The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
खुलापन और ग्रहणशीलता
खुलापन
खुलापन शक्ति और प्रभाव को ग्रहण करने और प्रगति के लिए उसका उपयोग करने के लिए संकल्प है; परम चेतना के साथ सम्पर्क बनाये रखने की सतत अभीप्सा है; यह श्रद्धा है कि शक्ति और चेतना हमेशा तुम्हारे साथ, तुम्हारे चारों ओर तुम्हारे अन्दर हैं और बस तुम्हें इतना ही करना है कि उन्हें ग्रहण करने के रास्ते में किसी भी चीज को बाधक न बनने दो ।
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उद्घाटन चेतना का वह निस्तार है जिससे चेतना 'भागवत प्रकाश' और 'भागवत शक्ति' की क्रियाओं को अपने अन्दर स्वीकार करना शुरू करती है ।
उस चेतना के प्रति खुलो जो तुम्हारे ऊपर और तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है और हमेशा यथासम्भव अचंचल और शान्त रहो ।
मैं प्रार्थना करता हूं कि अहं के किसी भी हस्तक्षेप के या बाधा के बिना मैं सचेतन रूप से और निष्कपटता के साथ आपकी सेवा करूं और सब चीजों में आपके द्वारा प्ररित होऊं
अपने-आपको अधिकाधिक परम चेतना की ओर खोलो और तुम्हें प्रेरणा मिलेगी ।
९ मई, १९३४
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'भागवत प्रकाश' के प्रति उद्घाटन बलप्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता ।
१२ जून, १९३१९
''प्रेम और प्रकाश की ओर अधिक खुलना'' मैं तुम्हारे पिछले पत्र का ठीक यही उत्तर भेजती हूं । चेतना में अधिक ऊंचे उठो, अधिक विशालता के साथ प्रेम करो, प्रकाश के प्रति खुलो-सभी भटकनें विलीन हो जायेंगी । योग करने के लिए तुम्हें संसार के जितना विशाल और व्यापक होना चाहिये ।
२ अगस्त, १९६२
अगर तुम अपने-आपको परम शक्ति और परम सहायता के प्रति खोलो तो जरा भी थकान न आयेगी ।
१४ दिसम्बर, १९६३
उद्घाटन : सभी क्षेत्रों में सहायता निरन्तर रहती है । उससे किस तरह लाभ उठाया जाये यह हमें सीखना होगा ।
भगवान् के प्रति सत्ता का सर्वांगीण उद्घाटन : आरोहण का पहला सोपान ।
विशालता
विश्व के छोर तक... और उससे भी परे अपने-आपको विस्तृत करो । हमेशा प्रगति की सभी आवश्यकताओं का जोखिम उठाओ और परम
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ऐक्य के परमानन्द में उन्हें हल करो । तब तुम भगवान् हो जाओगे ।
१३ नवम्बर, १९५७
शक्ति को नीचे उतारकर उसे क्षुद्र मानव सत्ता की संकीर्णता में बलपूर्वक प्रविष्ट करवाने की अपेक्षा यथासम्भव अधिक-से- अधिक विस्तृत करना और विशालता के साथ खोलना कहीं अधिक प्रभावशाली होता है ।
७ दिसम्बर, १९६४
नमनीयता
नमनीयता : अपेक्षित प्रगति के लिए हमेशा तैयार ।
ग्रहणशीलता
ग्रहणशीलता भागवत कार्य को स्वीकार करने और अपने अन्दर धारण करने की क्षमता है ।
ग्रहणशीलता : भागवत संकल्प के प्रति सचेतन और उसे समर्पित होती है ।
सर्वांगीण ग्रहणशीलता : सारी सत्ता 'भागवत संकल्प' के प्रति सचेतन होती है और उसकी आज्ञा का पालन करती है ।
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चैत्य ग्रहणशीलता : ऊपर उठती हुई शक्ति को चैत्य आनन्द के साथ उत्तर देता है ।
मानसिक ग्रहणशीलता : सीखने के लिए हमेशा तैयार ।
भावनात्मक ग्रहणशीलता : भावनाओं की दिव्य बनने की चाह ।
प्राणिक ग्रहणशीलता केवल तभी आती है जब प्राण यह समझ जाता हे कि उसे रूपान्तरित होना चाहिये ।
प्राण भगवान् के लिए अभीप्सा में खिल उठता है ।
भौतिक ग्रहणशीलता : जो भगवान- के सिवा और किसी के प्रति नहीं होनी चाहिये ।
अतिमानसभावापन्न ग्रहणशीलता : आगामी कल की ग्रहणशीलता ।
चेतना के विस्तार और अभीप्सा की अनन्यता से ग्रहणशीलता बढ़ती है ।
२२ दिसम्बर, १९३४
विद्रोह ग्रहणशीलता के द्वार बन्द कर देता है ।
नये सिरे से भरे जाने के लिए बरतन को कभी तो खाली होना चाहिये ।
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जब हम अधिक महान् ग्रहणशीलता की तैयारी में होते हैं तब अपने-आपको खाली अनुभव करते हैं ।
चेतना ?
ग्रहणशील बनो-वह मौजूद है ।
प्रेम और आशीर्वाद ।
तुम जितना पाते हो उससे सन्तुष्ट रहने की कोशिश करो-क्योंकि यह ग्रहणशीलता का मामला है-मेरी मानो-लोग जितना ग्रहण कर सकते हैं मैं उससे कहीं अधिक देती हूं- और दो-तीन मिनटों में वे इतना पा सकते हैं कि वह महीने भर तक चले । लेकिन मन अपनी अज्ञानपूर्ण मांगों के साथ टपक पड़ता है और सारी चीज बिगड़ जाती हे ।
२१ जनवरी, १९६४
मेरा प्रेम हमेशा तुम्हारे साथ है; तो अगर तुम उसे अनुभव न करो तो इसका अर्थ है कि तुम उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो । यह तुम्हारी ग्रहणशीलता की कमी है और ग्रहणशीलता को बढ़ाना चाहिये; इसके लिए तुम्हें अपने-आपको खोलना चाहिये और तुम अपने-आपको तभी खोलते हो जब अपने-आपको देते हो । निश्चय ही तुम 'भागवत प्रेम' और शक्तियों को न्यूनाधिक सचेतन रूप से अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहे हो । यह तरीका बुरा है । बिना लेखा-जोखा किये, बदले में किसी चीज की आशा किये बिना अपने-आपको दे दो और तब तुम ग्रहण करने में समर्थ होगे ।
हम कैसे जान सकते हैं कि हम ग्रहणशील हैं ?
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जब तुम्हें देने की ललक का अनुभव हो और 'भागवत' कार्य के लिए देने का आनन्द आये तो तुम विश्वास कर सकते हो कि तुम ग्रहणशील हो गये हो ।
१२ जुलाई, १९६५
ग्रहणशील होना
ग्रहणशील होने का अर्थ हे देने की चाह, भगवान् के कार्य के लिए वह सब दे देने का आनन्द जो तुम्हारे पास है, तुम जो कुछ हो ओर तुम जो कुछ करते हो ।
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