CWM (Hin) Set of 17 volumes
माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.

माताजी के वचन - II

The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Collected Works of The Mother (CWM) Words of the Mother - II Vol. 14 367 pages 2004 Edition
English
 PDF   
The Mother symbol
The Mother

This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' माताजी के वचन - II 401 pages 2009 Edition
Hindi Translation
 PDF    LINK

सुख और हर्ष

 

 

प्रसन्नता 

 

      प्रसन्नता : 'प्रकृति' की आनन्दभरी मुस्कान ।

 

*

 

   प्रसन्नतापूर्ण प्रयास : भगवान् की ओर जाने के प्रयास में जो आनन्द मिलता है ।

 

*

 

    मानसिक प्रसन्नता : वह हर चीज में आनन्द लेना जानती है ।

 

*

 

 

    प्रसन्नतापूर्ण मन और शान्त हृदय रखो । कोई भी चीज तुम्हारी समचित्तता को न डिगा पाये । हर रोज लक्ष्य की ओर स्थिरता से मेरे साथ बढ़ने के लिए आवश्यक प्रगति करो ।

२१ अक्तूबर, १९३४

 

सुख

 

 

    सुखी हृदय : मुस्कुराता हुआ, शान्त, पूरा खुला हुआ, छायारहित ।

 

*

 

 

    यह कभी न भूलो कि नाटकीय होने की अपेक्षा, चुपचाप प्रसन्न रहकर तुम बहुत ज्यादा सहायक होते हो ।

अक्तूबर, १९३२

*

 

१९८


    प्रसन्न रहो मेरे वत्स, प्रगति का यह सबसे अधिक निश्चित मार्ग है ।

१२ अप्रैल, १९३४

 

*

 

    सुख-शान्ति उतनी ही संक्रामक है जितनी उदासी-सच्ची गहरी सुख-शान्ति का संक्रमण लोगों तक पहुंचाने से ज्यादा उपयोगी और कोई चीज नहीं होती ।

२५ अक्तूबर, १९३४

 

*

 

     खुश रहने की कोशिश करो-तुम तुरन्त दिव्य प्रकाश के निकट होओगे ।

११ जुलाई, १९३५

 

*

 

     वस्तुत: सुखी है वह आदमी जो भगवान् से प्रेम करता है क्योंकि भगवान् हमेशा उसके साथ रहते हैं ।

७ मार्च, १९३७

 

*

 

 

     पिछले दिनों इतनी अधिक समस्याएं मेरे सामने रही हैं |  पता नहीं,

     उन्हें हंसी-ख़ुशी कैसे हल किया जाये ?

 

     'स्थायी' और 'सच्चा' सुख पाने का एकमात्र उपाय है 'भागवत कृपा' पर पूर्ण ओर ऐकान्तिक निर्भरता ।

११ अक्तूबर, १९४१

 

*

 

     हमेशा अच्छे बने रहो तो तुम हमेशा खुश रहोगे ।

१३ अक्तूबर, १९५९

*

 

१९९


     हम हमेशा उचित वस्तु करें तो हमेशा शान्त और सुखी रहेंगे ।

२४ मई, १९५४

 

*

 

     हम अपनी खुशी केवल भगवान् में ही खोजें ।

५ जून, १९५४

 

*

 

     जब भगवान् सच्चा आन्तरिक सुख प्रदान करते हैं तो दुनिया की

किसी चीज में वह शक्ति नहीं होती जो उसे छीन सके ।

५ अक्तुबर, १९५४

 

*

 

     आध्यात्मिक सुख : स्थिर और मुस्कुराता हुआ, कोई चीज उसे क्षुब्ध नहीं कर सकती ।

 

*

 

     हमेशा याद रखो कि तुम जो सुख पाओगे वह उस सुख पर निर्भर होगा जो तुम देते हो ।

२ जून, १९६३

 

*

 

     तुम जो सुख पाते हो उसकी अपेक्षा तुम जो सुख देते हो वह तुम्हें ज्यादा सुखी बनाता है ।

४ जुलाई, १९६५

 

*

 

     अपने सुख के बारे में व्यस्त रहना दुःखी होने का सबसे निश्चित उपाय है ।

 

*

 

२००


     अगर हम अपने सुख को अक्षुण्ण और पवित्र रखना चाहें तो हमें उसकी ओर प्रतिकूल विचारों को आकर्षित न करने पर पूरा ध्यान देना चाहिये ।

 

*

 

      हमेशा सुखी रहना, मेघविहीन और उतार-चढ़ावरहित सुख-अन्य सभी चीजों की अपेक्षा इसे पाना सबसे ज्यादा कठिन है ।

 

 

हर्ष

 

 

      हर्ष तब आता है जब तुम उचित वृत्ति अपनाओ ।

 

*

 

      हर्ष भागवत आदेश का पालन करने से आता है ।

६ मई, १९३३

 

*

 

      आध्यात्मिकता का हर्ष : सच्चे प्रयास का पुरस्कार ।

 

*

 

       एक बार तुम्हें आन्तरिक जीवन के हर्ष का चस्का लग जाये तो फिर तुम्हें कभी कोई ओर चीज सन्तुष्ट न करेगी ।

 

*

 

        ऐसा कोई हर्ष नहीं जिसकी तुलना अपने हृदय में शाश्वत 'उपस्थिति' की अनुभूति से की जा सकती हो ।

४ जुलाई, १९५४

*

 

२०१


      सम्पूर्ण शान्ति का हर्ष : स्थिर और शान्त । ऐसी मुस्कान जो निराश नहीं करती ।

 

*

 

      हर्ष की पुकार : यह विनम्र होती है और कभी-कदास ही अपनी आवाज सुनाती है ।

 

 

परम आनन्द और आनन्द

 

 

       भगवान् के आगे एक नवजात शिशु के समान होने से बढ़कर कोई आनन्द नहीं है ।

१९ अक्तूबर, १९५४

 

*

 

       भगवान् का अपरिवर्तनशील 'परम आनन्द' चेतना में अतुलनीय तीव्रताभरी प्रगति की प्रेरक शक्ति के रूप में अनूदित होता है ।

 

       यह शक्ति अत्यन्त बाह्य सत्ता में शान्त और विश्वासपूर्ण संकल्प के रूप में बदल जाती है जिसे कोई बाधा नहीं उलट सकती ।

२०-२१ अक्तूबर, १९५४

 

*

 

       परम आनन्द को जानना भगवान् को जानना है ।

 

       भगवान् को जानना परम आनन्द को जानना है ।

 

       वे घनिष्ठ और चिरस्थायी रूप में अमिट तादात्म्य के साथ गुंथे हुए है ।

३० अगस्त, १९६७

 

२०२









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates