The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
परिस्थितियां और हमारी आन्तरिक स्थिति
सन्तोष बाहरी परिस्थितियों पर नहीं, आन्तरिक स्थिति पर निर्भर होत है ।
२६ जुलाई, १९५४
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लोग समझते हैं कि उनकी स्थिति परिस्थितियों पर आधारित है । लेकिन यह बिलकुल मिथ्या है । अगर कोई "स्नायविक रूप से तबाह'' हो गया है तो वह सोचता हे कि अगर परिस्थितियां अधिक अनुकूल हों तो वह अच्छा हो जायेगा । लेकिन वस्तुत: अगर परिस्थितियां अच्छी हो भी जायें तो भी वह वह-का-वही बना रहेगा । सभी को लगता है कि वे अपने- आपको थका हुआ और कमजोर महसूस करते हैं क्योंकि लोग उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते । यह बकवास है । परिस्थितियों को बदलने की जरूरत नहीं । जरूरत है आन्तरिक परिवर्तन की ।
अगर तुम यह अनुभव करो कि किसी परिवर्तन की आवश्यकता है तो वह मनोवृत्ति में किया जा सकता है, जो कहना और जो पाना है उस पर अधिक जोर देकर और अतीत को भविष्य की तेयारी के रूप में मानकर किया जा सकता है । यह करना बहुत कठिन नहीं है--और मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इसे आसानी से कर लोगे ।
तुम्हारी यह तकलीफ है । यह इस बात की सूचक है कि तुम्हारे अन्दर कुछ ऐसा है जिसे तुरन्त बदलने की आवश्यकता है । कुछ ऐसा है जो 'प्रकाश' में आना अस्वीकार कर रहा है । अगर तुम अपनी चेतना को बदल सको तो तकलीफ गायब हो जायेगी ।
२३८
जब व्यक्ति को बाहरी परिवर्तनों की आवश्यकता हो तो इसका यह अथ है कि वह अन्दर से प्रगति नहीं कर रहा; क्योंकि जो आन्तरिक प्रगति करता है वह आसानी से हमेशा उन्हीं बाहरी परिस्थितियों में रह सकता है : वे उसके सामने हमेशा नये सत्य प्रकट करती हैं ।
सभी बाहरी परिवर्तन किसी आन्तरिक रूपान्तर की सहज और अवश्यम्भावी अभिव्यक्ति होने चाहियें । साधारणत: भौतिक जीवन की अवस्थाओं में समस्त सुधार, भीतर चरितार्थ की गयी प्रगति का ऊपरी सतह पर आकर खिलना होना चाहिये ।
२९ मार्च, १९५८
व्यवस्था और लयताल के बिना भौतिक जीवन नहीं हो सकता । जब यह व्यवस्था बदली जाये तो उसे आन्तरिक विकास के आदेशानुसार बदलना चाहिये न कि बाहरी नयेपन के लिए । केवल निम्न सतही प्राणिक प्रकृति का कुछ हिस्सा ही अपने लिए सदा बाहरी परिवर्तन और नवीनता की चाह करता है ।
सतत आन्तरिक विकास द्वारा मनुष्य सतत नवीनता ओर जीवन में अक्षय रस पा सकता है । और कोई सन्तोषजनक उपाय नहीं है ।
घर बदल कर तुम चरित्र नहीं बदल सकते । अगर तुम अपना चरित्र बदल लो तो तुम्हें वातावरण बदलने की जरूरत नहीं रह जायेगी ।
२२ अक्तूबर, १९६४
दिव्य मां
पिछले दिनों से मुझे किसी अलग घर में जाने की इच्छा हो रही है । मुझे मालूम नहीं कि मेरा ऐसा सोचना ठीक है या नहीं । इस विषय में क्या मैं आपका दिव्य पथ-प्रदर्शन पा सकता हूं ?
२३९
जब तुम ''साधना'' करते हो तो बाहरी वस्तुओं का महत्त्व बहुत नहीं होना चाहिये । आवश्यक आन्तरिक शान्ति किन्हीं भी परिवेशों में स्थापित की जा सकती है ।
प्रेम और आशीर्वाद सहित ।
११ अगस्त, १९६६
माताजी में आपसे पूछना चाहता हूं कि हमारा जीवन भौतिक वस्तुओं पर इतना निर्भर क्यों है ?
ऐसा होना जरूरी नहीं है; अगर चेतना कहीं और, अधिक गहराई में केन्द्रित हो तो भौतिक चीजों का बहुत महत्त्व नहीं रहता ।
२४०
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