The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
कर्म में प्रगति और पूर्णता
तुम अपने काम में अधिकाधिक पूर्ण होते जाओगे, जैसे-जैसे तुम्हारी चेतना बढ़ती विशाल और विस्तृत होती तथा प्रबुद्ध होती जायेगी ।
७ अक्तूबर, १९३४
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सभी कर्मों और क्रियाओं में पूर्णता की मात्रा चेतना की अवस्था पर निर्भर होती है ।
भगवान् के काम करना मेरे जैसे अंधे और अहंकार- भरे आदमी के लिए आसान नहीं है । इससे मेरा मतलब है : अहंकार के बिना काम करना और अपने-आपको आपकी शक्ति की ओर खुला रखना ताकि वह मेरे अन्दर अबाध रूप से क्रिया कर सके। क्या यह ठीक है ?
हां, यह ठीक है ।
इस मानदण्ड से जाये तो मुझे आपके लिए काम करने का अधिकार नहीं है लेकिन शायद आपका काम बन्द कर देना भी वांछनीय नहीं है ।
निश्चय ही, तुम्हें मेरे लिए काम करना बन्द न करना चाहिये । काम करते-करते काम में पूर्णता आती है ।
१२ अप्रैल, १९४७
तुम जो कुछ करो उसमें रस लेने की कोशिश करो ।
तुम जो कर रहे हो, उसमें तुम्हें रस हो तो आनन्द भी आयेगा ।
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तुम जो कर रहे हो उसमें रस लेने के लिए तुम्हें उसे अधिकाधिक अच्छी तरह करने की कोशिश करनी चाहिये ।
प्रगति में ही सच्चा आनन्द है ।
६ जनवरी, १९५२
जब काम आकर्षक बन जाये और आनन्द के साथ किया जाये तो यह कितना अधिक अच्छा होगा ।
यह सच है कि मेरी शक्ति हमेशा उसके साथ रहती है ताकि उसे उसका काम करने में सहायता दे । लेकिन मेरी शक्ति तत्त्वत: पूर्णता के लिए है और उसे पूरी तरह काम करने देने के लिए आदमी के अन्दर काम में प्रगति करने के लिए सतत इच्छा होनी चाहिये ।
१२ मई, १९५२
सारे अच्छे काम मिलजुल कर धीरज के साथ किये गये प्रयास से होते हैं ।
८ अप्रैल, १९५४
काम में पूर्णता ही लक्ष्य होना चाहिये, लेकिन यह बड़े धीरज के साथ प्रयास करने से ही प्राप्त हो सकती है ।
१२ अप्रैल, १९५४
अपने- आपको भगवान् की शक्ति के प्रति अधिकाधिक खोलो । तुम्हारा
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काम पूर्णता की ओर निरन्तर प्रगति करता रहेगा ।
११ जून, १९५४
हम भगवान् के काम के पूर्ण यन्त्र बनने के लिए सतत अभीप्सा करें ।
२७ अगस्त, १९५४
काम में तुम्हारा आदर्श पूर्णता होना चाहिये, इससे जरा भी कम नहीं । तब तुम निश्चय ही भगवान् के सच्चे यन्त्र बन जाओगे ।
काम में सिलसिला और सामञ्जस्य होने चाहियें । जो काम यूं देखने में बिलकुल नगण्य है उसे भी पूर्ण पूर्णता के साथ, सफाई, सुन्दरता और सामञ्जस्यपूर्ण ढंग से तथा सिलसिलेवार करना चाहिये ।
२३ अगस्त, १९५५
कोई भी कठिनाई ऐसी नहीं जो ढंग, क्रम और सावधानी से हल न की जा सके ।
व्यवस्था : सभी अच्छे कामों के लिए अनिवार्य ।
नियमितता : सभी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए अनिवार्य ।
काम के लिए स्थिरता और नियमितता उतनी ही आवश्यक है जितना कौशल । तुम जो कुछ करो हमेशा सावधानीपूर्वक करो ।
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तुम जो कुछ करो हमेशा सावधानी से करो ।
जो भी काम सावधानी से किया जाये वह मजेदार बन जाता है ।
कोई भी चीज इतनी छोटी नहीं है कि उसकी अवहेलना की जाये, यही सावधानी सभी परिस्थितियों में उपयोगी होती है ।
एक चीज बनाने के लिए दूसरी को बिगाड़ना अच्छी नीति नहीं है । जो लोग समर्पित हैं और भगवान् के लिए काम करना चाहते हैं उनमें धीरज होना चाहिये और उन्हें ठीक समय पर ठीक तरह से चीजों के किये जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिये ।
१४ फरवरी, १९५९
ज्यादा अच्छा यह है कि भगवान् से प्राप्त शक्तियों का उपयोग काम का विस्तार करने की अपेक्षा उसकी पूर्णता के लिए किया जाये ।
जो काम किया जाये उसके आकार या उसके क्षेत्र के बड़ा होने की अपेक्षा उसकी पूर्णता का कहीं अधिक महत्त्व है ।
मई, १९५९
जब तुम भगवान् के लिए कार्य करो, तो बहुत बड़े कार्य को लक्ष्य बनाने की अपेक्षा जो करो उसे पूर्णता से करना कहीं अधिक अच्छा है । १३ मई, १९५९
जल्दी-जल्दी करने की अपेक्षा सम्यक् रूप से करना ज्यादा अच्छा है ।
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एक काम शुरू करना और उसे अधूरा छोड़कर कहीं और कुछ काम शुरू कर देना बहुत अच्छी आदत नहीं है ।
५ जुलाई, १९५९
कामों में, 'पूर्णता' के लिए अभीप्सा सच्ची आध्यात्मिकता है ।
अक्तूबर, १९६१
तुम जो कुछ करो, भरसक पूर्णता के साथ करो । मनुष्य के अन्दर बसने वाले भगवान् की यह सबसे अच्छी सेवा है ।
१ नवम्बर, १९६१
मैं तुम्हें लिखना चाहती थी कि यह उपेक्षित काम तुरन्त किया जाना चाहिये ।
मैं तुम्हारी सफाई को मान लेती हूं कि इसमें दुर्भावना नहीं, लापरवाही है । लेकिन मुझे कहना चाहिये कि मेरे लिए लापरवाही दुर्भावना का सबसे बुरा रूप है क्योंकि यह भागवत प्रेरणा और चेतना के आगे समर्पण करने से इन्कार है । इनके बारे में सतत जागरूक रहना चाहिये ।
मैं आशा करती हूं कि यह नया वर्ष तुम्हारे लिए मन की विशालता और हृदय की उदारता लायेगा जो इस प्रकार की दु:खद घटनाओं को असम्भव बना देगा ।
आशीर्वाद ।
४ जनवरी, १९६६
काम की निर्दोष योजना भगवान् की चेतना के बिना नहीं बन सकती ।
अगर पूर्ण न होने के कारण मनुष्य काम बन्द कर दें तो हर कोई
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काम करना बन्द कर देगा । हमें काम में ही प्रगति करनी और अपने-आपको शुद्ध बनाना चाहिये ।
तुम जो काम कर रहे हो उसे जारी रखो लेकिन यह कभी न भूलो कि वह ज्यादा अच्छा हो सकता है और उसे होना चाहिये ।
२३ दिसम्बर, १९७१
तुम जो काम करते हो उसे पूरी सचाई के साथ भरसक पूर्णता से करना निश्चय ही भगवान् की सेवा के सबसे अच्छे तरीकों में से एक है ।
१८ मई, १९७२
जब काम के यन्त्र--हाथ, आंखें आदि,--सचेतन हो जायें और मनोयोग संयत हो तो काम की क्षमता की कोई हद नहीं रहती ।
कुशल हाथ, स्पष्ट दृष्टि, एकाग्र मनोयोग, अथक धैर्य-ये सब हों तो तुम जो भी करोगे अच्छा ही करोगे ।
कुशल हाथ, यथार्थ सावधानी, अविच्छिन्न मनोयोग हो तो तुम 'जड़- पदार्थ' को 'आत्मा' की आज्ञा मानने के लिए बाधित करोगे ।
नीरवता में निरीक्षण कैसे करें यह जानना कौशल का मूल स्रोत है ।
कार्य-कौशल का उपयोग समझदारी से करना चाहिये ।
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