The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
२६ नवंबर, १९५८
''... जैसे यहां ' ज्ञान' को खोजते हुए ' अज्ञान' के आधारपर, जो अपने -आप ' ज्ञान ' मे विकसित होता जाता है, ' मन प्रतिष्ठित है, उसी तरह अब ' अतिमानस ' को अप ने महत्तर ' प्रकाश ' मे बढ़ ने वाले ' ज्ञान ' - के आधारपर प्रतिष्ठित होना चाहिये । परंतु यह तबतक संभव नहीं है जबतक आध्यात्मिक मनोमय प्राणी पूरी तरहसे ' अति- मानस' तक उठकर उस की शक्तियोंको धरतीके जीवनमें नहीं उतार लाता । ' मन' और ' अतिमन ' के बीचकी खाईपर पुल बनाना होगा, बंद रास्तोंको खोलना होगा और जहां अ भीतक शून्यता ओर शांत निश्चलता है वहां आरोहण, अवरोहणके रास्ते बन ? होंगे । यह केवल उस त्रिविध रूपांतरके द्वारा किया जा सकता है जिसके संबंधमें हम स रसरी तौरपर उल्लेख कर आये हैं । इनमेंसे पहला है चैत्य परिवर्तन, यानी, हमारी वर्तमान प्रकृा तपूरी तक बदलकर र अंतरात्माका उपकरण बन जाय । इसके बाद या इसके स ?? आध्यात्मिक पीरवर्तन आना चाहिये, यानी, उच्चतर ' ज्योति ', ' ज्ञान ', ' वल ', ' शक्ति ', ' आनंद ', ' पवित्रता' का पूरी सत्तामें, प्राण और शरीरके निचले-से- निचले गुप्त स्थानोंमें, यहांतक कि अवचेतनाके अंधकारमें भी अवतरण होना चाइ हेय । और अंतमें आयेगा आइ तम कस रूपांतर । आरोहणकी क्रियाके शिखर-रूप ' अतिमानस ' मे आरोहण होना चाहिये और हमारी पूरी सत्ता और प्रकृतिमें अतिमानस ' चेतना' - का रूपांतरकारी अवतरण होना चाहिये । ''
( ' लाइफ डिवाइन ' । पृ ० ८१० - ११)
आत्माकी क्या भूमिका है?
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कहा जा सकता है कि यह परम प्रभु और अभिव्यक्त विश्वके बीच सचेतन मध्यस्थ है और साथ-ही-साथ परम प्रभुके साथ अभिव्यक्त विश्वका मिलन- स्थल ।
आत्मा उच्चतम देवत्वको समझने और उसके साथ संपर्क स्थापित करने- मे सक्षम है और साथ-ही-साथ उच्चतम परम देव और बाह्यतम अभिव्यक्त विश्वका सबसे कम विकृत, सबसे अधिक पवित्र मध्यस्थ है । यह आत्मा ही है जो अंतरात्माकी सहायतासे चेतनाको 'उच्चतम' की ओर, भगवान्- की ओर मुड़ती है आर आत्मामें ही चेतना भगवानको समझना आरंभ कर सकती है ।
यह कहा जा सकता है कि जिसे ''आत्मा' ' कहा जाता है वह है जड़ भौतिक जगत्में 'कृपा' द्वारा लाया गया वातावरण, ताकि यह अपने मुल्की चेतनाके प्रति जाग सकें और उसतक लौटनेकी अभीप्सा कर सकें । सच- मुचा यह एक तरहका वातावरण है जो मुक्त करता है, द्वार खोल देता हैं और चेतनाको स्वतंत्रता प्रदान करता है । यही है वह जो सत्यकी उप- लब्धिकी तैयारी करता है ओर अभीप्साको उसकी पूरी शक्ति ओर ससिद्धि प्रदान करता है ।
और भी ऊपरसे देखते हुए इसे यूं भी कहा जा सकता है : इस क्रिया, इस दीप्त और मुक्तिप्रद प्रभावको ही ''आत्मा'' नाम दिया गया है, उस सबको जो हमारे लिये परम तथ्योतक जानेके पथ खोल देता है, जो हमें 'अज्ञान'की दलदलमेंसे, जहां हम फंस हुए है, बाहर खींच लाता है, हमारे लिये द्वार खोल देता है, हमें राह दिखाता है, हमें कहा जाना चाहिये इसका निर्देशन करता है । मनुष्यने इसीका नामकरण किया है ''आत्मा'' । यह भागवत कृपाद्वारा विश्वमें बनाया गया वह वातावरण है जो उसे उस अधकारमेंसे उधार सके जिसमें वह जा गिरा है ।
मानव प्राणीमें जीवात्मा मानों उसका व्यक्तिगत संकेंद्रण, व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व है । जीवात्मा मानवजातिकी विशेष चीज है, केवल मनुष्य- में हीं इसका अस्तित्व है । यह मनुष्यमें आत्माकी एक विशेष अभिव्यक्ति- की तरह है । अन्य जगतोकी सत्ताओंमें जीवात्मा नही होतीं, लेकिन ३ आत्मामें वास कर सकते है । कहा जा सकता है कि जीवात्मा मानवमें आत्माका प्रतिनिधि है, उसे अधिक तेजीसे ले चलनेके लिये विशिष्ट सहायता है । जीवात्माके द्वारा हीं व्यक्तिगत उन्नति संभव होती है । अपने मूल रूपमे आत्माकी क्रिया अधिक व्यापक, अधिक सामूहिक होती है ।
फिलहाल आत्मा सहायक और पथ-प्रदर्शककी भूमिका निभाती है, पर यह जड़ जगत्की सर्वशक्तिमान् प्रभु नहीं है; जब नये जगत्में 'अतिमानस'
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संघटित हो जायगा तब आत्मा प्रभु बनकर बिलकुल स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूपसे प्रकृतिपर शासन करेगी ।
जिसे ''नव जन्म'' कहा जाता है वह आध्यात्मिक जीवनमें, आध्यात्मिक चेतनामें जन्म है, वह अपने अंदर आत्माकी किसी ऐसी चीजको वहन करना है जो जीवात्माके द्वारा, व्यक्तिगत रूपसे, जीवनको शासित करना और अस्तित्वकी स्वामिनी बनना शुरू कर सकती है । लेकिन अतिमानसिक जगत्में आत्मा ही सचेतन रूपसे, सहजम्हवाभाविक रूपसे समग्र जगत्की और इसकी सब अभिव्यक्तियों और अभिव्यजनाको स्वामिनी होगी ।
व्यक्तिगत जीवनमें इसीसे सारा अंतर पडू जाता है, जबतक तुम आत्मा- के बारेमें बोलते-भर हों, इसके बारेमें कुछ पढा है, इसके अस्तित्वका धुँधला-सा परिचय है, यह चेतनाके लिये कोई बहुत मूर्त वास्तविकता नही है, तो इसका मतलब है कि तुम आत्मामें नहीं जन्मे हों । और जब तुम आत्मामें जन्म ले लेते हो तो यह सारे स्थूल जगतसे अधिक मूर्त, कहीं अधिक जीवंत, कही अधिक सत्य और कहीं अधिक प्रत्यक्ष हों जाती है । और इसीके कारण मनुष्योंमें सारभूत भेद होता है । जब यह अनायास रूपसे सत्य बन जाती है - सच्चा, ठोस अस्तित्व, ऐसा वातावरण जिसमें तुम स्वच्छंदता से सास लें सको - तब तुम जान जाते हों कि तुम उस पार चले गये हो । पर जबतक यह अस्पष्ट और धुंधली-सी रहती है -- तुमने इसके बारेमें कही गयी बातें सुनी-भर है, तुम जानते हो कि इसका अस्तित्व है लेकिन... । यह ठोस वास्तविकता नहीं बनी -- तो इसका अर्थ है कि अभीतक तुम्हारा नव जन्म नहीं हुआ है । जबतक तुम अपने- आपसे यह कहते हों : ''हां, इसे मै देखता हू, इसे छूता हू, मैं जो पीड़ा भोगता हू., जो भूख मुझे सताती है, जो नींद मुझपर हावी होती है, वही सत्य हें, सचमुच यहीं ठोस है... ।'' (माताजी हंसती है) तो इसका अर्थ है कि तुम अभी उस पार नहीं गयें हो, आत्मामें नही जन्मे हो ।
( मौन)
असलमें अधिकतर मनुष्य कैदीके समान है जिनके लिये सब दरवाजे और खिड़कियां बंद हैं, अतः उनका दम घुटता है (यह बिलकुल स्वाभाविक है), लेकिन उनके पास वह कुंजी है जो दरवाज़ों और खिड़कियोंको खोल सकती है, पर वे उसका उपयोग नहीं करते... । निश्चय ही, ऐसा मी समय होता है जब उन्हें यह मालूम नहीं होता कि उनके पास कुंजी है, परंतु इसे जान लेनेके बहुत बादमें भी, यह बताये जानेके बहुत बाद भी
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वे इसका उपयोग करनेसे झिझकते है और उन्हें सदेह होता है कि इसमे दरवाजे और खिड़कियोंको खोलनेकी क्षमता है भी । ओर क्या दरवाजे और खिड़कियां खोलना अच्छा होगा! यह महसूस कर लेनेपर भी कि ''आखिर, शायद यह अच्छा ही हो '', थोड़ा डर बना रहता है : ''जब ये दरवाजे और खिड़कियां खुल जायंगे तो क्या होगा?... '' और: वे डरे रहते है । उन्हें उस प्रकाश और स्वतंत्रतामें खो जानेका डर होता है । वे उसीमें बने रहना चाहते है जिसे वे ''अपना आपा'' कहते है । उन्हें अपना मिथ्यात्व और बंधन पसंद है । उनमें कुछ चीज इसे पसंद करती है और इससे चिपटी रहती है । वै इस ख्यालमें रहते है कि अपनी सीमाओंके बिना उनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा ।
इसीलिये यात्रा इतनी लंबी है, इसीलिये यह इतनी दुरूह है । क्योंकि यदि सचमुच कोई अपनी अस्तित्वहीनताके लिये सहमत हो तो सब कुछ कितना आसान, द्रुत, आलोकमय और आनंदमय हों जायगा -- पर शायद उस तरह नही जैसे लोग हर्ष ओर आसानीको समझते है । तथ्य नौ यह है कि ऐसे लोग बहुत कम है जिन्हें संघर्ष पसंद नही है । बद्रुत कम लोग इस बातसे सहमत होंगे कि रातकान होना संभव है, वे प्रकाशकी कल्पना अंधकारके उलटे रूपके सिवाय कर ही नही सकते ''छायाओंके बिना चित्र न होगा, संघर्षके बिना विजय न होगी और कष्ट-सहन बिना आनन्द न होगा। ।', बस यही उनकी धारणा है ओर जबतक कोई इस तरह सोचता है तबतक, आत्मामें उसका जन्म नही हुआ हैं ।
(खेलके मैदान दी गयी वार्ताओंमें यह अंतिम वार्ता है ।)
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