका केवल वही अंश उसे उसके यथार्थ रूपमें देख सकेगा जो इस तरह रूपान्तरणसे गुजर चुका होगा, नहीं तो दोनों जगत्-, ' पशु और मानव जगत्की तरह, अलग-थलग रहेंगे ।
मुझे ३ फरवरीको जो अनुभूति हुई वह इसका प्रमाण है । इसके पहले, अतिमानसिक जगत् के साथ मेरा संपर्क व्यक्तिगत था, आत्मपरक था, जब- कि. ३ फरवरीको मैं वहां मूर्त रूपमें घूमी, वैसे ही मूर्त रूपमें जैसे पहले कभी पैरिसमें घूमा करती थी, सारी आत्मपरकतासे स्वतंत्र ऐसी एक दुनियामें जिसका अपना अलग अस्तित्व है ।
२५५
यह दोनों लोकोंके बीच बनाये जानेवाले एक सेतुके समान है ।
यह रही वह अनुभूति जौ मैंने उसके तुरन्त बाद लिखवायी थी ।
( मौन)
अतिमानस-लोक चिरस्थायी रूपमें विद्यमान है और मैं' वहां अतिमानसिक शरीरमें स्थायी रूपसे वर्तमान हू । आज ही मुझे उसका प्रमाण मिला जब मेरी पार्थिव चेतना तीसरे पहरको दो से तीन बजेके बीच सचेतन रूपमें वहां गयी और रही । अब मैं जानती हू कि इन दोनों जगतोंको सतत और सचेतन सम्बन्धमें जोड़नेके लिये जिस चीजकी कमी है वह है वर्तमान स्थितिमें भौतिक जगत् और वर्तमान स्थितिमें अतिमानसिक जगत्- के बीचका प्रदेश । इसी प्रदेशका निर्माण व्यक्तिगत चेतना और व्यक्ति- तिरपेक्ष जगत्में बाकी है । और वह निर्मित हो रहा है । पहले जब मैं उस नयी सृष्टिकी बात किया करती थी, जो बन रहीं है, वह इसी मध्यस्थ प्रदेशकी बात थी । इसी तरह जब मैं इस तरफ होती हू, यानी, भौतिक चेतनाके क्षेत्रमें, और जब मैं अतिमानसिक शक्तिको, अतिमानसिक ज्योति और तत्त्वको जडू-तत्वमें निरन्तर पैठते देखती हू तो वह इसी प्रदेशका . निर्माण-कार्य होता है जिसे मैं देखती हू और जिसमें मैं भाग लेती हूं ।
मैंने अपने-आपको एक विशाल जहाजमें पाया, जो उस जगहका प्रतीकात्मक प्रतिरूप था जहां यह कार्य चल रहा है । एक शहर जितना बड़ा यह जहाज पूर्णतया व्यवस्थित था । निश्चय ही वह कुछ समयसे कार्य- रत था, क्योंकि उसकी व्यवस्था पूर्ण थी । यह वह जगह है जहां उन ' लोगोंको आकार दिया जाता है जो अतिमानसिक जीवनके लिये नियत हैं । ये लोग (या कम-से-कम उनकी सत्ताका एक अंश) पहले ही अति- मानसिक रूपान्तरमेंसे गुजर चुके थे, क्योंकि खुद वह जहाज और जो उसमें सवार थे वे सब न तो भौतिक जगतके थे, न सूक्ष्म-भौतिक जगतके, न प्राणिक जगतके और न मानसिक जगतके - वह एक अतिमानसिक तत्व था । स्वयं वह तत्व ठोस अतिमानसका था, ऐसा अतिमानसिक तत्व जो भौतिक जगतके सबसे निकट है और जिसकी अभिव्यक्ति सबसे पहले होगी । वहीका प्रकाश सुनहली और लाल ज्योतिका मिश्रण था जिससे जगमगाते नारंगी रंगका एक रूप-पदार्थ बना था । सब कुछ ऐसा ही था -- ज्योति ऐसी थी, लोग ऐसे थे, सूक्ष्म छटामेदके साथ सभी इसी रंगमें रंगे थे और इसी भेदके काराग एक चीज दूसरी चीजसे अलग पहचानी जा सकती थी । सामान्य छाया. एक छायाविहीन जगत्की पड़ती थी, वहां सूक्ष्म अन्तर तो
२५६
थे पर छायाएं नहीं थीं । वायुमण्डल आनन्द, शांति और व्यवस्थासे परि- पूर्ण था; वहां सब काम नियमित रूपसे चुपचाप चल रहा था । पर साथ ही वहां शिक्षण, और सब क्षेत्रोंमें प्रशिक्षणकी बारीकियां देखी जा सकती थीं जिनके द्वारा नावके लोगोंको तैयार किया जा रहा था ।
वह विशाल तरी अभी-अभी अतिमानसके तटसे आ लगी थी, ओ र यहीं उन लोगोंके पहले दलको उतरना था जिन्हें अतिमानसिक जगत्का भावी निवासी बनना था । इस पहली उतराईकी पूरी तैयारी हो चुकी थी । घाटपर कुछ विशालकाय सत्ताएं तैनात थीं । ये लोग मनुष्य नहीं थे और न पहले कभी म रहे थे, औ र न ही वे अतिमानसिक जगत्के स्थायी निवासी थे । उन्हें तो ह्रस्व लोकसे वहां भेजा गया था ताकि वे उतराईकी चौकसी कर सकें और उसपर नियंत्रण रख सकें । शुरूसे ही सारे समय उस पूरे समूहका परिचालन मेरे हाथोंमें था । स्वयं मैंने सब दल तैयार किये थे । मैं नावकी सीढीकी ऊपरली पैडीपर खड़ी थी और एक-एक करके दलोंको बुलाकर नीचे घाटपर भेज रही थी । वे दीर्घकाल सत्ताएं जो वहां तैनात थीं मानों उतरनेवालोंका निरीक्षण कर रही थीं, जो तैयार थे उन्हें, अनुमति दे रही थीं ओर जो तैयार नहीं थे उन्हें, वापस नावमें भेज रही थीं जहां उन्हें प्रशिक्षण जारी रखना था । वहां खड़ी- खड़ी जब मैं उन्हें देख रही थी तो मेरी चेतनाका वह अंश जो यहांसे गया था उनमें बड़ी रुचि लेंने लगा । वह सभीको देखना और पहचानना चाहता था । वह देखना चाहता था कि वे किस तरह बदल गये थे और उन्हें परखना चाहता था जौ तुरंत ले लिये गयें ओर जिन्हें वहीं रहकर अभी प्रशिक्षण जारी रखना था । कुछ देर बाद, जब मैं वहां खडी-खडी देख रही थी ते। मुझे ऐसा लगा कि मुझे कोई -- चेतना या यहांका कोई व्यक्ति -- पीछेकी ओर खींच रहा है ताकि मेरा शरीर जाग सके--और अपनी चेतनामें मैंने प्रतिवाद किया : ' 'नहीं, नहीं, अभी नहीं! अभी नहीं, मैं' लोगोंको देखना चाहती हू । '' मैं देख रही थी और बड़े चावसे ध्यानपूर्वक देख रही थी.. । यह तबतक होता रहा जबतक कि सहसा, यहां इस दीवार-घडीने तीन बजाने शुरू कर दिये, वह मुझे जबरदस्ती वापिस धरती- पर लें आयी । मुझे अपने शरीरमें अचानक आ गिरनेका अनुभव हुआ । मैं एक झटकेके साथ नीचे उतरी थी पर मेरी स्मृति सही-सलामत थी, यद्यपि बहुत ही अचानक मुझे वापिस बुला लिया गया था । बिना हिले-डुले मैं तबतक शांत बनी रही जबतक कि मैंने पूरी अनुभूतिको पुन: याद करके सुरक्षित नहीं कर लिया ।
उस नावपर चीजोंके स्वभाव और स्वरूप वैसे नहीं थे जैसे हम इस
२५७
पृथ्वीपर देखते है । उदाहरणार्थ, उनकी पोशाकें कपड़े-जैसे नहीं बनी थो और वह चीज जो कपड़े-जैसी लगती थी कपड़ेकी तरह नहीं बुनी गयी थी; वह उनके शरीरका ही एक अंग थी, वे उसी तत्वसे बनी थी जो तरह-तरहके रूप धर लेता था । उसमें एक तरहकी नमनीयता थी । जब किसी परिवर्तनकी आवश्यकता होती तो वह हो जाता था, पर किसी बनावटी या बाह्य तरीकेसे नहीं, बल्कि एक आंतरिक क्रियाद्वारा, वह चेतनाकी क्रियाद्वारा होता था जो उस तत्त्वको रूप या आकृति देती थी । जीवन अपने आकार आप रच लेता था । वहां सब चीजोंमें एक ही तत्व था : वह आवश्यकता और उपयोगिताके अनुसार अपने स्पंदनके गुणको बदल लेता था ।
जिन्हें नये प्रशिक्षणके लिये लौटा दिया गया था उनका रंग एक-सा नहीं था, लगता था कि उनके शरीरपर ऐसे तत्त्वके गहरे धूसर धब्बे थे जो धरतीके तत्वसे मिलते-जुलते थे, वे धूमिल लगते थे, मानों ज्योतिद्वारा बे न तो पूरी तरह ओत-प्रोत हुए थे, न रूपांतरित । ऐसा सब जगह नहीं था, बस कहीं-कहीं ।
घाटपर जो दीर्घकाय सत्ताएं थीं' वे उसी रंगकी नही थीं', कम-से-कम उनमें वह नारंगी आभा नहीं थी, वे अधिक पागडुर और पारदर्शी थी । उनके शरीरके एक भागको छोड़कर बाकीका खाका. ही दीखता था । वे बहुत लंबी थीं, उनके शरीरमें मानों हड्डियों तो थीं ही नही, वे आवश्यकतानुसार कोई भी आकार ले सकती थी । कमरसे पांवतक ही स्थायी घनत्व था जो शरीरके बाकी मागोंमें महसूस नही होता था । उनका रंग अधिक पीला था, बहुत थोडी-सी लालिमा लिये, वह अधिक सुनहला था, शायद सफेदके अविक पास । धवल-से प्रकाशसे आलोकित अंश पारभासी थे; फिर नितांत पारदर्शी नही थे, फिर भी नारंगी तत्वसे कम ठोस और अधिक सूक्ष्म थे ।
जब मैं वापस बुलायी गयी और उस घड़ी जब मैं ''अभी नहीं''' कह रही थी, दोनों बार मैंने अपने-आपको एक उड़ती निगाहसे देखा, अर्थात्, अतिमानसिक जगत्में अपने रूपकों देखा । मैं उन दीर्घकाय सत्ताओं और नावपरके लोगोंका एक मिश्रण थी, मेरा ऊपरी भाग, खासकर सिर एक रेखा-चित्र था, जिसकी अंतर्वस्तु श्वेत थी और कोर नारंगी । पांवकी ओर जाते जाते उसकार वर्ण नावके लोगोंकी तरह होता जाता था, यानी, वह नारंगी था; दुबारा सिरकी ओर आते-आते वह अधिकाधिक पारभासक और श्वेत होता जाता था, और लाली घट जाती थी । सिर केवल एक रेखा-चित्र-सा था जिसके अंदर भास्वर सूर्य था, इसमेंसे ज्योतिकी
२५८
किरणें निकल रही थीं जो संकल्प-शक्तिकी क्रिया थी ।
जिन्हें मैंने जहाजमें देखा था उन सबको मैं पहचानती थी । उनमेंसे कुछ तो यहां, आश्रमके थे, कुछ और जगहोंसे आये थे, पर मैं उन्हें भी जानती थी । वहां मैंने सभीको देखा । लेकिन चूकि मैं जानती थी कि जब मैं लौट गीतों मुझे कु छ भी याद न रहेगा _ मैंने कोई मी नाम न देने का निश्चय किया । और फिर इसकी कोई जरूरत मी नही । तीन- चार चेहरे बहुत स्पष्ट दिखायी देते थे, औ र जब मैंने उन्हें, देखा तो मैं अपनी उस भावनाको समझ पायी जो यहा पृथ्वीपर उनकी आंखमें देखते समय पैदा हुई थी : कितना अनूठा उल्लास था उनमें... । वे अधिकतर युवक थे, बच्चे बहुत कम थे और उनकी उम्र चौदह-पंद्रहके बीच थी । निश्चय ही, वे दस-बारह वर्षसे कमकेन थे ( मैं वहां इतने काफी समयतक नहीं ठहरी कि इन सब बारीकियोंको देख सकती) । कुछ एकको छोड़कर बौद्धोंकी संख्या नहींके बराबर थी । तटपर उतरनेवालोंमें कुछको छोड़कर अधिकतर अधे आयुवा ले थे । इस अनुभूतिके पहले ही कुछ व्यक्ति उस जगह कई वार जांच जा चुके थे, जहां अति- मान सिक बनने की योग्यतावाले व्यक्तियोंकी परीक्षा होतीं थी । तब मैंने कई आश्चर्यजनक बातें देरवी और उन्हें अंकित. कर लिया; कु छेक । तो मैंने इसके बारेमें बताया भी था । लेकिन मैंने आज जिन्हें तटपर उतारा है उन्हें मैंने बड़ी अच्छी तरह देखा है; वे बीचकी आयुवा लें थे, न छोटे बच्चे थे, न बूढ़े, कुछ विरल अपवाद अवश्य थे । और यह काफी कुछ मेरी आशासे मेल खाता था । मैंने कु छ न कहने और नाम न बताने का निश्चय किया । चूकि मैं अंततक वहां नहीं रुकी अत : ठीक-ठीक चित्र पाना मेरे लिये संभव न था । वह चित्र न तो पूरी तरह स्पष्ट था, न पूर्ण । मैं यह भी नहीं चाहती कि कुछको उसके बारेमें बताऊं ओर कुछको नहीं ।
मैं इतना ही कह सकती हू कि यह दृष्टिकोण या फैसला केवल उस तत्वपर आधारित था जिससे लोगोंका निर्माण हुआ था, अर्थात्, क्या वे पूर्णत: अतिमानसिक जगत् के प्राणी थे, क्या वे उसी विशिष्ट तत्त्वके बने थे, जों दृष्टिकोण अपनाया गया था वह न तो नैतिक था, न मनोवैज्ञानिक । यह हो सकता है कि जिस तत्त्वसे उनके शरीर बने थे वह कसी आन्तरिक विधान या आन्तरिक क्रियाका परिणाम हो, पर उस समय तो उसका प्रश्न नही था । कम-से-कम इतना तो स्पष्ट है कि वहांके मूल्य कुछ और है ।
जब मैं लौट आयी तो अनुभूतिकी यादके साथ-ही-साथ मैं यह भी जानती थी कि अतिमानसिक जगत् स्थायी था, वहां मेरी उपस्थिति भी स्थायी थी, सिर्फ कमी थी तो एक कडीकी जो चेतना और तत्त्वके बीच
२५९
सम्बन्ध जोड़ सकें । और वह कड़ी गाढ़ी जा रही है । उस समय मुझे एक चरम सापेक्षताकी अनुभूति हुई (वह अनुभूति काफी देरतक, लगभग दिन-मर बनी रही) -- नहीं, ठीक ऐसा भी नहीं : वह अनुभूति यह थी कि इस जगत् और उस जगत् के सम्बन्धने उस दृष्टिकोणको नितनित बदल दिया जिसके अनुसार चीजोंका मूल्यांकन ओर विवेचन होना चाहिये । इस द्रष्टिकोणमें कोई मानसिक तत्व न था, बल्कि इसने ऐसी विलक्षण आन्तरिक भावना जगायी कि बहुत-सी चीजों जिन्हें, हम अच्छा या बुरा मानते हैं सचमुच वैसी नहीं है । यह बिलकुल स्पष्ट है कि सब कुछ निर्भर है चीजोंकी क्षमतापर, अतिमानसिक जगत्को रूपायित करनेकी स्वाभाविक योग्यतापर या फिर उसके साथ नाता छोड़नेपर । यह हमारी साधारण गुण-विवेचनाओंसे बहुत अधिक भिन्न है, कभी-कभी तो' विपरीत मी । मुझे एक छोटी-सी चीज याद आ रही है, जिसे अकसर हम बहुत रवराब मानते हैं, कितना अजीब लगा यह देखकर कि वास्तवमें वह बहुत बढ़िया थी! कुछ अ१र चीजों जिन्हें हम बहुत महत्त्वपूर्ण समझते है, वास्तवमें कोई महत्व नहीं रखती : अमुक चीज ऐसी है या अमुक वैसी, इसका कोई महत्व नहीं । यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि दिव्य और अदिव्यकी हमारी विवेचना ही ठीक नही होती । कुछ चीजोंपर तो मैं हंस पडी... । भगवद्-विरोधी क्या है इसकी हमारी सामान्य भावना कृत्रिम प्रतीत होती है, वह ऐसी चीजपर आधारित लगती है जो सत्य और सजीव नही है (और फिर जिसे हम 'यहां जीवन कहते है वह उस जगत्की तुलनामें जीवन्त नहीं लगा), जो मी हो, यह भाव आधारित होना चाहिये दोनों जगतोंके बीचके हमारे सम्बन्ध- पर और इस बातपर कि चीजों अपने सम्बन्धको और भी सरल या कठिन कैसे बनाती है । तब इस बातकी विवेचनामें बहुत अन्तर पडू जायगा कि कौन-सी चीज हमें भगवानके निकट लें जाती है और कौन-सी दूर । मनुष्योंमें मी मैंने देखा कि जो चीज उन्हें अतिमानसिक बननेमें मदद देती है या बाधा डालती है वह उससे बहुत मित्र है जिसकी कल्पना हमारी नैतिक धारणाएं करती है । मुझे लगा कि हम कितने... हास्यास्पद है ।
*
(श्रीमां तब बच्चोंसे कहती है) : इसका अनुक्रम है, एक प्रकारसे ३ फरवरीको हुई अनुभूतिका परिणाम । लेकिन इसे अभी पढ़ना कुछ असामयिक होगा । यह बादमें अप्रैल अंकमें प्रकाशित होगा ।
मुझे तुम्हें यह अवश्य बता देना चाहिये कि फिलहाल हमारे जगत् और
२६०
अतिमानसिक जगत् के बीच जो सबसे प्रधान अन्तर मुझे लगता है वह यह है (ओर यह अन्तर अपनी सारी अतिशयताके साथ मेरे सामने तभी प्रकट हुआ जब मैं वहां सचेतन होकर गयी, उस चेतनाके साथ गयी जो सामान्य- तया यहां काम करती है) : भीतर, बहु-त गहराईमें जो कुछ हों रहा है उसे छोड़कर बाकी सब कुछ यहां बिलकुल बनावटी लगा । साधारण भौतिक जीवनका कोई भी मूल्य सत्यपर आधारित नहीं है । जैसे तन ढकनेके लिये हम कुछ कपड़ा लेनेके मजबूर होते है और जब उसे पहनना चाहे तो पीठपर डालनेके लिये पोशाकें सीते हैं वैसे ही खानेके लिये हमें बाहरसे चीजों लेनेकी जरूरत पड़ती है और पोषणके लिये उन्हें उदरस्थ करना पड़ता है । हर तरहसे हमारा जीवन बनावटी है ।
सच्चा, सरल, सहज जीवन जैसा अतिमानसिक जगत्में होता है, वह जिसमें चीज़ें सचेतन संकल्पद्वारा निर्झरकी तरह निकलती है, पदार्थ- पर ऐसा अधिकार होता है कि वह हमारे निश्चयके अनुरूप बन जाय । और जिसके पास शक्ति और शान हैं वह जो चाहे प्राप्त कर सकता है, लेकिन जिसके पास नहीं है उसके पास मनचाही चीजों पानेके लिये कोई कृत्रिम साधन नहीं होता ।
साधारण जीवनमें सभी कुछ कृत्रिम है । जन्म और परिस्थितियोके संयोगसे तुम कुछ ऊंची या नीची स्थिति, कम या ज्यादा आरामदेह पाते हो, इसलिये नहीं कि यह तुम्हारी आंतरिक आवश्यकता और तुम्हारी सत्ताकी सहज, स्वाभाविक और सरल अभिव्यक्ति है, बल्कि इसलिये कि जीवनमें संयोगसे आयी परिस्थितियां तुम्हें इन चीजोंके संपर्कमें लें आयी है । एक बिलकुल निकम्मा आदमी बहुत ऊंची स्थितिमें हो सकता है और निर्माण एवं सृजन ओर संगठनकी अद्भुत योग्यतावाला व्यक्ति अपने- आपको अति दीन-हीन और सीमित परिस्थितियोंमें गुलामी करता पा सकता है, जब कि, यदि दुनिया सच्ची होती तो वह पूर्ण रूपसे उपयोगी आदमी होता ।
इस बनावटीपन, कपट ओर निरी सत्यहीनताने मुझे ऐसा' धक्का दिया कि... आदमी सोचता रह जाता है कि इतने मिथ्या जगत्में यथार्थ मूल्यांकन कैसे हों सकते है ।
त्वेकिन उदास, दुःखी, विद्रोही, असन्तुष्ट होनेके बजाय, जैसा कि मैं तुम्हें अन्तमें बता रही थी, ऐसी हास्यास्पद, ऊट-पटांग भावना थी कि कुछ दिनों- तक जब भी ग लोगों और वस्तुओंको देखती थी तो बेतहाशा हंसी फूट पड़ती थी । परिस्थितियोंके बेतुकेपनके कारण ऐसी हंसी जिसका मेरे सिवाय किसीको कोई कारण न दीख सकता था ।
२६१
जब मैंने तुम्हें अज्ञातकी यात्राके लिये, साहसिक यात्राके लिये आमंत्रित किया था ता' मैं नहीं जानती थी कि मेरा कहना इतना सच था, और मैं यह वचन दे सकती हू कि जो जोखिम उठानेको तैयार है दे बड़ी मनोहारी खोजें करेंगे ।
३ फरवरीके अनुभवके कुछ दिन बाद
श्रीमांको अन्य अनुभव हुए जो कुछ-कुछ
पिछले अनुभवके अनुक्रममें थे । यह रहा
वह अंश (अभिलेख) :
हर व्यक्ति अपने साथ, अपने वायुमंडलमें उन्हें, लिये फिरता है जिन्हें श्रीअरविन्दने सेंसर या ''छिद्रान्वेषी'' नाम दिया है । ये एक तरहसे विरोधी शक्तियोंके स्थायी प्रतिनिधि होते है । इनका धन्धा है हर काम- की, हर चिन्तनकी, चेतनाकी छोटी-से-छोटी क्रियाकी निर्मम आलोचना करना, तुम्हें अपने आचार-व्यवहारके गुप्त-से-गुप्त स्रोतको सामने ला खड़ा करना, तुम्हारे पवित्र और उदात्त देखनेवाले विचारोंके सहगामी तुच्छ-से- तुच्छ, हीन स्पन्दनतकको उजागर कर देना ।
यहां नैतिकताका कोई सवाल नही है । ये महाशय नैतिकताके आढतिया नहीं होते, फिर भी नैतिकताका प्रयोग करना खूब अच्छी तरह जानते है! ओर जब उन्हें धर्मभीरु चेतनासे काम पड़ता है तो वे बेदर्दीसे उसकी नाक- मे दम कर सकते है, वे हर क्षण उसके कानोंमें फुसफुसायेगे : ''तुम्हें, ऐसा नहीं करना चाहिये था, तुम्हें, वैसा नहीं करना चाहिये था, बल्कि तुम्हें, ऐसा करना चाहिये था, ऐसा कहना चाहिये था, अब तो तुमने सब कुछ मटियामेट कर दिया, तुमने लाइलाज भूल की है, देखा गलतियोंने सब कुछ इस तरह चौपट कर दिया है कि सुधारकी कोई गुंजाइश ही नहीं ।'' ये किसी-किसीकी चेतनातकपर भी कब्जा कर लेते हैं. तुम किसी विचारकों खदेड़ देते हों, और ठप! दा मिनट बाद वह फिरसे आ घुसता है; तुम उसे फिर खदेड़ते हो, पर वह फिरसे तुमपर हथौड़े बरसानेके लिये आ धमकता है ।
जब भी इन महाशयोंसे भेंट होती है, मैं उनका स्वागत करती हू, क्योंकि वे पूरी तरह निष्कपट होनेके लिये विवश करते है, वे सूक्ष्मतम पाखण्डको मी सूंघ लेते है और पल-पलपर तुम्हें अपने गुप्त-सें-गुप्त स्पन्दनोंके सामने
२६२
ला खड़ा करते है । ये बहुत बुद्धिमान् है! बुद्धिमत्तामें ये हमसे अनन्त- गुना बढ-चढ्कर है. ये सब कुछ जानते है, सचमुच आश्चर्यजनक सूक्ष्मता- के साथ छोटे-से-छोटे विचार, क्रिया या तर्कको तुम्हारे विरुद्ध तैनात करने- मे बड़े माहिर है ये । उनसे कुछ भी नहीं चूकता । किन्तु जो बात इनपर शत्रुताका. रंग चढ़ाती है वह यह है कि ये सबसे पहले और सबसे बढ़कर पराजयवादी है । ये चित्रको सदा अंधकारमय बनाकर तुम्हारे सामने रखते है, और जरूरत पड़े तो तुम्हारे अपने अभिप्रायोंको भी विकृत कर देते है, ये सचमुच निष्कपटताके सच्चे यंत्र है । पर जान-बूझकर ये एक चीज भूल जाते है, किसी चीजको बहुत दूर, पीछे छोड़ आते हैं मानों उसका कोई अस्गिव ही नही : वह है भागवत कृपा । ये प्रार्थनाओंको मी भूल जाते है, वह स्वतःस्फूर्त्त प्रार्थना जो एकाएक हदयके तलसे एक आकुल पुकार बनकर उठती है और 'कृपाको उतार लाती है और चीजोंकी धारा- को बदल देती है ।
और हर बार जब तुम कुछ प्रगति करते हो, एक नये उच्च स्तरपर पहुंचते हों, वे फिरसे तुम्हारे पिछले जीवनके सारे कार्य-कलाप तुम्हारे सामने रख देते है और कुछ महीनों, कुछ घंटों या कुछ मिनटोंमें उस उच्च स्तरपर पुनः तुम्हें उन सब परीक्षाओंमेंसे गुजारते है । और विचारको परे हटाना ओर यह कहना. ''ओह,! मैं जानता हू,'' और आंखोपर परदा डाल लेना ताकि कुछ दिखायी न दे, काफी रहीं है । उसका सामना करना होगा, उसे जीतना होगा, अपनी चेतनाको ज्योतिसे परिपूरित, निष्कंप, बिना कुछ बोले शरीरके कोषाणुओंको नि:स्पन्द रखना होगा -- ओर तब आक्रमण विलीन हो जाता है ।
लेकिन हमारी ''शुभ और अशुभ' की धारणाएं कितनी उपहासजनक है । हमारी मान्यताएं कि कौन-सी चीज भगवानके नजदीक है और कौन-सी चीज भगवान्से दूर, कैसी हास्यास्पद है । उस दिन, ३ फरवरीकी अनुभूति मेरे लिये आंख खोलनेवाली घटन।. थी । मैं उसमेंसे बिलकुल बदली हुई निकली । एकाएक बहुत सारी बीती बातें, कर्म, अपने जीवनके वे पक्ष जो अबतक अबोध्य थे, मेरी समझमे आ गये । -- सचमुच, एक बिन्दुसे दूसरे बिन्दुतक जानेकी छोटी-सें-छोटी राह सीधी रेखा नहीं है जैसा कि लोग कल्पना करते है ।
और जितनी देर वह अनुभूति रही, करीब एक घंटा -- उस समयका तुक घटा भी बहुत लम्बा होता है --, मैं एक निराली आनन्दपूर्ण अवस्था- मे थी, लगभग मदहोशीकी अवस्थामें... । दोनों चेतनाओंमें आपसमें इतना अन्तर है कि जब तुम उनमेंसे एकमें हाते हों तो दूसरी झूठी लगती है,
२६३
सपने-जैसी, मैं जब लौटी तब सबसे पहले जो चीज मुझे खली वह थी यहांके जीवनकी निस्सारता । यहांकी क्षुद्र धारणाएं कितनी हास्यास्पद और बेतुकी लगती है... । हम कुछ लोगोंके बारेमें कहते है कि वे पागल हैं, पर अतिमानसिक दृष्टिकोणसे उनका पागलपन शायद महान् प्रज्ञा हो, और शायद उनका आचरण सच्चाईके ज्यादा करीब हो -- मैं उन अभागे पागलोंकी बात नहीं कर रही जिनके दिमागको कोई चोट पहुंची है, पर अन्य बहुत सारे अबोध पागलोंकी, आलोकित पागलोंकी बात कर रही हू : वे बहुत जल्दी सीमा पार कर जाना चाहते थे, पर बाकी सबने साथ नही दिया ।
जब हम अतिमानसिक चेतनासे इस मानव जगत्को देखते है तो उसकी प्रधान विशेषता होती है अजनबीपन और बनावटीपनकी भावना -- एक बेतुकी दुनिया, क्योंकि वह बनावटी होती है । यह जगत् इसलिये मिथ्या है क्योंकि उसका भौतिक रूपरंग वस्तुओंकी गहरी सच्चाईको बिलकुल ही प्रकट नहीं करता । जो अन्दर है और जो दिखायी देता है उनमें कुछ अव्यवस्था-सी है । इस तरह, एक आदमी जिसकी गहराइयोंमें दैवी शक्ति है, बाहरी स्तरपर अपने-आपको गुलामकी स्थितिमें पा सकता है । यह बेहूदगी है! दूसरी ओर अतिमानसिक जगत्में इच्छा-शक्ति सीधे-सीधे पदार्थपर कार्य करती है, और पदार्थ उस इच्छा-शक्तिका आज्ञाकारी होता है । तुम अपने-आपको ढकना चाहते हों : वह तत्व जिसमें तुम रहते हों तुम्हें ढकनेके लिये तुरत पोशाकका रूप धारण कर लेता है । तुम एक जगहसे दूसरी जगह जाना चाहते हो : बिना किसी वाहन या किसी तरहके कृत्रिम उपकरणके तुम्हें, यहांसे वहां पहुंचा देनेके लिये तुम्हारी इच्छा ही काफी होती है । अतः मेरी अनुभूतिके जहाजको चलानेके लिये किसी कल- पुर्जेकी जरूरत नहीं हुई, वह इच्छा ही थी जिसने पदार्थको आवश्यकतानुसार बदल दिया था । जब उतरनेका समय आया तो तट मी अपने-आप बन गया । जब मैंने दलोंके उतारना चाहा तो जिन्हें उतरना था वे मेरे एक शब्द कहें बिना स्वयं जान गये और वे अपने क्रममें आ गयें । चुपचाप सब कुछ होता यश, वहां अपनी बात समझानेके लिये कुछ कहनेकी जरूरत हीं नहीं पडी; परंतु जहाजकी नीरवतामें कृत्रिमताकी वह छाप नहीं थी जो यहां हुआ करती है । यहां जब तुम मौन रहना चाहते हो तब तुम्हें चुप रहना पड़ता है; यहां नीरवता शब्दके विपरीत है । वहां नीरवता थी गुंजायमान, जीवंत, सक्रिय, व्यापक और बोधगम्य ।
यहां विसंगति उन सब बनावटी साधनोंसे आती है जिनका सहारा लेना पड़ता है । किसी मी मूर्खको अधिक शक्ति प्राप्त हो सकती है यदि उसके
२६४
पास आवश्यक चतुर साधन प्राप्त करनेके तरीके हों । लेकिन अति- मानसिक लोकमें व्यक्ति जितना अधिक सचेत होगा और चीजोंकी सच्चाई- के साय जितना अधिक एकलय होगा उस पदार्थपर उसकी इच्छा-शक्ति- का अधिकार भी उतना ही अधिक होगा । यही अधिकार सच्चा अधि- कार है । यदि तुम परिधान चाहते हों तो उसे बनानेके लिये तुममें क्षमता, सच्ची क्षमता होनी चाहिये । यदि तुममें वह क्षमता नहीं है तो फिर तुम नंगे रहो । वहां एक भी ऐसा उपकरण नहीं जो इस क्षमताका स्थान लें सकें । यहां लाखों-करोड़ोमे एक भी ऐसा प्रभुत्व नहीं जो किसी सच्च1ई चीजकी अभिव्यक्ति हो । सब कुछ घोर मूर्खतापूर्ण है ।
जब मैं फिरसे नीचे उतर आयी -- ''नीचे उतर आयी'' यह ते। कहने- का ढंग है, क्योंकि यह न ता ऊपर है, न नीचे. न भीतर, न बाहर, वह... कही है, -- मुझे स्वयंको फिरसे संभालनेमें कुछ समय लगा । मुझे यह मी याद है कि मैंने किसीसे कुछ कहा था : ''अब हम पुन: अपनी अम्यस्त मूर्खतामें गिरने जा रहे हैं ।'' किंतु बहुत-सी बातें मेरी समझमें आ गयी है और मैं वहांसे निर्णायक शक्ति लेकर लौटी हू । अब मैं जानती हू कि यहां इस धरतीपर वस्तुओंके मूल्यांकनके हमारे तरीकेके साथ और हमारी तुच्छ नैतिकताके साथ अतिमानसिक जगत् के मूल्यांकनका कोई मेल नहीं ।
यहांकी ऊपरी चीजों नाटकीय नहीं । ये मुझे अधिकाधिक साबुनके बुलबुले जैसी लगने लगी है, खासकर ३ फरवरीसे ।
ऐसे लोग है जो निराशामें, अंसूमरे उस अवस्थामें आते है जिसे वे भीषण नैतिक यातना कहते है, जब मैं उन्हें यूं देरवती हूं ता- अपनी चेतनाकी, जो तुम सबको अपनेमें समाये है, एक सुईको जरा-सा घूमा देती हूं, और जब वे वापस चले जाते है तो अपने-आपको बिलकुल स्वस्थ पाते हैं । यह सुई ठीक कम्पासकी सुईकी तरह है. अपनी चेतना- मे तुम उसे घुमाभर दें'। और सब कुछ समाप्त । स्वभावत: वह बादमें अम्यासवश दुबारा आ जाता है । ये साबुनके बुलबुलोंके सिवा और कुछ नहीं ।
मैंने मी यातनाओंको जाना है, लेकिन मेरे अंदर हमेशा एक ऐसी चीज रहती थी जो तटस्थ होकर पीछे रहना जानती थी ।
इस दुनियामें केवल एक ही चीज है जो मुझे अभीतक असह्य लगती
है, वह है भौतिक विकृति, शारीरिक दुःख-दर्द, कुरूपता. प्रत्येक सत्तामें निहित सौदर्यकी संभावनाको अभिव्यक्त करनेकी अक्षमता । पर एक दिन इसपर भी विजय प्राप्त की जायगी । वहां भी, एक दिन वह शक्ति आयेगी जो सुईको जरा-सा घूमा देगी । हमें सिर्फ चेतनामें और ऊपर उठना होगा! जड़-पदार्थमें जितनी ही गहराईमें उतरना चाहो उतना ही चेतनामें ऊपर उठना आवश्यक होगा । इसमें कुछ समय लगेगा । निःसंदेह श्रीअरविदने ठीक ही कहा है कि इस कार्यमें कुछ शताब्दियां अंग जायंगी ।
२६५
Home
The Mother
Books
CWM
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.