CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

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The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation
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कपट, आडम्बर, आत्म-वंचना

 

     अपने सच्चे 'स्व' के प्रति पूरी तरह वफादार और सच्चे बनो ।

     भगवान् के प्रति अपने उत्सर्ग में किसी भी छल को अन्दर घुसने न दो ।

१ जनवरी, १९३४

*

कपट विनाश के पथ की ओर ले जाता है ।

 

*

 

तुम्हारी साधना में महत्त्वपूर्ण चीज है पग-पग पर सच्चाई । अगर वह हो तो भूलें सुधारी जा सकती हैं और उनका बहुत महत्त्व नहीं होता । अगर जरा भी कपट हो तो वह तुरन्त साधना को नीचे खींच लेता है । लेकिन यह सतत सचाई मौजूद है या नहीं या किसी बिन्दु पर पतन हो जाता है--यह एक ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अपने अन्दर देखना सीखना होगा; अगर उसके लिए गम्भीर और स्थायी इच्छा हो, तो उसे देखने की शक्ति आ जायेगी । सचाई दूसरों को सन्तुष्ट करने पर बिलकुल निर्भर नहीं है--यह आन्तरिक मामला है और केवल ऐकान्तिक रूप से मेरे और तुम्हारे बीच की बात है ।

१२ मई, १९३१

*

   

    सच्चे बनो और आवश्यक हो तो मैं तुम्हारी भूलें हजार बार ठीक करने के लिए भी तैयार हूं ।

*

    जो सच्चे हैं मैं उनकी सहायता कर सकती हूं और उन्हें आसानी से भगवान् के प्रति मोड़ सकती हूं । लेकिन जहां कपट हो वहां मैं बहुत कम ही कर सकती हूं ।

*

    मैं सचाई के साथ अनुभव करता हूं कि मे ओर कुछ नहीं, केवल

 

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'भगवान्' को चाहता हूं । लेकिन जब मेरा सम्पर्क दूसरों के साथ

होता है,, जब मैं ऐसी चीजों में व्यक्त रहता हूं जिनका कोई मूल्य

नहीं, तो मैं स्वभावत: भगवान् को अपने एकमात्र लक्ष्य को, भूल

जाता हूं । क्या यह कपट हे ? अगर नहीं, तो इसका क्या अर्थ है ?

 

हां, यह सत्ता का कपट है, जिसमें एक भाग भगवान् को चाहता है और दूसरा किसी और वस्तु को ।

 

     अज्ञान और मूर्खता के कारण सत्ता में सचाई का अभाव है । लेकिन, दृढ़ संकल्प और 'भागवत कृपा' में पूर्ण विश्वास द्वारा व्यक्ति इस कपट को दूर कर सकता है ।

 

*

 

     जब तक व्यक्ति के अन्दर आन्तरिक द्वन्द्व की सम्भावना रहती है, तो इसका यह अर्थ होता हे कि उसमें अब भी कुछ कपट हे ।

 

*

 

      कोई भी आन्तरिक द्वन्द्व सचाई के अभाव का चिह्न है ।

 

*

 

       केवल वही जो पहले से ही काफी सच्चे हैं यह जानते हैं कि वे पूरी तरह सच्चे नहीं हैं ।

१७ जून, १९५४

 

*

 

      जब तुम्हें यह विश्वास हो कि तुमने पूर्ण सचाई पा ली है, तो निश्चय जानो कि तुम मिथ्यात्व में डूब गये हो ।

 

*

 

      यह सोचने का कोई फायदा नहीं कि हम बहुत सच्चे हैं । यह सोचना भी बेकार है कि हम सच्चे नहीं हैं । उपयोगी है सच्चे बनना ।

*

 

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    त्ता का हर विभाजन कपट है ।

 

    सबसे बड़ा कपट है अपने शरीर और अपनी सत्ता के सत्य के बीच एक खाई खोदना ।

 

    जब एक खाई तुम्हारी सच्ची सत्ता को तुम्हारी भौतिक सत्ता से अलग करती है तो 'प्रकृति' उसे तुरन्त सब प्रकार के विरोधी सुझावों से भर देती है । उनमें सबसे अधिक विकट है भय और सबसे अधिक घातक है सन्देह ।

 

    कहीं भी, किसी चीज को अपनी सत्ता के सत्य का निषेध न करने दो--यही निष्कपटता है ।

७ जुलाई, १९५७

 

*

    'शाश्वत चेतना' के सामने सचाई की एक बूंद का मूल्य पाखण्ड और ढोंग के सागर से बढ़कर है ।

*

 

अगर मैं हूं तो मुझे दीखने की जरूरत नहीं है ।

 

दीखने की अपेक्षा होना ज्यादा अच्छा है ।

 

जब तुम हो तो दीखने की जरूरत नहीं ।

 

*

 

     अगर मेरी सचाई पूर्ण है तो मुझे अच्छा दीखने की जरूरत नहीं । दीखने की अपेक्षा होना ज्यादा अच्छा है ।

 

*

 

अपने प्रति ईमानदार रहो- (आत्म प्रवंचना नहीं) ।

 

भगवान् के प्रति सच्चे रहो- (समर्पण में सौदेबाजी नहीं) ।

 

मानवजाति के साथ सीधे रहो- (दिखावा और पाखण्ड नहीं) ।

२५ जून १९६३

*

 

अधिकांश मनुष्यों में अपने-आपको धोखा देने की चिरकालिक आदत

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है । वे अपने-आपको भिन्न-भिन्न सैकड़ों तरीकों से धोखा देते हैं जिनमें से हर एक दूसरे से अधिक धूर्ततापूर्ण चालाकी से भरा और सूक्ष्म होता है और इसमें दोनों मिले रहते हैं--पूरी सरलता और पूर्ण कपट ।

 

*

 

    जो कोई सचाई के साथ योग करता है उसमें निश्चित रूप से सभी परिस्थितियों का सामना करने की आवश्यक शक्ति और स्थिरता होगी ।

 

    लेकिन असंख्य हैं वे जो अपने-आपको धोखा देते हैं, यह मानते हैं कि वे योग कर रहे हैं लेकिन करते हैं आंशिक रूप में ही, फिर भी विरोधों से भरे रहते हैं ।

२० अप्रैल १९६६

 

*

मधुर मां, व्यक्ति योग कैसे करता है ?

 

पूरी तरह सच्चे बनो, कभी दूसरों को छलने की कोशिश मत करो । और कोशिश करो कि अपने-आपको कभी धोखा न दो ।

    आशीर्वाद ।

 

१७ फरवरी १९६८

*

 

     भगवान् को धोखा देने की कोशिश न करो ।

 

*

 

 

    महत्त्वपूर्ण बात है अधिक से अधिक सच्चा होना, हमेशा अधिक सच्चा होना जिससे तुम अपने-आपको अपनी अभीप्सा की पूर्णता में कभी धोखा न दो ।

 

     यह सचाई निश्चित रूप से 'भागवत कृपा' लाती है ।

     आशीर्वाद ।

*

 

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    यह देखना आसान है कि भूलें सत्ता में सचाई के अभाव के कारण होती है--इससे निकलने का एकमात्र उपाय है सच्चा बनना । तुम्हें इस उद्देश्य के लिए संकल्प, शक्ति और ज्ञान दिये गये हैं ।

९ मार्च, १९६८

*

 

    स्वयं सच्चा बनने के लिए यह जरूरी नहीं है कि तुम औरों के सच्चा बनने का इन्तजार करो ।

९ मार्च, १९६८

*

 

    पूर्ण सचाई के सबसे बड़े शत्रु हैं अभिरुचियां (चाहे मानसिक हों या प्राणिक हों या भौतिक) और पहले से बनायी धारणाएं । इन बाधाओं पर विजय पानी चाहिये ।

 

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