CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
 PDF   
The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation
 PDF    LINK

हमेशा सच बोलो

 

    हमेशा सच बोलना आभिजात्य का सबसे ऊंचा पद है ।

 

*

 

    सत्य की एक बूंद मिथ्या जानकारी के सागर से ज्यादा मूल्यवान् है ।

 

*

 

    कभी झूठ न बोलो : मार्ग पर सुरक्षा के लिए बिल्कुल पूर्ण अवस्था ।

 

*

 

    बोला गया प्रत्येक झूठ विघटन की ओर उठाया गया एक कदम है ।

 

*

 

    मैंने हमेशा झूठ बोलने की मनाही की हे और हमेशा करती रहूंगी ।

 

*

 

    अगर तुम कोई सच्ची बात नहीं कहना चाहते हो तो झूठ बोलने की जगह चुप रहो ।

 

*

 

    इस कलम से कोई ऐसी चीज न लिखी जाये जो पूर्णतया सच न हो ।

१४ जून, १९३४

 

*

 

    अगर हम किसी मिथ्यात्व को, वह चाहे जितना भी छोटा क्यों न हो, अपने मुख या अपने कलम द्वारा व्यक्त होने दें तो 'सत्य' के पूर्ण सन्देशवाहक बनने की आशा केसे कर सकते हैं ? 'सत्य' के पूर्ण सेवक को किंचित्‌मात्र भी अयथार्थता, अतिशयोक्ति या विकृति से बचना चाहिये ।

 

*

 

२२३


    नीरवता अयथार्थता से कहीं श्रेष्ठ है ।

३० दिसम्बर, १९७२

 

वाणी का संयम

 

    एकदम मौन की अपेक्षा तुम जो कहते हो उस पर संयम ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । सबसे अच्छा है जो उपयोगी हो उसे यथार्थ और यथासम्भव सच्चे ढंग से कहना सीखना ।

५ मार्च, १९३३

 

*

 

    आत्म-संयम सबसे पहली आवश्यक चीज है और उसमें भी अपनी वाणी का संयम । अगर लोग चुप रहना सीख लें तो कितनी कठिनाइयों से बचा जा सकता है !

 

    केवल कार्य करने के लिए ही नहीं, बल्कि मुख्यत: 'रूपान्तर' साधित करने के लिए भी अचंचल रहो और बल और शक्ति जुटाओ ।

३ मार्च, १९३४

 

*

 

    अगर लोग बोलने, काम करने या लिखने से पहले जरा शान्त रह लें तो बहुत-सी तकलीफों से बचा जा सकता है । इतनी सारी चीजें व्यर्थ में बोली जाती हैं जो गलतफहमियां और दुर्भावनाएं लाती हैं । मौन के द्वारा उनसे बचा जा सकता था ।

 

    अगर केवल वही शब्द बोले जाते जिनके बोलने की जरूरत है तो संसार बहुत नीरव स्थान होता ।

२१ दिसम्बर, १९३४

 

*

 

    संसार निरर्थक शब्दों के कारण बहरा हो गया है ।

*

 

२२४


    माताजी, हमें कपड़े सुखाने में देर हो गयी क्योंकि उधर धोने में देर हो गयी थी । लेकिन मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि मैं अपने साथियों के उग्र वाद-विवाद में बह नहीं गया । में कठिनाई के साथ यह कर पाया । अब से मैं यही वृत्ति अपनाने की कोशिश करूंगा । मुझे 'अपनी नीरवता' का बल प्रदान कीजिये

 

    हां, यह जानना बहुत अच्छा है कि चुपचाप कैसे रहा जाये और वाद-विवादों में भाग न लिया जाये जो हमेशा व्यर्थ और अप्रिय होते हैं ।

 

*

 

    मौन रहने की शक्ति में बड़ा बल है ।

 

*

 

 

    वकृताओं को विशेषकर तथाकथित आध्यात्मिक विषयों पर दी गयी वकृताओं को न सुनना हमेशा ज्यादा अच्छा है । हर एक को अपने ही मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, दूसरों का उसके साथ कोई सरोकार नहीं होता ।

९ जनवरारी, १९३८

 

*

 

    कभी-कभी शब्दों के आदान-प्रदान की अपेक्षा आध्यात्मिकता का वातावरण बहुत ज्यादा मदद करता है ।

२२ नवम्बर, १९५१

 

 

*

 

 

    तुम्हें हमेशा वही करना चाहिये जो तुम कहते हो लेकिन तुम जो कुछ करते हो उस सबके बारे में बोलना हमेशा बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता ।

 

    तुम जब बोलो तो हमेशा सच बोलो; लेकिन कभी-कभी न बोलना ज्यादा अच्छा होता है ।

१८ दिसम्बर, १९५९

*

 

२२५


    भौतिक चीजों के बारे में बोलते समय तुम्हारी शैली सजीव, मनोहर और विनोदपूर्ण होनी चाहिये ।

 

    प्राणिक चीजों के बारे में बोलते समय शैली धाराप्रवाह होनी चाहिये । मानसिक चीजों के बारे में बोलते समय शैली स्पष्ट सुनिश्चित और यथार्थ होनी चाहिये ।

 

    चैत्य चीजों के बारे में बोलते समय तुम्हें अन्तःप्रेरित होना चाहिये ।

२३ जनवरी, १९५३

 

*

    आध्यात्मिक वाणी : अपनी सरलता में सर्व-समर्थ ।

 

*

 

    स्पष्टता परिणाम की परवाह किये बिना, उसे जो कुछ कहना होता हे निश्छलता से कह देती है ।

 

*

 

    चीजों को मधुरता के साथ कह सकना हमेशा बल का चिहन होता हे और दुर्बलता ही हमेशा अप्रिय रूप में फूट पड़ती हे ।

१८ अप्रैल, १९५६

 

*

 

     क्रोध ने किसी से मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं कहलवाया ।

 

*

 

     कभी शेखी मत बघारो । शेखी बघारकर तुम उपलब्धि के लिए अपनी योग्यता को छितरा देते हो ।

 

*

 

     शेखी, शेखी, प्रगति के लिए सबसे बड़ी बाधाओं में से एक । अगर तुम सच्ची प्रगति की अभीप्सा करते हो तो तुम्हें बड़ी सावधानी के साथ

 

२२६


इस मूर्खता से बचना चाहिये ।

 

     बहुत-सी बुरी आदतों की अपेक्षा निन्दा करने की आदत ज्यादा विनाशक है ।

 

*

 

    ''Me'dire'' बहुत घिनौनी चीज है । मुझे पता नहीं ''Me'dire'' का अंग्रेजी में कैसे अनुवाद किया जाये । यह ठीक-ठीक ''बुरा बोलना'' नहीं है । कुटिल मन, कुटिल जीभ, कुटिल हृदय : यह सब वाणी में आकर मधु के जैसा दीखता है पर स्वाद विष जैसा होता है ।

 

*

 

    व्यर्थ में बोला गया प्रत्येक शब्द भयानक गपबाजी है ।

 

    हर दुर्भावनापूर्ण शब्द, हर मिथ्यापवाद चेतना की अधोगति है ।

 

    और जब यह मिथ्यापवाद भद्दी भाषा और गंवारू शब्दों में प्रकट किया जाता है तो यह आत्मघात के समान होता है--अपनी अन्तरात्मा के आत्मघात के समान ।

९ अगस्त, १९५७

 

*

 

    जब अज्ञान में तुम औरों के लिए बुरा बोलते हो तो तुम अपनी चेतना को भ्रष्ट और अन्तरात्मा को पदच्युत करते हो ।

 

    सम्मान और विनयपूर्ण मौन ही शिष्य के योग्य वृत्ति है ।

 

*

 

    वाणी के असंयम में प्रकट होनेवाले आलोचनात्मक भाव का इलाज :

 

    १. जब तुम इस अवस्था में हो तो बोलने से एकदम इकार करो-जरूरी हो तो भौतिक रूप से अपना बोलना असम्भव बना दो ।

 

    २. निर्दय होकर अपना अध्ययन करो और यह अनुभव करो कि तुम औरों के अन्दर जिन चीजों को इतना हास्यास्पद मानते हो । ठीक वही चीजें स्वयं तुम्हारे अन्दर हैं ।

 

२२७


     ३. अपने स्वभाव में विपरीत होने का तरीका भी खोजो (शुभ चिन्ता, नम्रता, सद्‌भावना) और इस पर जोर दो कि यह इतना विकास कर ले कि उस विपरीत तत्त्व को नष्ट कर दे ।

११ अक्तुबर, १९५८

 

*

 

    हृदय में भागवत 'उपस्थिति' द्वारा सच्चा बल और सुरक्षा आते हैं ।

 

   अगर तुम इस 'उपस्थिति' को अपने अन्दर निरन्तर रखना चाहते हो तो भाषण, आचरण और क्रियाकलापों के सारे गंवारूपन से बड़ी सावधानी के साथ बचो । स्वच्छन्दता को, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता को अशिष्ट व्यवहार न मान बैठो । विचारों को पवित्र और अभीप्सा को तीव्र होना चाहिये ।

२६ फरवरी, १९६५

 

*

 

    सावधान रहो कि जब तुम लोगों से बातें करो तो हमेशा जीवन्त 'उपस्थिति' और दिव्य सुरक्षा अपने चारों तरफ रखो और कम-से-कम बोलो ।

 

*

 

    जो नहीं समझते उनके सामने चुपचाप रहने के बारे में तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है, क्योंकि परम प्रभु तुम्हारे साथ हैं, और यही एकमात्र वस्तु है जिसका मूल्य है ।

 

    प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

३ नवम्बर, १९६५

 

*

 

    तुम्हें जाकर क्षमा प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है । लेकिन चूंकि, तुम्हारे शब्द गलत तरीके से समझे गये इसलिए तुम्हारा यह निश्चय ठीक है कि बोलते समय ज्यादा सावधान रहोगे ।

 

*

 

२२८


    निश्चय ही दूसरों की भूलों के बारे में बोलना बहुत बुरा है; हर एक के अपने दोष होते हैं और उन्हीं के बारे में सोचते रहना, निश्चय ही उन्हें ठीक करने में सहायता नहीं पहुंचाता ।

जून, १९६६

 

*

 

    बोलने से भी बढ़कर लिखने के लिए : अगर तुम भगवान् की ओर शीघ्रता से बढ़ने के लिए उत्तम वृत्ति में रहने की अभीप्सा करते हो, तो तुम्हें यह कठोर नियम बना लेना चाहिये कि उतना ही बोलो (और उससे भी बढ़कर उतना ही लिखो) जितना एकदम अनिवार्य हो । अगर तुम सच्ची निष्कपटता के साथ इसका अनुसरण करो तो यह अद्‌भुत अनुशासन है ।

२७ जुलाई, १९६६

 

*

 

     न तो बहुत अधिक और न बहुत कम शब्द--बस जितना आवश्यक हो ।

 

*

 

     मेरे ख्याल से सूचनाएं इकठ्ठी करने की प्रवृत्ति बुरी नहीं है ?

 

यह बुरी और हानिकर है और यह न केवल उनकी चेतना को नीचे गिराती है जो गप्पें लगाते हैं बल्कि उस जगह के वातावरण को भी खराब कर देती है ।

२९ जुलाई, १९६७

 

*

 

    कोई क्या कर रहा है या नहीं कर रहा इंसके बारे में गपबाजी करना गलत है ।

 

    ऐसी गप्प को सुनना गलत है ।

 

    यह देखना कि यह गप्प सच है या नहीं गलत है ।

 

२२९


    झूठी गप्पों का शब्दों में प्रतिकार करना गलत है ।

 

    सारी चीज अपने समय को नष्ट करने और अपनी चेतना को नीचे गिराने का बहुत बुरा तरीका है ।

 

    जब तक कि इस धृणित आदत को वातावरण से मिटा नहीं दिया जाता तब तक 'आश्रम' अपने भागवत जीवन के लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंचेगा ।

 

    मैं आशा करती हूं कि सब तुम्हारी तरह प्रायश्चित करेंगे और इस बुरी आदत को छोड़ देने का प्रण लेंगे ।

१२ अक्तूबर, १९६७

 

 

कथनी और करनी

 

    जानना काफी नहीं है तुम्हें क्रियान्वित करना होगा ।

 

*

 

    दिखावा करना काफी नहीं है तुम्हें बनना होगा ।

१५ नवम्बर, १९४०

 

*

 

    'सत्य' के पथ पर अधिक जानने के लिए तुमने जो कुछ पहले सीखा है उसे जीवन में उतारो ।

 

    जरा-सा निष्कपट आचरण बहुत-से लिखे और बोले गये शब्दों से कहीं अधिक श्रेष्ठ है ।

जुलाई १९५३

 

*

 

    अभ्यास की एक बूंद सिद्धान्तों सलाहों और अच्छे संकल्पों के सागर से कहीं अच्छी है ।

 

२३०


१९३८

 

 

बोलो कम, कार्य अधिक करो ।

 

*

 

 

    कम बोलो सच्चे बनो, पूर्ण निष्कपटता के साथ काम करो ।

 

*

 

    सुनना अच्छा है लेकिन पर्याप्त नहीं है-तुम्हें समझना चाहिये ।

 

    समझना ज्यादा अच्छा है, लेकिन फिर भी पर्याप्त नहीं है--तुम्हें कार्य करना चाहिये ।

२४ नवम्बर, १९६९

 

*

 

    ( 'श्रीअरविन्द ऐक्शन' के उद्‌घाटन के समय दिया गया सन्देश)

 

    भला बोलना अच्छा है । भला कार्य करना ज्यादा अच्छा है । अपनी करनी को कभी अपनी कथनी से छोटा न होने दो ।

२९ जुलाई, १९७०

 

*

 

    सत्य की उपेक्षा करने से ज्यादा अच्छा है उसे कह देना; लेकिन उसे कह देने से कहीं ज्यादा अच्छा है उसे जीना ।

 

*

 

    लोग इस शिक्षा के बारे में बहुत कुछ बोलते हैं लेकिन इसका अनुसरण नहीं करते ।

 

*

 

    ऐसे लोग जो अपने सोचने के अनुसार नहीं जीते बेकार होते हैं ।

*

 

२३१


    किसी 'भागवत शिक्षा' को पढ़ना अच्छा है ।

 

    उसे सीखना ज्यादा अच्छा है ।

 

    सबसे अच्छा है उसे जीना ।

 

*

 

 

    कोई शिक्षा तभी लाभदायक हो सकती है जब वह पूरी तरह सच्ची और निष्कपट हो, यानी वह जिस समय दी जाये उस समय उसे जिया भी जाये । बहुधा दोहराये गये शब्द, बहुधा कहे गये विचार सच्चे, निष्कपट नहीं रह जाते ।

 

*

 

 

    अन्तिम विश्लेषण में, सभी सिद्धान्त, सभी शिक्षाएं और कुछ नहीं, बस देखने और कहने के तरीके हैं । ऊंचे-से-ऊंचे अन्तर्भास भी उनके साथ आयी चरितार्थता की शक्ति से अधिक मूल्य नहीं रखते ।

 

     क्षण भर के लिए भी 'परम सत्य' को जीना उन सैकड़ों किताबों को लिखने या पढ़ने से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है जिनमें उसे खोजने की पद्धतियां या प्रक्रियाएं होती हैं ।

 

*

 

      उत्तरोत्तर विकसनशील सत्य को चरितार्थ करने के लिए सिद्धान्त को व्यवहार के सांचे में ढालना चाहिये न कि व्यवहार को सिद्धान्त के सांचे में

 

*

 

    क्रिया करने से पहले यह जानो कि तुम्हें करना क्या है ।

२३२










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates