The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
मन
मन : केवल एक यन्त्र
मन : उसकी सच्ची योग्यता भगवान् के प्रति समर्पण पर निर्भर है ।
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पवित्रीकृत मन : भगवान् के प्रति समर्पण के लिए तैयार मन ।
मानसिक समर्पण : यह तब होता है जब मन समझ जाता है कि वह केवल एक यन्त्र है ।
मन का परिवर्तन : मन ने अपने- आपको दर्प से मुक्त कर लिया है और जान लिया है कि वह केवल एक यन्त्र है ।
स्पष्ट मन : परिवर्तन के मार्ग पर पहला कदम ।
सच्ची मानसिक निष्कपटता का जन्म : इसके जन्म के साथ मन यह समझ लेगा कि वह केवल एक माध्यम है, अपने- आपमें लक्ष्य नहीं ।
मन को यह सीखना चाहिये कि केवल भगवान् के आदेशों को ही अभिव्यक्त करे ।
मानसिक अभिव्यक्ति की शक्ति का तब तक कोई मूल्य नहीं जब तक
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कि वह भगवान् की सेवा में न हो ।
तर्क बुद्धि : भगवान् की सेवा में हो तो उत्तम यन्त्र ।
भौतिक मन काम करने का अच्छा यन्त्र बन जाता है जब वह केवल वही बने रहने में सन्तुष्ट रहे ।
जब मन भगवान् की ओर मुड़ता है तो वह शक्तिशाली यन्त्र बन जाता है ।
ज्योतिर्मय मन का कार्य : सत्ता को भगवान् की ओर ले जाने में यह बहुत शक्तिशाली होता है और प्रगति करने के लिए बहुत उपयोगी ।
उच्चतर मन : इसकी श्रेष्ठता भागवत प्रकाश के प्रति खुलने की क्षमता में है ।
उच्चतर मन की वाणी : 'सत्य' की खोज में ।
मन अपनी पूरी उपयोगिता तब पाता है जब वह यह जान लेता है कि उच्चतर प्रेरणा को कैसे सुना जाये ।
अतिमानसिक पथ-प्रदर्शन के लिए मन की अभीप्सा : मन अनुभव
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करता है कि उसकी जटिलता शक्तिहीन है और वह अपने- आपको ज्योतित करवाने के लिए उच्चतर प्रकाश की मांग करता है ।
अतिमानसिक प्रकाश के प्रति मन का उत्तर : सिद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण कदम का प्रतिनिधित्व करता है ।
मन में विजय : मन में अतिमानसिक 'सत्य' का राज्य है ।
अतिमानसिकभावापन्न मन : रूपान्तरण के लिए मन यन्त्र बन गया है ।
मानसिक सीमाएं और दुर्बलताएं
क्या कोई मन्दिर में गन्दे पैरों से प्रवेश करता है ?
उसी तरह, व्यक्ति आत्मा के मन्दिर में दूषित मन के साथ प्रवेश नहीं करता ।
मनुष्यों में मानसिक क्रिया-कलापों के विकास के साथ-साथ आत्म-वंचना की सूक्ष्मता भी बढ़ती है । वे जितने अधिक बौद्धिक होते जाते हैं उतने अधिक आत्म-वंचना में भोले और साथ-साथ कपटपूर्ण भी होते हैं ।
कोई भूल हो जाने पर हमेशा कोई अनुकूल व्याख्या प्रस्तुत करने की आदत होती है--ऐसा लगता है कि अनुकूल व्याख्या मन से सहज रूप में स्वत: ही कूद पड़ती है--जो भूल को सच्चाई के साथ स्वीकार नहीं करने देती
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तुम्हारा मन आवेश से चालित है और आवेश के समर्थन में वह एक ऐसी ऐंठ दे देता है जो तुम्हें चीजों के सत्य को देखने से रोकती है । इस ऐंठ से अपने-आपको बचाओ, आवेश के बारे में सचेत होओ ।
ऐसी ऐंठ के द्वारा विकृत क्रिया कपटपूर्ण प्रतीत होती है ।
इस दुराग्रही विकार से हमेशा सावधान रहो ।
यह मेरा नव वर्ष का उपहार है ।
ऐसा हो कि यह नव वर्ष तुम्हारे लिए अज्ञानी और दर्प-भरे मन से मुक्ति लाये और वह प्रबुद्ध हो; ऐसे दर्प- भरे मन से जो सोचता है कि वह समस्याओं के मूल तत्त्वों को जाने बिना भी सभी चीजों का निर्णय कर सकता है और वह अपनी अभिरुचियों और आसक्तियों के अनुसार निर्णय करता है ।
सारा संसार भले नष्ट हो जाये लेकिन मेरी सनकें सन्तुष्ट हों ! अहंकारी मन की यही मनोवृत्ति होती है, वह अपने सिद्धान्तों को सबके ऊपर लादना चाहता है ।
दिव्य दृष्टि में सिद्धान्त और कामनाएं एक-सी चीजें हैं : सिद्धान्त मन की सनकें हैं उसी तरह जैसे कामनाएं प्राण की सनकें हैं ।
मानसिक स्वैरकल्पना : अनियन्त्रित । अस्तव्यस्त, साधारणत: इसमें समन्वय का अभाव होता है ।
कल्पना : प्रचुर और विविध, यह मोहक हो सकती है लेकिन इसे 'सत्य' का स्थान न देना चाहिये ।
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जो मिथ्या सोचते हैं वे मिथ्यात्व और दुःख-दैन्य में रहेंगे । गलत विचार से निकल आओ और तुम दु:ख-कष्ट से बाहर निकल आओगे ।
चीन के किसी वृद्ध ज्ञानी ने लिखा है, ''विचार अपने- आप अपना दुःख पैदा करता है ।''
अप्रिय विचार अप्रिय भावनाएं लाते हैं--अप्रिय भावनाएं तुम्हें भगवान् से दूर ले जाती हैं और तुम्हें उस शैतान के हाथों में निःशस्त्र फेंक देती हैं जो तुम्हें केवल हड़प लेना चाहता है--और यही अनन्त दुःख और कष्ट का मूल है ।
मैं अनुभव करता हूं कि सिर के पिछले हिस्से में कोई अन्धकार बाधा दे रहा है । मैं सिर में भारीपन और अन्धकार का अनुभव करता हूं | ऐसा क्यों हो रहा यह क्या है ?
बहुधा ये प्रहार बुरे विचारों के परिणाम होते हैं जो तुम्हारे अन्दर थे और अब वे पलटकर तुम्हारे ऊपर गिरते हैं ।
३१ मई, १९३५
हम हमेशा उन चीजों से घिरे रहते हैं जिनके बारे में हम सोचते हैं ।
तुम्हारा मन भी सन्देहों से भरा है और प्राण के जितना ही निन्दनीय है क्योंकि वह मिथ्यात्व में विश्वास रखता है ।
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भौतिक मन का एक प्रमुख कार्य है सन्देह करना । अगर तुम उस पर कान दो तो वह सन्देह के हजारों कारण ढूंढ़ निकालेगा । लेकिन तुम्हें यह जानना चाहिये कि भौतिक मन अज्ञान में काम करता है और पूरी तरह मिथ्यात्व से भरा है ।
केवल प्रेम ही समझ सकता है और 'भागवत क्रिया-धारा' के मर्म तक पहुंच सकता है । मन, विशेष रूप से भौतिक मन उचित रूप से देखने में असमर्थ होता है और फिर भी वह हमेशा निर्णय करना चाहता है । मन में सच्ची, निष्कपट नम्रता ही, जो सत्ता पर चैत्य को शासन करने देती है, मनुष्यों को अज्ञान और अन्धकार से बचा सकती है ।
हर बार जब मैं जरा ऊपर उठना चाहता हूं तो बाधा आती हे |
तुम्हारी प्रगति के बारे में-ऐसा इसलिए होता है क्योंकि तुम मानसिक रूप से कोशिश कर रहे हो और मन हमेशा चेतना को सीमित करता है । केवल हृदय और चैत्य से उठती अभीप्सा ही प्रभावकारी हो सकती है । (और जब तुम कोशिश करना बन्द कर देते हो तो तुम मुझे अपने अन्दर काम करने देते हो और मैं उचित तरीका जानती हूं !)
तुम्हारा मन बहुत क्रियाशील है । वह तुम्हें मेरी इच्छा द्वारा यन्त्रवत् चलाये जाने में बाधा देता है ।
२ सितम्बर, १९३७
मधुर मां
ऐसा लगता कि प्रगति के प्रति खुलने के लिए अपनी ओर से पुकार और दृढ़ प्रयास के बावजूद प्राण भौतिक में मैं पर्याप्त
रक्षण नहीं पा रही हूं ।
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मेरी प्यारी बालिका, तुम्हारा मन ही है जो तुम्हें प्राण और भौतिक में सहायता ग्रहण करने से रोकता है । इस सरपट दौड़ते मन को यथासम्भव शान्त करो और फिर तुम परिणाम देखोगी ।
प्रेम और आशीर्वाद के साथ ।
१७ जनवरी, १९६२
सभी तथाकथित मानव बुद्धिमत्ता की जटिलताओं के परे 'भागवत कृपा' की आलोकमयी सरलता कार्य करने के लिए प्रस्तुत है , यदि हम उसे कार्य करने दें ।
जीवन बिलकुल सरल और आसान हो सकता था अगर मनुष्य का मन उसमें इतनी सारी व्यर्थ जटिलताएं न डाल देता ।
२९ दिसम्बर, १९६२
एक बार मन अपना काम शुरू कर दे तो वह भागवत कृपा की क्रिया में बाधा डालता है ।
मधुर अदिति ,
आज सुबह सवा आठ बजे ये मानसिक शब्द स्पष्ट रूप से आये, ''अब तुम्हें 'टीचर्स कालेज' में लौट जाना चाहिये । '' यह एक ऐसा विचार है जिसके बारे में मैने कभी सचेतन रूप से सोचा ही नहीं । क्या 'भगवान्' इसके पीछे हैं ?
काल्पनिक मानसिक सुझावों से सावधान रहो !
प्रेम ।
३ अप्रैल, १९६५
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मन में रचनात्मक क्षमता : यह स्वाभाविक और बहुत सहज उपहार है ।
माताजी, कभी- कभी जब में आपकी विश्वव्यापी उपस्थिति के प्रति सचेतन होने के लिए और स्वयं को 'आपके' साथ जोड़ने के लिए अपने मानसिक सकंल्प का उपयोग करता हूं तो मैं शान्ति और 'आपके' स्पर्श के आश्वासन का अनुभव करता हूं । माताजी, क्या यह सच है या यह मेरी मानसिक रचना है ?
इस मामले में इसका कोई महत्त्व नहीं, क्योंकि कुछ ऐसी मानसिक रचनाएं होती हैं जो सच हो सकती हैं और जो अनुभूति तक सुरक्षित ले जाती हैं ।
तुम मुझसे अनुभूति के बारे में कहलवाना और उसे इतना मानसिक रूप दिलवाना चाहते हो कि एक नयी ''प्रणाली'' की स्थापना हो जाये ताकि तुम अपनी नयी मानसिक धारणा पर जम कर बैठ सको ।
मन इतना आलसी है कि वह सुविधाजनक उत्तर चाहता है । लेकिन चीज ऐसी नहीं है । हर एक व्यक्ति भिन्न है ।
शायद कोई व्याख्या हो जो तुम्हारे मन को शान्ति दे सके । वस्तुत: सम्भावना यह है कि हर एक के लिए कोई-न-कोई व्याख्या हो--और व्याख्याएं भी विवादग्रस्त हो सकती हैं ! ... बेचारा मन ! यह सचमुच एक परीक्षा है !!
प्रगति करने के लिए तुम्हें सभी पुरानी रचनाओं को एक तरफ फेंक देना होगा, सभी पूर्वकल्पित विचारों को ढा देना होगा । पूर्वकल्पित विचार ही वे असंख्य अभ्यस्त मानसिक रचनाएं हैं जिनमें तुम रहते हो वे अटल
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होते हैं इसलिए उनमें कोई नमनीयता नहीं होती और वे प्रगति नहीं कर सकते । इस सबको परे फेंक देना चाहिये । फिर नये विचारों का जन्म होता है, सक्रिय विचार का जो सर्जनशील होता है ।
नमनीय मन की ऊर्जा प्रगति के किसी भी प्रयास से पीछे नहीं हटती ।
मानसिक नमनीयता : सच्चे ज्ञान के लिए अनिवार्य ।
आधुनिक सभ्यता में मनुष्य सतह पर काम करते हैं । मन जीवन का ऊपरी तल है; वे सतह पर काम करते हैं और अधिकाधिक गभीरता के साथ अध्ययन करके उस परम सत्य को ढूंढ़ना चाहते हैं जो पीछे है । जब कि सच्चा तरीका है आन्तरिक परम सत्य के साथ सीधे सम्पर्क में आना, उससे प्रेरित होकर, उसका पथ-प्रदर्शन पाना, बाहरी रचना बनाना जो परम सत्य की खोज के लिए नहीं स्वयं परम सत्य की सृष्टि हो; अर्थात् 'सत्य ऊर्जा' जो मानव यन्त्र के माध्यम से बाहरी तौर पर अपने- आपको चरितार्थ करे ।
मनुष्य हमेशा योजनाएं और मानसिक रचनाएं बनाते हैं और उन्हीं के आधार पर सर्जन करने का प्रयास करते हैं, लेकिन एक भी मानवीय सर्जन उनकी मानसिक रचना की पूर्ण संसिद्धि नहीं होता । मनुष्य हमेशा कुछ-न-कुछ जोड़ देते हैं, या फिर वह रचना ऐसी शक्ति के द्वारा बदल-सी जाती है जिसे वे समझ नहीं पाते; वे सोचते हैं ये भाग्य, दैव, परिस्थितियां और इसी तरह की चीजें हैं, लेकिन वस्तुत: यह परम सत्य-शक्ति है जो पृथ्वी पर अभिव्यक्त होने की कोशिश कर रही है और वही दबाव डालती है और स्वभावत: यह मानसिक और प्राणिक सर्जनों को बदल देती है जो केवल सतही होते हैं । 'बुलेटिन'१ में इस विषय पर श्रीअरविन्द का एक
१ श्रीअरविन्दाश्रम के अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाकेन्द्र की पत्रिका ।
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उद्धरण था । वे कहते हैं : '' पहले मनुष्य को जानना चाहिये और फिर क्रिया करनी चाहिये, जब कि मनुष्य पहले क्रिया करते हैं और फिर अपनी क्रिया द्वारा जानना चाहते हैं ।''
२६ अगस्त, १९६६१
हम जितना अधिक जानते जाते हैं उतना ही अधिक देख सकते हैं कि हम नहीं जानते ।
अचंचल मन, स्थिर मन, नीरव-निश्चल मन
अचंचल मन : सीखने का सबसे अच्छा तरीका ।
मन में पूर्ण अचंचलता : सच्ची प्रगति के लिए आवश्यक शर्त ।
मन में स्थापित अचंचलता : उसके रूपान्तरण के लिए आवश्यक शर्त ।
तुम्हें स्थिर मन और नीरव-निश्चल मन में घपला नहीं करना चाहिये । तुम अपने मन को स्थिर कर सकते हो और उसके सामान्य क्रिया-कलापों को रोक सकते हो , लेकिन फिर भी वह बाहर से आने वाले विचारों के प्रति खुला रह सकता है और यह भी स्थिरता में बाधा डालता है । मन को पूरी तरह से नीरव-निश्चल करने के लिए तुम्हें न केवल उसकी क्रिया को बन्द करना होगा बल्कि जो कुछ दूसरे मनों से आता है उससे भी मन को बन्द रखना होगा । यह आसान नहीं है ।
१ यह कथन ध्वन्यांकित किया गया ।
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इसके अतिरिक्त तुम्हें चेतना के व्यापार और मानसिक व्यापार में भेद करना सीखना होगा । तुम किसी अनुभव के बारे में इस तरह सचेतन हो सकते हो कि यह चेतना किसी विचार या विचारों में सूत्रबद्ध न हो । अगर मन को पूरी तरह से अचंचल और नीरव-निश्चल रहना हो तो यह बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
२६ सितम्बर, १९६३
अगर उन्हें कोई परिणाम चाहिये तो एक चीज अनिवार्य है : मन को नीरव-निश्चल होना चाहिये । तब चेतना के एकाग्र होने की आशा है ।
शुरू करने के लिए, उन्हें अनुभव द्वारा मन और चेतना का भेद जानना चाहिये जो दो बिलकुल भिन्न चीजें हैं ।
जब तक तुम्हें इसका अनुभव न हो कुछ भी नहीं किया जा सकता ।
१ अप्रैल, १९६४
मन की नीरव-निश्चलता का अभ्यास करो, यह समझने की शक्ति देती है ।
मैं हमेशा तुम्हारे पत्रों का जवाब देती हूं लेकिन कभी-कदास ही मुझे अपना उत्तर कागज पर लिखने का समय मिलता है । तुम इन उत्तरों को सीधा ग्रहण करने में समर्थ हो लेकिन उसके लिए तुम्हें अपने मन को नीरव-निश्चल करना सीखना होगा-यही सच्चा ध्यान है--दिमाग खाली, अचल और ऊपर की ओर मुड़ा हुआ । यह उत्तर पाने के लिए आवश्यक शर्त है । अगर तुम अपने अस्तित्व और अपने विकास की देखभाल 'परम चेतना' के हाथों में सौंप सको तो तुम्हारे हृदय में शान्ति प्रवेश करेगी और तुम्हारी समस्याएं सुलझ जायेंगी ।
१६ जून, १९६६
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साधना को तेज गति से करने के असल में क्या करना चाहिये ?
यथार्थ संकेत के लिए अचंचलता के साथ प्रतीक्षा करो; सभी मानसिक हस्तक्षेप और निश्चय मनमाने होते हैं । स्पष्ट संकेत मन की नीरवता में आता है ।
३१ मार्च, १९७०
माताजी, 'आपकी आवाज' ने कहा, '' 'अतिमानस ' तुम्हारे अन्दर उतर रहा है । ''माताजी, क्या यह आवाज है ? क्योकि मैं जानता हूं कि मैं 'अतिमानस ' के लिए तैयार नहीं हूं ।
केवल मानसिक नीरवता में ही तुम आवाज को विकृत हुए बिना सुन सकते हो--बहुत शान्त रहो ।
२९ मई, १९७१
अपने-आपको क्षुब्ध मत करो और अपने मन को एकदम अचंचल रखो । सच्चा ज्ञान उस पार से आता है ।
आशीर्वाद ।
१३ सितम्बर, १९७२
(किसी साधक ने गलत सुझावों के आक्रमण से छुटकारा पाने का उपाय पूछा ।)
एकमात्र आमूल तरीका है एकाग्र होकर मन के उस पार चले जाना ।
नीरवता और निदिध्यासन ।
५ जनवरी, १९७३
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