The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
प्रेम
भागवत प्रेम
हम हमेशा 'भागवत प्रेम' में पूरा सहारा और पूरा आश्वासन पाते हैं ।
७ मई, १९५४
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जब तुम्हारा 'भागवत प्रेम' के साथ सम्पर्क हो जाता है तो तुम हर चीज में, हर परिस्थिति में इस प्रेम को देखते हो ।
२० जुलाई, १९५४
'भागवत प्रेम' और 'ज्ञान' हमेशा हमारे विचारों और क्रियाओं पर शासन करें ।
२४ जुलाई, १९५४
वर दे कि 'भागवत प्रेम' हमारे हृदय में परम 'स्वामी' बनकर निवास करे और 'भागवत ज्ञान' हमारे विचारों को कभी न छोड़े ।
२९ अक्तूबर, १९५४
'भागवत प्रेम' सबमें वह शान्ति और सन्तोष ला सकता है जो कृपालुता से आते हैं ।
२७ नवम्बर, १९५४'
'भागवत प्रेम' शाश्वत सत्य है ।
२१ जुलाई, १९५५
१२७
'भागवत प्रेम' परम 'सत्य' का सार है और मानवीय गड़बड़ों से प्रभावित नहीं हो सकता ।
एक पुरानी कैल्डियन गाथा १
बहुत पहले, बहुत समय पहले, रेगिस्तान में, जो अब अरब है, एक भागवत सत्ता ने पृथ्वी को 'परम प्रभु' के प्रति जगाने के लिए अवतार लिया था । जैसी कि आशा की जाती है, मनुष्यों ने उस पर अत्याचार किये, उसे गलत समझा, उस पर सन्देह किया और उसे खदेड़ा । आततायियों द्वारा बुरी तरह जख्मी होकर वह अकेले में, शान्ति के साथ मरना चाहती थी ताकि उसका काम पूरा हो सके; और उनके द्वारा खदेड़े जाने पर वह भाग खड़ी हुई । अचानक विस्तृत बंजर भूमि पर छोटी-सी अनार की झाड़ी प्रकट हुई । 'परित्राता' अपने शरीर को शान्ति में छोड़ने के लिए उसकी नीची शाखाओं में छिप गया; और तुरन्त वह झाड़ी अद्भुत रूप से फैल गयी, उसने अपने-आपको बढ़ा लिया । विस्तृत कर लिया, इस तरह से घनी और प्रचुर बन गयी कि जब पीछा करने वाले वहां से गुजरे तो उन्हें इसकी आशंका तक नहीं हुई कि 'जिसका' वे पीछा कर रहे थे वह यहां छिपा है और वे अपने रास्ते पर चलते चले गये ।
जब बूंद-बूंद करके पवित्र रक्त मिट्टी को उर्वर बनाता हुआ गिरा तो झाड़ी ने अपने-आपको अद्भुत फूलों से, बड़े बड़े लाल फूलों से ढक लिया--पंखुड़ियों का गुच्छा, रक्त की असंख्य बूंदें...
ये पुष्प, हमारे लिए 'भागवत प्रेम' की अभिव्यक्ति करते उसे अपने में समाये हैं ।
१४ नवम्बर, १९५५
कल सुबह मैंने ''भागवत प्रेम'' की पंखुड़ियां बांटी थीं । उससे पहले की रात यहां, साल की सबसे अंधेरी रात थी और भारत में यह बहुत बड़ा
१ १९५५ का काली पूजा का सन्देश ।
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उत्सव होता है । इसका सच्चा अर्थ यह है कि समस्त अभिव्यक्ति के आधार और अन्तस्तल में, वहां भी जहां वह एकदम, पूरी तरह से निश्चेतन दीखती हो, 'भागवत प्रेम' विद्यमान होता है ।
जब 'चेतना' अपने 'मूल स्रोत' से अलग होकर 'निश्चेतना' बन गयी, तो 'मूल स्रोत' ने 'निश्चेतना' की गहराइयों से 'चेतना' को फिर से जगाने के लिए और फिर से 'परम मूल स्रोत' के साथ उसका सम्पर्क जोड़ने के लिए 'प्रेम' को प्रकट किया ।
कहा जा सकता है कि मूल रूप में प्रेम आकर्षण की परम शक्ति है जो उत्तरस्वरूप पूर्ण आत्मदान की अनिवार्य चाह को जगाती है, यह पूर्ण विलयन की ललक के दो छोर हैं ।
व्यक्ति की रचना से पृथक्ता के भाव की जो खाई बन जाती है उस पर कोई और गतिविधि इससे ज्यादा अच्छी तरह या ज्यादा निश्चित रूप में पुल नहीं बना सकती । यह आवश्यक था कि जिसे अन्तरिक्ष में प्रक्षिप्त किया गया था उसे अपने में वापिस लाया जाये, किन्तु लाया जाये इस भांति रची गयी सृष्टि को नष्ट किये बिना ।
इसीलिए प्रेम प्रकट हुआ । ऐक्य की अप्रतिरोध्य शक्ति है यह ।
जब नानबाई (बेकरीवाला) अपने गुंधे आटे को उठाना चाहता है तो वह उसमें कुछ खमीर डालता है और अन्दर-ही-अन्दर से परिवर्तन शुरू होता है ।
भगवान् जब 'जड़-पदार्थ' को जगाना चाहते थे, उसे जगाकर भगवान् की ओर उठाना चाहते थे तो उन्होंने 'अपने- आपको' प्रेम के रूप में 'जड़- द्रव्य' में डाला और अन्दर-ही-अन्दर से रूपान्तर हो रहा है ।
तो किसी संगठन के अन्दर रहकर ही तुम उसे प्रबुद्ध होने और दिव्य सत्य की ओर उठने में सहायता दे सकते हो ।
१७ जनवरी,१९६५
१२९
चेतना एक अवस्था और सामर्थ्य है ।
प्रेम एक शक्ति और क्रिया है ।
भगवान् को सभी मनुष्यों के साथ एक समान प्रेम है लेकिन अधिकतर लोगों की चेतना का धुंधलापन उन्हें इस 'दिव्य प्रेम' को देखने से रोकता है ।
'सत्य' अद्भुत हे । हमारी धारणा ही उसे विकृत बनाती है ।
२६ नवम्बर, १९७१
सिर्फ वही जो प्रेम करता है, प्रेम को पहचान सकता है । जो अपने-आपको सच्चे निष्कपट प्रेम के साथ देने में असमर्थ हों, वे कभी कहीं भी प्रेम को न पहचान पायेंगे और प्रेम जितना ही दिव्य होगा, यानी जितना निःस्वार्थ होगा वे उसे उतना ही कम पहचान सकेंगे ।
'भागवत प्रेम' के बारे में सचेतन होने के लिए अन्य समस्त प्रेम का त्याग करना होगा ।
भागवत प्रेम और मानव प्रेम
अधिक ऐकान्तिक रूप से 'भागवत प्रेम' का सहारा लो । जब मनुष्य 'भागवत प्रेम' पाये तो किसी भी मानव प्रेम का क्या मूल्य हो सकता है ?
२ सितम्बर, १९३९
मानव प्रेम के पीछे हमेशा एक कटु स्वाद होता है--'भागवत प्रेम' ही है जो कभी निराश नहीं करता ।
५ मई, १९४५
१३०
शोक मत करो । मानव प्रेम अस्थायी है । केवल 'भागवत प्रेम' ही कभी धोखा नहीं देता ।
निश्चय ही व्यक्ति को प्रेम करने का अधिकार है और सच्चा प्रेम अपने अन्दर अपना आनन्द लिये होता है, लेकिन दुर्भाग्यवश मनुष्य अहंकारी होते हैं और तुरन्त अपने प्रेम के साथ बदले में प्रेम पाने की कामना को मिला देते हैं, यह कामना आध्यात्मिक सत्य के विपरीत और आवेशों और दुःखों का कारण होती है ।
तुम जिससे प्रेम करते हो उसे भावनाओं की स्वतन्त्रता का अधिकार होना चाहिये और अगर तुम 'सत्य' चाहते हो तो तुम्हें यह अधिकार समझना और स्वीकार करना चाहिये । नहीं तो तुम्हारे दुःखों का कोई अन्त न होगा । अपने अहं पर विजय पाने और सच्चे जीवन के प्रति खुलने का यह सुअवसर है । अगर तुम इस प्रयास को करने का निश्चय करो तो मेरी सहायता तुम्हारे साथ होगी ।
मानव प्रेम की आवश्यकता, जहां तक कि वह प्राकृतिक वृत्ति या प्राणिक आकर्षण के अधीन न हो, ऐसी आवश्यकता है जो पूरी तरह अपने लिए भगवान् को पाना चाहती है जो ऐकान्तिक रूप से पूरा-पूरा हमारे अधिकार में हो ऐसा भगवान् जो हमारी निजी सम्पत्ति हो, जिसे हम अपने-आपको समग्र रूप से देते हैं लेकिन तभी जब हमारी भेंट का बदला चुकाया जाये ।
अपने-आपको भगवान् के आकार में विस्तृत करने और विश्व के जितना विशाल प्रेम पाने के स्थान पर व्यक्ति भगवान् के आकार को घटाकर स्वयं अपने आकार का बना लेना चाहता है और 'उनके' प्रेम को केवल अपने लिए चाहता है ।
इसलिए, मानव प्रेम आत्मा की आवश्यकता नहीं बल्कि अहं को दी गयी एक रियायत है ।
१३१
तुम्हें समस्या को सावधानी से देखने और ज्यादा शान्ति और निर्लिप्तता के साथ उसका सामना करने का समय देने के लिए मैंने उत्तर देना स्थगित किया है ।
मैं तुमसे केवल एक बात कह सकती हूं कि दो मनुष्यों के सम्बन्ध में चाहे जैसी भी सच्ची निष्कपटता, सरलता और पवित्रता हो, वह न्यूनाधिक रूप से उनके लिए प्रत्यक्ष भागवत शक्ति और सहायता के द्वार बन्द कर देता है और उनकी क्षमताओं के अनुपात में उनके बल, प्रकाश ओर शक्ति को सीमित बना देता है ।
मैं यह नहीं कह सकती कि तुम्हारे लिए यह बहुत वांछनीय है ।
१५ फरवरी, १९५०
तुम अपने तथाकथित मानव प्रेम में अपनी शक्ति, ऊर्जा और क्षमता का बहुत-सा भाग खो देते हो । तुम्हारी प्रगति में यह बड़ी रुकावट है ।
अगर कहीं, तुम्हारी सत्ता के किसी भाग में अभी तक मानव स्नेह और प्रेम की आवश्यकता है, तो जीवन के अनुभव में से गुजरना ज्यादा अच्छा होगा; योग के लिए यह उत्तम तैयारी है ।
स्नेह और 'प्रेम' के लिए प्यास मनुष्य की आवश्यकता है, लेकिन वह केवल तभी बुझ सकती है जब वह 'भगवान्' की ओर मुड़े । जब तक वह मनुष्यों में सन्तुष्टि पाना चाहती है तब तक हमेशा निराश या घायल होती रहेगी ।
'प्रेम' की एक ऐसी प्यास होती है जिसे कोई भी मानवीय सम्बन्ध नहीं बुझा सकता । केवल 'भागवत प्रेम' ही उसे सन्तुष्ट कर सकता है ।
४ दिसम्बर, १९५४
१३२
लोग हमेशा प्रेम के अधिकारों की बात कहते हैं लेकिन प्रेम का एकमात्र अधिकार है आत्मदान का अधिकार ।
आत्मदान के बिना प्रेम होता ही नहीं; लेकिन मानव प्रेम में आत्मदान बहुत विरल होता है, वह स्वार्थों और मांगों से भरा रहता हे ।
१५ अगस्त, १९५५
जब तक अहं है, आदमी प्रेम नहीं कर सकता ।
केवल प्रेम ही 'प्रेम' कर सकता है, केवल 'प्रेम' ही अहं पर विजय पा सकता है ।
आत्म-प्रेम सबसे बड़ी रुकावट है ।
'भागवत प्रेम' ही महान् उपचार हे ।
मनुष्य बाहरी तौर पर अकेला तभी होता है जब वह 'भागवत प्रेम' के प्रति बन्द होता हे ।
८ दिसम्बर, १९६०
तुम्हें अकेलापन इसलिए लगता है क्योंकि तुम प्रेम पाने की आवश्यकता का अनुभव करते हो । बिना मांग किये, केवल प्रेम के आनन्द के लिए (संसार का सबसे अद्भुत आनन्द) प्रेम करना सीखो ओर तुम फिर कभी अकेला अनुभव न करोगे ।
११ अप्रैल, १९६६
१३३
प्रेम के सोपान
सबसे पहले आदमी केवल तभी प्रेम करता है जब उससे प्रेम किया जाता हे ।
फिर, आदमी सहज रूप से प्रेम करने लगता है, लेकिन बदले में प्रेम पाना चाहता है । फिर प्रेम पाये बिना भी प्रेम करता है लेकिन फिर भी वह अपने प्रेम की स्वीकृति की चाह रखता हे ।
और अन्त में, शुद्ध और सरल रूप से प्रेम करने के आनन्द के सिवाय और दूसरी किसी आवश्यकता के बिना प्रेम करता है ।
१५ अप्रैल, १९६६
एक ऐसा प्रेम होता है जिसमें भाव अधिकाधिक ग्रहणशीलता और बढ़ते हुए ऐक्य के साथ ' भगवान् ' की ओर मुड़ता है । उसे 'भगवान्' से जो मिलता है उसे वह औरों पर सचमुच कोई बदला चाहे बिना उंडेल देता है । अगर तुममें वह योग्यता हो तो यह प्रेम करने का उच्चतम और सर्वाधिक सन्तुष्टिदायी तरीका है ।
तुम उस प्रेम से खुश नहीं होते जो कोई और तुम्हारे लिए अनुभव करता है । तुम्हें औरों के लिए जो प्रेम अनुभव होता है वह तुम्हें सुखी बनाता है; क्योंकि जो प्रेम तुम औरों को देते हो वह तुम्हें भगवान् से प्राप्त होता है और भगवान् अविरत और बिना चूके प्रेम करते हैं ।
२० मार्च, १९६७
प्रेम ने धरती पर, मानव चेतना में जितने रूप लिये हैं वे सब सच्चे 'प्रेम' को पुन: पाने के भद्दे, विकृत और अपूर्ण प्रयास हैं ।
२३ मार्च, १९६७
१३४
सच्चे प्रेम को आदान-प्रदान की कोई जरूरत नहीं होती, कोई आदान-प्रदान हो ही नहीं सकता क्योंकि 'प्रेम' केवल एक ही है, एकमात्र 'प्रेम' , जिसका प्रेम करने के सिवाय कोई लक्ष्य ही नहीं है । विभाजन के जगत् में आदान-प्रदान की जरूरत मालूम होती है क्योंकि आदमी 'प्रेम' की बहुलता के भ्रम में रहता है लेकिन वस्तुत: केवल 'एक ही प्रेम' है और कहा जा सकता है कि हमेशा यही एकमात्र प्रेम अपने-आपकों प्रत्युत्तर देता है ।
१९ अप्रैल, १९६७
वस्तुत: केवल एक ही ' प्रेम' है--वैश्व और शाश्वत, उसी तरह जैसे 'चेतना' एक ही है-वैश्व और शाश्वत ।
प्रत्यक्ष दीखने वाले सभी अन्तर व्यक्तीकरण और मानवीकरण द्वारा चढ़ाये गये रंग हें । लेकिन ये हेर-फेर बिलकुल ऊपरी होते हैं । और 'चेतना' की तरह 'प्रेम' की ''प्रकृति'' अपरिवर्तनशील है ।
२० अप्रैल, १९६७
जब तुम 'भागवत प्रेम' को पा लेते हो तो तुम सभी सत्ताओं में भगवान् से ही प्रेम करते हो । तब कोई और विभाजन नहीं रह जाता ।
१ मई, १९६७
एक बार तुम 'भागवत प्रेम' को पा लो तो बाकी सब प्रेम जो, छद्मवेशों के सिवा कुछ नहीं हैं अपनी विकृतियों को छोड़कर शुद्ध हो जाते हैं और तब तुम हर व्यक्ति में, हर चीज में केवल भगवान् से ही प्रेम करते हो ।
६ मई, १९६७
'सच्चा प्रेम' जो तुष्टि देता और आलोकित करता है, वह नहीं है जिसे तुम पाते हो, बल्कि वह है जो तुम देते हो ।
१३५
और 'परम प्रेम' ऐसा प्रेम है जिसका कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता, वह ऐसा प्रेम है जो प्रेम करता है क्योंकि वह प्रेम करने के सिवा कुछ कर ही नहीं सकता ।
१५ मई, १९६८
प्रेम केवल एक ही हे-'भागवत प्रेम'; और उस 'प्रेम' के बिना कोई सृष्टि न होती । सब कुछ उसी 'प्रेम' के कारण विद्यमान है । और जब हम अपने निजी प्रेम को खोजते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं तब हम 'प्रेम' का अनुभव नहीं करते; उस एकमात्र 'प्रेम' का जो 'भागवत प्रेम' है और समस्त सृष्टि में रमा हुआ है ।
५ मार्च, १९७०
जब चैत्य प्रेम करता है तो वह 'दिव्य प्रेम' के साथ प्रेम करता है ।
जब तुम प्रेम करते हो तो तुम अपने अहं द्वारा घटाये और विकृत किये गये 'भागवत प्रेम' के साथ प्रेम करते हो, लेकिन फिर भी तत्त्व में वह 'भागवत प्रेम' ही रहता है ।
भाषा की सुविधा के लिए तुम इसका प्रेम या उसका प्रेम कहते हो, लेकिन वह एक ही 'प्रेम' है जो विभिन्न मार्गों द्वारा अभिव्यक्त होता है ।
तुम बरसों से जिस 'प्रेम' को पाना चाह रहे हो उसे पाने का संकेत मैंने तुम्हें दे दिया है; लेकिन यह मानसिक संकेत नहीं है, और जब तुम्हारा मन नीरव हो जायेगा केवल तभी तुम इसका अनुभव कर सकते हो जो मैं तुमसे कहना चाहती हूं ।
आशीर्वाद ।
१४ मार्च, १९७०
रही बात सच्चे प्रेम की, तो यह वह 'भागवत शक्ति' है जो चेतनाओं को भगवान् के साथ एक होने को प्रेरित करती है ।
२२ मई, १९७१
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