The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
मिथ्यात्व और सत्य
मिथ्यात्व ' मृत्यु ' का परम सखा है ।
*
एक बार मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त हो जाये तो सभी कठिनाइयां चली जायेंगी ।
क्या सभी मनुष्यों में मिथ्यात्व सदा 'सत्य' के साथ घुला-मिला नहीं रहता ?
'सत्य' एक ही है परन्तु उसे प्रकट करने के प्रयास में उसे विकृत करने के तरीके लाखों हैं ।
ढोंग और दिखावा अज्ञान द्वारा सत्य को दी जाने वाली श्रद्धांजलि है ।
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ढोंग और दिखावा निश्चेतना की चेतना के प्रति अभीप्सा के पहले चिह्न हैं ।
साधना की प्रगति और तीव्रता के साथ-ही-साथ ढोंग और समझौते को बन्द करने की अनिवार्य आवश्यकता भी अधिकाधिक अनुभव होती है ।
यह धरती अभी तक अज्ञान और मिथ्यात्व द्वारा शासित है । लेकिन 'सत्य' की अभिव्यक्ति, का समय आ गया है ।
९ अगस्त, १९५४
'सत्य' अपराजेय, अदम्य, सर्वशक्तिमान् हो, और कभी कहीं मिथ्यात्व के लिए कोई स्थान न छोड़े ।
१९५६
जीवन ऐसा है !
संसार मिथ्यात्व का स्थान है और तुम सत्य की शान्ति को केवल भगवान् की नीरव गहराइयों में ही पा सकते हो ।
१५ दिसम्बर, १९६४
सत्य मिथ्यात्व से बढ़कर बलवान् है । एक अमर 'शक्ति' जगत् का शासन करती है । उसके निश्चय हमेशा सफल होते हैं । उसके साथ मिल जाओ तो तुम अन्तिम विजय के बारे में निश्चित रहोगे ।
'सत्य' की पूजा करो ।
२१५
वह तुम्हें 'मिथ्यात्व' से मुक्त कर देगा ।
जब मनुष्य मिथ्यात्व से ऊब जायेंगे जिसमें वे निवास करते हैं, तब संसार 'सत्य' के राज्य के लिए तैयार होगा ।
१४ अगस्त, १९७१
मरने से पहले मिथ्यात्व अपने पूरे वेग से उठ रहा है ।
फिर भी लोग केवल विध्वंस के पाठ को ही समझते हैं ।
क्या मनुष्य अपनी आंखें सत्य की ओर खोलें उससे पहले विध्वंस को आना होगा ?
अत: मैं सबसे प्रयास की मांग करती हूं ताकि उसे न आना पड़े ।
केवल 'सत्य' ही बचा सकता है, शब्दों में सत्य, क्रिया में सत्य, इच्छा में सत्य, भावनाओं में सत्य । 'सत्य' की सेवा करने या फिर नष्ट हो जाने में चुनाव है ।
२६ नवम्बर, १९७२
जो लोग मिथ्यात्व से पिंड छुड़ाने के लिए उत्सुक हैं
उनके लिए यह रहा एक उपाय :
अपने-आपको खुश करने की कोशिश न करो, औरों को खुश करने की कोशिश भी मत करो । केवल प्रभु को खुश करने की कोशिश करो ।
क्योंकि केवल 'वे' ही 'सत्य' हैं । हम सब, हममें से हर एक मनुष्य अपने भौतिक शरीर में, प्रभु के ऊपर पड़ा हुआ मिथ्यात्व का लबादा है जो 'उन्हें' छिपाता है ।
चूंकि 'वे' ही 'अपने' प्रति सच्चे हैं इसलिए हमें 'उन्हीं' पर एकाग्र होना चाहिये, मिथ्यात्व के लबादों पर नहीं ।
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मिथ्यात्व का बस एक ही समाधान है ।
अपने अन्दर उस सबका उपचार करो जो हमारी चेतना में भागवत उपस्थिति का विरोध करता है ।
३१ दिसम्बर, १९७२
आओ हम अपने मिथ्यात्व को भगवान् को अर्पण कर दें ताकि 'वे' उसे आनन्दभरे 'सत्य' में बदल दें ।
सत्य मन के ऊपर है
सत्य शाश्वत रूप में उस सबके परे है जो हम उसके बारे में सोच या कह सकते हैं ।
१० दिसम्बर, १९५४
सत्य को शब्दों में सूत्रबद्ध नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे जिया जा सकता है--अगर मनुष्य पवित्र और पर्याप्त रूप से नमनीय हो ।
जब सच्चे ज्ञान के दरवाजों को पार कर लिया जाता है तो उस ज्ञान को प्रकट करने के लिए शब्द नहीं मिलते ।
जिसने सच्चे 'ज्ञान' के दरवाजों को पार कर लिया हे उसके पास और कुछ कहने या सिखाने के लिए नहीं बचता ।
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'सत्य ' के अधिक निकट आने के लिए, तुम्हें प्राय: न समझना स्वीकार करना पड़ता है ।
२५ नवम्बर, १९६१
जब मैं ठीक होता हूं तो कोई याद नहीं रखता । जब मैं गलत होता हूं तो कोई भूलता नहीं' ।
क्योंकि सच्चा ठीक और गलत कुछ नहीं हैं--एकमात्र 'सत्य' हैं 'परम प्रभु' और 'वे' सब कुछ याद रखते हैं ।
२६ जनवरी, १९६३
हर एक विचार (या विचार-तन्त्र) अपने देश और काल में सच्चा होता है । लेकिन अगर वह ऐकान्तिक होना चाहे या अपना काल समाप्त होने पर भी बने रहना चाहे तो वह सच्चा नहीं रहता ।
अगर इस समग्रता के किसी तत्त्व को अलग-थलग लिया जाये और
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एकमात्र सत्य के रूप में प्रतिपादित किया जाये तो चाहे वह कितना भी केन्द्रीय या व्यापक क्यों न हो, वह आवश्यक रूप से मिथ्यात्व बन जाता है क्योंकि तब वह शेष समग्र 'सत्य' को अस्वीकार करता है । ठीक वही निर्विवाद सिद्धान्त बनता है और इसीलिये वह सबसे ज्यादा खतरनाक प्रकार का मिथ्यात्व होता है, क्योंकि हर एक इसी बात की पुष्टि करता है कि वही एकमात्र ऐकान्तिक सत्य है । निरपेक्ष, अनन्त, शाश्वत 'सत्य' मन के लिए अचिन्त्य होता है । मन केवल उसी के बारे में सोच सकता है जो स्थानीय और लौकिक, आंशिक और सीमित हो । इस तरह मानसिक स्तर पर निरपेक्ष 'सत्य' अनगिनत आंशिक और परस्पर-विरोधी सत्यों में बंट जाता है जो अपनी समग्रता में जहां तक बन पड़े मौलिक 'सत्य' का फिर से निर्माण करने की कोशिश करते हैं--क्योंकि ऐसा प्रत्येक सत्य और सभी सत्यों को हटाकर अपने-आपको एकमात्र सत्य के रूप में प्रतिपादित करने की कोशिश करता है । ये सब सत्य अपनी अनगिनत समग्रता में क्रमश: 'अनन्त' ,'शाश्वत', 'निरपेक्ष' सत्य को सम्भवन में उत्तरोत्तर प्रकट करते हैं--इस तरह वे समग्र सत्य का निषेध करते हैं ।
सत्य न तो पृथक्ता में है न एकरूपता में ।
सत्य है विविधता द्वारा अभिव्यक्त होती हुई एकता में ।
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बौद्धिक रूप से 'सत्य' वह बिन्दु है, जहां सभी विरोध आकर मिलते और एकता का निर्माण करने के लिए जुड़ जाते हैं ।
व्यावहारिक रूप से 'सत्य' है अहंकार का समर्पण ताकि भगवान् का जन्म और उनकी अभिव्यक्ति सम्भव हो ।
सन्देह अहंकार का सबसे अच्छा अस्त्र है जिसका उपयोग वह अपने-आपको विलोपन से बचाने के लिए करता है ।
ये मार्ग पर कुछ ऐसी टिप्पणियां हैं जो तुम्हें जरा आगे ले जा सकती हैं ।
ये मेरे आशीर्वाद के साथ भेजी जा रही हैं ।
६ अक्तूबर, १९६५,
सत्य मन से ऊपर है , नीरवता में ही मनुष्य उसके साथ नाता जोड़ सकता है ।
भगवान् से प्रार्थना करना और अपने-आपको पूरी तरह, पूरी सचाई के साथ 'उनके' अर्पण कर देना आवश्यक प्राथमिक शर्तें हैं ।
२४ अक्तूबर, १९७१
जो सचाई के साथ 'सत्य' की सेवा करना चाहता है वह 'सत्य' को जान जायेगा ।
राय और सत्य
'अज्ञान' में मानसिक रायें हमेशा एक-दूसरे का विरोध करती हैं ।
'सत्य' में वे एक उच्चतर ज्ञान की पूरक पहलू हैं ।
सभी रायें उस 'सत्य' का पहलू हैं जिसके पास तभी पहुंचा जा सकता
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है जब तुम इन सब पहलुओं को लेकर एक व्यापक समग्रता बना सको ।
११ जनवरी, १९६७
स्वभावत: ये सब वाद-विवाद (या रायों के आदान-प्रदान) शुद्ध रूप से मानसिक हैं और सत्य के दृष्टिकोण से इनका कोई मूल्य नहीं, हर एक के मन का चीजों को देखने और समझने का अपना ही तरीका होता है । और अगर तुम इन सब देखने के तरीकों को जोड़ कर एक साथ ला भी सको तब भी तुम 'सत्य' की प्राप्ति से बहुत दूर होओगे । केवल तभी जब मन की नीरवता में तुम अपने-आपको विचार के ऊपर उठा सको तब तुम तादात्म्य द्वारा जानने के लिए तैयार होओगे ।
बाह्य अनुशासन की दृष्टि से यह अनिवार्य है कि जब तुम्हारी कोई राय हो और तुम उसे प्रकट करो तो याद रखो कि यह केवल एक राय, देखने और अनुभव करने का एक तरीका है तथा अन्य लोगों की राय और उनके देखने और अनुभव करने के तरीके भी तुम्हारे तरीकों के जितने ही न्यायसंगत हैं और उनका विरोध करने की जगह तुम्हें उन सब को जोड़कर एक अधिक व्यापक समन्वय पाने की कोशिश करनी चाहिये ।
सब मिलाकर वाद-विवाद हमेशा काफी बेकार होते हैं और मुझे समय का अपव्यय लगते हैं ।
५ जून, १९६७
सभी रायों में कुछ सत्य होता है और कुछ असत्य । वस्तुत: क्रोध किये बिना औरों की रायों को सुन सकना, एक बड़ी और उपयोगी चीज है ।
यह जानना कि कैसे सुना जाये : एकाग्र और नीरव होकर ।
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प्रिय और मधुर स्मित देने की अपेक्षा सत्य कहना हमेशा ज्यादा अच्छा हे । लेकिन तुम जो कह रहे हो वह सत्य नहीं है । यह केवल तुमने अपनी राय प्रकट की है ।
सच बोलने का मतलब यह नहीं है कि जो कुछ तुम्हारे मन में आये उसे कह डालो ।
ईमानदारी
ईमानदारी सबसे अच्छी सुरक्षा है ।
ईमानदारी का सबसे बड़ा पुरस्कार है शान्तिपूर्ण हृदय ।
सच्चे और ईमानदार बनो तो तुम्हारा मन चैन से रहेगा ।
१० दिसम्बर, १९५१
प्राणिक ईमानदारी : अपने संवेदनों और अपनी कामनाओं को अपने निर्णय को झुठलाने और अपने कामों को निर्धारित न करने देना ।
मानसिक ईमानदारी : तुम औरों को या अपने-आपको धोखा देने की कोशिश नहीं करते ।
मानसिक सचाई : सम्पूर्ण ईमानदारी के लिए अनिवार्य शर्त ।
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