The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
भाग ६
कर्म
कर्म-भगवान् के प्रति अर्ध्य
आओ, हम अपना कर्म भगवान् को अर्ध्य रूप में दें । यह प्रगति करने का निश्चित साधन है ।
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भगवान् के प्रति निवेदित किये गये कार्य के द्वारा ही चेतना सबसे अच्छी तरह विकसित होती है ।
आलस्य और अकर्मण्यता का अन्त तमस् में होता है । वह निश्चेतना में पतन है । वह समस्त प्रगति और प्रकाश के विपरीत है ।
अपने अहंकार को जीतना, केवल भगवान् की सेवा में लगे रहना--यही सच्ची चेतना को प्राप्त करने का आदर्श और सबसे छोटा मार्ग है ।
तुम्हें काम भगवान् के प्रति अर्ध्य के रूप में करना चाहिये और उसे अपनी 'साधना' का अंग मानना चाहिये । उस भाव के साथ काम के स्वरूप का कोई महत्त्व नहीं और तुम आन्तरिक उपस्थिति से सम्पर्क खोये बिना कोई भी काम कर सकते हो ।
जब मेरे विभाग में पर्याप्त काम नहीं होता तो क्या मैं अपना समय पढ़ने और चित्र अंकने में लगा सकता हूं ?
तुम्हारा काम तुम्हारी साधना है । समर्पण भाव से अपना काम करते हुए ही तुम अधिक-से-अधिक प्रगति कर सकते हो ।
मेरा ख्याल है कि पढ़ने और चित्र आंकने के द्वारा अपने-आपको बहुत थकाने की जरूरत नहीं है ।
१८ फरवरी, १९३३
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मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या पढ़ने और चित्र आंकने में भी वही साधना नहीं है ?
हर चीज को भगवान् को पाने का साधन बनाया जा सकता है । जिस चीज का महत्त्व है वह है वह भाव जिससे काम किया जाता है ।
२१ फरवरी, १९३३
सच्चे भाव से किया गया काम ध्यान है ।
१५ सितम्बर, १९३४
सब कुछ उस मनोभाव पर निर्भर है जिससे तुम काम करते हो । अगर उसे उचित मनोभाव से किया जाये तो निश्चित ही वह तुम्हें मेरे नजदीक लायेगा ।
१७ मई, १९३७
मैं तुम्हारे काम करने के तरीके से बिलकुल सन्तुष्ट हूं और वह निश्चय ही तुम्हें मेरे ज्यादा समीप आने में सहायता देगा ।
मैं कर्म और योग में फर्क नहीं करती । निष्ठा और समर्पण-भाव से किया गया कर्म अपने-आपमें योग है ।
२५ जनवरी, १९३८
कभी-कभी जब में ध्यान में डूबा होता हूं तो मैं देखता और अनुभव करता हूं कि मेरी भौतिक सत्ता काम के द्वारा अभीप्सा करती है । तब में अपने भौतिक में सूर्य को अपनी प्रखर ज्योति के साथ अभिव्यक्त
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होते हए देखता हूं । 'आप' में से निःसृत हो रहे सभी देवता और शक्तियां इस में मौजूद हैं ।
हां, यह सच है कि काम में और काम-द्वारा आदमी दिव्य ज्योति और शक्ति के सूर्य से सम्पर्क साध सकता है ।
काम के बारे में तुम्हारा मनोभाव ठीक है, और इसमें सुझाने लायक परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं लगती । प्रेम द्वारा और प्रेम के लिए किया गया काम निश्चय ही सबसे ज्यादा सशक्त होता है ।
८ जून, १९४२
प्रेमपूर्वक कर्म करना : कर्म करने की सर्वश्रेष्ठ स्थिति ।
आओ, हम जैसे प्रार्थना करते हैं उसी तरह काम करें क्योंकि वस्तुत: काम भगवान् के प्रति शरीर की सर्वोत्तम प्रार्थना है ।
११ दिसम्बर, १९४५
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भगवान् के लिए काम करना, शरीर द्वारा प्रार्थना करना है ।
तुम ध्यान द्वारा प्रगति कर सकते हो लेकिन अगर काम उचित भाव से किया जाये तो उसके द्वारा दसगुना प्रगति कर सकते हो ।
६ अप्रैल, १९५४
आन्तरिक और बाह्य मनोवृत्ति के संशोधन से साधना में प्रगति होती है । तुम किस तरह का काम करते हो इससे नहीं-कोई भी काम, चाहे कितना भी घटिया क्यों न हो, यदि सम्यक् मनोवृत्ति के साथ किया जाये तो भगवान् तक ले जाता है ।
१६ जुलाई, १९५५
काम करना इतना आसान नहीं है । सच्चे काम में तुम्हें वह सब तो करना ही पड़ता है जो 'साधना' के लिए किया जाता है, उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ ।
२१ अगस्त, १९५५
तुम्हें वह सब करना है जो योगी करता है, तुम्हें उच्चतम शिखरों तक पहुंचना और चेतना, प्रकाश और शान्ति की अवस्थाओं को नीचे उतार कर अपने रोज के काम में अभिव्यक्त करना है । तुम्हारे लिए कोई भी काम नगण्य या तुच्छ नहीं है ।
२२ अगस्त, १९५५
जाओ और अपने-आपको तैयार करो, और सबसे अच्छी तैयारी है भगवान् के काम में उपयोगी होना ।
मई, १९६३
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क्या मैं ध्यान के लिए कोशिश करूं ?
अगर तुम्हारा काम भगवान् के प्रति निरन्तर अर्ध्य है तो यह जरूरी नहीं ।
१३ अप्रैल, १९६५
मैं अपने काम का अर्ध्य किस प्रकार दे सकता हूं ?
सामान्यत: आदमी अपने निजी लाभ और सन्तोष के लिए काम करता है; इसके बदले तुम्हें भगवान् की सेवा के लिए, 'उनकी' इच्छा को अभिव्यक्त करने के लिए काम करना चाहिये ।
२३ जून, १९६५
हमारा काम चाहे जो हो, हम चाहे जो करते हों, हमें उसे सचाई, ईमानदारी और अति सावधानी के साथ करना चाहिये, किसी निजी लाभ के लिए नहीं बल्कि भगवान् के प्रति अर्ध्य के रूप में जिसमें हमारी पूरी सत्ता का समर्पण हो । अगर सभी परिस्थितियों में सचाई के साथ यह मनोभाव रखा जाये तो जब कभी हमें काम को भलीभांति करने के लिए कुछ सीखने की जरूरत हो तो उस जानकारी को पाने का अवसर हमें मिल जाता है और हमें बस, उस अवसर का लाभ उठाना होता है ।
अब जब कि तुम कार्य-पथ पर अपने आरम्भिक कदम उठाने वाले हो तो यह समय है कि तुम्हें यह फैसला करना होगा कि तुम अपना जीवन अपने निजी हितों को अर्पण करोगे या कर्म को चरितार्थ करने के लिए उसका अध्य, दोगे ।
दोनों अवस्थाओं में कार्यक्षेत्र वही रहता है, जिस भाव से काम किया जाता है वह पूर्णतया भिन्न होता है ।
इस बात को न भूलना चाहिये कि अर्ध्य भागवत कार्य को दिया जाता
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है किसी मानव उपक्रम को नहीं । अत: एकमात्र चीज जो की जा सकती है वह है कुछ गिने-चुने शब्दों में थोड़ी-सी सराहना ।
१. साधना और २. मन की नीरवता के लिए कौन-से कदम उठाने चाहिये ?
(१) काम को साधना समझो । अपनी श्रेष्ठतम क्षमता के अनुसार काम करो और उसे भगवान् को अर्पित कर दो, परिणाम भगवान् पर छोड़ दो ।
(२) मस्तिष्क को यथासम्भव नीरव रखते हुए पहले अपने सिर के ऊपर सचेतन होने की कोशिश करो ।
अगर तुम सफल हो जाओ और उस स्थिति में काम करो तो वह काम पूर्ण बनेगा ।
२ अप्रैल, १९७०
अपने आदर्श के प्रति निष्ठावान् रहो और अपना काम भगवान् को अर्पण करो ।
भगवान् के लिए काम करो तो तुम अनुभव करोगे उस अवाच्य आनन्द को जो तुम्हारी सत्ता को भरे दे रहा है ।
भगवान् के लिए किया गया निस्वार्थ काम : प्रगति करने का निश्चिततम उपाय ।
निःस्वार्थ कर्म : ऐसा काम जिसमें भगवान् के काम को भरसक अच्छे-से-अच्छा करने के सिवा कोई और हेतु न हो ।
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यह हम कैसे जानें कि भगवान् का काम क्या है और हम भगवान् के साथ कैसे काम करें ?
तुम्हें बस, भगवान् के साथ एक और तदात्म होना चाहिये ।
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