The Mother's answers to questions on books by Sri Aurobindo: 'Thoughts and Glimpses', 'The Supramental Manifestation upon Earth' and 'The Life Divine'.
This volume contains the conversations of the Mother in 1957 and 1958 with the members of her Wednesday evening French class, held at the Ashram Playground. The class was composed of sadhaks of the Ashram and students of the Ashram’s school. The Mother usually began by reading out a passage from a French translation of one of Sri Aurobindo’s writings; she then commented on it or invited questions. For most of 1957 the Mother discussed the second part of 'Thoughts and Glimpses' and the essays in 'The Supramental Manifestation upon Earth'. From October 1957 to November 1958 she took up two of the final chapters of 'The Life Divine'. These conversations comprise the last of the Mother’s 'Wednesday classes', which began in 1950.
३० जनवरी, १९५७
बन्धन
''सारा संसार स्वतंत्रताके लिये तरसता है, फिर भी प्रत्येक प्राणीको अपने बंधन प्रिय होते है । यह हमारे स्वभावका पहला विरोधाभास हैं और न सुलइगई जा सकनेवाली एक गुत्थी है ।
मनुष्य जन्मके बंधनसे प्रेम करता है इसलिये वह उसके साथ आनेवाले श्रुप्युकै बंधनोंमें पकड़ा जाता है । इन सब बंधनोंमे रहता हुआ. वह अपनी सत्ताकी स्वतंत्रताके लिये और अपनी पूर्णत्व-प्राप्तिकी सिद्धिके लिये अभीप्सा करता है ।
मनुष्य शक्तिले प्रेम करता ह, इसलिये वह दुर्बलताओंके वशवर्ती। झेता है । क्योंकि संसार शक्तिकी लहरोंका समुद्र है जो आपसमें टकराती है और लगातार एक-दूसरीपर उमडउमड़कर आती हैं । जो एक लहरके शिखरकी सवारी करना चाहता है उसे दूसरी सैकड़ों लहरोंकी थपेड़ोंकी मारसे बेसुध होना ही होगा ।
मनुष्य सुखसे प्रेम करता है इसलिये उसे दुःख-दर्द के जुएके नीचे आना पड़ता है । क्योंकि शुद्ध आनंद जिसमें दुःख का मिश्रण नहीं, केवल स्वतंत्र और राग-रहित आत्माके लिये है । पर मनुष्यके अंदरकी जो वस्तु सुखोंके पीछे दौड़ती है वह दुःख उठानेवाली और आयास करनेवाली एक प्राण-शक्ति है ।
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मनुष्य शांतिका भूखा होता है पर साथ ही उसे व्याकुल मन और व्यथित हदयके अनुभवोंको पा लेनेकी तृष्णा भी लगी होती है । भोग उसके मनके लिये एक ज्वर है, शांति एक जड़ता और उबाऊ एकरसता है ।
मनुष्य अपनी भौतिक सत्ताकी सीमाओंसे प्रेम करता है पर साथ ही बह अपने अनंत मन और अमर आत्माकी स्वतंत्रता- को भी पाना चाहता है ।
मनुष्यके अंदरकी कोई वस्तु ऐसी है जो इन विरोधोंमें एक अद्भुत आकर्षण पाती है । ये सब विरोध उसकी मानसिक सत्ताके लिये जीवनकी कलामयताको बनाते हैं । न केवल अमृत ही, बल्कि विष भी उसकी रुचि और उत्सुकताको आपीन ओर आकृष्ट करता है ।''
(विचार और डाकिया)
मधुर मां, ''कलामयता''का अर्थ क्या है?
अधिकतर लोग जिसे ''कलात्मक'' कहते है, वे केवल वैषम्य है । कलाकार ऐसा कहते हैं और अनुभव करते है कि छाया ही प्रकाशको बनाती खै, यह भी कि यदि वैषम्य संभव न होता तो वे चित्र न बना सकते । संगीतके साथ भी यही बात है : स्वरोंके उतार और चढावके बीच वौग्म्य ही संगीतके बडे-से-बडे आकर्षणोंमेंसे एक है ।
मैं कुछ कवियोंको जानती थी जो कहा करते थे : ''अपने शत्रुत्राकी घृणाके कारण ही हम अपने मित्रोंके प्रेमका मूल्य समझ पाते है ।''.. और किसी सुनिश्चितसी विपत्तिकी संभावना ही सुखर्को उसका पूरा स्वाद देती है, इत्यादि । दैनिक आकुल हलचलके विरोग्मे ही उन्हें विश्रामका और सामान्य शोरगुलके कारण ही उन्हें र्नोरवता मूल्य समझमे आता है । उनमेंसे कुछ तो तुम्हें यहांतक कहते हैं : ''ओह! क्गेंकि है इसीसे सुस्वास्थ्यका मूल्य है ।'' यह- विचार यहांतक आगे जाना हैं कि किसी वस्तुके मूल्यका तभी पता चलता है जव वह तो जाती हो । ओर जैसा कि श्रीअरविंद यहां कहते है : जब क्रिया-प्रवृत्तिका यह ज्वर नही हा ?, कल्पनाशील विचारने यह सक्रियता नही होती लड़ मनुष्यको लगता है कि वह जगत्में जा गिरा है । बहुत सारे मनुष्य नीरवता, शांति और निश्चलतासे
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डरते है । वे जब सक्रियतासे भरे नहीं होते तो अपनेमें वे जीवन ही अनुभव नहीं करते ।
भैने बहुत-से ऐसे उदाहरण देखे जिनमे श्रीअरविन्दने किसीको शांति प्रदान की, उसके मनको शांत बना दिया ओर वह व्यक्ति उनके पास उदास- मी हालतमें वापस आया और कहा : ''मैं' तो जसुमति हो गया हू,'' क्योंकि उसकी विचार-र्शानेत सक्रिय नहीं रही थी ।
जो बात वह यहा कह रहे है, वह एकदम घोर सत्य है । मनुष्य स्व- सुनता गो चाहते- 'है पर उन्हें अपने बंधन भी प्रिय है और जब कोई उनमें बंधनोंकी ले लेना चाहता और उन्हें सच्ची मुक्तिका पय दर्शाना चाहना है, नो वे डर जाते है, यहांतक कि वे प्रायः प्रतिरोध करते है !
मनुष्यकी प्रायः सभी कलाक़ुतियां -- साहित्यिक, काव्यात्मक, कलात्मक -- जीवनमें मित्र वैपम्योंपर आधारित होती है । जब कोई (अपनी कृतिमें) लोगोंको उनके 'दैनिक जीवनके नाटकमेंसे बाहर निकालनेकी चेष्टा करता है नो ३ सचमुच ऐसा अनुभव करते है कि यह कृति कलापूर्ण नहीं है । यदि रक ऐसी पुस्तक लिखना या एक ऐसे नाटककी रचना करना चाहते है जिसमें कोई वौग्म्य न हो, जिसमें हर चीज सामंजस्यपूर्ण रूपसे पवित्र, मरद हो, जहां कोई छाया न हो तो संभवत: यह एक ऐसी चीज होनी जो बहुत अधिक नीरस, उबाऊ और एकदम जीवनहीन प्राणि होगी, नपोकि मनुप्य जिसे ''जीवन'' कहता है वह है जीवन-नाटक जीवन-चिंता, जीवनके तंत्र विरोध । अडाकर संभवतः यदि मृत्यु न रहे नो लोग जीवनसे बुरी तरह ऊब जाय ।
(लंबा मौन)
फलके किसी क्द्रा-प्रसंगभे भैने जो कहा था उससे संबंधित एक प्रश्न मुझमें पूछा गया है :
''जव कोई व्यक्ति किसी लक्षित वस्तुको पाना चाहता है तो जो कठिनाइयां और बाधाएं रास्तेमें आती है -- क्या वे प्रायः इस बातका चिह्न होती हैं कि यह निश्चय, यह योजना, यह प्रयोजना प्रारंभसे सदोष थी और इसलिये इसे जारी नहीं रखना चाहिये या, ठीक इसके विपरीत, जो विजय हमें पानी है, जो रूपांतर हमें सिद्ध करना है बे उसे सूचित करती है?
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क्या वे इस बातका चिह्न हैं कि व्यक्तिको अध्यवसायकी साथ डटे रहना चाहिये? मैं यहां योग-मार्गपर चलनेके निश्चयकी बात नहीं कर रहा हू, बल्कि यह उन छोटे-छोटे निश्चयोंकी बात है जो काम, रवेल था दूसरे क्रियाकलापोंके बारेमें हम लेते हैं । दूसरे शब्दोंमें, परिस्थितियोके, दूसरोंके साथ संबंधोंके और अनुभवके द्वारा जो 'निर्देशन' हमतक आता है उसे हम कैसे पहचानें और समझें? ''
मैं समझती हू यह केवल ऊपरी विरोध हैं ।
यदि कोई योग-साधना करना चाहता है तो स्वभावत: ही उसे किसी कामको हाथमें लेनेसे पहले यह जानते और स्पष्ट रूपसे देखनेकी कोशिश करनी चाहिये कि जो प्रेरणा उसे यिग्ली है वह सच्ची है, भगवान्से आयी है या सिर्फ .बाह्य परिस्थितिजन्य एक प्रतिक्रिया है, एक प्राणिक या मान- सिक तरंग है । यह काफी महत्वपूर्ण, बल्कि अत्यत महत्त्वपूर्ण है कि हम स्पष्ट रूपसे इसे देखनेका प्रयास करें और कारणकी पूरी जानकारीके साथ कोई क्रिया करें । परन्तु ऐसी बहुत सारी चीजे है जिन्हें व्यक्ति करता है पर जिनके बारेमें पहलेसे सोचनेकी उसकी आदत नहीं होती । जब परि- स्थिति आती है वह तदनुसार कर देता है । और 'मृंल्त: वे चीजों अपने- आपमें महत्त्वपूर्ण होती भी नहीं, लगभग अन्य दूसरी चीजों-ही तरh ही होती है जिन्हें व्यक्ति जीवनमें करता है । एकमात्र महा तेजी है वह वृत्ति जिसके साथ उन्हें किया जाता है । तुम्ह यह वात कि तुम किसी कामको इसलिये करते हो कि वह किसी ए_क या दुसरे कागगमे तुम्हारे सामने आ गया है और यह कि युक्तिक गदा हंडी टगे क्;. । लिये बाधित होना पड़ता है जबतक कि' वह बाह्य 'जीवनने रहता हैं ओर उस सबका जीवन-व्यवहारकी' दृप्टिसे एक विशेष जहर व हष्णेता भें', यदि ये काम जीवनमें काफी गहरा असर रखते हों -- जैसे कि दादा करना, इस या उस विशेष स्थानपर जाकर बसने. किसी धनेनो( अपनाना'; सामान्यत: ये चीजों काफी महत्त्वपूर्ण समझी जाती है और कुछ हद;।--ह है भी; पर इनके लिये भी योगकी दृष्टिसे प्रदयेक चीज निस्ता ककृग्नी हैं उस वृत्तिपर जिसे व्यक्ति अपनाता है, न. कि अपने-आप उस चीजपर । इस- लिये, और इन सबसे भी अधिक, उन सब छोटे-छोटे कामोंका जिन्हें न्यक्ति दैनिक जीवनमें करता है, महत्व एकदम ही कम हो जाता है ।
कुछ ऐसे अति-धर्मशील लोग होते है जो अपने सामने समस्याएं तो खड़ी कर लेते है पर उन्हें सुलझाना उनके लिये बड़ा कठिन होता है,
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क्योंकि वे समस्याको रखते ही गलत रूपसे है । मैं एक युवतीको जानती थी जो यियोसोफिस्ट थी और साधंनाम्यास कर रही थी, उसने मुझसे कहा : ''हमें सिखाया जाता है कि हम जो भी करें उस सबमें भगवान्की इच्छा पूरी होनी चाहिये, पर प्रातः जब मैं अपना नाश्ता करती हू तो उसमें मैं कैसे यह जान सकती हू कि भगवान् मेरी कॉफीमें दो चम्मच चीनी डलवाना चाहते है या केवल एक? ''... और यह काफी हृदयस्पर्शी था, है न, और मुझे उसे समझनेमें थोडी कठिनाई हुई कि वह भावना जिसके साथ वह अपनी कॉफी पीती है और वह वृत्ति जो वह अपने भोजन- के प्रति रग्हती है, कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है बनिस्बत इसके कि कितने चम्मच चीनीके उसने अपनी कॉफीमें डाले । '
उन सभी छोटी-छोटी चीजोंके बारेमें जिन्हें व्यक्ति प्रतिक्षण करता है ऐसी ही बात है । भागवत चेतना मानवी ढंगसे कार्य नही करती । वह यह निश्चय नहीं करती कि चीनीके कितने चम्मच तुम अपनी कॉफीमें डालों । वह तो धीरे-धीरे कामों और चीजोंके प्रति तुम्हारी वृत्ति ठीक कर देती है- यह वृत्ति होती है समर्पणकी, नमनीयता, निष्ठा, अभीप्सा, सद्भावना, मृदुता और प्रगतिके लिये प्रयत्न-तत्परताकी -- और यह चीज उन छोटे-छोटे निश्चयोंसे जो तुम्हें प्रतिक्षण करने होते हैं, कही अधिक महत्त्वकी है । मनुष्य यह जाननेकी चेष्टा कर सकता है कि क्या करना सर्वोत्तम है, पर इन बातोंको किसी मानसिक विवेचन या मानसिक पहेलीके द्वारा सुलझाया नहीं जा सकता । असलमें तो एक आंतरिक वृत्तिके द्वारा, जो समस्वरताके - प्रगतिशील समस्वरताके -- वातावरणका निर्माण करती है, यह संभव बनता है कि उसमें व्यक्ति जो कुछ करता है वह सब उस समयकी परि- स्थितिके अनुसार आवश्यक रूपसे सर्वोत्तम होता है । और आदर्श स्थिति तो यह है कि वह वृत्ति इतनी पूर्ण हो जाय कि काम अपने-अपि सहज रूपसे बाह्य बुद्धिके नहीं, बल्कि किसी दूसरी चीजके अधिदेशनमें स्वयं चलता रहे । पर यह, यह तो एक आदर्श अवस्था है - जिसके लिये मनुष्यको अभीप्सा करनी चाहिये और जिसे वह कुछ समय बाद पा भी सकता है । और तबतक सच्ची वृत्ति, सच्ची अभीप्सा बनाये रखनेकी सावधानी रखना
'एक शिष्यको याद है कि ठीक इसी कहानीके प्रसंगसे श्रीमाँने उससे कुछ इस आशयकी बात कही थी :
''अब मैं उस बेचारी भद्र महिलापर और नहीं हंसूंगी । हम अपनी कॉफीमें कितने चम्मच चीनी डालें, इसपर भी प्रभु ध्यान न देते हों ऐसा मैं अब निश्चयसे नही कह सकती! ''
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कही अधिक महत्त्वपूर्ण है बजाय यह निश्चय करनेके कि तुम सामूहिक व्यायाम करो या न करो, किसी नियतं कक्षामें जाओ या न जाओ । क्योंकि इन चीजोंका अपने-आपमें कुछ भी मूल्य नहीं है, इनके मूल्य सापेक्ष होते हैं, एकमात्र महत्त्वकी चीज है अपनी अभीप्साकी ठीक दिशा और प्रगतिके लिये जीवंत संकल्प बनाये रखना ।
एक सामान्य नियमके रूपमें, और इसलिये कि अनुभवका संपूर्ण लाभ मिल सकें जब कोई व्यक्ति किसी कामको हाथमें लें तो बाधाओं और कठिनाइयोंकी कोई परवाह किये बिना उसमें अध्यवसायके साथ लगे रहना चाहिये जबतक कि कोई एकदम सुनिश्चित घटना यह संकेत न करे कि इसे आगे चलाना, अब और करना ठीक नहीं । ऐसा होता विरल ही है । सामान्यतया तो, चीजें अपनी ही धाराका अनुसरण करती हैं और जब वे समाप्तिपर पहुंचती है -- या तो वे अंतको प्राप्त होती है या वांछित परिणाम पैदा करती है - तभी व्यक्ति उनके करनेका असली हेतु जान पाता है । परन्तु बाधाएं, विरोध (या प्रोत्साहन) को ऐसा सुनिश्चित संकेत नहीं समझना चाहिये जिन्हें मानकर चला जाय, क्योंकि ये चीजों स्थिति- स्थितिके अनुसार बिलकुल विभिन्न अर्थ रख सकती है । सो ये बाहरी घटनाएं ऐसी चीजों बिलकुल नहीं हैं जिनसे अपने हाथमें लिये कामकी जांच की जाय । जब कोई व्यक्ति बहुत सचेत और बहुत सच्चा होता है तो जो करना उसने अंगीकार किया है या जो पहलेसे कर रहा होता है उसके मूल्य-महत्वकी बाबत उसे संकेत मिल सकता है, अर्थात् एक आन्तरिक पर बिलकुल स्पष्ट संकेत । वस्तुत: जो पूरी तरह सद्भावनापूर्ण होता है, अर्थात् जो पूरी सच्चाईके साथ, अपनी सत्ताके समूचे भागोंमें ठीक चीज, ठीक तरीकेसे करना चाहता है उसके लिये सर्वदा सकेत होता है । यदि किसी एक या दूसरे कारणसे वह कम या अधिक बुरे कामका प्रवर्तन कर बैठता है तो सर्वदा ही अपने हृदयमें एक बेचैनी अनुभव करता है, ऐसी बेचैनी जो बहुत तीव्र तो नही होती, जो नाटकीय ढंगसे जबर्दस्ती अपनेको जताती तो नहीं, पर होती बहुत स्पष्ट है उसके लिये जो सचेत है, यह खिन्नता जैसी, समर्थनके अभाव जैसी चीज होती है । यह सहयोग देनेसे भी एक प्रकारसे इनकार कर सकती है । पर मैं फिर कहती हू, इसमें उग्रता नहीं होती, जोर-जबर्दस्ती अपनेको मनवानेका आग्रह नहीं होता : यह शोरगुल नहीं मचाती, पीड़ा नहीं पहुंचवाती, बहुत हुआ तो एक हल्की बेचैनी होती है । और यदि तुम इसे अनसुना कर दो, यदि तुम इसकी ओर ध्यान न दो, इसे कोई महत्व प्रदान न करो तो कुछ समय बाद यह पूरी तरह लुप्त हो जायगी और कोई चीज बाकी न रहेगी ।
ऐसी बात नहीं है कि गलती बढ़नेके साथ-साथ यह भी बढ़ती जाय, बल्कि, ठीक इसके विपरीत, यह लुप्त हो जाती है, चेतना आवृत हो जाती है।
फलत: एक सुनिश्चित संकेतके रूपमें तुम इसका प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि यदि तुमने इस छोटे-सें संकेतक बार-बार अवहेलना की है तो, हां, यह दोबारा नहीं आयेगा । परन्तु में तुम्हें बताती हू कि यदि तुम पूरी सच्चाईके साथ इसके प्रति सचेत बने रहो तो यह तुम्हारा एकदम सु- निश्चित और सर्वोच्च कोटिका पथ-प्रदर्शक सिद्ध होगा ।
और यदि बेचैनी होती है तो वह शुरूमें ही हो जाती है, लगभग तुरत ही, पर यदि वह अनुभव न होती हों तो, हां, तुमने क्या काम शुरू किया है इसकी कुछ बात नहीं, अधिक अच्छा यही है कि बिलकुल अंततक करो, जिससे अनुभव संपूर्ण हो सकें, जबतक कि, जैसा कि मैंने कहा, एकदम सही और सुस्पष्ट संकेत न मिल जाय कि इसे नहीं करना चाहिये ।
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