The Mother's brief written statements on various aspects of spiritual life including some spoken comments.
This volume consists primarily of brief written statements by the Mother on various aspects of spiritual life. Written between the late 1920s and the early 1970s, the statements have been compiled from her public messages, private notes, and correspondence with disciples. About two-thirds of them were written in English; the rest were written in French and appear here in English translation. The volume also contains a small number of spoken comments, most of them in English. Some are tape-recorded messages; others are reports by disciples that were later approved by the Mother for publication.
स्वार्थपरता
हम अपने निजी दर्प और स्वार्थपरता से कैसे पिंड छुड़ा सकते है ?
भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मोत्सर्ग और भागवत इच्छा के प्रति प्रेमभरे समर्पण द्वारा ।
आशीर्वाद ।
१५ मई, १९४४
*
अपनी ओर मुड़ा हुआ प्रत्येक विचार भगवान् पर पर्दा डाल देता है ।
२५ अगस्त, १९४४
'भागवत उद्देश्य' की सेवा करने के लिए हमें स्वार्थपरता से पूरी तरह मुक्त होना चाहिये ।
२६ मई, १९५४
स्वार्थपरता और आत्म-दया से कोई लाभ नहीं होता । ज्यादा अच्छा है कि तुम इन दोनों से पिंड छुड़ा लो--क्योंकि यही दो संकीर्ण गतिविधियां तुम्हें भगवान् की सहायता और उनके प्रेम का अनुभव करने से रोकती हैं ।
२५ मार्च, १९६५
घमण्ड
घमण्ड : प्रगति में बहुत बड़ी बाधा ।
२८६
अन्तरात्मा को नहीं, अहंकार और उसके घमण्ड को हार और मानमर्दन का अनुभव होता है ।
अहंमन्यता
अहंमन्यता : मिथ्यात्व के सबसे अधिक पाये जाने वाले रूपों में से एक ।
दीखने की अपेक्षा होना ज्यादा अच्छा है ।
सच्ची महानता में अहंमन्यता सबसे गम्भीर बाधा है ।
एक समय था जब तुम्हारा आत्मसम्मान बहुत बड़ी सहायता था । उसने तुम्हें बहुत-सी बेवकूफियां करने से यह कहकर रोका कि ये तुम्हारी शान के विरुद्ध हैं लेकिन अब वह तुम्हारे रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है ।
महत्त्वाकांक्षा
माताजी, हमें हमेशा अहंकार के से सावधान रहना चाहिये न ?
निश्चय ही यह ठीक है । महत्त्वाकांक्षा हमेशा गड़बड़ और असमञ्जस का स्रोत होती है ।
१६ मई, १९३४
मन और प्राण के अज्ञानभरे कामों से, किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा
२८७
से अपने-आपको अलग करके 'दिव्य मां' को अपना काम 'अपनी' इच्छा के अनुसार करने देकर आदमी आन्तरिक और बाह्य शान्ति ओर सुख पा सकता है । मेरा ख्याल कि इस तरह हम सचाई और कृतज्ञता के साथ माताजी की सेवा कर सकते है । क्या यह ठीक ?
निश्चय ही । महत्त्वाकांक्षा और अहंकार-भरे हिसाब-किताब के बिना किया गया कार्य, बाहरी और भीतरी शान्ति और आनन्द की शर्त है ।
सभी महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे एक 'सत्य' होता है जो अभिव्यक्त होने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा में रहता है । अब जब कि महत्त्वाकांक्षा चली गयी तो सत्य (योग्यताओं और क्षमताओं) के अभिव्यक्त होने का समय आ गया ।
बहुत सावधानी बरतो कि तुम कहीं ''फूल'' न उठो; लेकिन मैं तुम्हारे साथ हूं । कुछ मजेदार चीज करने के लिए तुम्हारी मदद कर रही हूं ।
ईर्ष्या
मेरी सत्ता के एक भाग ने 'प्रणाम' के बाद दु:खी की आदत डाल ली है । उसे कुछ लोगों से ईर्ष्या होती है । क्या मेरे अन्दर इस बाधा को त्याग का बल नहीं होना चाहिये ?
निश्चय ही । लेकिन तुम्हें यह चीज पूरी सचाई के साथ करनी चाहिये और ईर्ष्या की हरकतों को किसी भी रूप में स्वीकार न करना चाहिये ।
१६ अप्रैल, १९३४
पता नहीं मेरा प्राण हमेशा 'क' से क्यों ईर्ष्या करता है । प्रकट रूप से इसका कोई उचित कारण नहीं हे ।
२८८
ईर्ष्या के लिए कभी कोई कारण नहीं होता । यह बहुत ही निम्न और अज्ञानभरी हरकत है ।
२० अप्रैल, १९३४
ईर्ष्या मन की संकीर्णता और हृदय की दुर्बलता से आती है । बड़े खेद की बात है कि इतने सारे लोगों पर उसका आक्रमण होता है ।
ईर्ष्या और उसका संगी मिथ्यापवाद दुर्बल और क्षुद्र व्यक्ति की उपज हैं ।
क्रोध की अपेक्षा तरस ज्यादा आता है उस पर । हमें चाहिये कि हम उसके प्रति बिलकुल उदासीन बन जायें ताकि हम अविचल निश्चिति के आनन्द का रस ले सकें ।
लड़ाई-झगड़े
तुम यह आशा नहीं कर सकते कि सारी दुनिया तुम्हारी सेवा में हो और सब कुछ उसी तरह से हो जैसा तुम अपने लिए ज्यादा सुविधाजनक समझते हो ।
तुम्हें हर एक के साथ और हर चीज के लिए लड़ना-झगड़ना छोड़ देना चाहिये अन्यथा तुम योग में कुछ भी प्रगति करने की आशा कैसे कर सकते हो ?
२३ सितम्बर, १९३२
यह वृत्ति अपनाओ--किसी व्यक्तिगत झगड़े में किसी का पक्ष मत लो । केवल 'दिव्य शान्ति' , सामञ्जस्य', 'प्रकाश' और 'सुख' के बारे में सोचो और उनके अधिकाधिक पवित्र और शान्त यन्त्र बनो ।
१८ सितम्बर, १९३४
२८९
यह कभी न भूलो कि मैं झगड़ों को पसन्द नहीं करती और दोनों ही पक्षों को समान रूप से गलत मानती हूं । यहां अपनी भावनाओं, पसन्दों, नापसन्दों और आवेशों पर विजय पाना एक अनिवार्य अनुशासन है ।
१ अक्तूबर, १९४३
हां तो "क'' ने मुझे यह कहानी बहुत भिन्न तरीके से सुनायी है । और मैं इस बात के लिए अभ्यस्त हो चुकी हूं कि हर एक मुझे अपने ही ढंग से बातें बतलाता है, उस ढंग से जो उसके सबसे ज्यादा अनुकूल हो । और मैं इसे बहुत महत्त्व नहीं देती । केवल एक ही बात है जिसका मुझे हमेशा खेद होता है और वह हे व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े जो जीवन को इतना कठिन बना देते हैं जब कि थोड़ी-सी पारस्परिक सद्भावना से सब कुछ सामञ्जस्य के साथ सुलझ सकता था ।
२१ जुलाई, १९४७
आपने मुझसे झगड़ा न करने के लिए कहा हे और कहा हे कि हम एक-दूसरे के साथ मिलकर रहें । मैं स्पष्ट कहता हूं कि मैं वह प्रकाश नहीं देखता जिसमें मैं "क'' के साथ सहमत हो सकृं । मैं उस प्रकाश के लिए प्रार्थना करता हूं । मैं आपके आदेश का उल्लंघन करने के लिए क्षमा चाहता हूं । क्या आप मुझे क्षमा न करेंगी ? मां, आपको क्षमा करना पड़ेगा ।
क्षमा और आशीर्वाद तो हैं ही पर इन झगड़ों को रोकने के लिए कुछ-न-कुछ दूसरी व्यवस्था तो करनी ही होगी ।
प्रेम और आशीर्वाद ।
२६ अक्तूबर, १९४८
सम्बन्ध के महत्त्व को समझने के लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है ।
२९०
तुम्हें सब झगड़े एकदम बन्द कर देने चाहियें । वे तुम दोनों की साधना के लिए हानिकर हैं ।
अपना भरसक प्रयास करो और अगर तुम सफल न हो सको तो तुम्हें यह सम्बन्ध छोड़ देना पड़ेगा ।
२३ सितम्बर, १९५१
मैं कभी झगड़ों के बीच में नहीं पड़ती क्योंकि निश्चय ही गलती दोनों की होती हे ।
१० मई, १९५३
जब दो आदमी झगड़ते हैं तो हमेशा दोनों की गलती होती है ।
भले ही तुम झगड़े की पहल करने वाले न होओ फिर भी झगड़ा करना हमेशा गलत है ।
जब तुम झगड़ा शुरू करते हो तो यह मानों भगवान् के कार्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करना होता है ।
हां, ये सब झगड़े बड़ी दुःखद बातें हैं--ये कार्य में भयंकर रूप से बाधा देते हैं और हर चीज को अधिक कठिन बना देते हैं ।
दूसरों की भूलों पर क्रुद्ध होने से पहले तुम्हें अपनी भूलों को याद कर लेना चाहिये ।
२२ जुलाई १९५४
२९१
तुम्हें सभी तरह की बाहरी और भीतरी क्रोध, अधीरता और नापसन्दगी की गतिविधियों से पिंड छुड़ा लेना चाहिये । अगर चीजें गलत हो जायें या गलत तरीके से की जायें तो तुम बस इतना ही कहो ''माताजी जानती हैं'' और चुपचाप यथासम्भव अच्छे-से-अच्छी तरह बिना रगड़-झगड़ के काम करते या कराते चले जाओ ।
यह बात कि कोई अपने दोषों के लिए दुःखी है, --उन्हें ठीक करने के निश्चय को मजबूत बनाने में सहायक हो सकती है, यदि वह चाहे तो ।
लेकिन किसी के दुर्व्यवहार से नाराज होने या रूठने का सचमुच आध्यात्मिक जीवन ओर भगवान् की सेवा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हे ।
तिरस्कार और अपमान से ऊपर रहना तुम्हें सचमुच महान् बनाता है ।
अगर कोई हमारे साथ झगड़ा करने आये क्योंकि एक स्थिति में हमने किसी बात को स्वीकार कर लिया है और दूसरी में अस्वीकार तो क्या किया जाये ? बार-बार की अस्वीकृति से पैदा चारों और की कटुता से बचने के लिए क्या किया जाये ?
रही बात समस्त दुर्भावना, ईर्ष्या, लड़ाई-झगड़े और भर्त्सना की, तो इस स्थिति में भी तुम्हें सचाई के साथ इन सबसे ऊपर उठना चाहिये और कड़वे-से-कड़वे शब्दों के उत्तर में सद्भावनापूर्ण मुस्कान ही देनी चाहिये और जब तक तुम अपने और अपनी प्रतिक्रियाओं के बारे में पूरी तरह निश्चित न होओ, एक सामान्य नियम के रूप में यही ज्यादा अच्छा होगा कि तुम चुप ही रहो ।
६ अक्तूबर १९६०
२९२
जैसा हमेशा होता है, यह केवल गलतफहमी है और फिर हमेशा की तरह ही हर एक का अहंकार अपनी प्रतिक्रिया द्वारा चीज को बढ़ा-चढ़ाकर गम्भीर बना देता है । लेकिन इसकी व्यवस्था करना आसान है और मुझे विश्वास है कि सबकी सद्भावना के साथ सब ठीक हो जायेगा ।
मेरा मानना है कि हमारी व्यक्तिगत और सम्मिलित साधना के लिए उत्तम अवसर हमारे सामने है और इसीलिए मैं अपने-आपको इसमें लगाती हूं और इसमें विशेष रस लेती हूं ।
हम क ''के नाटक की या ''ख'' के नाच या "ग'' के दृश्यलेख की सफलता के लिए काम नहीं करते ।
हम धरती पर अपने काम की सम्पन्नता के लिए भेजी गयी प्रभु की प्रेरणा को भरसक पूर्णता के साथ भौतिक रूप में चरितार्थ करना चाहते हैं ।
और इसके लिए हर एक अन्तरात्मा सहायक और सहयोगी है पर हर एक अहंकार सीमांकन और बाधा है ।
१९६०
स्पष्ट ही अपने-आपको ऐसी छोटी-मोटी चीजों के कारण विचलित होने देना बहुत खेदजनक है । अगर हर एक अपने काम को वास्तविक महत्त्वपूर्ण काम मानकर उस पर ज्यादा ध्यान दे तो ये सब झगड़े अपने असली रूप में यानी अत्यन्त उपहासास्पद रूप में दिखायी देंगे ।
मैं आशा करती हूं कि जल्दी ही सब कुछ निपट जायेगा और बेकरी के कार्यकर्ताओं में फिर से सामञ्जस्य का राज होगा ।
आशीर्वाद सहित ।
मेरे आशीर्वाद और मेरी सहायता हमेशा तुम्हारे और बेकरी में काम करने वालों के साथ है ताकि तुम्हारे अन्दर सामञ्जस्य का अधिकाधिक राज हो ।
२९३
यह जगत् दयनीय दुःख-दैन्य से भरा है लेकिन सभी प्राणियों में सबसे अधिक दयनीय वे हैं जो इतने नीच और दुर्बल हैं कि अपनी दुष्ट प्रकृति दिखाये बिना रह नहीं सकते ।
१८ सितम्बर, १९६३
मुझे शत्रुता, जुगुप्सा और अविश्वास बिलकुल व्यर्थ लगते हैं । हम सब कितनी आसानी से मित्र बन सकते हैं ।
'परम प्रभु' जब धरती पर मनुष्यों के जीवन को देखते हैं तो 'अपने- आप' से यही तो कहते हैं ।
१४ सितम्बर, १९६९
हम एकता की बातें करते हैं और कहते हैं कि हम उसके लिए कार्य कर रहे हैं । लेकिन झगड़े की भावना हमारे अन्दर बनी रहती है । क्या हम इस कपट पर विजय न पायेगंए ?
मैं यहां तुमसे यही कहने के लिए आयी हूं । और सबसे अच्छा तरीका है भगवान् की सेवा में लग जाना ।
१२ मार्च, १९७२
कोई विवाद नहीं, कोई झगड़े नहीं--टकराहटरहित जीवन की मधुरता ।
हृदय में से विभाजन को निकाल बाहर करो और फिर विभाजन न होने की बात करो ।
२९४
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