The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
२३ अप्रैल, १९५८
मधुर मां, जब हमारे अंदर अधिक अच्छा करनेका प्रयास चलता है, पर हमें कोई प्रगति नहीं दिखती, तो हम बहुत हताश हो जाते हैं । क्या करना सबसे अच्छा होगा?
हताश न होना!... निराशा कहीं नही लें जाती ।
शुरूमें, सबसे पहली बात तो तुम्हें अपने-आपसे यह कहनी चाहिये कि तुम यह जाननेमें प्रायः बिलकुल अक्षम हो कि तुम प्रगति कर रहे हो या नहीं, क्योंकि, बहुधा, जो हमें गतिहीनताकी अवस्था लगती है, वह आगे- की ओर छलांग लगानेकी लंबी -- कभी-कभी लंबी पर किसी हालतमें अंतहीन नहीं -- तैयारी होती है । कभी-कभी हमें लगता है कि हफ़्ते और महीने बीतते जाते है और तब सहसा वह चीज सामने आ जाती है जिसकी ओर तैयारी हो रही थी, और हम देखते है कि काफी कुछ बदल पाया है, औ र एक साथ कई स्थलोंपर ।
जैसा कि योगमें हर बातके लिये होता है, यह जरूरी है कि प्रगतिके लिये प्रयास इसलिये किया जाये क्योंकि प्रगतिके प्रयाससे प्रेम है । फालसे स्वतंत्र, प्रयासका , प्रगतिके लिये अभीप्सा ही अपने-आपमें पर्याप्त होनी चाहिये । योगमें व्यक्ति जो कुछ करता है वह करनेके आनंदके लिये करना चाहिये, अपने वांछित फलकों रयानमें रखकर नहीं.. । सच- मुच, जीवनमें, सदा, हर वस्तुमें, फलपर हमारा अधिकार नहीं होता । और यदि हम सच्ची मनोवृत्ति अपनाना चाहते है तो हमें सहज तरीकेसे काम करना, अनुभव करना, विचारना और प्रयास करना चाहिये, क्योंकि वही है जिसे करना चाहिये, किसी वांछित परिणामको दृष्टिमें रखकर नही ।
जैसे ही हम फलके बारेमें सोचते है हम सौदेबाजीपर उतर आते है और यह प्रयासकी सारी सच्चाईको छीन लेता है । तुम प्रगतिके लिये प्रयत्न करते हा- क्योंकि तुम अपने अंदर इसकी आवश्यकता महसूस करते हो, प्रयत्न और प्रगति करनेके लिये अनिवार्य आवश्यकता । यह प्रयत्न वह भेंट है जो तुम अपने अंदर स्थित 'दिव्य चेतना' को विश्वकी 'दिव्य चेतना' को अर्पित कर रहे हों, यह अपनी कृतज्ञता व्यक्त करनेका, अपने- आपको दे देनेका तुम्हारा ढंग है, और फलस्वरूप यह कोई प्रगति लाता है या नहीं - इसका कुछ भी महत्व नहीं है । तुम तभी प्रगति करोगे
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जब यह निर्णय हो जायगा कि प्रगतिका समय आ गया है, इसलिये नहीं कि तुम चाहते हो ।
यदि तुम प्रगतिकी इच्छा करते हो, उदाहरणार्थ, यदि तुम अपने-आपको वशमें करना चाहते हों, कुछ त्रुटियां, दुर्बलताओं, अपूर्णताओपर विजय प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हों, और लगभग तुरत ही अपने प्रयत्नका फल पाना चाहते हो तो तुम्हारा प्रयत्न सारी सच्चाई देता है । वह सौदे- बाजी हो जाती है । तुम कहते हो : ''देखो, मैं प्रयत्न करने जा रहा हू क्योंकि अपने प्रयत्नके बदलेमें अमुक चीज चाहता हू । ''. तब तुम सहज- स्वाभाविक नहीं रह जाते ।
अतः दो चीजों याद रखनी चाहिये । पहले, परिणाम क्या होना चाहिये यह निर्णय करनेकी क्षमता हमें नहीं है । यदि हम भगवानपर भरोसा रखते हैं, यदि हम कहते हैं... यदि हम कहते हैं, ''ठीक है, मैं सब कुछ दे दंगा, सब कुछ, मैं जो कुछ दे सकता हू, प्रयत्न, एकाग्रता सब कुछ, और वही विचार करेगा कि बदलेमें क्या किया जाय ... या बदलेमें कुछ दिया भी जाय या नहीं, और मैं, मैं स्वयं नहीं जानता कि परिणाम क्या होना चाहिये । '' अपने अंदर कुछ भी रूपांतरित करनेसे पहले क्या हम निश्चित रूपसे कह सकते है कि इस रूपांतरको को न-सी दिशा, राह और रूप लेना चाहिये? - बिलकुल नहीं । अतः यह तो हमारी कल्पनामात्र है बार साधारणतया हम वांछित परिणामकी संकीर्ण सुग्गा बांध देते है, उसे एकदम ही तुच्छ, क्षुद्र, छिछला, सापेक्ष बना देते है । हम नही जानते कि ठीक-ठीक परिणाम क्या हो सकता है ओर क्या होना चाहिये । हमें बादमें पता चलता है । जब वह आता है, जब परिवर्तन हो चुकता है, तब यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो कहेंगे : ''आह! तो यह है, इसीकी ओर तो मैं बढ़ रहा था! '' -- पर यह तो बादमें ही पता चलता है । पहले तो, सच्चे रूपांतर, सच्ची प्रगतिकी तुलनामें व्यक्ति सिर्फ धुंधली कल्पनाएं करता है जो बिलकुल ऊपरी और बचकानी होती है ।
अतः हम कहते है, पहली बात है. हममें अभीप्सा है, पर सचमुच हम नहीं जानते कि कौन-सा. सच्चा परिणाम है जो हमें मिलना चाहिये । यह तो केवल भगवन् ही जान सकते है ।
दूसरी बात, यदि हम भगवान्से कहें, : ''मैं तुझे अपना प्रयत्न अर्पण करता हू, लेकिन देख, बदलेमें मेरी प्रगति होनी चाहिये नहीं तो मैं तुझे कुछ मी नहीं दूँगा! '' तब यह सौदेबाजी हुई । बस!
(मौन)
सहज कार्य, जो इसलिये किया जाता है कि तुम अन्यथा कर ही नहीं सकते, सद्भावनाकी भेंटके रूपमें किया गया काम ही एकमात्र' वह काम है जो सचमुच मूल्यवान् है ।
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