CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
 PDF   
The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation
 PDF    LINK

शान्ति और नीरवता

 

स्थिरता

 

    हमेशा स्थिर और शान्त रहने के लिए बहुत सावधान रहो और सम्पूर्ण समचित्तता को अधिकाधिक पूर्णता के साथ अपनी सत्ता में प्रतिष्ठित होने दो । अपने मन को बहुत ज्यादा सक्रिय होकर हो--हल्ले और विक्षोभ में न रहने दो, चीजों के ऊपरी आभास से ही परिणामों तक न जा पहुंचो । जल्दबाजी न करो, एकाग्र होकर स्थिरता में ही निश्चय करो ।

 

*

 

    माताजी, कई दिनों से मैं बड़ा कष्ट पा रहा हूं ? आन्तरिक सत्ता कष्ट

    पाती है । वह हमेशा भागवत चेतना के साथ एक होना चाहती है

    परन्तु बाहरी चेतना के कारण हो नहीं पाती । माताजी सचमुच मैं

    कष्ट पा रहा हूं ।

 

तुम जानते हो कि स्थिर होना अनिवार्य है । तुम्हें स्थिर होने के लिए बहुत कोशिश करनी चाहिये । फिर स्थिरता में श्रीअरविन्द से प्रार्थना करो कि तुम्हें उचित चेतना प्रदान करें । पूरी सचाई के साथ, श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रार्थना करो । एक दिन तुम्हारी प्रार्थना जरूर स्वीकृत होगी ।

 

*

 

    कभी- कभी में बिलकुल स्थिर हो जाता हूं । मैं किसी से बातचीत नहीं

    करता, बस अपने अन्दर ही निवास करता हूं, भगवान् के बारे में

    सोचता रहता हूं । क्या ऐसी स्थिति को हमेशा बनाये रखना अच्छा है ?

 

यह बहुत अच्छी स्थिति है जिसे बिलकुल आसानी से रखा जा सकता है लेकिन वह सच्ची होनी चाहिये; यानी वह स्थिरता का आभासमात्र न हो, वास्तविक और गहरी स्थिरता हो जो तुम्हें सहज रूप से मौन रखती है । ९ मार्च, १९३३

 

*

 

१४६


    पहला कदम है पूर्ण स्थिरता और समचित्तता ।

२८ सितम्बर, १९३७

 

*

 

    तुम्हें कठिनाइयों के बीच भी स्थिर और अचंचल रहना सीखना चाहिये । सभी बाधाओं पर विजय पाने का यही तरीका है ।

 

*

 

    क्या 'स्थिरता' सभी समस्याओं का समाधान कर सकती है ?

 

हां लेकिन इसके लिए स्थिरता पूर्ण होनी चाहिये, सत्ता के सभी भागों में, ताकि दिव्य शक्ति उसके द्वारा अपने-आपको प्रकट कर सके ।

१९६०

 

*

 

    तुम्हें सम्पूर्ण स्थिरता बनाये रखनी चाहिये ताकि अनुभूति भयानक रूप से विकृत और कष्टदायक न बन जाये ।

 

*

 

    'भागवत शक्ति' केवल शान्ति और स्थिरता में ही अपने-आपको प्रकट करती और कार्य करती है ।

२६ जून, १९६७

 

*

 

    स्थिरता को फिर से पा लेना बहुत अच्छा है ।

 

    स्थिरता में ही शरीर अपनी ग्रहणशीलता को बढ़ा सकता है और उसे धारण करने की शक्ति प्राप्त करता है ।

 

*

 

    स्थिरता और तमस् में घपला मत करो । स्थिरता है आत्म-संयत शक्ति,

 

१४७


अचंचल और सचेतन ऊर्जा, आवेशों पर प्रभुत्व और अचेतन प्रतिक्रियाओं पर नियन्त्रण । काम में स्थिरता निपुणता का स्रोत और पूर्णता की अनिवार्य शर्त है ।

 

*

 

 

    आन्तरिक विश्राम को बढ़ाओ । यह ऐसा विश्राम हो जो हमेशा, अधिकाधिक क्रियाशीलता में भी उपस्थित रहे और इतना स्थिर हो कि किसी चीज में उसे हिलाने की सामर्थ्य न हो--और तब तुम भागवत अभिव्यक्ति के पूर्ण यन्त्र बन जाओगे ।

 

अचंचलता

 

    निश्चय ही, अचंचलता तमस् नहीं है । वस्तुत: उचित वस्तु अचंचलता में ही की जा सकती है । मैं जिसे अचंचलता कहती हूं वह है, किसी भी चीज से क्षुब्ध हुए बिना काम करना और किसी भी चीज से क्षुब्ध हुए बिना हर चीज का अवलोकन करना ।

 

*

 

    अचंचल रहो । हमें किसी भी चीज से क्षुब्ध हुए बिना धीरज के साथ काम करते जाना है और अनिवार्य 'विजय' पर अटल, अचल श्रद्धा रखनी है ।

 

*

 

    अचंचलता, अचंचलता, स्थिर और एकाग्र बल, इतना अचंचल कि कोई चीज उसे हिला न सके-यह पूर्ण सिद्धि के लिए अनिवार्य आधार है ।

 

*

 

    आदमी सभी घटनाओं के आगे जितना ज्यादा अचंचल रहे, सभी परिस्थितियों में सम बना रहे, और जो कुछ भी हो उसकी उपस्थिति में

 

१४८


जितना शान्त रहे और अपने ऊपर पूर्ण नियन्त्रण रखे उतनी ही अधिक उसने लक्ष्य की ओर प्रगति कर ली है ।

 

*

 

    अचंचलता में तुम अनुभव करोगे कि भागवत शक्ति, सहायता और संरक्षण हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।

 

*

 

    संकट के समय पूर्ण अचंचलता की जरूरत होती है ।

 

*

 

     अगर तुम पूरी तरह अचंचल और निर्भय रहो तो कोई संगीन चीज नहीं घट सकती ।

 

*

 

     तुम्हें जो एकमात्र चीज करनी है वह है अचंचल रहना, विक्षुब्ध न होना, एकमात्र भगवान् की ओर मुड़े रहना । बाकी सब 'उनके' हाथों में है ।

१७ जुलाई, १९३५

 

*

 

     करने लायक सबसे अच्छा काम यही है : अचंचल रहो, खुले रहो और पुकारो या अवतरण के लिए प्रतीक्षा करो ।

 

*

 

      हमेशा अचंचल, स्थिर और शान्त रहो और पूर्ण सचाई की पारदर्शकता द्वारा दिव्य 'शक्ति' को अपनी चेतना में काम करने दो ।

६ जून, १९३७

 

*

 

       केवल अचंचलता और शान्ति में ही तुम जान सकते हो कि करने

 

१४९


लायक सबसे अच्छी चीज क्या है ।

३ नवम्बर, १९३७

 

*

 

     तूफान समुद्र की सतह पर ही है, गहराइयों में सब कुछ अचंचल है ।

२८ मई, १९५४

 

*

 

      माताजी,

 

      मैं एक ऐसी स्थिति में आ गया हूं जहां लगता हे कि मैं कुछ भी नहीं

      समझता। मेरे पास शब्दों या विचारों की या समझ की कमी नहीं है,

      कमी है 'वास्तविकता' के सत्य के भाव की, 'सत्ता' और दिग्दर्शन

      की शक्ति की। यह जरा भी सुखद स्थिति नहीं है

 

कल रात दस और ग्यारह के बीच तुमने यह सब मुझसे कहा था और चूंकि तुम कुछ बेचैन थे इसलिए मैंने तुमसे कहा,  "सबसे पहले तुम्हें अचंचल होना चाहिये ।'' सारी चीज बहुत स्पष्ट थी, और मैं तुम्हारे विचार की शक्ति की सराहना करती हूं लेकिन मैं अचंचल और स्थिर होने की आवश्यकता पर जोर देती हूं । यह अनिवार्य है ।

 

      मेरे प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

२१ जून, १९६२

*

 

      उद्विग्न मत होओ ।

      अचंचल रहो और सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

      प्रेम और आशीर्वाद ।

१४ मई, १९६७

 

*

 

       आध्यात्मिक शक्तियां अचंचलता, शान्ति और नीरवता में काम करती है |

 

१५०


    सारी उद्विग्नता और उत्तेजना विरोधी प्रभाव से आती हैं ।

फरवरी, १९७१

 

*

 

    सच्ची 'शक्ति' हमेशा अचंचल होती है । बेचैनी, उत्तेजना, अधीरता दुर्बलता और अपूर्णता के निश्चित लक्षण हैं ।

 

*

 

    अचंचल रहो, अपने-आपको अनासक्त करके साक्षी की तरह अवलोकन करने की कोशिश करो, आवेश में आकर क्रिया करने की समस्त सम्भावना को रोकने की कोशिश करो ।

 

*

 

    तुम्हें बाहरी परिस्थितियों में अचंचलता की खोज नहीं करनी चाहिये, वह तुम्हारे अन्दर है । सत्ता की गहराइयों के अन्दर एक ऐसी शान्ति है जो समस्त सत्ता में, शरीर तक में अचंचलता लाती है--अगर तुम उसे लाने दो ।

 

    तुम्हें उस शान्ति की खोज करनी चाहिये और तब तुम्हें वह अचंचलता मिल जायेगी जिसकी तुम्हें चाह है ।

 

*

 

    अचंचलता हमेशा अच्छी होती है, सच्ची और स्थायी प्रगति के लिए अनिवार्य भी होती है ।

 

    आशीर्वाद ।

२१ अक्तूबर, १९७२

 

*

 

१५१









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates