The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
दुर्बलताएं
भय
भय हमेशा ही बहुत बुरा सलाहकार होता है ।
*
भय, न्यूनाधिक सचेतन भय ही है जो सारी शरारत कर रहा है । भय न हो तो कुछ भी अन्यथा घटित नहीं हो सकता ।
डरो मत । अपनी आस्था बनाये रखो, ये सारी तकलीफें तुम्हें छोड़ जायेंगी ।
मेरे प्रेम और आशीर्वाद के साथ ।
डरना छोड़ दो और परेशानियां भी बन्द हो जायेंगी ।
मेरे बालक को डर नहीं लग सकता ।
आशीर्वाद ।
मेरी सुरक्षा हमेशा तुम्हारे साथ है और कोई अनिष्ट नहीं घट सकता । लेकिन तुम्हें डर को झाड़कर दूर फेंक देने का निश्चय करना होगा और तब मेरी शक्ति पूरी तरह से काम कर सकेगी ।
२७ अक्तूबर, १९३७
अपने-आपको सन्तप्त मत करो, चिन्ता मत करो, सबसे बढ़कर समस्त भय को निकाल बाहर करने का प्रयास करो; भय एक खतरनाक चीज है जो किसी ऐसी चीज को महत्त्व दे सकती है जिसका कोई महत्त्व न हो ।
२६५
अमुक लक्षणों को फिर से आते हुए देखने का भय ही उन्हें फिर से लाने के लिए काफी है ।
२४ जुलाई, १९४५
यह भय स्नायुओं की और प्राण की दुर्बलता के कारण आता है । योग पथ का अनुसरण करने के लिए किये गये किसी भी प्रयास से पहले इस भय से पिंड छुड़ाना चाहिये ।
९ मार्च, १९४९
योग और भय साथ-साथ नहीं चल सकते ।
तुम इसलिए डर गये क्योंकि जब तुम एकाग्र होने की कोशिश करते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है मानों तुम्हारी सांस रुक गयी । अगर तुम भयों से इतने भरे हुए हो तो इस पथ पर मत आओ । मान लो कुछ बुरे-से-बुरा हो जाये तो क्या होगा ? तुम मर सकते हो--और फिर ? अगर तुम मर गये तो कौन-सी बड़ी क्षति हो जायेगी ? हमारा योग भीरुओं के लिए नहीं है; अगर तुम्हारे अन्दर साहस नहीं है, तो ज्यादा अच्छा है इसे छोड़ दो--तुम्हारे भय विनाश लायेंगे ।
जो भगवान् का है उसे भला किस बात का डर ? क्या वह भगवान् के बताये मार्ग पर विस्तृत होती अन्तरात्मा और प्रदीप्त मस्तक के साथ नहीं चल सकता, भले ही वह मार्ग उसकी सीमित तर्कबुद्धि के लिए एकदम से अबोध्य ही क्यों न हो ?
१४ अक्तूबर, १९५४
२६६
समस्त भय पर विजय पानी चाहिये और उसके स्थान पर 'भागवत कृपा' में पूर्ण आस्था स्थापित करनी चाहिये ।
६ जून, १९५५
हर महीने के कुछ दिनों में ऐसा होता है कि जब मैं रात को अपनी खाट पर सीता हूं तो खिड़की से मेरे मुंह और बदन पर चांदनी पड़ती हे । क्या सोते समय मेरे ऊपर चांदनी पड़ने से कोई हानि हो सकती हे ? में इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि किसी ने मुझसे कहा हे कि इसका बुरा असर हो सकता हे और खिड़की बन्द कर देनी चाहिये । लकिन मुझे चन्द्रमा और चांदनी से बहुत प्यार हे । वे मुजे आपकी 'सुभ्र ज्योति' की याद दिलाते हैं । बतलाने की कृपा करें कि क्या सोते समय चांदनी का पड़ना हानिकर होता है ?
अगर तुम्हें डर न लगे तो कोई हानि नहीं है । चन्द्रमा नहीं, भय हानिकर है ।
९ मई, १९६३
अगर तुम डरो नहीं तो तुम्हें कोई चीज हानि नहीं पहुंचा सकती । इसलिए डरो मत, शान्त और निश्चल रहो--सब कुछ ठीक हो जायेगा ।
प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
१५ अक्तूबर, १९६६
सबसे पहली चीज जिससे बचने को तुम्हें हमेशा के लिए अपना उपचार करना होगा वह हे भय ।
यह खराब से खराब रोग से भी अधिक खतरनाक है ।
प्रेम ओर आशीर्वाद सहित ।
९ अक्तूबर, १९६७
२६७
डर की कोई बात नहीं है-सब कुछ 'परम प्रभु' हैं--'परम प्रभु' के सिवाय और कुछ नहीं है; एकमात्र भगवान् का ही अस्तित्व है और जो कुछ हमें डराने की कोशिश करता है वह केवल भगवान् का मूर्खतापूर्ण और अर्थहीन छद्मवेश है ।
हिम्मत रखो--तुम्हारे सामने मार्ग खुला है, बीमारी की इस मोहग्रस्तता को झाड़ फेंको और 'भागवत शान्ति' को नीचे उतारो ।
तब सब कुछ ठीक हो जायेगा ।
माताजी, मैं बहुत बेचैन हूं ? दिव्य शक्ति के बारे में सन्देह उठते हैं, सब तरह की कष्टकर चीजें आती हैं । मुझे लगता है कि थोड़ा-थोड़ा करके मेरा दम बुट घुटा रहा है । मेरे सिर में दर्द है जो इधर-उधर फिरता रहता है । यह भयंकर है । मुझे लगता हे कि मैं किसी तामसिक, जड़ और अन्धकारभरी चीज से बंधा हूं । में इससे पिंड नहीं छुड़ा पा रहा । मां, मेरी सहायता करो, मेरी समझ में नहीं आता क्या करूं, सब कुछ अंधेरा, अंधेरा, अंधेरा है । पता नहीं मैं कब तक इसके आगे डटा रह सकूंगा । यह कोई ऐसी चीज है जो धीरे-धीरे मेरी शक्ति को चूस लेना और मुझे अपने अन्दर समा लेना चाहती है । मां, मेरी सहायता करो, सचमुच मैं नहीं जानता कि मुझे क्या करना चाहिये ।
तुम्हें डरना नहीं चाहिये । भगवान-पर पूरा भरोसा रखो । वे 'प्रेम', 'प्रकाश' और 'जीवन' हैं ।
८ मार्च, १९७२
कुशलपूर्वक सिद्धपुर जाओ और डरो मत ।
केवल भय ही कष्ट पहुंचाता है ''प्रेतात्माएं'' नहीं । जब ऐसे लोग तुम्हारे सामने प्रकट होते हैं जो अपना शरीर छोड़ चुके हैं । तो तुम्हें डरना
२६८
न चाहिये । साधारणत: ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे बेचैन होते है, उन्हें शान्ति नहीं मिलती--उन्हें शुभेच्छा दो और सद्भावना दो कि उन्हें शान्ति मिले और यह सब समाप्त हो जायेगा ।
बहरहाल तुम उन सत्ताओं से कह सकते हो कि माताजी के पास जाओ और फिर वे तुम्हें तंग न करेंगी ।
सिद्धपुर जाओ और अगर वहां कोई अप्रिय संगति है तो उससे बचो । लेकिन हमेशा याद रखो कि केवल भय ही हानि पहुंचाता है और 'भागवत कृपा' पर विश्वासपूर्ण श्रद्धा रखो तो तुम सुरक्षित रहोगे ।
तुम भय से पूर्णतया मुक्त तब हो सकते हो जब तुम अपने अन्दर से समस्त हिंसा को निकाल बाहर करो ।
समस्त हिंसा से मुक्त हो जाओ और तुम्हारे अन्दर कोई भय नहीं रह जायेगा ।
भय गुप्त स्वीकृति है । जब तुम किसी चीज से डरते हो तो इसका यह अर्थ है कि तुम उसकी सम्भावना को स्वीकार करते हो और इस तरह उसकी पकड़ को मजबूत बना देते हो । कहा जा सकता है कि यह अवचेतन स्वीकृति है । भय को बहुत से तरीकों से जीता जा सकता है । साहस, श्रद्धा, ज्ञान उनमें से कुछ एक हैं ।
भय दासता है, कार्य स्वतन्त्रता है, साहस विजय है ।
सन्देह
सन्देह कोई ऐसा खेल नहीं है जिसमें तुम निर्भय होकर खुल खेलो ।
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यह एक ऐसा विष है जो बूंद-बूंद करके आत्मा को नष्ट करता है ।
हमें सभी सन्देहों से मुक्त होने का निश्चय करना चाहिये, वे हमारी प्रगति के बुरे-से-बुरे शत्रु हैं ।
२१ जुलाई १९५४
अवसाद
अवसाद के हमलों से कैसे बचा जाये ?
अवसाद पर ध्यान न दो और इस तरह काम करते जाओ मानों उसका अस्तित्व ही न हो ।
३१ मार्च, १९३४
मेरा हृदय शुष्कता, उदासी और अन्धकार का अनुभव करता है मां।
तुम कुछ सुन्दर और रुचिकर चीज पढ़कर अपनी ओर से ध्यान हटाने की कोशिश क्यों नहीं करते ? यह उत्तम उपचार है ।
६ सितम्बर, १९३५
इन सब हास्यास्पद विचारों में मग्न मत रहो । ''पागलपन'', ''नरक'' और ''अंधेरी कोठरी'' ये सब तुम्हारी कल्पना में हैं ।
ज्यादा अच्छा हो कि तुम उनके स्थान पर मेरे प्रेम और आशीर्वाद के भाव को स्थापित करो ।
९ अक्तूबर १९३७
२७०
मेरे प्यारे बालक मुझे आशा है कि तुम्हारी कविता केवल कविता है ओर तुम सचमुच किसी अवसाद में नहीं फंसे हो । सचमुच, अवसाद सभी बीमारियों में सबसे बुरी बीमारी है और हमें उतनी ही शक्ति के साथ उसका त्याग करना चाहिये जितनी शक्ति का उपयोग बीमारी से छूटने के लिए करते हैं ।
हमेशा मेरे प्रेम और आशीर्वाद के साथ ।
३० जनवरी, १९४६
आज की रात हम अवसाद ओर उदासी के भूत का वध करेंगे--ताकि वे सभी जिनमें इस बीमारी से मुक्ति पाने की सच्ची निष्कपट इच्छा है, इस पर विजय पाने के लिए आवश्यक सहायता प्राप्त करें ।
२० अक्तूबर, १९५०
अवसाद हमेशा अयुक्तिसंगत होता है क्योंकि यह हमें कहीं नहीं पहुंचाता । यह योग का सबसे सूक्ष्म शत्रु है ।
३१ मई, १९५५
मुझे बस एक ही बात कहनी है--अवसाद बुरा सलाहकार होता है । मेरा प्रेम हमेशा तुम्हारे साथ है । श्रद्धा रखो और तुम ठीक हो जाओगे । अवसाद ही तुम्हारा स्वास्थ्य बिगाड़ता है ।
२८ अक्तूबरु, १९६७
अहं ही अवसाद में डूब जाता है ।
चिन्ता मत करो । अपना काम शान्ति के साथ करते चलो और अवसाद विलीन हो जायेगा ।
१८ अगस्त, १९७१
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अवसाद या विद्रोह के ऐसे क्षणों में अनुचित गतिविधि के आवेश में आकर कोई नया निर्णय नहीं लेना चाहिये, बल्कि व्यावहारिक रूप में शान्त अनुद्विग्न रहते हुए अपनी हमेशा की दिनचर्या में लगे रहना चाहिये ।
***
जब तुम इस तरह दु:रखी होते हो, तो इसका अर्थ यह है कि तुम्हें कोई प्रगति करनी है । तुम कह सकते हो कि हमें हमेशा प्रगति करनी चाहिये, यह सच है । लेकिन कभी-कभी हमारी प्रकृति आवश्यक प्रगति के लिए अपनी स्वीकृति देती है और तब सब कुछ सरलता से, यहां तक कि सुख से होता है । इसके विपरीत कभी-कभी वह भाग जिसे प्रगति करनी है, हिलने से इन्कार कर देता है और जड़ता, अज्ञान, लगाव या कामना के कारण अपनी पुरानी आदतों के साथ चिपका रहता है । तब, पूर्ण बनानेवाली शक्ति के दबाव के कारण वह संघर्ष दुःख या विद्रोह या कभी-कभी दोनों का रूप लेने लगता है ।
एकमात्र उपचार है चुपचाप रहना, अपने अन्दर सचाई के साथ यह जानने के लिए देखना कि गड़बड़ कहां है और साहस के साथ उसे ठीक करने के लिए काम में जुट जाना ।
अगर तुम्हारा प्रयास सच्चा, निष्कपट हो तो भागवत परम चेतना हमेशा तुम्हें सहायता देने के लिए तैयार होगी; तुम्हारा प्रयास जितना अधिक सच्चा होगा, भागवत परम चेतना उतनी ही अधिक सहायता और सहयोग देगी ।
१९ मई, १९५२
अंधेरे काल बार-बार और सभी के लिए आया करते हैं । साधारणत:, यह जानते हुए कि ये आध्यात्मिक रातें हैं जो बारी-बारी से दिन के सम्पूर्ण प्रकाश में बदला करती हैं, चिन्ता किये बिना चुपचाप रहना पर्याप्त है । लेकिन शान्त रह सकने के लिए तुम्हें अपने हृदय में भगवान् के प्रति 'वे' जो कुछ सहायता दे रहे हैं उसके लिए कृतज्ञ होना चाहिये । अगर कृतज्ञता
२७२
पर पर्दा पड़ जाये, तो अंधेरे काल अधिक लम्बे हो जाते हैं । एक जल्दी से हो जाने वाला कारगर उपचार भी है : हमेशा अपने हृदय में पवित्रता की अग्नि जलाये रखना, प्रगति के लिए अभीप्सा, तीव्रता, आत्मोत्सर्ग की उत्कण्ठा बनाये रखना । उन सभी के हृदय में यह लौ प्रज्ज्वलित होती है जो सच्चे और निष्कपट हैं; उसे कृतघ्नता की राख के नीचे दब न जाने दो ।
तुम्हें एक बात याद रखनी चाहिये : अंधेरे काल अनिवार्य होते हैं । जब तुम्हारा चैत्य सक्रिय होता है तो तुम बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के एक आह्लाद का अनुभव करते हो । ऐसा कुछ समय चलता है और फिर से वही मानसिक और प्राणिक प्रतिक्रियाएं तुम्हारे अन्दर आ जाती हैं और तुम फिर अंधकार में लौट जाते हो । ऐसा होता रहेगा । उजाले दिन अधिक बड़े होते जायेंगे और अंधेरे काल लम्बे अन्तराल के बाद और कम समय के लिए आयेंगे जब तक कि वे पूरी तरह से विलीन न हो जायें । तब तक तुम्हें यह जानना चाहिये कि बादलों के पीछे सूरज है और तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है । तुम्हारे अन्दर शिशु-सा विश्वास होना चाहिये--यह विश्वास कि कोई है जो तुम्हारी देखभाल करता है और तुम पूरी तरह से उस पर निर्भर रह सकते हो ।
दुःख
तुमसे मुझे यह कहना है : दुःख को दुलारो मत और दुःख तुम्हें पूरी तरह छोड़ देगा । प्रगति के लिए दुःख अनिवार्य बिलकुल नहीं है । सबसे महान् प्रगति स्थिर और प्रसन्नतापूर्ण समचित्तता में की जाती है ।
१० मई, १९३२
संसार दुःखों और क्लेशों से भरा है ।
२७३
तुम्हें यह कोशिश करनी चाहिये कि तुम किसी अतिरिक्त दुःख का कारण न बनो ।
१० अक्तूबर, १९७०
सभी मानवीय दुःखों का एकमात्र उपचार : भागवत प्रेम ।
भगवान् की ओर मुड़, तुम्हारे सभी दुःख गायब हो जायेंगे ।
जीवन के कष्टों को उसी रूप में न लो जैसे वे दीखते हैं; सचमुच वे अधिक महान् प्राप्ति के तरीके होते हैं ।
आलस्य, थकान, श्रान्ति, तमस्
यह खतरनाक बीमारी है : आलस्य ।
३० जुलाई, १९३६
थकान प्रगति की इच्छा के अभाव को दिखलाती है । जब तुम थकान या श्रान्ति का अनुभव करते हो तो वह प्रगति की इच्छा का अभाव होता है ।
अग्नि हमेशा तुम्हारे अन्दर जलती रहती है ।
तुम जो करते हो उसे बिना रुचि के करने से श्रान्ति आती है ।
तुम जो कुछ करो उसमें रुचि ले सकते हो बशर्ते कि तुम उसे प्रगति के साधन के रूप में लो; तुम जो कुछ करो उसे तुम्हें अच्छे-से- अच्छा
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करने की कोशिश करनी चाहिये । प्रगति का संकल्प हमेशा होना चाहिये और तब तुम जो कुछ करते हो उसमें रस लेते हो, चाहे वह कुछ भी हो । अगर तुम उसे इस दृष्टिकोण से लो तो एकदम नगण्य कार्य भी रुचिकर हो सकता है ।
और बहुत अधिक आकर्षक ओर महत्त्वपूर्ण क्रिया भी तुम्हारे लिए अपनी सारी रुचि खो बेठती है अगर उसे करते समय किसी आदर्श पूर्णता के प्रति प्रगति करने का तुम्हारे अन्दर संकल्प न हो ।
लगभग हर दसवें दिन मुझ पर श्रान्ति और क्षीणता का आक्रमण होता हे जिसकी तमस् और निरुत्साह में बदल जाने की प्रवृत्ति होती है ।
उस पर ध्यान न दो और अपनी सामान्य दिनचर्या के अनुसार चलते चलो ।
इससे छुटकारा पाने का यही सबसे तेज उपाय है ।
जब मैं काम करता हूं तो ठीक रहता हूं, थकान उसके बाद आती है | क्यों ? इसके लिए क्या किया जाये ?
इसका कारण यह है कि जब तुम काम करते हो तो शक्ति की ओर ग्रहणशील रहते हो और वह तुम्हें सहारा देती है । लेकिन जब तुम काम के दबाव में नहीं होते तो कम ग्रहणशील होते हो । तुम्हें हमेशा और सभी परिस्थितियों में ग्रहणशील होने की कोशिश करनी चाहिये--विशेषकर जब तुम आराम करो । तुम्हारा ''आराम'' तमस् का आराम नहीं बल्कि ग्रहणशीलता का सच्चा आराम होना चाहिये ।
तूफान के पीछे विरोधी शक्तियां नहीं थीं; वह रूपान्तरकारी शक्ति से
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भरा था । तुमने ठीक चीज की । मैं तुम्हें विश्वास दिला सकती हूं कि अपने-आपको उत्तेजित क्रियाकलाप में डाल देने की जगह अपने अन्दर जाना और शक्ति को ग्रहण करना अधिक सहायक है । निश्चय ही तमस् अच्छा नहीं है लेकिन केवल 'भागवत चेतना' के आगे समर्पण करने से ही तमस् को बदला जा सकता है ।
मेरे अन्दर कौन-से दोष है जो मेरी आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति की राह में आड़े आते हैं ?
तमस् और सुस्ती ।
अपने स्वभाव के इन दोषों से बचने के मैं क्या करूं ?
अधिकाधिक सचेतन बनो ।
२२ अक्तूबर, १९६४
भौतिक कामनाएं
भौतिक जीवन से किसी तुष्टि की आशा न रखो तो फिर तुम उसके साथ बंधे न रहोगे ।
भौतिक जगत् में, हमें जो स्थान पाना है उसके अनुसार हमारे जीवन और कार्य के लिए जो कुछ अनिवार्य हो वह हमें मिल जाता है ।
हम अपनी आन्तरिक सत्ता के साथ जितने अधिक सचेतन रूप से सम्पर्क में हों, उतने ही अधिक यथार्थ साधन हमारे लिए जुटा दिये जाते हैं । ३ जून, १९७०
२७६
जिस चीज की सचमुच आवश्यकता हो वह निश्चय ही आयेगी ।
चीजें तभी मांगनी चाहियें जब उनकी सचमुच जरूरत हो ।
बुरी चीज है दासता । परहेज की दासता और उसी तरह जरूरतों की दासता । जो आये उसे हम स्वीकार करें लेकिन अगर वह जाये तो उसे छोड़ने के लिए तैयार रहें ।
लोभ (भोजन के लिए)
भौतिक चेतना के साथ सम्बन्ध रखने वाली किसी भी चीज के लिए लोभ, तथाकथित आवश्यकताओं और किसी भी प्रकार के आराम के लिए लोभ--यह साधना-मार्ग की सबसे गम्भीर बाधाओं में से एक है ।
लोभ से तुम जो भी छोटी-मोटी तुष्टियां पाते हो उनमें से हर एक लक्ष्य की ओर से एक पग पीछे हटना है ।
जब तुम्हारे अन्दर कोई कामना होती है तो तुम उस चीज के अधीन होते हो जिसकी कामना कर रहे हो, वह तुम्हारे मन और जीवन पर अधिकार कर लेती है और तुम दास बन जाते हो । अगर तुम्हारे अन्दर भोजन के लिए लोभ हो तो तुम भोजन के स्वामी नहीं होते, भोजन तुम्हारा स्वामी होता है ।
साधक को अपने शरीर की आवश्यकता पूरी करने के लिए खाना चाहिये, न कि अपने लोभ की मांग पूरी करने के लिए ।
४ अप्रैल, १९३७
२७७
अगर तुम भगवान् के साथ ऐक्य की अपेक्षा जीभ के सुख को ज्यादा पसन्द करते हो तो यह तुम्हारा अपना मामला है और मुझे कुछ नहीं कहना सिवाय इसके कि मैं इसे पसन्द नहीं करती । लेकिन हर एक को यह चुनाव करने के लिए आजाद होना चाहिये कि वह अपनी निम्न प्रकृति से ऊंचा उठेगा या भौतिक गढ़े में जा धंसेगा । मेरी सहायता हमेशा उनके लिए रहती है जो उच्चतर मार्ग चुनते हैं ।
आवश्यकता है आसक्ति और भोजन के लिए लोभ और जीभ की लालसाओं से मुक्ति की आन्तरिक वृत्ति की । अनुचित रूप से भोजन की मात्रा कम कर देने या अपने-आपको भूखा मारने की जरूरत नही है । तुम्हें शरीर के पोषण, उसके बल और स्वास्थ्य के लिए, किसी आशक्ति और कामना के बिना पर्याप्त मात्रा में भोजन करना चाहिये ।
२७ अप्रैलू, १९३७
यह सौगुना ज्यादा उपयोगी होगा कि भोजन को कभी नष्ट न किया जाये, इसकी जगह कि दिखावे के लिए एक समय भोजन न किया जाये और उससे पहले और पीछे अधिक खाया जाये ।
भोजन के अपव्यय के विरुद्ध जोरदार उत्साहभरा आन्दोलन जरूरी है और मैं पूरे तौर से उसका समर्थन करती हूं ।
आश्रमवासी इस दिशा में सद्भावना और सहयोग दिखाने के लिए जितना हजम कर सकते हैं उससे अधिक कभी न खायें ओर जितना खा सकते हैं उससे अधिक कभी न मांगें ।
कृपया कोई ऐसा सरल उपाय बतलाइये जिससे हम धीरे-धीरे सामान्य भौतिक भोजन पर नितान्त निर्भरता छोड़कर अपने-आपको वैश्व प्राणिक-उर्जा की ओर अधिकाधिक खोल सकें |
२७८
भौतिक पाशविकता और प्राणिक लोभ को पार करने का कोई सरल उपाय नहीं है । केवल आग्रहपूर्ण अध्यवसाय ही सफल हो सकता है ।
कामनाएं, आवेग और आत्म-संयम
अगर हर एक स्वयं अपने ऊपर प्रभुत्व पाने और अपने आवेगों को नियन्त्रण में रखने का निश्चय कर ले तो स्थिति अधिक स्पष्ट हो जायेगी ।
जब लोग अपनी चेतना को विक्षुब्ध रहने देते हैं तो उनका जीवन भी विक्षुब्ध बन जाता है ।
आवेगशील पुरुष जो अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं कर सकता उसका जीवन अव्यवस्थित होता है ।
पहले अपने-आपको पूर्णत: जानना सीखो, फिर अपने-आप पर पूर्ण नियन्त्रण रखना सीखो । तुम हर क्षण अभीप्सा करके यह पा सकते हो । आरम्भ करने के लिए कभी 'बहुत जल्दी' नहीं होती और जारी रखने के लिए कभी 'बहुत देर' नहीं होती ।
निम्नतर आवेगों के ऊपर नियन्त्रण उपलब्धि की ओर पहला चरण है ।
कामनाओं का त्याग : उपलब्धि के लिए अनिवार्य शर्त ।
हां, हमें अपनी चेतना का आसन उच्चतर सत्ता में रखना चाहिये और हम जो कुछ करें वहीं से करें । हम निम्नतर, अन्ध और स्वार्थपूर्ण गतिविधियों
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और प्रतिक्रियाओं को अपना काम बिगाड़ने न दें ।
अगर वास्तविकता का यह अर्थ है कि हम निम्न प्रकृति की कुरूपता को इस बहाने स्वीकार कर लें कि उसका अस्तित्व है, तो यह साधना का कोई अंग नहीं है । हमारा लक्ष्य इन चीजों को स्वीकार करना और उनका मजा लेना नहीं बल्कि उनसे पिंड छुड़ाना और आध्यात्मिक सुन्दरता और पूर्णता के जीवन का निर्माण करना है । जब तक हम इन कुरूपताओं को स्वीकार करते हैं तब तक वह नहीं किया जा सकता ।
यह जानना कि वे हैं और उन्हें अस्वीकार करना, उन्हें अपना स्पर्श न करने देना एक चीन है, उन्हें स्वीकार करना और उनके आगे झुक जाना एकदम अलग चीज है ।
जो कुछ तुम्हें नीचे खींचता हो उससे सावधान । किसी निम्नतर वृत्ति के आगे न झुको । भगवान् के लिए अपनी अभीप्सा को अक्षुण्ण बनाये रखो ।
कामनाओं के आगे झुकना उनसे पिंड छुड़ाने का तरीका नहीं है । कामनाओं का कहीं अन्त नहीं है । प्रत्येक सन्तुष्ट कामना के स्थान पर एक और आ जाती है और वे अधिकाधिक शोर मचाती जाती हैं ।
इस निम्नतर चेतना में से बाहर निकलकर उच्चतर चेतना में उठकर कामनाओं पर विजय पाकर ही तुम उनसे पिंड छुड़ा सकते हो ।
२१ अप्रैल, १९३०
जो कुछ तुम्हें भगवान् से दूर ले जाता है उसके साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध न रखो ।
१८ अक्तूबर, १९३४
अगर तुम अपने अन्दर मेरी उपस्थिति के बारे में सचेतन होना चाहते
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हो और विरोधी आक्रमणों से छुटकारा पाना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कामनाओं को सन्तुष्ट करने के किसी भी प्रयास को त्याग देना चाहिये । जब प्राण यह आशा खो बैठता है कि उसकी कामनाएं सन्तुष्ट होंगी तभी वह आध्यात्मिक बनना स्वीकार करता है ।
मेरी सहायता और मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।
३ सितम्बर, १९३५
जो कामना यह जानती है कि उसे कभी सन्तुष्ट नहीं किया जायेगा, वह एकदम गायब हो जाती है ।
अगर धरती पर कभी कोई दिव्य वस्तु प्रतिष्ठित करनी है तो सभी निम्नतर हरकतों को जीतना होगा ।
१८ मार्च, १९३६
अपने-आप पर नियन्त्रण करने से बढ़कर कोई और विजय नहीं है । ३ मई, १९५४
यह अनिवार्य है कि तुम अपनी सत्ता की निम्नतर गतिविधियों का अनासक्त और वैज्ञानिक ढंग से स्पष्ट दृष्टि और अन्तर्दृष्टिवाले साक्षी की तरह अवलोकन करो । लेकिन तुम्हें इन गतिविधियों को इस तरह प्रकट होने या अधिकार जमाने न देना चाहिये मानों उन्हें बने रहने और बाकी सत्ता पर शासन करने का अधिकार हो । दूसरे शब्दों में कहें तो तुम्हें कभी इन गतिविधियों के आवेश में आकर कार्य न करना चाहिये । उनके सुझावों को कभी वाणी या कर्म में शारीरिक रूप से परिणत न करो, कभी बाहरी या भीतरी मुद्राओं द्वारा भी उनकी आज्ञाओं को कार्यान्वित न होने दो ।
१९ सितम्बर, १९५६
२८१
अचंचल रहो । अपने-आपको अनासक्त रखने की कोशिश करो और आवेश में आकर कार्य करने की समस्त सम्भावना को रोकने के लिए साक्षी की तरह अवलोकन करो ।
आवेश में आकर काम न करो ।
यह कभी न भूलो कि जितना बाहर उतना ही आश्रम में भी, अगर तुम सुखी जीवन बिताना चाहते हो तो तुम्हें अपनी निम्न प्रकृति का स्वामी होना चाहिये, अपनी कामनाओं और प्राणिक आवेशों पर नियन्त्रण करना चाहिये अन्यथा तकलीफों और मुसीबतों का कहीं अन्त न होगा ।
२० सितम्बर, १९६०
जीवन के प्रत्येक क्षण तुम्हें भागवत कृपा और निजी सन्तुष्टि के बीच चुनाव की उपस्थिति में खड़ा किया जाता है ।
१३ सितम्बर, १९६१
तुम अपने-आपको दुर्बल बनाकर नहीं, केवल बल, सन्तुलन और शान्ति में ही अपनी कामनाओं पर विजय पा सकते हो ।
७ जून, १९६४
अगर तुम अपनी कामनाओं के स्वामी नहीं हो तो तुम अपने विचारों के स्वामी नहीं हो सकते ।
२२ अगस्त, १९६४
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कभी-कभी आप हमारी कामनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं के लिए भी ''ठीक हे'' कह देती हैं
भागवत कृपा पथ पर प्रगति के लिए कार्य करती है । कामना की सन्तुष्टि भी कामना की व्यर्थता को दिखाकर उस कार्य को सिद्ध कर सकती है ।
हो सकता है कि बीते हुए कल की अच्छाई आने वाले कल के लिए अच्छी न रहे ।
इसलिए अपनी प्रेरणा का अनुसरण करो और मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं ।
३० मई, १९६८
तुम्हें मेरा प्रेम, मेरी कृपा ओर मेरे आशीर्वाद प्राप्त हैं ।
लेकिन अगर तुम उन्हें अनुभव करना चाहो तो तुम्हें अनुशासित, सतर्क और एकाग्र रहना चाहिये, सबसे बढ़कर तुम्हें अपनी कामनाओं और सनकों में से किसी पर कान नहीं देना चाहिये ।
जीवन में, मनुष्य को कामनाओं के अस्तव्यस्त और निरर्थक जीवन और अभीप्सा के प्रकाश तथा आरोहण और अपनी निम्न प्रकृति पर विजय के बीच चुनाव करना पड़ता है ।
१६ जून, १९७१
न विषयासक्ति ओर न कामनाएं ।
कामना की तुष्टि की अपेक्षा उस पर विजय अधिक आनन्द लाती है ।
आत्म-संयम सबसे बड़ी विजय है । वह सारे चिरस्थायी सुख का आधार है ।
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इन्द्रियनिग्रह : अपने ऊपर नियन्त्रण ।
संयमी होने का अर्थ है अपने अन्दर जो वृत्तियां भागवत इच्छा को अभिव्यक्त करने के लिए एकदम आवश्यक हैं उनके सिवा सत्ता की किसी भी वृत्ति को, मानसिक हो या प्राणिक और भौतिक, प्रवेश न करने देना ।
अहंकार
अहंकार उसके बारे में सोचता है जो उसके पास नहीं है और जिसे वह चाहता है । वह निरन्तर इसी काम में व्यस्त रहता है ।
अन्तरात्मा जानती है कि उसे क्या दिया गया है और वह अनन्त कृतज्ञता में निवास करती है ।
अहंकार का उन्मूलन : व्यक्ति केवल भगवान् के लिए और भगवान् द्वारा ही जीता है ।
जीवन की समस्त कटुता हमेशा केवल अहंकार से आती है जो पदच्युत होने से इकार करता है ।
जो कुछ होता है वह हमें वही एक ही पाठ पड़ाने के लिए होता है : जब तक कि हम अपने अहंकार से पिंड न छुड़ा लें तब तक न तो हमारे लिए और न औरों के लिए शान्ति हो सकती है । और अहंकार के बिना जीवन एक अद्भुत चमत्कार बन जाता है !...
२८४
हम भागवत मुस्कान का ध्यान तभी कर सकते हैं जब हम अहंकार पर विजय पा लें ।
अहंकार के खेल के बिना कोई टकराहट नहीं होगी और अगर प्राण में नाटक करने की वृत्ति न हो तो जीवन में नाटकीय घटनाएं न घटेंगी ।
हां, जो अपने अहंकार में रहते हैं वे सतत रूप से एक कुरूप नाटक में जीते हैं । अगर लोग जरा कम स्वार्थी होते तो चीजें जरा कम खराब होतीं ।
तब तक हमें इन सब विरोधी परिस्थितियों का सामना धैर्य, सहिष्णुता और समचित्तता के साथ करना चाहिये ।
२३ अक्तूबर, १९३५
तुम्हारी कठिनाइयों का परिमाण तुम्हारे अहंकार का माप दिखाता है ।
२३ मार्च, १९५७
दिव्य मां,
मेरा दानवी शत्रु: अहंकार, ठीक मेरे रास्ते में बेठा है और मुझे निकलने नहीं देता । मैं उसके साथ किस तरह लड़ू ?
उसकी उपेक्षा करो और निकल जाओ ।
१२ मई १९६६
अपने अहंकार पर विजय पाना आसान काम नहीं है ।
भौतिक चेतना में उस पर विजय पा लेने के बाद भी, हम फिर से, ज्यादा बढ़े-चढ़े रूप में, उसे आध्यात्मिक चेतना में पाते हैं ।
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