The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
कर्म में सहयोग और सामञ्जस्य
कार्यक्षेत्र नहीं बदलता । तुम अभी जो कर रहे हो इसी को करते रहोगे । परिवर्तन होना चाहिये कार्य के प्रति तुम्हारी मनोवृत्ति में, विशेषकर अन्य कार्यकर्ताओं के साथ सम्बन्ध में । हर एक काम को अपनी ही दृष्टि से देखता है और यह मानता है कि यही सच्चा तरीका, एकमात्र तरीका है जो भगवान् की इच्छा को प्रकट करता है । लेकिन इनमें से कोई भी तरीका पूरी तरह सच्चा नहीं है । इन विभक्त धारणाओं से ऊपर उठकर ही तुम भागवत इच्छा को ज्यादा अच्छी तरह समझ सकते हो । इसका अर्थ है इच्छाओं और भावों की टकराहट और विरोध की जगह आपसी समझ और सहानुभूति तथा सहयोग ।
२३ मई, १९३४
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सामञ्जस्य और ज्यादा अच्छे काम के लिए, आदमियों को बदलने से चीजें बेहतर नहीं हो सकतीं, वे होंगी अपनी चेतना और चरित्र को बदलने से ।
२५ जनवरी, १९३७
एक सामान्य नियम के रूप में ज्यादा अच्छा यह है कि जो चीजें तुम्हारे काम से सम्बन्धित नहीं हैं उनमें हस्तक्षेप न करो ।
७ अक्तूबर, १९३७
अगर काम में कुछ कठिनाइयों से सामना होता है तो सचाई से अपने अन्दर देखो और वहां तुम्हें उनका मूल कारण मिल जायेगा ।
काम में जो कठिनाइयां आती हैं वे परिस्थितियों या बाहर की छोटी-मोटी घटनाओं के कारण नहीं आतीं । वे आती हैं आन्तरिक वृत्ति की
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किसी गलती से, विशेषकर प्राणिक वृत्ति की : अहंकार महत्त्वाकांक्षा, कार्य-सम्बन्धी मानसिक धारणा की कट्टरता, दर्प आदि । और असामञ्जस्य को ठीक करने के लिए हमेशा अच्छा यही है कि कारण को औरों के अन्दर खोजने की जगह अपने अन्दर खोजो ।
१९ अप्रैल, १९३८
'' असामञ्जस्यभरे वातावरण'' को पहचानना केवल उसी हद तक उपयोगी हो सकता है जिस हद तक वह हर एक के अन्दर उसे सामञ्जस्यभरे वातावरण में बदलने की इच्छा जगाये । और यह करने के लिए पहला जरूरी कदम यह है कि हर एक अपने सीमित दृष्टिकोण से बाहर निकले ताकि दूसरों के दृष्टिकोण को समझ सके । हर एक के लिए यह ज्यादा जरूरी है कि औरों की भूल पर अड़े रहने की जगह स्वयं अपने अन्दर भूल को खोजे ।
इतना और कह दूं कि मैंने जिन लोगों को काम में जिम्मेदारी सौंपी है उन सबसे आशा की जाती है कि वे अपनी जिम्मेदारी के प्रति निष्ठावान् रहेंगे और ''चोट लगने की भावना'' को न घुसने देंगे व अपने कर्तव्य को सफलता के साथ पूरा करने के लिए भरसक प्रयास करेंगे ।
मेरे आशीर्वाद उन सबके साथ हैं जो सच्चे और सद्भावनावाले हैं ।
वस्तुत: मैंने ''क'' को उसके अपने गुलाब के पौधे वहां ले जाने की स्वीकृति दी है लेकिन मुझे नहीं लगता कि उसे उनके लिए सारी जगह की जरूरत है । और फिर, इस वर्तमान खाद्य-संकट के समय यह बुद्धिमत्ता नहीं है कि जहां हमेशा तरकारियां अच्छी तरह उगा करती थीं उस जगह का उपयोग फूलों के लिए किया जाये । ऐसा लगता है कि जिस जगह टमाटर लगाये गये थे अब वह जगह सेम के लिए तैयार है--ये सेम बोई जानी चाहियें और उनकी अच्छी तरह देख- भाल होनी चाहिये ताकि उनसे अच्छी पैदावार हो सके । पेड़ों और झाड़ियों को उनके स्थान पर रहने दिया जाये और सीताफल (शरीफे) के पेड़ की अच्छी तरह देखभाल की जाये
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क्योंकि वह बहुत अच्छे फल देता है । परिणामत: मैं चाहती हूं कि ''क'' और ''ख'' दोनों इस बाग की देखभाल करें और हर एक उन चीजों की देखभाल करे जिनका उसके साथ सम्बन्ध है । मैं आशा करती हूं कि वे यह दिखाने के लिए इस अवसर का लाभ उठायेंगे कि काम निस्वार्थ भाव से और सामञ्जस्य के साथ किया जा सकता है, जिसमें स्वयं काम की भलाई को पहला स्थान दिया जाये; और अपने अन्दर उन गलत गतिविधियों की रोकथाम की जाये जो इस उपलब्धि के विरुद्ध खड़ी हों ।
मेरे प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
चैत्य कार्य : ऐसा कार्य जो सामञ्जस्य द्वारा चालित हो ।
मैं जिल्दसाजी के विभाग में हम सबको यह बताने आयी थी कि तुम्हें क्या करना चाहिये और आशा करती हूं कि तुम उसके अनुसार करोगे । मैं चाहती हूं कि तुम सब सामञ्जस्य के साथ काम करो और एक-दूसरे की भरसक मदद करो ।
दैनिक कार्यक्रम
शिक्षा-केन्द्र का काम पहले आता है, तब पुस्तकालय का काम और उसके बाद समय हो तो व्यक्तिगत काम ।
आशीर्वाद ।
अनुशासन के बिना कोई अच्छा काम नहीं हो सकता ।
हर एक अपने- अपने स्थान पर ईमानदारी के साथ अपना नियत काम करे तो सब कुछ ठीक होगा ।
१७ अगस्त, १९३८
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आयोजित सम्मिलित कार्य : हर एक अपने स्थान पर और सब एक साथ ।
किसी काम में परिवर्तन करने से पहले मैं चाहती हूं कि दोनों पक्ष मुझे अपनी बात समझाते हुए प्रस्तावित परिवर्तन के बारे में लिखें । तब मैं निर्णय करूंगी ।
अपने प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
२५ जुलाई, १९४७
मैं नहीं मानती कि काम बदलना तुम्हारे स्वभाव को बदलने में सहायक होगा । यह पहले कभी सफल नहीं हुआ ।
तुम जिन कारणों से काम बदलने के लिए कह रहे हो वे मनोवैज्ञानिक हैं और स्वयं काम पर निर्भर नहीं हैं । तुम जहां कहीं जाओगे इन्हें अपने साथ लेते जाओगे और जब तक तुम्हारे हृदय में शान्ति नहीं होगी तब तक कहीं भी शान्ति न पा सकोगे ।
२२ अगस्त, १९४१
जब तुम्हें किसी समुदाय के लिए कार्य करना हो तो व्यक्तिगत हेतुओं के आधार पर निश्चय कर लेना और अपना काम बन्द कर देना एक गम्भीर भूल हे ।
तुम ऐसी की गयी भूलों की शिकायत करते हो जिन्हें ठीक नहीं किया जा सकता; यह गलत है । अगर तुम अपने-आपको ठीक करने के लिए काम करो तो किसी भी भूल को ठीक किया जा सकता है । जो प्रगति करनी है उससे भाग निकलना भीरुता है ओर मैं उसे स्वीकृति नहीं दे सकती ।
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सबसे पहले जो भूलें की हैं उन्हें सचाई के साथ पूरी तरह स्वीकार करो । उसके बाद मैं देखूंगी कि क्या किया जाये ।
३० मई, १९५३
अच्छे काम के लिए सहयोग और परस्पर सद्भावना अनिवार्य हैं ।
११ अगस्त, १९५४
स्पष्ट है कि काम में घनिष्ठ सहयोग पर एकाग्र होना, परस्पर शिकायतों पर एकाग्र होने की अपेक्षा ज्यादा उपयोगी वृत्ति है ।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि काम तेजी से किया जाये और अच्छी तरह किया जाये ।
२१ दिसम्बर, १९५७
बंगवाणी कार्यकर्ताओं के नाम
कोई भी महान् कार्य सहयोग और अनुशासन के बिना नहीं हो सकता । सच्चा और व्यवस्थित सहयोग सफलता की शर्त है ।
२० जून, १९५९
केवल सामञ्जस्यपूर्ण सहयोग में ही सार्थक काम किया जा सकता है । आवश्यक बात है ऐसे बिन्दु का पता लगाना जिस पर तुम सब सहमत हो सको--एक बार यह दृढ़ता से स्थापित हो जाये तो हर एक को सामञ्जस्य के इस बिन्दु को सुरक्षित रखने के लिए अपनी निजी इच्छा को झुका देने के लिए तैयार रहना चाहिये ।
२१ मार्च, १९६६
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जब हमें मिलकर काम करना हो तो हमेशा यह ज्यादा अच्छा है कि हम अपने विचारों, भावों और कर्मों में सहमति की बातों पर जोर दें, असहमति की बातों पर नहीं ।
हमें उन चीजों को महत्त्व देना चाहिये जो हमें एक करती हैं और जहां तक हो सके उन चीजों की उपेक्षा करनी चाहिये जो अलग करती हैं ।
जहां भौतिक रूप में कार्यप्रणालियों में भेद हो वहां भी ऐक्य अक्षुण्ण और निरन्तर बना रह सकता है बशर्ते कि हम हमेशा मिलाने वाले आवश्यक बिन्दुओं और सिद्धान्तों को और 'भागवत लक्ष्य' को, उस दिव्य उपलब्धि को मन में बनाये रखें जिसे हमारी अभीप्सा और हमारे कर्मों का अपरिवर्तनशील उद्देश्य होना चाहिये ।
अगर कोई अपनी पसन्दों से अलग रहते हुए, हर चीज को व्यक्तिगत प्रश्न बनाये बिना काम की भलाई को देखने में सक्षम हो तो अधिकतर कठिनाइयां हल हो जायेंगी ।
अगर लोग काम को अपना काम कहना छोड़ सकें तो बहुत-सी कठिनाइयों का अन्त आ जायेगा । यहां सभी काम भगवान् के हैं ।
महत्त्व काम का है, उस तरीके का नहीं जिससे हमारा छोटा-सा स्व उसे करता है ।
जब तक तुम निजी विचारों, रायों और पसन्दों से ऊपर नहीं उठ सकते तब तक तुम अच्छे कार्यकर्ता नहीं बन सकते । जब तक तुम्हारे अन्दर निजी पसन्दें हैं तब तक तुम ठीक वह चीज न कर पाओगे जिसकी जरूरत है ।
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