The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
अभीप्सा
सच्ची अभीप्सा का ठीक-ठीक अर्थ क्या है ?
ऐसी अभीप्सा जिसमें किसी पक्षपात भरे और अहंकारपूर्ण हिसाब-किताब का मिश्रण न हो ।
१२ जनवरी, १९३४
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'दिव्य प्रेम' सहज रूप से तुम्हारी अभीप्सा की सचाई को उत्तर देता है ।
२० अक्तूबर, १९३४
अपनी पवित्र और ऋजु अभीप्सा को उस चरम चेतना की ओर छलांग लगाने दो जो समस्त हर्ष और परम आनन्द है ।
आविर्भाव के आगमन में शीघ्रता और पूर्णता के लिए हमें अपनी समस्त सत्ता के साथ अभीप्सा करनी चाहिये ।
२ फरवरी, १९३५
अभीप्सा की प्रार्थना
आओ, हम एक प्रार्थना के साथ सोयें और 'नयी और पूर्ण सृष्टि' की अभीप्सा के साथ जगें ।
अभीप्सा की लगन : उसके अतृप्य उत्साह के लिए न कोई चीज बहुत
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अधिक ऊंची है, न बहुत दूर ।
अभीप्सा को अभिव्यक्त करने में कभी कोई हानि नहीं होती--इससे उसे शक्ति मिलती है ।
अभीप्सा हमेशा अच्छी है, पर अगर कोई मांग उसमें मिला दी जाये तो निश्चित जानो कि वह कभी स्वीकृत न होगी ।
अभीप्सा करते चलो और आवश्यक प्रगति होकर रहेगी ।
७ अप्रैल, १९५४
हमें हर रोज सभी भूलों, सभी अन्धकारों, सभी अज्ञानों पर विजय पाने की अभीप्सा करनी चाहिये ।
१५ अप्रैल, १९५४
हमें हमेशा अज्ञान से मुक्त होने और एक सच्ची श्रद्धा पाने के लिए अभीप्सा करनी चाहिये ।
२९ अप्रैल, १९५४
सतत अभीप्सा सभी विकारों पर विजय पा लेती है ।
२१ मई, १९५४
दिन-पर-दिन हमारी अभीप्सा बढ़ेगी और हमारी श्रद्धा तीव्र होगी ।
२३ मई १९५४
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जब अभीप्सा जाग्रत् होती है तो प्रत्येक दिन हमें लक्ष्य के अधिक निकट लाता है ।
१५ जुलाई, १९५४
हर एक केवल अपनी अभीप्सा की सचाई के लिए उत्तरदायी है ।
१७ जुलाई, १९५४
हमारी अभीप्सा हमेशा एक रूप में उठती है, एकाग्र संकल्प उसे सहारा देता है ।
१ नवम्बर, १९५४
सत्ता में सब कुछ मौन है, लेकिन नीरवता के वक्ष में वह दीपक जलता है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकता-वह उस तीव्र अभीप्सा की अग्नि है जो भगवान् को जानना और उन्हें सम्पूर्ण रूप से जीना चाहती है ।
६ नवम्बर, १९५४
अभीप्सा की लौ इतनी सीधी और इतनी तीव्र होनी चाहिये कि कोई बाधा उसे क्षीण न कर सके ।
७ नवम्बर, १९५४
शब्दों के परे विचारों के ऊपर तीव्र अभीप्सा की ज्वाला को हमेशा निष्कंप और उज्ज्वल होकर जलते रहना चाहिये ।
मेरा प्रेम और आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।
५ मार्च १९५५
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हृदय की नीरवता में अभीप्सा की निष्कंप ज्वाला जलती है ।
अग्नि को अनवरत जलने दो और शान्ति से निश्चित परिणाम की प्रतीक्षा करो ।
अभीप्सा की ज्वाला : एक ऐसी ज्वाला जो प्रकाश देती है पर कभी जलाती नहीं ।
पूर्ण और ऐकान्तिक अभीप्सा निश्चय ही भगवान् का उत्तर लायेगी ।
३१ अगस्त, १९५७
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(आश्रम के एक छात्रावास ''होम ऑफ प्रोग्रेस '' के लिए सन्देश)
अगर मनुष्य में अभीप्सा के बीज को सच्ची अध्यात्मिकता से सींचा जाये तो वह 'देवत्व' में पनपेगा ।
२४ अप्रैल, १९६६
हमेशा की तरह मैं तुम्हें स्थिर ओर शान्त रहने के लिए कहूंगी ।
हमारी एकमात्र अभीप्सा आध्यात्मिक प्रगति के लिए होनी चाहिये । केवल उसी के लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिये ।
प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
१२ दिसम्बर, ११६७
दृढ़ता के साथ अपनी अभीप्सा को बढ़ाओ । भगवान् के प्रति अपने उत्सर्ग को पूर्ण बनाने की चेष्टा करो और तुम्हारे लिए तुम्हारे जीवन की व्यवस्था कर दी जायेगी ।
८ जून, १९६१
कोई सुझाव?
किसलिए ?
साधना के लिए ।
धीर अभीप्सा ।
७ जून, १९७०
मुझे जो प्रगति करनी हे उसमें असफल न होने के लिए मुझे क्या करना चाहिये ?
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सतत और पूर्ण अभीप्सा ।
३ अगस्त, १९७०
में अधिक-से-अधिक श्रद्धा और स्थिरता कैसे पा सकता हूं: माताजी ?
अभीप्सा और संकल्प द्वारा ।
मानसिक अभीप्सा : इसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट, यथार्थ और बहुत विवेकपूर्ण होती है ।
सच्ची अभीप्सा मन की नहीं बल्कि चैत्य की क्रिया है ।
२२ मई, १९७१
चैत्य अभीप्सा : सतत, नियमित, व्यवस्थित, साथ-ही-साथ कोमल और धैर्यवान् भी होती है, सभी विरोधों का प्रतिरोध करती है और सभी कठिनाइयों को जीतती है ।
आध्यात्मिक अभीप्सा तीर की तरह उठती है, वह न बाधाओं की परवाह करती है न फिसड्डियों की ।
वर दे कि अभीप्सा का सूर्य अहंकार के बादलों को छितरा दे ।
(एक सेमिनार के लिए सन्देश जिसकी व्यवस्था 'महाराष्ट्र श्री-रविन्द्र जन्म-शताब्दी उत्सव कमेटी' ने की थी)
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प्रगति के लिए अपनी अभीप्सा में सच्चे बनो ।
प्रेम और आशीर्वाद ।
१९७२
अभीप्सा, पुकारना और खींचना
अभीप्सा करना और सहायता के लिए पुकारना एकदम अनिवार्य है ।
माताजी, तीव्र अभीप्सा और शक्ति को नीचे खींच लाने में क्या भेद हे ?
प्राण है जो नीचे खींचता है और चैत्य है जो अभीप्सा करता है ।
२० फरवरी, १९७३
पुकारने और खींचने में निश्चित रूप से बहुत बड़ा अन्तर है-तुम हमेशा सहायता और अन्य चीजों के लिए पुकार सकते हो और तुम्हें करना भी चाहिये, बाकी सब-यानी उत्तर तुम्हारी आत्मसात् करने की योग्यता और ग्रहणशीलता की सामर्थ्य के अनुपात में मिलेगा । खींचना एक स्वार्थपूर्ण क्रिया है जो ऐसी शक्तियों को नीचे खींच सकती है जो तुम्हारे सामर्थ्य के अनुपात में न हों और इस तरह हानिप्रद हों ।
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