The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
साधना के पहलू
दिव्य मां,
मैं निम्न बातों जानना चाहता हूं :
(१) क्या अन्दर इस मार्ग ले लिए क्षमता सम्भावना हैं ?
यह कोई प्रश्न नहीं है, प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे अन्दर आवश्यक अभीप्सा, दृढ़ निश्चय और अध्यवसाय है और क्या तुम अपनी अभीप्सा की तीव्रता और आग्रह के द्वारा अपनी सत्ता के समस्त अंगों को पुकार का उत्तर देने के लिए और समर्पण के लिए एक कर सकते हो ?
(२) मैं घर लौटने के बाद साधना कैसे जारी रखूं ?
अपने-आपको शान्त करो और शान्ति में मां को१ देखो और अनुभव करो ।
(३) मैं ध्यान कर सकता हूं ? खुलने का मतलब क्या है ? मैं कहां पर खुलूं ?
आन्तरिक शुद्धि और ग्रहणशीलता जो मुक्त भाव से मां के प्रभाव को अन्दर आने दे । हृदय से आरम्भ करो ।
(४) मैं सिर के ऊपर से उच्चतर जीवन के लिए अभीप्सा करता हूं लेकिन मुझे हमेशा माथे के बीच के भाग में भार- सा अनुभव होता है | मुझे क्या करना चाहिये ?
अपने ऊपर अधिक भार न डालो ।
१ सम्भवत.: माताजी ने ये उत्तर लिखवाये थे इसलिए इनमें बार-बार मां शब्द आता है ।
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(५) चैत्य पुरुष कैसे खुलता है ? आधार में चैत्य और प्राणिक सत्ताओं को कैसे पहचाना जाये ?
अभीप्सा की शक्ति और मां की कृपा से ।
चैत्य : तुम्हारी सत्य सत्ता, वह सत्ता जो तुम्हारे हृदय में है, जो मां की अपनी चेतना की एक चिनगारी है ।
प्राण : वह भाग जिससे कामनाएं और भूख और गतिशील क्रियाओं का आरम्भ होता है, जिसका भौतिक आधार नाभि के चारों ओर होता है ।
(६) मेरे परिवार में इतने लोग हैं, स्वयं मेरी पत्नी, दो बेटे एक बेटी । मेरे यहां आकर इच्छा है, लकिन मेरी पत्नी को यह यह स्वीकार नहीं है | मुझे क्या करना चाहिये ?
अनासक्ति ।
(७) मेरी हार्दिक इच्छा कि फिर से कम-से-कम यहां के आ सकृं । कृपया अनुमति दीजिये ।
तुम जब आने के लिए तैयार हो तब सूचना देना । तभी अनुमति दी जा सकती है ।
(८) अपने दैनन्दिन जीवन में मैं उदास हो जाता हूं काम, क्रोध आदि निम्न शक्तियों का बन जाता हूं । मैं आपसे सहायता सरंक्षण के लिए विनम्र प्रार्थना करता हूं ।
(९) मेरी पत्नी अम्बाजी भक्त है । उसकाहृदय उनके आगे खुलता है लेकिन वह सांसारिक बन्धनों से पीछा नहीं छुड़ा सकती । कृपया उसकी सहायता करें ? मैं उसका फोटो भेजूं ?
तुम चाहो तो ।
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(१०) मैं आपको पत्र लिखने की अनुमति मांगता हूं ।
तुम लिख सकते हो ।
(११) मैं अपने दैनन्दिन कामों में क्या वृत्ति अपनाऊं ? मैं अपने परिवार के सदस्य, नातेदारों और मित्रों के साथ कैसे व्यवहार करूं ?
(१२) मैं अभी कौन-सी पुस्तकें पढ़ूं ?
श्रीअरविन्द की पुस्तकें ।
नवम्बर १९२८
*
माताजी की ओर कैसे खुला जाये ? निम्नलिखित उपाय हैं :
(१) हमेशा या समय- समय पर 'आपको' याद करना-
अच्छा है
(२) 'आपका' नाम जपना-
सहायक है ।
(३) ध्यान की सहायता से-
अगर ध्यान करने की आदत न हो तो ज्यादा कठिन है ।
(४) उन लोगों के साथ आपके बारे में बातचीत करके जो 'आपका' मान करते और 'आपसे' प्रेम करते हैं...
खतरनाक है, क्योंकि बातचीत करते समय कुछ ऊटपटांग या कम-से-कम बेकार चीजें कही जा सकती हैं ।
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(५) 'आपकी' किताबें पढ़कर-
अच्छा है ।
(६)'आपके' बारे में विचार करने में समय लगाकर-
बहुत अच्छा ।
(७) सच्ची निष्कपट प्रार्थना से-
आरम्भ करने के लिए तीन अनिवार्य चीजें :
समस्त सत्ता और उसके सारे क्रियाकलाप में सम्पूर्ण सचाई और निष्कपटता ।
कुछ भी बचाये बिना पूर्ण आत्म-समर्पण ।
अपने ऊपर धीरज के साथ काम करना और साथ ही पूर्ण निष्कम्प शान्ति और समता को निरन्तर हस्तगत करते रहना ।
४ फरवरी, १९३२
हमारी मानव चेतना में ऐसी खिड़कियां हैं जो 'अनन्त' में खुलती हैं लेकिन साधारणत: मनुष्य उन्हें सावधानी से बन्द किये रहते हैं । उन्हें पूरी तरह खोलना चाहिये और 'अनन्त' को मुक्त रूप से अपने अन्दर आने देना चाहिये ताकि वे हमारा रूपान्तर कर सकें ।
खिड़कियां खोलने के लिए दो शर्तें जरूरी हैं :
१) तीव्र अभीप्सा ।
२) अहंकार का उत्तरोत्तर विलय ।
जो सचाई और निष्कपटता से काम में लगते हैं उन्हें भगवान् की सहायता का आश्वासन दिया जाता है ।
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'भगवान' जो हम सबके अन्दर सभी चीजों में हैं पाने का अच्छे-से-अच्छा तरीका क्या ?
अभीप्सा ।
नीरवता ।
सौर चक्र के क्षेत्र में एकाग्रता ।
जरूरत हो तो भगवान् से प्रार्थना :
मैं 'तुम्हारा' हूं । मैं 'तुम्हें' जानना चाहता हूं ताकि मैं जो कुछ भी करूं वह उसके सिवा कुछ न हो जो तुम मुझसे करवाना चाहते हो ।
सिर्फ उसी चीज को प्रोत्साहित करो जो तेजी से 'प्रभु' की ओर ले जाती हो और भागवत प्रयोजन को पूरा करती हो ।
परीक्षक
पूर्णयोग में ऐसी परीक्षाओं की एक अविच्छिन्न शृंखला होती है जिनमें से तुम्हें पूर्व चेतावनी के बिना गुजरना पड़ता है और इस तरह तुम्हें हमेशा सावधान और चौकन्ना रहना पड़ता है ।
परीक्षकों के तीन दल ये परीक्षाएं लेते हैं । ऐसा लगता है कि उनका एक-दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं है, उनके तरीके बहुत भिन्न होते हैं । कभी-कभी तो देखने में इतने परस्पर-विरोधी मालूम होते हैं कि ऐसा लगता है कि यह संभव ही नहीं कि वे एक ही लक्ष्य की ओर ले जा रहे हों । फिर भी वे एक-दूसरे के पूरक होते हैं, एक ही उद्देश्य के लिए काम करते हैं और परिणाम की पूर्णता के लिए सभी अनिवार्य हैं ।
तीन प्रकार की परीक्षाएं ये हैं : प्राकृतिक शक्तियों द्वारा नियुक्त, आध्यात्मिक और दिव्य शक्तियों द्वारा नियुक्त और विरोधी शक्तियों द्वारा नियुक्त । इनमें अन्तिम प्रकार की देखने में सबसे ज्यादा भ्रामक होती हैं और इनसे अनजाने में, बिना तैयारी पकड़े जाने से बचने के लिए एक सतत सावधानी, सचाई
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और विनम्रता की अवस्था जरूरी होती है ।
बिलकुल ही मामूली परिस्थितियां, दैनिक जीवन की घटनाएं, देखने में अधिक-से-अधिक नगण्य लोग या चीजें, ये सब इनमें से किसी-न-किसी परीक्षक दल के होते हैं । परीक्षाओं के विशाल और जटिल संगठन में वे घटनाएं जो जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं सबसे सरल परीक्षाएं होती हैं, क्योंकि उनके लिए तुम तैयार और सावधान होते हो । रास्ते के छोटे-छोटे पत्थरों पर ठोकर खाना ज्यादा आसान होता है, क्योंकि वे ध्यान नहीं खींचते ।
सहनशीलता और नमनीयता, प्रसन्नता और निर्भीकता ऐसे गुण हैं जिनकी भौतिक प्रकृति की परीक्षाओं में खास जरूरत होती है ।
आध्यात्मिक परीक्षाओं के लिए अभीप्सा, विश्वास, आदर्शवाद, उत्साह और उदारतापूर्ण आत्मोत्सर्ग आवश्यक हैं ।
और विरोधी शक्तियों की परीक्षाओं के लिए जागरूकता, सचाई और विनम्रता की खास जरूरत होती है ।
और यह कल्पना न करो कि एक ओर वे हैं जिन्हें परीक्षा देनी होती है और दूसरी ओर वे जो परीक्षा लेते हैं । परिस्थितियों और समय के अनुसार हम सभी परीक्षक और परीक्षार्थी दोनों होते हैं और यह भी हो सकता है कि तुम एक ही साथ परीक्षक और परीक्षार्थी दोनों होओ । और इससे जो लाभ होता है वह परिमाण ओर गुण दोनों में, तुम्हारी अभीप्सा की तीव्रता और चेतना की जागृति पर निर्भर होता है ।
और अन्त में एक आखिरी सलाह : अपने-आपको परीक्षक के रूप में कभी न रखो । जब कि यह निरंतर याद रखना अच्छा है कि शायद हम किसी महत्त्वपूर्ण परीक्षा में से गुजर रहे हों, यह कल्पना करना बहुत अधिक खतरनाक है कि तुम औरों की परीक्षा लेने के लिए जिम्मेदार हो । यह अत्यधिक हास्यास्पद और हानिकर प्रकार के दम्भ के लिए खुला दरवाजा है । 'परम प्रज्ञा' इन चीजों का निर्णय करती है, अज्ञानमयी मानवीय इच्छा नहीं ।
१२ नवम्बर, १९५७n
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तुम्हें जब-जब प्रगति करनी होती है तब-तब तुम्हें परीक्षा देनी होती है ।
१२ नवम्बर, १९५७
प्राचीन काल में शिष्य को दीक्षा के लिए अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए कड़ी परीक्षाएं देनी पड़ती थीं । हम यहां उस तरीके का अनुसरण नहीं करते । प्रकट रूप से कोई परीक्षा या कसौटी नहीं होती लेकिन अगर तुम सच्ची बात देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि यहां की परीक्षा बहुत ज्यादा कठिन है । वहां शिष्य जानता था कि वह परीक्षा-काल में से गुजर रहा है और उसे उत्तीर्ण हो जाने पर प्रवेश मिल जाता था । लेकिन यहां तुम्हें जीवन का सामना करना पड़ता है और पग-पग पर तुम पर निगरानी रखी जाती है । केवल तुम्हारी बाह्य-क्रियाओं की ही गिनती नहीं होती । हर एक विचार और आन्तरिक क्रिया को देखा जाता है, हर प्रतिक्रिया की ओर ध्यान दिया जाता है । तुम वन में एकांत में जो करते हो उसका नहीं, जीवन-संग्राम में जो करते हो उसका महत्त्व है ।
क्या तुम ऐसी परीक्षाओं के लिए अपने-आपको प्रस्तुत करने को तैयार हो ? क्या तुम अपने-आपको पूरी तरह बदलने के लिए तैयार हो ? तुम्हें अपने विचार, आदर्श मूल्य, रुचियों और मतों को फेंक देना होगा । हर चीज नये सिरे से सीखनी होगी । अगर तुम इन सबके लिए तैयार हो तो लगाओ डुबकी वरना पास फटकने की कोशिश मत करो ।
सारा जीवन ही साधना है । उसे टुकड़ों में काटना और यह कहना कि यह साधना है और वह नहीं, एक भूल है । तुम्हारा खाना और सोना भी साधना का अंग होना चाहिये ।
(किसी 'पश्चिम' की ओर लौटनेवाले के नाम)
हर चीज ''साधना'' का अंग हो सकती है, यह आन्तरिक वृत्ति पर निर्भर है ।
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स्वभावत: अगर तुम अपने ऊपर पाश्चात्य वातावरण का आक्रमण होने दो तो साधना को विदा ।
लेकिन तुम अपनी अभीप्सा और 'भागवत जीवन' में श्रद्धा बनाये रखो तो अधिक से अधिक जड़ताभरे वातावरण में भी साधना जारी रह सकती है और रहनी चाहिये ।
१९७०
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