The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
२० मार्च, ११५७
''विजयका आनंद कभी-कभी संघर्ष और कष्टके आकर्षणसे कम होता है; फिर भी विजयशील मानव आत्माका उद्देश्य मुकुट होना चाहिये न कि सूली।
अभीप्सा न करनेवाली अंतरात्माएँ परमात्माकी असफलताएं हैं; परंतु प्रकृति उनसे प्रसन्न होती है और उनकी संख्या बढ़ाना चाहती है क्योंकि वे उसके स्थायित्वका आश्वासन देते और उस- के साम्राज्यको लंबाते हैं ।
जो दरिद्र हैं, अज्ञानी, अकुलीन या अशिष्ट हैं वे प्राकृत जन नहीं हैं, प्राकृत जन वे सब हैं जो तुच्छता और सामान्य मानवतासे संतुष्ट हैं ।
मनुष्योंकी सहायता कर पर उन्हें अपनी शक्तिसे वंचित करके मुहताज न बना; उनका पथ-प्रदर्शन कर और उन्हें सीख दे पर ध्यान रख कि उनकी उपक्रमशक्ति और मौलिकता अक्षत रहें; दूसरोंको अपने अंदर ले ले, पर बदलेमें उन्हें उनकी प्रकृतिका पूर्ण देवत्व प्रदान कर । जो यह कर सकता है वही नेता और गुरु है ।
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परमेश्वरने संसारको युद्धका एक क्षेत्र बनाया है और इसे योद्धाओं- की ठोकरों तथा भारी मल्लयुद्ध और संघर्षकी चिल्लाहटोंसे भर दिया है । क्या तू उनकी शांतिको चुरा लेना चाहता है, वह मूल्य चुकाये बिना ही जो उन्होंने इसके लिये निश्चित किया है !
पूर्ण प्रतीत होनेवाली सफलतापर विश्वास मत कर, परंतु सफल हो चुकनेके बाद जब तू देखे कि अभी बहुत कुछ करना बाकी ह तो प्रसत्र हो और आगे बढ़ता चल क्योंकि सच्ची पूर्णतासे पहले लंबा परिश्रम होता है ।
इससे बढ़कर सुन्न कर देनेवाली और कोई भूल नहीं हो सकती कि गलतीसे किसी पड़ावको ही लक्ष्य समझ लिया जाय या किसी विश्राम-स्थलपर बहुत अधिक ठहरा जाय ।''
(विचार और झांकियां)
श्रीअरविदने यहां यह सब जो कहा है उसका उद्देश्य है मानव प्रकृतिके तमस्के, उसकी जड़ता, आलस्य, सहज-सन्तुष्टि और परिश्रम न करनेकी प्रवृत्तिके विरुद्ध लड़ना । जीवनमें कितनी ही बार हमें ऐसे लोग मिलते है जो शांतिप्रिय इसलिये होते है कि ३ लडाईसे डरते है, जो संग्रामजीतने- से पहले ही आरामके लिये लालायित होते हैं, जो अपनी जरा-सी प्रगतिसे संतुष्ट हो जाते हैं और अपनी कल्पना तथा कामनाओंमें उसे ऐसी अद्भुत प्राप्ति समझ लेते है जो उनके आधे रास्तेमें रुक जानेको न्याय-संगत ठहराती है ।
सामान्य जीवनमें, निःसंदेह, ऐसा बहुत होता है । वस्तुत: यह मध्य- वर्गीय आदर्श है और इसने मानवजातिको एक तरहसे मुरदा बना दिया है और मनुष्यको वैसा बना डाला है जैसा वह आज है । ''जबतक युवा हो काम करो, धन, सम्मान, पदका अर्जन करो, थोडी दूर-दृष्टि रखो, कुछ बचाओ और एक पूंजी जमा कर लो, पदाधिकारी बनो, ताकि जब तुम चालीसके होओ तो आराम कर सको, अपनी आमदनीका और बादमें पेन्शनका उपभोग कर सको ।'' - बैठ जाना, रास्तेमें रुक जाना, आगे न बढ़ना, सो जाना, समयसे पहले कब्रकी ओर चल देना, जीवनका उद्देश्य और प्रयोजन ही जीना बन्द कर देना - बैठ जाना!
जिस क्षण मनुष्य आगे बढ़ना बन्द कर देता है, वह पीछे जाता है ।
जिस क्षण वह संतुष्ट होकर बैठ जाता है तथा और आगे अभीप्सा नहीं करता वह मरना शुरू कर देता है । जीवन है गति, जीवन है प्रयास, जीवन है आगेकी ओर बढ़ना, एक पहाड़ी चढ़ाई चढ़ना, नये-नये ज्योति-शिखरोंको पार करना और भविष्यकी चरितार्थताकी ओर अग्रसर होना । विश्राम करनेकी इच्छासे बढ़कर खतरनाक कोई वस्तु नही है । हमें विश्रामकी खोज करनी चाहिये कर्ममें, प्रयासमें, आगेकी ओर बढ़नेमें -- उस सच्चे विश्रामकी जो भागवत कृपामें पूर्ण भरोसा रखनेसे, इच्छाओं- के अभावसे, अहंपर विजय प्राप्त करनेसे मिलता है ।
सच्चा विश्राम चेतनाको विस्तृत करनेसे, विश्वभावापत्र बनानेसे मिलता है । संसार जितने विशाल बन जाओ और तुम सदा आराममें रहोगे । कर्मकी भरपूरतामें, रणस्थलीके बीचोंबीच, विविध प्रयासोंके पूर्ण प्रवेगमें तुम अनंतता और शाश्वतताकी विश्रांतिका अनुभव करोगे ।
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