CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

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The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
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The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation
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प्राण
 

 

      अपने अनुभव से ऐसा लगता हे कि 'जीवन-शक्ति' और शरीर में गतिविधि पैदा करने वाली 'शक्ति' ऊपरी पेट के पिछले हिस्से की गहराई में स्थित है

 

हां, उस जगह सृजनात्मक प्राण-शक्ति का आसन है ।

१५ दिसम्बर, १९३३

 

*

 

       प्राण हमारी शक्ति, ऊर्जा, उत्साह, समर्थ क्रियाशीलता का आसन है । उसे विधिवत् शिक्षण की आवश्यकता है ।

 

*

 

      प्राण-चक्र : आवेगमय और बलवान्, वह नियन्त्रण की मांग करता है ।

 

*

 

      प्राण उत्साह देता है लेकिन प्राण स्वभाव से अस्थिर होता है और हमेशा नयी-नयी चीजों की मांग करता रहता है । जब तक कि वह परिवर्तित होकर भगवान् का आज्ञाकारी सेवक न बन जाये, चीजें हमेशा घटती बढ़ती रहती हैं ।

 

*

 

       प्राणिक अभिव्यक्ति की शक्ति तभी उपयोगी होती है जब प्राण परिवर्तित हो जाये ।

 

*

 

       प्राण का परिवर्तन : उत्साहपूर्ण और सहज, वह अपने- आपको अबाध रूप में देता है ।

 *

 

३८७


      जिस दिन प्राण परिवर्तित हो जायेगा उस दिन उसके पास देने के लिए बहुत कुछ होगा ।

 

*

 

       प्राण में उदारता अपने- आपको अबाध रूप से देती है ।

 

*

 

        प्राण में बल अपने सौन्दर्य और अपनी शक्ति को दिखाना पसन्द करता है ।

 

*

 

        प्राण की स्वीकृति : स्नेही, मुस्कुराती हुई बहुत सद्‌भावना के साथ क्रिया करने को हमेशा तत्पर ।

 

*

 

       प्राणिक उत्सर्ग: आनन्ददायक रूप से विनम्र और सुगन्धित, यह अपनी ओर ध्यान खींचना चाहे बिना जीवन की ओर मुस्कुराता है ।

 

*

 

        अविरत प्राण-शक्ति : ऐसी प्राण-शक्ति जो सर्वांगीण उत्सर्ग पर निर्भर है ।

 

*

 

         प्राण में स्थिरता : परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण परिणामों में से एक ।

 

*

 

         प्राणिक पारदर्शिता : परिवर्तन के लिए अनिवार्य ।

 

*

 

          प्राणिक धैर्य : समस्त प्रगति के लिए अनिवार्य ।

*

 

३८८


       प्राणिक प्रगति : 'भागवत संकल्प' के चारों ओर व्यवस्थापन ओर इस 'संकल्प' के प्रति उत्तरोत्तर समर्पण ।

 

*

 

       परम उपस्थिति द्वारा शासित प्राण : 'भागवत उपस्थिति' द्वारा शान्त और नियन्त्रित की गयी प्राण-शक्ति

 

*

 

       प्राण में रचना करने की क्षमता : सहज लेकिन हमेशा प्रसन्न नहीं होती, उस पर शासन करने की आवश्यकता होती है ।

 

*

 

       प्राण में निष्कपट सरलता : प्राण के लिए जिन चीजों को पाना सबसे अधिक कठिन है उनमें से एक ।

 

*

 

        भगवान् पर भरोसा : आवेगशील प्राण के लिए बहुत अनिवार्य ।

 

*

 

        भगवान् पर प्राणिक भरोसा : साहस और ऊर्जा से भरपूर अब और किसी चीज से नहीं डरता ।

 

*

 

         जड़- भौतिक में प्राणिक आनन्द : स्वार्थपरता को लुप्त करने का पारितोषिक ।

 

*

 

         प्राण में शान्ति : कामनाओं को लुप्त करने का परिणाम ।

*

 

३८९


         प्राण में नीरवता : आन्तरिक शान्ति के लिए शक्तिशाली सहायता ।

 

*

 

         प्राण में सच्ची निष्कपटता : सिद्धि का निश्चित मार्ग ।

 

*

 

         प्राण में प्रकाश : लम्बे मार्ग पर पहले चरणों में से एक ।

 

*

 

         प्राण का आध्यात्मिक जागरण : वह शिखरों को पाने की आशा में उनकी ओर उड़ान भरता है ।

 

*

 

          प्राण में छोटी-सी विजय भी महान् परिणाम ला सकती है ।

 

*

 

          प्राण को समस्वर करना श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक कार्य है ।

          वह सुखी है जो इसे चरितार्थ कर ले ।

 

*

 

           में लड़ते हुए अहंकारों की इस दुनिया से तंग आ गया हूं ।

 

यह स्वाभाविक है : मानव प्राण का संसार कुरूप संसार है, उसे बदलने की बहुत आवश्यकता है ।

 

*

 

          कोई गम्भीर वस्तु कर सकने से पहले अहंकारमयी प्राणिक प्रतिक्रियाओं को विलीन होना होगा ।

३ मई, १९७१

*

 

३९०


      जीवन में अभिव्यक्त होती हुई प्राणिक इच्छा : यह बहुधा सबसे बड़े उपद्रवों का कारण होती है ।

 

*

 

       जब तक नियन्त्रित न की जाये प्राणिक संवेदना हद से ज्यादा होती है ।

 

*

 

       में बहुत सर्वदेनशील बन गया हूं और जरा- जरा से कारणों से भी परेशान हो उठता हूं

 

ये प्राणिक क्षुब्धताएं हैं जो साधना के मार्ग में प्रकट होती हैं, इनको निकाल बाहर करना होगा । उन्हें स्वाभाविक गतिविधियों की तरह न मानो जिन्हें दूसरों के गलत कार्य न्यायसंगत ठहराते हैं और जिनका बने रहना तब तक अवश्यम्भावी है जब तक बाहरी कारण बना रहे । सच्चा कारण आन्तरिक है और यौगिक अनुशासन, जागरूकता, अनासक्ति व अचंचल लेकिन नियमित त्याग द्वारा इनसे छुटकारा मिल सकता है ।

 

*

 

     रही बात प्राण के परिवर्तन की, जब तुम अपनी उच्चतर चेतना में बने रहने की आदत बना लोगे तो यह अपने-आप आ जायेगा; वहां ये सब नगण्य चीजें और गतिविधियां निरर्थक होती हैं ।

 

*

 

      व्यक्ति अन्धकारमय प्राण को कैसे जीत सकता है ? या अन्धकारमय प्राण को आलोकमय प्राण में बदलना कैसे सम्भव है ?

 

      प्राण के समर्पण द्वारा, प्रकाश के प्रति उद्‌घाटन ओर चेतना की वृद्धि द्वारा ।

*

 

३९१


      प्राण में उचित वृत्ति :

      आत्म-विश्वास-

      मानसिक और प्राणिक अचंचल श्रद्धा-

      अपनी सिद्धि में और भागवत सहायता में श्रद्धा ।

 

 ३९२










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