The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
भगवान् की कृपा और सहायता में श्रद्धा
भगवान् की कृपा पर अटल श्रद्धा रखो ।
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भगवान् की 'कृपा' 'इच्छा' और 'क्रिया' पर पूरी श्रद्धा रखना जारी रखो और सब कुछ ठीक हो जायेगा ।
६ नवम्बर, १९३४
सब कुछ श्रद्धा की तीव्रता और उचित वृत्ति की दृढ़ता पर निर्भर है ।
३० मई, १९३५
'भागवत कृपा' हमेशा तुम्हारे साथ है । नीरव मन से अपने हृदय में एकाग्र होओ और निश्चय ही तुम उस पथ-प्रदर्शन और सहायता को पा लोगे जिसके लिए तुम अभीप्सा करते हो ।
उन सबके लिए कृपा और सहायता हमेशा मौजूद रहती है जो इनके लिए अभीप्सा करते हैं और जब इन्हें श्रद्धा ओर विश्वास के साथ ग्रहण किया जाये तो इनकी शक्ति असीम होती है ।
'भागवत कृपा' कार्य करने के लिए हमेशा मौजूद है लेकिन तुम्हें उसे कार्य करने देना चाहिये, उसकी क्रिया का प्रतिरोध नहीं करना चाहिये । एकमात्र आवश्यक शर्त है श्रद्धा । जब तुम्हें लगे कि आक्रमण हो रहा है तो सहायता के लिए श्रीअरविन्द को और मुझे पुकारो । अगर तुम्हारी पुकार सच्ची है (यानी, अगर तुम सचमुच स्वस्थ होना चाहते हो) तो पुकार को उत्तर मिलेगा ओर 'भागवत कृपा' तुम्हें स्वस्थ बना देगी ।
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हां', 'भागवत कृपा' में श्रद्धा हमेशा उसका हस्तक्षेप लाती है ।
'भागवत कृपा' की क्रिया सम्पूर्ण और सर्वांगीण परिणाम लाये इसके लिए श्रद्धा को सम्पूर्ण और सर्वांगीण होना चाहिये ।
फिर एक बार मनुष्य के मन में श्रद्धा का अभाव उलझनें ओर दु:ख ले आया है जब कि भागवत निर्देशन में शान्त श्रद्धा से सब कुछ बहुत सरल और आसान हो सकता था ।
मैं इसी श्रद्धा और विश्वास के विकास के लिए बहुत वर्षों से काम में लगी हूं ।
स्पष्ट ही है कि प्रतिरोध दुराग्रही है ।
निराशाजनक क्यों ? अगर सौ में से एक भी ऐसा हो जिसमें सच्ची श्रद्धा है तो यह अपने-आप में एक चमत्कार है !
'भागवत कृपा' हमें कभी निराश न करेगी--हमें यह श्रद्धा अपने हृदय में निरन्तर बनाये रखनी चाहिये ।
१० मई, १९५४
हमारे अन्दर श्रद्धा का अभाव ही हमारी सीमाओं की रचना करता है ।
३० जुलाई, १९५४
भागवत कृपा हमारे साथ है और हमें कभी नहीं छोड़ती-तब भी नहीं जब सब कुछ अन्धकारमय प्रतीत होता है ।
१७ अगस्त, १९५४
परम प्रभु की शक्ति अनन्त है--यह तो हमारी श्रद्धा है जो सीमित है ।
२३ अगस्त, १९५४
हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण, सभी अवस्थाओं में 'भागवत कृपा' हमें सभी कठिनाइयों को पार करने में हमारी सहायता के लिए मौजूद है ।
८ अक्तूबर, १९५४
असफलता और सफलता दोनों में 'भागवत कृपा' हमेशा मौजूद रहती है ।
१ दिसम्बर, १९५४
तुम भगवान् के जितना अधिक निकट आओगे उतना ही अधिक तुम 'उनकी' असीम 'कृपा' के अत्यधिक स्पष्ट प्रमाणों की फुहार में निवास करोगे ।
१प अगस्त, १९५५
अपने आप में 'भागवत कृपा' जो है उसके अनुपात में हमारी श्रद्धा 'भागवत कृपा' की शक्तिमत्ता के कभी बराबर नहीं होती ।
जुलाई, १९५६
अन्तिम विश्लेषण में, 'भागवत कृपा' में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास ही 'परम प्रज्ञा' है ।
१५ अगस्त, १९५६
इस प्रत्यक्ष अस्तव्यस्तता में से एक नयी और अधिक अच्छी व्यवस्था
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रूप ले रही है । लेकिन उसे देखने के लिए तुम्हारे अन्दर 'भागवत कृपा' में श्रद्धा होनी चाहिये । हिम्मत बनाये रहो ।
१३ अक्तूबर, १९५६
वर्तमान बढ़ते हुए संघर्ष में हमारी वृत्ति कैसी होनी चाहिये ?
'भागवत कृपा' में श्रद्धा और पूर्ण विश्वास ।
२ नवम्बर, १९५६
जब सब कुछ खोया हुआ प्रतीत होता है तभी सब कुछ बचाया जा सकता है । जब तुम अपनी निजी शक्तियों पर विश्वास खो बैठते हो, तब तुम्हें भागवत कृपा पर विश्वास रखना चाहिये ।
२८ जनवरी, १९७०
''ठीक उसी समय जब सब कुछ अधिक और अधिक खराब होता
प्रतीत होता है हमें परम श्रद्धा का परिचय देना चाहिये और यह
जानना चाहिये कि 'भागवत कृपा' कभी हमारा साथ न छोड़ेगी ।''
(१९४७ का नव वर्ष का सन्देश)
मेरा मतलब है कि सभी परिणामों की परवाह किये बिना अपने आन्तरिक विश्वास के अनुसार कार्य करो और तथाकथित प्रतिकूल प्रत्यक्ष प्रमाणों के होते हुए अपनी श्रद्धा को अविचल बनाये रखो ।
निश्चित है कि यह सब हमें निश्चल श्रद्धा सिखाने के लिए आता है कि जो सचमुच आवश्यक है वह हमें मिलेगा, बाकी के लिए, हमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।
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अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि सब कुछ सचमुच 'भागवत कृपा' पर निर्भर है और हमें भविष्य की ओर विश्वास और प्रसन्नता के साथ देखना चाहिये, साथ-ही-साथ यथासम्भव जल्दी-से-जल्दी प्रगति करनी चाहिये ।
मुक्ति तीव्र श्रद्धा में है ।
अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि 'परम प्रभु' ही सब कुछ करते हैं । हमें निष्ठावान् यन्त्र होना चाहिये ।
२१ अगस्त, १९७२
श्रद्धा और अविचल विश्वास रखो । 'भागवत कृपा' बाकी सब कर देगी ।
आओ, हम अपनी इच्छा-शक्ति 'भागवत कृपा' के अर्पण कर दें । 'भागवत कृपा' ही सब कुछ पूरा करती है ।
'भागवत कृपा' : केवल 'भागवत कृपा' कार्य कर सकती है । वही मार्ग खोल सकती है, वही चमत्कार कर सकती है ।
'भागवत कृपा' में पूरी श्रद्धा रखो । वही सब चमत्कारों को करती है ।
हमें केवल 'भागवत कृपा' पर निर्भर रहना और सभी परिस्थितियों में उसे ही बुलाना सीखना चाहिये । तब वह सतत चमत्कार करती रहेगी ।
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यात्रा चाहे जितनी लम्बी हो ओर यात्री चाहे जितना महान्, अन्त में जरूरत होती है 'भागवत कृपा' पर ऐकान्तिक सतत निर्भरता की ।
केवल 'भागवत कृपा' ही हमारा सहारा होगी ।
भागवत कृपा और सहायता पर भरोसा
जो सचाई के साथ 'भागवत कृपा' पर भरोसा करता है उसके लिए कृपा अनन्त है ।
१५ मार्च, १९३५
'भागवत कृपा' हमेशा तुम्हारे साथ रहती है और अपने भरोसे के द्वारा तुम उसकी क्रियाओं को प्रभावकारी होने देते हो ।
'भागवत' कृपा पर हमारे भरोसे के अनुपात में ही 'भागवत कृपा' हमारे लिए कार्य कर सकती है और हमारी सहायता कर सकती है ।
भगवान् पर पूर्ण भरोसा : वह भरोसा जो जीवन को सच्चा सहारा देता है ।
भगवान् पर हमारा भरोसा बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होना चाहिये ।
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ऐसे बहुत कम हैं जो भगवान् पर अपनी श्रद्धा और भरोसे की चट्टान पर दृढ़ता से खड़े रह सकते हैं ।
११ अक्तूबर, १९३६
सहायता की मांग करना और भरोसा न रखना बेतुका है । इसके विपरीत विश्वास से हर चीज कितनी आसान हो जाती है ।
'भागवत कृपा ' पर भरोसे से सभी बाधाओं को पार किया जा सकता है ।
२० अप्रैल, १९५४
जब हम भगवान् की कृपा पर भरोसा करते हैं तो हमें अचूक साहस मिलता है ।
१५ मई, १९५४
'भागवत कृपा' पर पूरा भरोसा रखो, 'भागवत कृपा' सब तरह से तुम्हारी सहायता करेगी ।
४ जून, १९५४
उस बालक की तरह जो तर्क नहीं करता और जिसे कोई चिन्ता नहीं है, अपने-आपको भगवान् के हाथों में सौंप दो ताकि 'उनकी' इच्छा पूरी हो ।
२७ सितम्बर, १९५४
चाहे कुछ क्यों न हो हमें शान्त रहना चाहिये और भगवान् की कृपा
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पर भरोसा रखना चाहिये ।
२५ अक्तूबर, १९५४
सिर ठण्डा रखो, मजबूत और बहुत शान्त स्नायु रखो और भगवान् की कृपा पर पूरा भरोसा रखो ।
भगवान् पर भरोसे के लिए अभीप्सा : 'भागवत कृपा' की निश्चिति द्वारा दी गयी अविचल शान्ति के लिए प्रबल आवश्यकता ।
किसी चीज की तुलना उस शान्ति के साथ नहीं की जा सकती जो भागवत कृपा पर पूरा-पूरा भरोसा करने से आती है ।
सारी चिन्ता, जिसमें प्रगति की चिन्ता भी शामिल है, 'भागवत कृपा' पर छोड़ दो तो तुम शान्ति से रहोगे ।
५ मई १९५८
मधुर मा,
मैं बच्चों की शरारत को केसे दबा सकती हूं जब कि मैं उनके
सामने कांपती हूं ? में वातावरण को नीचे कैसे पुकार सकती हूं
जिसमें ये गलत न हों और बच्चों के मुंह से गन्दी बात
न निकले ? इस उच्छूंखल जमघट में मैं शान्ति और ज्ञान कैसे ला
सकती हूं ? मैं बहुत कमजोर, बहुत शर्मीली हूं । कैसे व्यवहार
करना चाहिये जिससे मैं उनके अन्दर की इस क्रिया को नियन्त्रित
कर सकूं ?
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शान्ति ओर ज्ञान लाने के लिए व्यक्ति को बुद्धिमान् ओर शान्त होना चाहिये; तुम कहती हो कि तुम कमजोर हो, लेकिन तुमसे अपनी ही शक्ति पर आश्रित होने के लिए कोई नहीं कह रहा; तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा ज्ञान ओर तुम्हारी शान्ति भगवान् की हैं और तुम्हें केवल उन पर आश्रित होना चाहिये । 'भागवत कृपा' में पूर्ण विश्वास रखो, अपने तुच्छ व्यक्तित्व को एक किनारे रख कर 'भागवत कृपा' को कार्य करने दो; वह तुमसे वही करायेगी जो आवश्यक होगा और सब कुछ ठीक हो जायेगा ।
४ जुलाई, १९६२
आदमी जितना अधिक जानता जाता है, उतना ही अधिक अनुभव करता जाता है कि वह कुछ नहीं जानता ।
जिसे भगवान् पर, 'उनकी' प्रज्ञा ओर दया पर पूर्ण विश्वास है, उसके लिए कोई समस्या नहीं रह जाती ।
भगवान् की विजय निश्चित है । अगर हम सच्चा भरोसा रखें तो कभी गलत रास्ता न लेंगे ।
भागवत कृपा और कठिनाइयां
केवल 'भागवत कृपा' में अविचल विश्वास और श्रद्धा के साथ पूरी तरह से शान्त और निश्चल बने रहने से ही तुम परिस्थितियों को यथासम्भव अच्छे-से-अच्छा पा सकते हो । उन लोगों के लिए हमेशा अच्छे-से-अच्छा होता है जो भगवान् और केवल भगवान् पर ही पूरा भरोसा करते हैं ।
९ फरवरी, १९३०
१०३
जब कभी, अपने जीवन में तुम्हें संकट का सामना करना पड़े तो उसे प्रभु की कृपा के वरदान के रूप में लो और वह वही बन जायेगा ।
१९६२
किसी भी अवस्था में और जो कुछ भी घटे, घटनाओं को उस 'भागवत कृपा' के उपहार के रूप में लो जो तुम्हें शीघ्रगामी मार्गों से तुम्हारे जीवन के आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर ले जा रही है ।
१४ जनवरी, १९६३
जो किया जा सकता है कर दिया जायेगा, लेकिन यह खेद का विषय है कि तुमने चेतावनी के लिए इतनी लम्बी प्रतीक्षा की ।
बहरहाल, सचमुच प्रभावशाली, एकमात्र चीज यही है कि जो भगवान् की इच्छा हो उसी की इच्छा करो और 'भागवत कृपा' की परम अनुकम्पा पर अचल अटल विश्वास रखी क्योंकि उसके द्वारा हमेशा अच्छे-से-अच्छा ही होता है; परन्तु वह अच्छे-से-अच्छा मानव विचारों के अनुसार नहीं, 'परम सत्य' के अनुसार अच्छे-से-अच्छा होता है ।
ठोस, शुद्ध श्रद्धा से भरपूर और शान्त रहो ।
१०४
मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया है और मैं तुम्हारी अभीप्सा को समझती हूं ।
लेकिन चिकित्सक का कहना है कि तुम्हें अब भी बुखार है और तुम्हें
जाने देना असम्भव है, क्योंकि यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक
होगा ।
इसलिए, करने लायक चीज एक ही है कि तुम जिन अवस्थाओं में हो उन्हें यह जानते हुए शान्ति के साथ स्वीकार कर लो कि जिसमें भगवान् के प्रति श्रद्धा होती है उसके लिए जो कुछ होता है, हमेशा उत्तम होता है । भगवान् नहीं चाहते कि मनुष्य दु:ख भोगें, लेकिन अपने अज्ञान में मनुष्य इस तरह प्रतिक्रिया करते हैं कि वे अपने ऊपर दुःख ले आते हैं । शान्ति, नीरवता, और समर्पण में ही एकमात्र समाधान है ।
९ फरवरी, १९६४
सब कुछ इस पर निर्भर है कि तुम क्या चाहते हो । अगर तुम योग चाहते हो, तो जो कुछ होता है उसे 'भागवत कृपा' के रूप में लो जो तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य की ओर ले जा रही है और परिस्थितियां जो पाठ सिखाती हैं उसे समझने की कोशिश करो ।
२३ अप्रैल, १९६४
जिन्होंने अपने-आपको भगवान् को दे दिया है उनके सामने आने वाली हर कठिनाई नयी प्रगति का आश्वासन होती है और इसलिए उसे 'भागवत कृपा' के उपहार के रूप में लेना चाहिये ।
१९ जून, १९६६
जब कठिनाइयां तुम्हें घेर लें, तो यह जानो कि 'भागवत कृपा' तुम्हारे साथ है ।
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लोग यह मानते हैं कि 'भागवत कृपा' का अर्थ है तुम्हारे सारे जीवन के लिए चीजों को सरल बना देना । यह सच नहीं है ।
'भागवत कृपा' तुम्हारी अभीप्सा को चरितार्थ करने के लिए कार्य करती है और सबसे अधिक तत्पर और सत्वर चरितार्थता प्राप्त करने के लिए हर एक चीज व्यवस्थित की गयी है ।
२६ मई, १९६७
'भागवत कृपा' ऐसी चीज है जो तुम्हें उस लक्ष्य की ओर धकेलती है जिसे तुम्हें पाना है । उसका निर्णय अपने मन से न करो, तुम कहीं न पहुंच पाओगे, क्योंकि यह एक दुर्जेय चीज है जो मानवीय शब्दों या भावनाओं द्वारा नहीं समझायी जा सकती । जब 'भागवत कृपा' कार्य करती है, तो परिणाम सुखद हो भी सकते हैं और नहीं भी--वह किसी मानवीय मूल्य की परवाह नहीं करती, सामान्य और ऊपरी दृष्टिकोण से वह विध्वंस भी हो सकता है । लेकिन यह व्यक्ति के लिए हमेशा उत्तम होता है । वह 'भगवान्' के द्वारा भेजा प्रहार होता है ताकि प्रगति झटपट हो सके । 'भागवत कृपा' ही तुम्हें सिद्धि के पथ पर तेजी से चलाती है ।
हमें इस एक बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि--जो कुछ होता है ठीक वही होता है जो हमें और संसार को यथासम्भव जल्दी-से-जल्दी लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए होना चाहिये और वह लक्ष्य है भगवान् के साथ सायुज्य और अन्तत: 'उनकी' अभिव्यक्ति ।
और यह श्रद्धा--निष्कपट और सतत श्रद्धा--एक ही साथ हमारी सहायता भी है और सुरक्षा भी ।
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