CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
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भागवत इच्छा के प्रति समर्पण

 

समर्पण

 

    समर्पण : अपने जीवन का उत्तरदायित्व भगवान् के हाथों में सौंप देने का निर्णय । यह मन के द्वारा या भावनाओं या जीवन आवेगों के द्वारा या फिर सबका मिला-जुला निर्णय होता है ।

 

*

 

    भगवान् को समर्पण करने का अर्थ है, अपनी तंग सीमाओं का त्याग करके अपने-आपको 'उनके' द्वारा आक्रान्त होने देना और 'उनकी' लीला का केन्द्र बनने देना ।

 

*

 

    अगर तुम सचमुच उचित रीति और समग्र रूप से भगवान् को समर्पित हो तो तुम हर क्षण वही होगे जो तुम्हें होना चाहिये, वही करोगे जो तुम्हें करना चाहिये, और वही जानोगे जो तुम्हें जानना चाहिये ।

 

    लेकिन उसके लिए तुम्हें अहंकार की सभी सीमाओं को पार करना होगा ।

 

*

 

    सच्चा समर्पण तुम्हें बड़ा बनाता है, तुम्हारी क्षमता बढ़ाता है, वह तुम्हें मात्रा और गुण में अधिक बड़ा परिमाण देता है जिसे तुम अपने-आप न पा सकते ।

 

*

 

    ब्योरेवार समर्पण : ऐसा समर्पण जो किसी चीज को नहीं भूलता ।

 

*

 

    ब्योरेवार समर्पण का अर्थ है जीवन के समस्त ब्योरों का, छोटी-से-

 

११७


छोटी और देखने में अत्यन्त नगण्य चीज का भी समर्पण । और इसका अर्थ है सभी परिस्थितियों में भगवान् को याद रखना; हम जो कुछ सोचें, अनुभव करें या करें, उस सबको भगवान् के लिए, 'उनके' निकट आने के लिए, वे हमें जो बनाना चाहते हैं अधिकाधिक वही बनने के लिए, पूरी सचाई के साथ, शुद्ध रूप में 'उनकी' इच्छा अभिव्यक्त करने के लिए, 'उनके' प्रेम का यन्त्र बनने के लिए करें ।

 

*

 

    अगर आदमी पूरी तरह भगवान् के प्रति समर्पण करे तो वह भगवान् के साथ तादात्म्य पा लेता है ।

१३ मई, १९५४

 

*

 

    पूर्ण समर्पण : तादात्म्य के लिए अनिवार्य शर्त ।

 

*

 

 

   भक्ति और समर्पण की सर्वांगीण और निरपेक्ष सम्पूर्णता में ही हम अविच्छिन्न आनन्द की ओर ले जाने वाली पूर्ण शान्ति की आवश्यक स्थिति पाते हैं ।

२ दिसम्बर, १९५४

 

*

 

    पथ लम्बा है लेकिन आत्म-समर्पण उसे छोटा कर देता है, मार्ग कठिन है पर पूरा भरोसा उसे सरल बना देता है ।

 

*

 

    भगवान् के प्रति समर्पण सबसे अच्छा भावनामय संरक्षण है ।

 

*

 

    भगवान् के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही सच्ची विश्रान्ति है ।

 

*

 

११८


    साधना में सफलता का रहस्य क्या है ?

 

समर्पण ।

अक्तूबर १९६५

 

वही चाहना जो भगवान् चाहते हों

 

    समर्पण : वही चाहना जो भगवान् चाहते हों--यही परम प्रज्ञा है ।

 

*

 

    वही चाहना जो भगवान् चाहते हैं--यही परम रहस्य है ।

 

*

 

    भगवान् की 'इच्छा' के साथ एक और अभिन्न इच्छा : एक ऐसी स्थिति

जो सभी बाधाओं पर विजित होती है ।

 

*

 

    'भगवान् की इच्छा'--उच्चतम 'सत्य' को अभिव्यक्त करने वाली इच्छा ।

 

*

 

    हम सभी परिस्थितियों में अपना अच्छे-से-अच्छा करें और परिणाम को भगवान् के निश्चय पर छोड़ दें ।

२० मई, १९५४

 

*

 

    भगवान् हमें जो कुछ देते हैं उससे हमें सन्तुष्ट होना चाहिये और 'वे' हमसे जो कुछ करवाना चाहते हैं उसे बिना किसी दुर्बलता के व्यर्थ की महत्त्वाकांक्षा के बिना करना चाहिये ।

२७ जून, १९५४

 

*

 

११९


    जब कोई कठिनाई हो तो हमें हमेशा याद रखना चाहिये कि हम यहां पर ऐकान्तिक भाव से भगवान् की इच्छा सम्पन्न करने के लिए हैं ।

५ अगस्त, १९५४

 

*

 

 

    जब भगवान् की इच्छा के साथ हमारा लगाव सम्पूर्ण होता है तभी हमारी शान्ति और हमारा आनन्द भी सम्पूर्ण होता है ।

६ अगस्त, १९५४

 

*

 

 

    भगवान की इच्छा है कि हम हमेशा प्रणालिकाओं की तरह खुलें, हमेशा अधिक विस्तृत रहें ताकि 'उनकी' शक्तियां हमारे सांचे में अपनी प्रचुरता उंडेल सकें ।

१६ अक्तूबर, १९५४

 

*

 

 

    हमारी इच्छा को हमेशा भागवत इच्छा की पूर्ण अभिव्यक्ति होना चाहिये ।

१७ अक्तूबर, १९५४

 

*

 

 

    हमारी निरन्तर प्रार्थना है कि हम भगवान् की इच्छा को समझ सकें और उसके अनुसार जी सकें ।

२८ क्तूबर, १९५४

 

*

 

 

    हमें भगवान् के आगे हमेशा बिलकुल कोरे कागज की तरह रहना चाहिये ताकि हमारे अन्दर भगवान् की इच्छा बिना कठिनाई और बिना मिश्रण के लिखी जा सके ।

२० नवम्बर, १९५४

 

*

 

१२०


    हर क्षण हमारी मनोवृत्ति ऐसी हो कि 'भगवान् की इच्छा' हमारे चुनाव का निश्चय करे, ताकि भगवान् हमारे समस्त जीवन को मार्ग दिखा सकें ।

२२ नवम्बर, १९५४

 

*

 

    हमें केवल भगवान् की आंखों से ही देखना और भगवान् की इच्छा से ही काम करना चाहिये ।

२६ नवम्बर, १९५४

 

*

 

    हमें यह जानना चाहिये कि हर चीज के लिए और हर चीज में भगवान् पर कैसे निर्भर रहा जाये । केवल 'वे' ही सब कठिनाइयों को पार कर सकते हैं ।

२९ नवम्बर, १९५४

 

*

 

    भगवान् के प्रति सम्पूर्ण समर्पण में कोई भूल या दोष या कमी बाकी नहीं रह जाती क्योंकि इसमें व्यक्ति वही करता है जिसकी भगवान् ने इच्छा की है और यह उसी तरह किया जाता है जैसे भगवान् ने चाहा है ।

३ दिसम्बर, १९५४

 

*

 

'परम संकल्प' हमेशा शाश्वत रहस्य बना रहता है और हमारे लिए समस्त आश्चर्य और विस्मय का विषय ।

१६ दिसम्बर, १९५४

 

*

 

    ऐसे बालक की तरह जो तर्क नहीं करता, जो चिन्ता नहीं करता, हम अपने-आपको भगवान् को सौंपते हैं ताकि  'भगवान् की इच्छा' पूरी हो सके ।

१८ दिसम्बर, १९५४

 

*

 

१२१


    हर क्षण अपना अच्छे-से-अच्छा करना और परिणाम भगवान् के निर्णय पर छोड़ देना-यही शान्ति, सुख, बल, प्रगति और अन्तिम पूर्णता का सबसे निश्चित मार्ग है ।

 

*

 

    तुम्हें बस एक ही चीज करनी है : अचंचल, अक्षुब्ध, पूरी तरह भगवान् की ओर अभिमुख रहना । बाकी सब 'उनके' हाथों में है ।

१८ जुलाई, १९५५

 

*

 

    वर्तमान जगत् की मुख्य समस्याओं में से एक यह है कि पिछले सौ

    वर्षां से जनसंख्या बेतहाशा बढ़ गयी हे ।

 

    १. इतनी सारी आत्माएं इतने कम समय में कैसे विकसित हो गयीं ?

    २. जनसंख्या के बारे में जगत् की नियति क्या होगी ? क्या संख्या

    वर्तमान गति के साथ बढ़ती जायेगी या किसी समय कृत्रिम उपायों

    के बिना संख्या यों ही गिर जायेगी ?

    ३. अगर भविष्य में जनसंख्या कम हो जाये तो उन आत्माओं का

    क्या होगा जो अभी तक विकसित हो चूकी है ?

 

'परम चेतना' अभिव्यक्ति पर शासन कर रही है । 'उनकी' प्रज्ञा निश्चय ही हमारी प्रज्ञा से बढ़-चढ़कर है । इसलिए क्या होगा इसके बारे में हमें परेशान होने की जरूरत नहीं है ।

 

    आशीर्वाद ।

 

*

 

    भगवान् हमेशा ही विजयी होते हैं लेकिन अपने ही तरीके से, मानवीय तरीके से नहीं, अपनी ही इच्छा से, मानवीय इच्छा से नहीं ।

 

    प्रभु हमेशा उपस्थित हैं--केवल हम इस बात को अनुभव नहीं करते ।

 

*

 

    हम प्रभु के आगे अपने प्रस्ताव रखने के लिए हमेशा स्वतन्त्र हैं

 

१२२


लेकिन अन्तत: केवल 'उन्हीं' की इच्छा चरितार्थ होती है ।

 

*

 

    अगर तुम काफी ऊपर से देखो तो तुम चाहे कुछ भी क्यों न करो, तुम कभी अपना समय नष्ट नहीं करते क्योंकि तुम अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हो--और बिना जाने हुए--भगवान् की इच्छा के अनुसार करते हो ।

१६ अगस्त, १९६२

 

*

 

    स्थिर अचंचल रहो और अपने-आपको शान्ति और विश्वास के साथ अर्पित करो ।

 

    जो कुछ होता है, हमेशा 'परम पुरुष' की इच्छा का प्रभाव होता है । मानव कर्म अवसर हो सकता है पर कारण कभी नहीं ।

३ अगस्त, १९६८

 

समर्पण की कठिनाइयां

 

    यह बहुत ही विरल है कि कोई किसी-न-किसी कठिनाई का सामना किये बिना पूर्णरूप से भगवान् की इच्छा के प्रति समर्पण कर सके ।

*

 

    एक बार व्यक्तित्व बन जाने पर अपने-आपको देने में, समर्पण करने में, फिर से कितने प्रयासों और संघर्षों की जरूरत होती है !

 

*

 

    अगर इस समय संघर्ष वास्तविक नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी दिन एक-न-एक रूप में नहीं आयेगा ।

 

    क्योंकि अपने जीवन में कम-से-कम एक बार तो हम ऐसी परिस्थितियों में आते ही हैं जो यह जांचने के लिए होती हैं कि हम 'भागवत इच्छा' को सम्पूर्ण समर्पण करने के लिए तैयार हैं या नहीं; सर्वप्रथम, क्या हम ऐसे

 

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मनुष्य हैं जो भगवान् को पाने और उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए प्रयास कर रहे हैं; संसार की अच्छी या बुरी लगने वाली सभी चीजों को उस परम विजय के हेतु त्यागने के लिए तैयार हैं या नहीं । ऊंचाइयों की ओर उस आरोहण में सद्‌गुण और कर्तव्य-यानी हमारी मानसिक पसन्द और हमारे पूर्वाग्रह-हमारी बाहरी दुर्बलताओं और दोषों की अपेक्षा बहुत ज्यादा बाधक बनकर खड़े होते हैं । भूल-भ्रान्ति का हमेशा ऊंची कूद के तख्ते की तरह उपयोग हो सकता है जब कि सद्‌गुण बहुधा एक सीमा, एक बाधा बन जाता है जिसे पार करना जरूरी होता है ।

 

    मैं श्रीअरविन्द के योग-समन्वय में से एक उद्धरण जोड़ती चलूं : ''ये सब हमारे अन्दर आत्मा को रूपों और आकारों में घेर लेने के लिए प्रतीक्षा में हैं; लेकिन हमें हमेशा परे जाना होगा, हमेशा ज्यादा बड़े के लिए छोटे को, अनन्त के लिए सान्त को त्यागना होगा । हमें प्रकाश से प्रकाश की ओर अनुभूति से अनुभूति की ओर, आत्मावस्था से आत्मावस्था की ओर जाने के लिए तैयार रहना होगा ताकि अधिक-से-अधिक भागवत परात्परता और अधिकतम सार्वभौमिकता तक पहुंच सकें ।''

 

*

 

    बहुधा लोग जिस तरह समर्पण करते हैं :

 

    भगवान् अपनी इच्छा अभिव्यक्त करें लेकिन वह मेरी इच्छा के साथ एक हो ।

प्रैल, १३१

 

*

 

    एक चीज के बारे में तुम्हें जानना और निश्चय करना चाहिये ।

 

    वह यह कि तुम 'सच्चे' भगवान् को चाहते हो या ऐसे को जो तुम्हारी अपनी धारणा के अनुसार हों कि उसे कैसा होना चाहिये ।

 

    और तुमने 'भगवान्' के प्रति सच्ची निष्कपटता और समग्रता के साथ समर्पण करने का, 'वे' तुम्हें जैसा बनाना चाहते हैं वैसा बनने और 'उनकी' इच्छा के अनुसार काम करने का निश्चय किया है या तुम यह चाहते हो कि 'भगवान्' वह करें जो तुम 'उनसे' करवाना चाहते हो और

 

१२४


'वे' तुम्हारी इच्छा के अनुसार कार्य करें ।

 

*

 

    मैंने तुम्हारी प्रार्थना को 'परम प्रभु' के सामने रख दिया है । लेकिन अगर तुम 'आनन्द' में रहना चाहते हो तो तुम्हें अपनी इच्छा को 'भगवान्' पर लादने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, बल्कि इसके विपरीत, तुम्हें समान शान्ति के साथ  'उनकी' ओर से जो कुछ आये उसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिये; क्योंकि हमारी प्रगति के लिए क्या अच्छा है इसे 'वे' हमसे ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं ।

१३ अगस्त, १६०

 

*

 

    केवल 'भागवत इच्छा' पर निर्भर रहने का और उसे अपने द्वारा मुक्त रूप से काम करने देने का समय आ गया है ।

 

    मैं दोहराती हूं, आखिर समय आ गया है कि तुम अब अपनी तुच्छ इच्छा पर निर्भर न रहो, सारे काम को 'भागवत इच्छा' के हाथों में सौंप दो अपने द्वारा उसे काम करने दो । केवल अपने मन और संवेदनाओं द्वारा नहीं बल्कि मुख्य रूप से शरीर द्वारा । अगर तुम इसे सचाई के साथ करोगे तो ये सब शारीरिक असंगतियां विलीन हो जायेंगी और तुम अपने काम के लिए सशक्त और उपयुक्त हो जाओगे ।

 

*

 

    जब मनुष्य यह समझ लेंगे कि 'भगवान्' उनकी अपेक्षा कहीं ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं कि उनके लिए उत्तम क्या है, तब उनकी बहुत-सी कठिनाइयां गायब हो जायेंगी ।

अप्रैल,६३

 

*

 

    अगर भगवान् तुम्हारे लिए कोई कठिनाई चाहते हैं तो विरोध मत करो । उसे आशीर्वाद के रूप में लो और वह सचमुच आशीर्वाद बन जायेगी ।

 

*

 

१२५


    भगवान् सर्व-शक्तिमान् कलपुतला नहीं है जिन्हें मनुष्य अपनी इच्छा का बटन दबाकर इधर-उधर घुमा सकें ।

 

    फिर भी भगवान् को समर्पण करने वालों में से अधिकतर 'उनसे' इसी की आशा रखते हैं ।

 

२२ जून, १६३

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