The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
२८ मई, १९५८
''यह बिलकुल सत्य है कि एक बाहरी दृष्टिको 'प्राण' 'जडु'का ही एक व्यापार लगता है, 'मन' 'प्राण'की क्यिा मालूम होती है और हो सकता ह कि जिसे हम अंतरात्मा या आत्मा कहते हैं वह मानसकी ही एक शक्ति हो, अंतरात्मा 'मन'का ही एक सूक्ष्म रूप हो और आध्यात्मिकता एक सशरीर मानसिक सत्ताकी उच्च क्यिा । लेकिन यह एक बाहरी दृष्टि है क्योंकि इसमें विचार बाहरी रूप और प्रक्रियापर ही केंद्रित रहता है और यह नहीं देखता कि प्रक्रियाके पीछे क्या है । इसी दिशामें चलते हुए यह कहा जा सकता है कि बिजली जड़, बादल और जलर्कां उपज या उनकी क्रिया है क्योंकि ऐसे क्षेत्रोंमें ही बिजली कौंधती है । लेकिन अधिक गहरी खोजने बताया है कि इसके विपरीत जल और बादल दोनों ही का आधार है बिजलीकी ऊर्जा, वही उनकी संघटक शक्ति या ऊर्जा -- पदार्थ है । जो परिणाम दिखता है वहीं -- रूपमें भले न हो, पर वास्तवमें -- मूल स्रोत है, कार्य अपने सार तत्त्वमें देखनेवाले कारणसे पहले मौजूद होता हैं । बाहर प्रकट होनेवाली क्यिाशीलताका तत्त्व अपने वर्तमान कार्यक्षेत्रसे पहले होता है । विकसनशील प्रकृतिमें सब जगह ऐसा ही है । यदि 'जड़-पदार्थमें 'प्राण' पहलेसे न होता और 'जडमें प्राण' के रूपमें प्रकट न होता तो 'जड़-पदार्थ' कभी जीवन
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धारण न कर सकता । यदि प्राण और जड़-तत्वके पीछे 'मन- तत्त्व' न होता और विचारशील मन प्राणको अपना क्रियाक्षेत्र न बनाता तो जडमें स्थित प्राण कभी अनुभव, निरीक्षण, विचार, न कर पाता । इसी तरह मनसे प्रकट होनेवाली आध्यात्मिकता एक ऐसी शक्तिका चिह्न है जिसने अपने-आप प्राण, मन और शरीरकी स्थापना की है और अब सप्राण, विचारशील शरीरमेंसे आध्यात्मिक सत्ताके रूपमें प्रकट हो रहीं है । यह उन्मज्जन कहातक जायगा, बह प्रधान रूप ले सकेगा ओर अपने उपकरणको रूपांतरित कर सकेगा या नहीं, यह बादका प्रश्न है । पहली आवश्यकता तो यह स्थापित करनेकी है कि 'आत्माका अस्तित्व 'मनसे भिन्न है और वह 'मन 'से बड़ी है, आध्यात्मिकता मानसिकतासे भिन्न है और इसलिये आध्यात्मिक सत्ता मान- सिक सत्तासे स्पष्ट रूपमें भिन्न है : 'आत्मा' क्रमविकासमें अंतिम उन्मज्जन है क्योंकि वही अंतर्लयात्मक मौलिक तत्व और अंग है । विकास अंतर्लयनसे उलटी क्यिा है । अतर्लयनमें जो सब- के बाद, अंतमें आता है बह विकासमें सबसे पहले प्रकट होता है । अतर्लयनमें जो मौलिक और आद्य था वह विकासमें अंतिम और परम उन्मज्जन हो जाता है ।''
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८५२-५३)
आज मुझसे अवतारके बारेमें बोलनेके लिये कहा गया है ।
पहली बात तो मुझे यह कहनी है कि श्रीअरविदने इस विषयपर लिखा है और जिसने मुझसे यह प्रश्न किया है वह श्रीअरविंदका लिखा हुआ पढ़ना शुरू करे तो अच्छा होगा ।
उसके बारेमें मुझे कुछ नहीं कहना है क्योंकि उसे पढ़ना ही तुम्हारे लिये अधिक अच्छा होगा ।
पर मैं' तुम्हें एक बहुत पुरानी परंपरा, आध्यात्मिक और गुह्य परंपराओं- की दोनों ज्ञात धाराओं, अर्थात्, वैदिक और कैल्डियन धारणाओंसे मी पुरानी परंपराओंके ' बारेमें बताऊंगी; ऐसी परंपरा जो लगता है इन दो शांत धाराओंके मूलमें रही होगी । इसमें कहा जाता है कि जब विरोधी शक्तियोंके द्वारा जिन्हें हिंदू परंपरामें असुर कहते है -- यह संसार अपने 'ज्योति' और जन्मजात ' चेतना'के विधानके अनुसार प्रगति करनेके बजाय, तम, निश्चेतना और अविद्या, जिनसे हम परि-चालित हैं, मे डूब गया, तब 'सृजनकारी शक्ति' ने 'परम आदि मूल' से अभ्यर्थना की, इस पथ-
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म्पष्ट विश्वको बचानेके लिये विशेष हस्तक्षेपकी याचना की; -और इस प्रार्थनाके उतरमें 'परम मूल-स्रोतसे उद्भूत हुई प्रेम और चेतनासे निर्मित एक विशेष सत्ता जिसने सीधे निबिड़ निश्चेतन जडमें डुबकी लगायी ताकि वहां आदि 'चेतना' और 'प्रेम' के प्रति उसे जगानेका काम शुरू हो सकें ।
पुरानी कथाओंमें इस 'पुरुष 'का वर्णन इस प्रकार आता है कि एक बहुत अंधेरी गुफा के तलमें यह गहरी नींदमें सोया पड़ा है और वहां इसकी नींदमें ही इसमेंसे प्रकाशकी तेज रंगीन किरणें फूटी जो धीरे- धीरे निश्चेतनमें फैल गयीं और निश्चेतनके सब तत्वोंमें जा बसी, ताकि वहां 'जाग्रति'का काम शुरू कर सकें ।
यदि इस निश्चेतनमें कोई सचेतन भावसे प्रवेश करे तो अब भी वहां इस अलौकिक 'सत्ता'को देख सकेगा जो अभीतक गहरी नींदमें सोयी हुई है, निस्सरणका अपना कार्य कर रही है, 'ज्योति' फैला रही है; और वह उस समयतक यह करती रहेगी जब तक 'निश्चेतन' निश्चेतन न रह जायगा, जबतक दुनियासे अंधकार मिट नहीं जाता -- और सारी सुराइष्ट 'अतिमानसिक चेतना'के प्रति सजग नहीं हों जाती ।
और दर्शनीय बात यह है कि यह विलक्षण 'सत्ता' उस 'सत्ता 'के साय मिलती-जुलती है जिसे मैने एक दिन अपने अंतर्दर्शनमें देखा था, वह सत्ता जो दूसरे छोरपर, 'साकार' और 'निराकार' की सीमापर स्थित है । लेकिन वह सुनहली अरुण-प्रभा-मंडित थी जब कि यह अपनी नींदमें हीरे-सी चमकती शुभ्रता लिये थी जिससे दूधिया किरणें निकल रही थीं ।
और वास्तवमें, सब अवतारोंका मूल यही है । कहना चाहिये कि यह पहला वैश्व अवतार है जिसने धीरे-धीरे उत्तरोत्तर अधिक सचेतन शरीर धारण किये और अंतमें उन परिचित-सी 'सत्ताओंकी पंक्तिमें आविर्भूत हुआ जो विश्वको तैयार करनेके कामको पूरा करनेके लिये सीधी 'परम' के यहांसे अवतरित हुई है, ताकि विश्व निरंतर प्रगतिके द्वारा, अति- मानसिक 'ज्योति'को उसकी संपूर्णतामें ग्रहण करने और अभिव्यक्त करने- के लिये तैयार हो सकें ।
हर देशमें, हर परंपरामें, यह घटना एक खास ढंगसे, विभिन्न सीमाओं- के भीतर, विभिन्न विवरणोंके साथ, अमुक विशिष्टताओंके साथ प्रस्तुत की गयी है, लेकिन सच पूछो तो इन कथाओंका मूल एक ही है और कहा जा सकता है कि वह बीचकी सब अवस्थाओंसे गुजरे बिना अंधतम जडुमें, 'परम' का सीधा, सचेतन हस्तक्षेप है जिससे कि यह जड़-जगत् भागवत शक्तियोंको धारण करनेके लिये जाग उठे ।
इन अवतारोंको अलग करनेवाले अंतराल उत्तरोत्तर छोटे होते दीखते है, मानों जैसे जड़ अधिकाधिक तैयार होता गया वैसे ही क्रिया भी जोर पकड़ती और अधिक तेज होती चली गयी, साथ ही अधिकाधिक सचेतन और अधिकाधिक प्रभावशाली और निर्णायक भी ।
और यह अपने-आपको बहुगणित करता और तीव्र बनाता रहेगा जब- तक कि सकल ब्रह्माण्ड 'परम' का पूर्ण अवतार नहीं बन जाता ।
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