The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
प्रभु की कार्य-पद्धतियां
भगवान् की 'कृपा' अद्भुत और सर्वशक्तिमान् है ।
और भगवान् के काम करने के तरीके आनन्ददायी हास्यरस से भरे हैं...
*
हमेशा भगवान् का स्वागत करने के लिए तैयार रहो, 'वे' किसी भी क्षण तुम्हारे यहां आ सकते हैं ।
और अगर कभी 'वे' तुमसे निश्चित मिलन-स्थल पर प्रतीक्षा करवाते हैं तो निश्चय ही यह कोई कारण नहीं है कि तुम स्वयं देर करो ।
२३ सितम्बर, १९५६
यह बिलकुल स्पष्ट है कि किसी-न-किसी कारण से-और हो सकता है कि बिना किसी कारण के ही-'परम प्रभु' ने इस बारे में 'अपना' मन बदल लिया हो ।
२५ जनवरी, १९५८
तुम्हारी श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए और यह देखने के लिए कि क्या वह बाहरी वस्तु पर इतनी निर्भर है, 'परम प्रभु' ने अपना निर्णय बदल लिया होगा ।
९ फरवरी, १९५८
निश्चय ही, और सबकी तरह भगवान् को भी 'अपना' मन बदलने का अधिकार है ।
१९५८
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अगर हम अपने अन्दर स्थित भगवान् के साथ बातचीत करना चाहें
तो क्या यह सम्भव है ? अगर है तो किस शर्त पर ?
'भगवांन्' बातचीत में रस नहीं लेते ।
क्या कभी भगवान् हमले नाराज होते हैं ? अगर हां तो कब ?
जब तुम मान लो कि 'वे' नाराज हैं ।
अगर हम भगवान् के लिए आंसू बहायें तो क्या 'वे' भी कभी हमारे लिए आंसू बहाते हैं ?
निश्चय ही 'उनके' अन्दर तुम्हारे लिए गहरी अनुकम्पा है लेकिन 'उनकी' आंखें ऐसी नहीं हैं जो आंसू बहायें ।
२१ सितम्बर, १९६४
यह हो सकता है कि भगवान् चीजों को उसी तरह नहीं देखते जैसे आदमी देखते हैं ।
'साधना' के लिए एक आकस्मिक अभिव्यक्ति बहुत उपयोगी हो सकती है ।
२२ अगस्त, १९६६
मनुष्य के विधान के अनुसार अपराधी को दण्ड मिलना चाहिये । लेकिन एक विधान है जो मानव विधान की अपेक्षा अधिक अनिवार्य है । वह है 'भागवत' विधान, अनुकम्पा और दया का विधान ।
इसी विधान के कारण संसार सह पा रहा है और 'सत्य' तथा 'प्रेम' की ओर प्रगति कर रहा है ।
नवम्बर, १९६६
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माताजी,
क्या भगवान् अन्याय छ दण्ड देते हैं ? क्या भगवान् के लिए किसी को दण्ड देना सम्भव है ?
भगवान् चीजों को उस तरह नहीं देखते जैसे मनुष्य देखते हैं और उन्हें दण्ड देने और पुरस्कार देने की आवश्यकता नहीं होती । प्रत्येक कर्म अपने अन्दर अपना फल और अपना परिणाम लिये रहता है ।
कर्म की प्रकृति के अनुसार वह तुम्हें 'भगवान्' के निकट लाता है या 'उनसे' दूर ले जाता है । और यही परम परिणाम है ।
२५ जुलाई, १९७०
मनुष्य अपने-आपको भगवान् से अलग कर सकने में सक्षम होते हैं, और बहुधा करते भी हैं लेकिन भगवान् के लिए अपने-आपको मनुष्यों से अलग कर लेना असम्भव है ।
अगर परम 'चेतना' मनुष्यों की त्रुटियों पर क्रुद्ध होती तो मनुष्यजाति कब की खतम हो गयी होती ।
७ जून, १९७२
मनुष्यों को शुरू से ही अच्छा क्यों नहीं बनाया गया ?
भगवान् ने मनुष्य को दुष्ट नहीं बनाया ।
स्वयं मनुष्य अपने-आपको भगवान् से अलग करके दुष्ट बना लेता है ।
***
भगवान् भले ही तुम्हारी ओर झुक आयें परन्तु 'उन्हें ' ठीक तरह
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समझने के लिए तुम्हें 'उन' तक उठना होगा ।
भगवान् को समझने के लिए हमारे अन्दर पसन्दें बाकी न रहनी चाहियें ।
भगवान् को समझने के लिए तुम्हें भगवान् बनना चाहिये ।
२४ मई, १९७२
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