The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
निश्चिति
हमें इस शान्त निश्चिति के साथ आगे बढ़ना चाहिये कि जो किया जाना है वह कर दिया जायेगा ।
६ जुलाई, १९५४
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निश्चिति : विश्वस्त और अचंचल, यह कभी तर्क नहीं करती ।
विजय की निश्चिति : यह शोर नहीं मचाती, पर है निश्चित ।
भागवत कृपा
'परम प्रभु' ने संसार में अपनी 'कृपा' उसकी रक्षा करने के लिए भेजी है ।
तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिये 'भागवत कृपा' के लिए-अगर न्याय अभिव्यक्त हो तो ऐसे लोग बहुत कम निकलेंगे जो उसके आगे ठहर सकें ।
न्याय 'वैश्व प्रकृति' की गतिविधियों का कठोर युक्तियुक्त नियतिवाद है । रोग इसी नियतिवाद का भौतिक शरीर में विनियोग है । चिकित्सक का मन इस अपरिहार्य 'न्याय' की नींव पर खड़ा होकर ऐसी परिस्थितियां लाने की कोशिश करता है जिन्हें युक्तियुक्त रूप से अच्छे स्वास्थ्य की ओर ले जाना चाहिये । नैतिक चेतना यही चीज सामाजिक शरीर में और तपस्या आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्यान्वित करती है ।
केवल 'भागवत कृपा' में ही वह शक्ति है जो 'वैश्व न्याय' के मार्ग में हस्तक्षेप कर सकती है और उसे बदल सकती है । अवतार का महान् कार्य है 'भागवत कृपा' को धरती पर प्रकट करना । अवतार के शिष्य होने का
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अर्थ है 'भागवत कृपा' का यन्त्र बनना । माता तादात्म्य द्वारा वैश्व न्यायतन्त्र के पूर्ण ज्ञान के साथ, तादात्म्य द्वारा 'भागवत कृपा' की महान् वितरक हैं ।
और उनकी मध्यस्थता द्वारा भगवान् के प्रति सच्ची और विश्वासपूर्ण अभीप्सा की हर गति, उत्तरस्वरूप 'भागवत कृपा' के हस्तक्षेप को नीचे उतार लाती है ।
हे प्रभु ! कौन है जो तेरे सामने खड़ा होकर पूरी सचाई के साथ कह सके कि उसने कभी कोई भूल नहीं की । दिन में कितनी बार हम तेरे 'कार्य' के विरुद्ध अपराध करते हैं और हमेशा तेरी कृपा उन्हें मिटा देने के लिए आ जाती है ।
'तेरी कृपा' के हस्तक्षेप के बिना हम बहुधा तेरे वैश्व न्याय के विधान' के अपरिहार्य खड़्ग के नीचे आते ।
यहां प्रत्येक व्यक्ति समाधान के लिए किसी-न-किसी असम्भवता का प्रतिनिधि है लेकिन 'तेरी भागवत कृपा' के लिए सब कुछ सम्भव है । 'तेरा कार्य' सम्पन्न होगा समग्रतया और ब्योरे के साथ इन सारी असम्भवताओं को दिव्य उपलब्धियों में रूपान्तरित करने से ।
१५ जनवरी, १९३३
'भागवत कृपा' , 'तेरी' भलाई अनन्त है । हम 'तेरे' आगे कृतज्ञता के साथ नमन करते हैं ।
माताजी
'भागवत कृपा' का मूल आधार क्या हे ? क्या 'परम जननी'
'अपनी कृपा' के साथ हमेशा उन लोगों के लिए तैयार नहीं रहतीं
जो उसे नीचे बुला सकें ?
हां ।
क्या नहीं हे कि भगवान् की खोज करने वालों में से अधिकतर
उसे नीच नहीं बुला सकते ? फिर भी यदि किसी गुरु या अवतार ने
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उसे एक बार अपने अन्दर उतार लिया है तो वे भी उसे पा सकते हैं । क्या नहीं हे है ?
तो क्या हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते कि 'भागवत कृपा' उस
स्थिति में ज्यादा तरह काम कर जब वह धरती की
चेतना में स्थापित हो चुकी हो ? क्या आपके प्रयास का लक्ष्य उसे
स्थायी रूप से स्थापित करना है ?
हा ।
कृपया मुझे सारा सिद्धान्त समजाझाइये ।
'भागवत कृपा' को शब्दों ओर मानसिक सूत्रों के द्वारा नहीं समझाया जा सकता ।
७ अप्रैल १९३१
केवल 'भागवत कृपा' ही शान्ति, सुख, शक्ति, प्रकाश, ज्ञान, आनन्द और प्रेम को उनके सार और सत्य के साथ प्रदान कर सकती है ।
३० नवम्बर, १९५४
'भागवत कृपा' के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य ?
सभी तो उसी एक दिव्य 'मां' के बालक हैं ।
'उनका' प्रेम उन सब पर समान रूप से फैला हुआ है ।
लेकिन 'वे' हर एक को उसकी प्रकृति और ग्रहणशीलता के अनुसार देती हैं ।
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कहो--''मुझे भगवान् की कृपा मिली है, मुझे उसके योग्य बनना चाहिये'' , तो सब कुछ ठीक होगा ।
आओ, हम अपने-आपको निःशेष भाव से भगवान् के अर्पण कर दें, इस तरह हम भागवत कृपा को अच्छी-से-अच्छी तरह पा सकेंगे ।
'भागवत कृपा' सबके लिए समान रूप से है, लेकिन हर एक उसे अपनी सचाई के अनुसार पाता है । वह बाहरी परिस्थितियों पर नहीं, सच्ची अभीप्सा और उद्घाटन पर निर्भर होती है ।
भगवान् की दी हुई कृपा का समुचित उपयोग : कोई विकृति नहीं, कोई ह्रास नहीं, कोई अति नहीं-स्पष्ट सचाई ।
'भागवत कृपा' की 'पुकार' : शोर मचाती हुई नहीं परन्तु सतत और जो सुनना जानते हैं उनके लिए बहुत गोचर ।
भागवत सहायता
जब भी कभी सचाई और सद्भावना होती है, 'भगवान्' की सहायता भी वहां रहती है ।
११ अप्रैल, १९५४
अपने समर्पण में हमेशा अनन्य भाव से रहो और अपनी अभीप्सा में सच्चे निष्कपट तो तुम हमेशा भगवान् की सहायता और उनके पथ-प्रदर्शन
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की उपस्थिति का अनुभव करोगे ।
भगवान् की सहायता हो तो कुछ भी असम्भव नहीं है ।
७ जून १९५४
भगवान् की सहायता के बिना किसी के लिए भी साधना सम्भव न होगी । लेकिन सहायता हमेशा मौजूद है ।
सहायता हमेशा मौजूद रहती है ।
यह तो तुम्हें ही अपनी ग्रहणशीलता को जीवित-जाग्रत् रखना है ।
कोई मनुष्य जितना ग्रहण कर सकता है, उससे कहीं अधिक विपुल होती है भगवान् की सहायता ।
२८ दिसम्बर, १९७२
जो चैत्य द्वारा अहंकार पर स्वामित्व पाकर ग्रहणशील बन सकेंगे, वे ही जानेंगे कि यह सहायता क्या है और वे ही उसका पूरा लाभ उठा सकेंगे ।
हर एक को उसका अवसर दिया जाता है और सभी के लिए सहायता उपस्थित रहती है--लेकिन हर एक को उसकी सचाई और निष्कपटता के अनुपात में लाभ होता हे ।
भागवत सहायता : देखने में मर्यादित, क्रिया में शक्तिशाली ।
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